हमारे समाज में मानव का मूल्य निरन्तर गिरता जा रहा है। रुपये, धन, जायदाद, बाह्य प्रदर्शन का स्तर उत्तरोत्तर बढ़ा है। रुपये के लिये मनुष्य की ...
हमारे समाज में मानव का मूल्य निरन्तर गिरता जा रहा है। रुपये, धन, जायदाद, बाह्य प्रदर्शन का स्तर उत्तरोत्तर बढ़ा है। रुपये के लिये मनुष्य की बहुमूल्य वस्तु उसकी इन्सानियत, इज्जत, आत्मप्रतिष्ठा, सेवाएँ सब कुछ बिक रही हैं। हम देखते हैं सूदखोर साहूकार गरीबों से सूद ले लेकर रक्त चूस कर मोटे बनते जा रहे हैं, वे लोग अपनी आय बढ़ाने की फिक्र में हैं। सरकारी अफसर रिश्वत लेने के नए तरीके सोच रहे हैं। बाजार में खाद्य पदार्थों में मिलावट, घी में वनस्पति का मिश्रण दही में अरबी, दूध में खरिया, अनाज में मिट्टी, आटे में बुरादा मिलाया जा रहा है। दफ्तरों में ऊपर की आमदनी का महत्व बढ़ता जा रहा है। पुलिस विभाग तथा कचहरियों में भ्रष्टाचार, पक्षपात और अनैतिकता खूब फैल रही हैं। समाज का नैतिक स्तर नीचा होता जा रहा है। जीवन की सहजता और स्वाभाविकता मानो लोप हो गई है, और उसके स्थान पर आ गई है, घोर कृत्रिमता। अन्दर एक बात है, बाहर दूसरी। खरी बात सुनने का दम सब भरते हैं, पर सुनाता कोई नहीं, क्योंकि इसका फल जो भोगना पड़ता है, उसकी तैयारी नहीं होती। इसलिये सारे समाज में एक विचित्र परिस्थिति पैदा हो गई है। राजनैतिक जीवन में, साहित्य, समाज क्षेत्र हर जगह यही कृत्रिमता दिखाई देती है। शिष्टाचार के नाम पर असत्य और अतिरंजित बातों को प्रश्रय दिया जाता है। नकली और कृत्रिम मूल्यों का महत्व बढ़ गया है। एक प्रकार की कृत्रिम, छिछोड़ जीवन प्रणाली समाज में घर करती जा रही है। बाहरी दिखावे का प्रलोभन ज्यादा है, आन्तरिक तथ्य कम है।
आज का सम्पूर्ण संसार मोटे तौर पर दो बड़े भागों में विभक्त किया जा सकता है।
(1) शोषक अर्थात् वह वर्ग जो आध्यात्मिक नैतिक, ज्ञान-विज्ञान की शक्तियों से शासन का आनन्द भोग रहा है। यह वर्ग हर प्रकार की ऐश-आराम, विलास का जीवन व्यतीत करता है, आज के अन्य सदस्यों द्वारा अर्जित खाद्य पदार्थों, भौतिक साधनों दैनिक व्यवहारों की चीजों की प्रचुरता का आनन्द लेता है। कल कारखाने, वायुयान, रेल, जहाज, लोहे के हथियार और औद्योगिक संस्थाओं, जमींदारों की बागडोर हाथ में है।
हम देखते हैं कि मानव समूहों में हो रहे कठोर तम शोषण और संघर्षों के प्रधान कारण तीन रहे हैं।
(1) अर्थनीतिक,
(2) वर्ग या जातिगत और
(3) मत या धर्म गत। प्रथम महायुद्ध में अर्थनीतिक कारण था, दूसरे में अर्थनीतिक के साथ साथ मत सम्बन्धी भी कारण संयुक्त हो रहे थे। यदि भविष्य में तृतीय महायुद्ध हुआ तो उसमें अर्थनीतिक, जाति तथा मत वैषम्य-ये तीनों ही कारण मौजूद होंगे।
