(1) अर्थ युग का चमत्कार जीने की कोशिश करता इंसान मगर कहाँ वह जी पाता पेड़ से गिरी सूखी पत्तियों को पता है हमारा अतीत- तब किसी की ...
जीने की कोशिश करता इंसान
मगर कहाँ वह जी पाता
पेड़ से गिरी सूखी पत्तियों को
पता है हमारा अतीत-
तब
किसी की दबी-दबी सिसकियां
मद्धिम-मद्धिम-सी चीखें
कानों में पड़ती थीं तो
दिल मोम की तरह पिघल जाता था
और आत्मा की खुशबू
एक सपना बुनकर
ढक देती थी
बहकी हुई फ़िजाओं को
लेकिन अब-
कानों ने यह सब सुनना छोड़ दिया है
हृदय पत्थर-सा हो गया है
दिलों ने खो दिए हैं इंसानियत के रंग
भस्मासुरों ने ले लिए हैं अवतार
बेशर्म आंखें देखती हैं
लूट, हत्या और बलात्कार
जिन जिनको लगाया गले
वो निकला आस्तीन का सांप
रिश्तों को छलनी कर दिया है
झूठ, कपट, बेशर्मी के शूलों ने
कुछ अपनी, कुछ परायों की
घुटती, दबती श्वासों को
देखकर-सुनकर
उभरता एक ही शाश्वत प्रश्न
क्या यही है अच्छे दिन का बोध
क्या यही है अर्थ युग का चमत्कार!
(2)
निराश नहीं है वह आदमी
अनाज मण्डी में
कंधे पर बोरियां ढोता
बीड़ी के कश से धुँआ उड़ाता
पसीने से तरबतर
वह आदमी
अपने सपनों के खो जाने से
निराश नहीं है
उसे दिखाई देती है-
टूटी खटिया पर लेटी
खांसती हुई बूढ़ी माँ की
दवा की खाली बोतल
वह देखता है
अपनी सयानी हो रही मुनिया को
जिसकी आंखों में पलने लगे हैं
भविष्य के सुहाने सपने
फट गई किताब और टूटे पेन को
बदलने की जिद करते
थक कर सो गया प्यारा मुन्ना
और करवट बदलते हालात
लोडिंग गाडियों के हॉर्न
अनाज के ढेरों पर बोली लगाते दलाल
नोट गिनता मुनीम
और हँसते-खिलखिलाते जमींदार
उसके उदास क्षणों को नहीं देख पाते
नहीं पहचान पाते
उसकी सिसकती आत्मा को
नोन, तेल, लकड़ी की चिंता
वह फिर बीड़ी के कश में भुला देता है
जिजीविषा उसे
ज्यादा बोरियां ढोने को
मजबूर करती हैं
ख्वाबों के झोंके खो जाते हैं
भूख और रोटी की जंग में
निराश नहीं है वह आदमी
जिन्दगी से
न कोसता है कभी
विधि के विधान को
अपनी प्यारी आँखों से
अपने दोनों हाथों को देखता है
फिर पूरे जोश से ढोता है
एक नई बोरी
कुछ नये सपनों के साथ।
(3)
एक नई सुबह
मेरे दोस्त,
तुम सोचते हो
मैं कब तक तुम्हारी
टूटी हुई बैसाखियों का
सहारा बनता रहूँगा
कई बार बिना चले भी थक जाते हैं पांव
उड़ने को आजाद पंख
पर बिना उड़े ही हो जाता है
हारने का भ्रम
अक्सर पंख तो खुलते हैं
पांव भी चलते हैं
पर टूट जाता है हौसला बार-बार
आकाश कितना निरभ्र है
मन कितना दुरूह
याद है-
मैंने कहा था एक दिन
चुन-चुन कर आकांक्षाओं के सुनहरे पंख
उड़ता रहूंगा हौसलों की उड़ान
दिखाता रहूंगा तुम्हें
भविष्य के सुनहरे सपने
मैं हमेशा रहूंगा तुम्हारे साथ
तुम्हारे लिए गढ़ने
भविष्य की एक मजबूत इमारत
तुममें अंकुरित करता रहूँगा स्वप्न
अपनी खिली हुई मुस्कान से
समय का सूरज
अपने हाथों को हिलाकर
बोध कराता दिखाई देगा
एक नई सुबह का।
(4)
अर्थ खोते रिश्ते
रिश्ते जो टूटते रहे सदियों से
जाने अनजाने
प्यार और जीवन की परिभाषा करते-करते
गढ़े हुए रिश्ते अपना अर्थ खो चुके हैं।
एक नदी बहती है रेगिस्तान में
खण्डहरों में भी जीवन पलते हैं
संबधों के जुगनू चमकते हैं
नक्षत्रों की गणना और भाग्य की रेखाओं में
नहीं मिलता एक भी सजीव दिन।
यह जीवन जो नरक है
वही अमरता है
सपनों के क्षितिज कितने लम्बे चौड़े हैं
कि एक सूरज
जिसे मुट्ठी में कैद कर लिया है
तुम कहते हो कि हालात बदल रहे हैं।
उजाले कि खोज में
हम इतना आगे बढ़ गए कि
चकाचौंध में स्वयं की रोशनी भी खो बैठे।
इच्छाओं का जंगल जल चुका है
आज हिल रहा है संबंधों का वृक्ष
टूटते मूल्यों की आंधी से।
(5)
स्मृतियों के पांव
सागर की लहर
निकट आकर
अनस्पर्शित दम तोड़ देती है
न जाने कहां विलुप्त हो जाती है
हर बार
कोई मरूभूमि नहीं है
यह जिन्दगी कि
दौड़ती रहे मृग जल के पीछे
और प्यास इंतजार बन जाए
कि चन्द्र किरण हर रात
गन्तव्य तक पहुँचाने से पहले
भटका क्यों जाती है
हर क्षण तुम्हारे होने का
अहसास रहता है
दर्पण में मेरी जगह
तुम्हारा प्रतिबिम्ब क्यों दिखाई देता है
बहुत दूर हो तुम
इतनी दूर कि
नहीं आ पाओगे
स्वप्नों की दुनिया में भी
क्या जुड़ पाएगी
टूटे संबंधों की डोर
क्या आ पाएगी फिर से
मुरझाए विश्वासों की भोर
बहुत दिनों के बाद
कंटीली झाडियों के बीच हमने
पगडंडियां गढ़ी हैं
दूर से आती रोशनी की हर किरण
उम्मीद की शक्ल में ढलने लगती है
स्मृतियों के पांव
धीरे-धीरे एक निश्चय पर पहुँच रहे हैं
जोडने को एक टूटा हुआ क्रम
गहन अंधकार अब
भटकायेगा नहीं
सागर की लहरें अब
आलिंगन करेंगी
मरूभूमि में भी खिलेगा अब
आशा और विश्वास का गुलाब
(6)
हाथ में बसंत
एक हाथ में बसंत
दूसरे में पतझड़ लेकर
अनुभूतियों के बोझ तले
बनाए थे हमने सपनों के घरोंदे
संदर्भहीन जीवन के समझौतों में
रिश्तों के परिभाषित हो जाने पर
कहां तक जायेंगे हम...