धर्म अत्यन्त पवित्र मानवीय आत्माभिव्यक्ति है। धर्म की उत्पत्ति मानवता के कल्याण से जुड़ी हुई है। संसार के सब ज्ञान, अनुभव, नैतिक प्रगति का नवनीत धर्म ही है। सच्ची धर्म भावना से मानव मात्र का कल्याण होता है, किन्तु हम देखते हैं, आज के युग में धर्म की आड़ में धर्मान्धता का प्रचार हो रहा है, साम्प्रदायिकता का जाल बिछता जा रहा है, धार्मिक संस्थाओं में आडम्बर भोग विलास तथा बाह्य प्रदर्शन बढ़ते जा रहे हैं। झूठे सार हीन धर्म विश्वास, रूढ़ियां, कट्टरता, धर्मान्धता, अज्ञान पारस्परिक विद्वेष फैला रहे है। मठ मन्दिरों जिनकी जिन पवित्र सेवा, त्याग, निस्वार्थ, भावना के उच्च उद्देश्यों के लिए स्थापना की गई थी, वे समय की गति से विलुप्त हो गए हैं। धर्म’ मनुष्य जीवन की प्रधान आवश्यकता है। पूजा और उपासना से मनुष्य का अन्तःकरण निर्मल होता है और आत्म बल बढ़ने से आत्मा सच्चे सुख एवं शान्ति की ओर अग्रसर होता हे। आज धर्म एवं उपासना के नाम पर केवल कुछ रूढ़ियां प्रचलित रह गई हैं। इसमें सुधार होना मनुष्यता की रक्षा के लिए अत्यन्त आवश्यक है। धार्मिक विश्वास हमारे प्रत्येक कार्य और विचार ओत प्रोत होना चाहिए। जीवन की गतिविधि साधनामय होनी चाहिए।
आज प्रजातन्त्र का युग है किंतु प्रजा अशिक्षित मूर्ख, अन्य विश्वासों, रूढ़ियों, धार्मिक कुचक्रों में बंधी हुई है। अवसरवादी ढोंगी नेता, भोली जनता की अशिक्षा से लाभ उठाते हैं। प्रजा का शोषण चलता है। अधिकारी समझता है कि यह उसका अन्तिम अवसर है। अतः वह उचित अनुचित रूप से अधिकतम रुपया खींच लेना चाहता है। रुपये के बल पर वोट मिलते हैं, जनता को धोखे में डाल दिया जाता है। कल जो किसी रिश्वत-खोरी, बेईमानी या अनुचित कार्य करने पर निकाल दिया गया था, आज वही रुपये तथा प्रोपेगेन्डा के बल पर जन नेता का स्वाँग बनाता है। कुछ राजनैतिक पार्टियाँ धर्म और साम्प्रदायिकता की आड़ में अपना स्वार्थ सिद्ध करती हैं। कोई किसान मजदूरों का नारा लगाकर जनता की सहानुभूति खींचना चाहता है। आज राजनीति के क्षेत्र में अजीब खींचतान, संघर्ष, झूठ, कपट, प्रोपेगेन्डा, स्वार्थसिद्धि चल रही है।
मानवता के सच्चे वाहक वेद
वेदों की सब से बड़ी विशेषता, जिसे भारतीय और विदेशी, दोनों प्रकार के विद्वानों ने स्वीकार किया है, यही है कि उसमें कहीं सम्प्रदायवाद का चिन्ह नहीं मिलता। उसमें जितने उपदेश दिये गये हैं, वह मनुष्य मात्र के लिये हैं। उसमें न तो कहीं किसी दूसरे धर्म का नाम आया है और न किसी की निन्दा और अपनी प्रशंसा की गई है। उसमें तो केवल ऐसे कर्तव्य और मार्गों का निर्देश किया गया है जिससे मनुष्य अपना और दूसरों का कल्याण कर सके। यह एक बहुत बड़ा अन्तर है, जो वेद को संसार के समस्त धर्म ग्रन्थों से उच्च ठहराता है। अन्य सब ग्रन्थों में किसी एक मत की प्रशंसा की गई है उसी को सत्य बता कर ग्रहणीय ठहराया है और उसके सिवा अन्य सबको मिथ्या अथवा भ्रमपूर्ण बताया है। इससे एक तो यह बात सिद्ध होती है कि वेद वास्तव में सर्वाधिक प्राचीन है जब कि संसार में किसी अन्य मतमतान्तर का अस्तित्व न था।