आखिर कहाँ तक?
मौन के जंगलों में भटकते
और अपनी ही प्रतिध्वनि से डरकर
प्राची के सूर्य और शबनमी दूब से
थकी हुई कुहासों की शाम तक
हम घिसटते रहते हैं
रेंगते रहते हैं...
और कितना सिकुड़ते हैं
फिर भी अपनी जगह ठहरे हैं
एक बोझिल अहसास
पर्त दर पर्त
अंतर्मन के किसी कोने पर
दस्तक देता है बार-बार
क्या ऐसा भी होगा कभी
कि हम पतझड़ से नहीं डरेंगे
और जलते हुए रास्तों पर
एक हाथ बसंत
दूसरे में पतझड़ लिये
चलते ही रहेंगे, चलते ही रहेंगे।
..
परिचय -
राजकुमार जैन राजन
शिक्षा- एम. ए. (हिन्दी)
लेखन विधाएं- कहानी, कविता, पर्यटन, लोक जीवन एवं बाल साहित्य
प्रकाशन- ’नेक हंस’, ‘लाख टके की बात’, ‘झनकू का गाना’, ‘आदर्श मित्र’,‘बच्चों की सरकार’, ‘आदिवासी बालक’,‘पशु पक्षियो के गीत’, ‘एक् था गुणीराम’, ‘सबसे अच्छा उपहार’, ‘प्यारी छुट्टी जिन्दाबाद’, ’बस्ते का बोझ’, ’चिड़िया की सीख’, ‘जन्म दिन का उपहार’, ‘मन के जीते जीत’, मीठी मीठी नींद (सभी हिन्दी), ‘खुशी रा आंसू’ (राजस्थानी), ‘लाडेसर बण जावां’ (राजस्थानी) ज्ीम ठमेज ळपजि (अंग्रेजी) ’मनर जयेइ जय’ (असमिया) आदि बाल साहित्य की पुस्तकों का प्रकाशन।
हिन्दी बाल कहानियों का मराठी अनुवाद 20 पुस्तकों के सेट में प्रकाशित।
’खोजना होगा अमृत कलश’ (कविता संग्रह) एवं ’इसी का नाम जिंदगी’ (संपादकीय आलेख संग्रह) प्रकाशित, लगभग तीन दर्जन पुस्तकें एवं पत्र-पत्रिकाओं में हजारों रचनाएं प्रकाशित
प्रसारण - आकाशवाणी व दूरदर्शन
संपादन- कई पत्र-पत्रिकाओं का संपादन/बाल साहित्य विशेषांक का संपादन
पुरस्कार व सम्मान- ’महाराणा मेवाड़ फाउंडेसन’ के ’महाराणा राजसिंह अवार्ड’, राजस्थान सरकार राजस्थानी भाषा, साहित्य अकादमी के ’जवाहर लाल नेहरू बाल साहित्य सम्मान’, ’भारतीय बाल कल्याण संस्थान के ’राष्ट्र बन्धु बाल साहित्य सम्मान’ सहित राष्ट्रीय/प्रादेशिक स्तर पर एक सौ से अधिक सम्मान
संस्थापक- ‘सोहनलाल द्विवेदी बाल साहित्य पुरस्कार’, रूपये 21000/- ‘डॉ. राष्ट्रबंधु स्मृति बाल साहित्य सम्मान’, रूपये 5100/- ’बालशौरि रेड्डी स्मृति बाल साहित्य सम्मान’, रूपये 5100/-’ ’चन्द्र सिंह बिरकाली राजस्थानी बाल साहित्य सम्मान’, रूपये 5100/- सहित कई साहित्यिक सम्मानों के संस्थापक, पिछले 12 वर्ष से नियमित
विशेष- बाल साहित्य उन्नयन व बाल कल्याण के लिए विशेष योजनाओं का क्रियान्वयन
संपर्क- चित्रा प्रकाशन,
आकोला- 312205,
चित्तौडगढ़ (राजस्थान)
मोबाइल- 09828219919
ई-मेल- licrajan2003@gmail.com
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