सभी धर्मो के शास्त्र अद्भुत शक्तियों से भरे हुए हैं। इन शास्त्रों में मानव कल्याण की संकल्पना छिपी है, न कि किसी धर्म विशेष की।जिस प्रकार वर्षा की बूंदें हर धर्म और सम्प्रदायों के लोगों को भिगोती हैं, उसी प्रकार इन शास्त्रीय ग्रंथों से निकलने वाली कृपा सभी धर्मो के लोगों के लिए बराबर है। प्रभु कृपा किसी धर्म और सम्प्रदाय तक सीमित नहीं है। कृपा का आलोक हर धर्म, सम्प्रदाय और मत के लोगों को बराबर आलोकित करता है। जिस प्रकार एक पिता अपने चारों पुत्रों पर एक समान दृष्टि रखता है, उसी प्रकार परम पिता परमात्मा सभी धर्मो के लोगों पर समान दृष्टि रखता है।
मानवता की रक्षा
मानवता की रक्षा का एक मात्र उपाय यह है कि मानव के सर्वांगीण विकास में जो सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक या अन्य बाधाएं हैं उन रोड़ों को तोड़ दिया जाय। प्रत्येक मानव यह कार्य करे, अत्याचार, अविचार और अनाचार का निर्भीकता से डट कर सामना किया जाय। यदि हमें अन्य राष्ट्रों की प्रतियोगिता में जीवित रहना है, तो समाज के प्रत्येक व्यक्तियों को जाग्रत करना होगा, उसे शिक्षित कर आचार विचार, कर्तव्य अकर्तव्य पाप पुण्य का विवेक सिखाना होगा, सब की जिम्मेदारी स्वयं अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी। इस प्रकार सबको समुन्नत संगठित कर आगे बढ़ाना होगा। निम्न आचरणों को समाज में प्रत्यारोपित कर हम मानवता की भावना को समाज में प्रतिस्थापित करने का प्रयत्न कर सकते हैं।
1. संगठित प्रयत्न
2. अन्धविश्वास, अति विश्वास से दूरी
3. रूढ़ियां दूर करनी होंगी।
4. सम्वेदना शील हृदय की आवश्यकता है।
5. यम नियम का पालन करना होगा।
6. आवश्यकताओं पर नियंत्रण करना होगा।
7. पारस्परिक सद्भाव को बढ़ाना होगा।
8. सबसे सद्व्यवहार करना ही शोभनीय है।
9. गुणग्राहिता को प्राथमिकता।
हम भावी मानव के लिए निष्कंटक, आलस्य हीन, प्रमाद-रहित, आडम्बर विहीन, सरल सादा, उच्च विचारों वाला जीवन चाहते हैं। पाश्चात्य सभ्यता एवं विदेशी संस्कृति से हमें आँख मूँद कर प्रभावित नहीं होना है। हमें भारतीय संस्कृति की पृष्ठ भूमि पर मनुष्यत्व का विकास करना है। हमारा अन्तिम ध्येय तो वह साँस्कृतिक स्वराज्य है। जिसमें सब सुखी हों, सब सम्पन्न शिक्षित प्रकाश मान हों, हमारी जरूरी माँगें पूर्ण हों, साहित्य कला ज्ञान विज्ञान की वृद्धि हो, और स्वास्थ्य सुख एवं शान्ति के सब साधन मानव मात्र के लिए सुलभ हों।
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