(यह लेख भले ही रामदरश जी के अस्सी वर्ष पूरे होने पर लिखा गया था, परन्तु आज 93 वर्ष के होने पर भी रामदरश जी की वहीं अवस्था है और वे आज भी वैस...
(यह लेख भले ही रामदरश जी के अस्सी वर्ष पूरे होने पर लिखा गया था, परन्तु आज 93 वर्ष के होने पर भी रामदरश जी की वहीं अवस्था है और वे आज भी वैसे ही जीवन्त और सक्रिय हैं)
इस पन्द्रह अगस्त को रामदरश जी अस्सी के हो रहे हैं. मित्रों में जिनसे भी चर्चा की, उन्होंने थोड़े अचरज के साथ टिप्पणी की-‘‘अच्छा...अस्सी के! रामदरश जी...? लगता तो नहीं!’’
मुझे यह सुनकर अच्छा लगा. इसलिए कि इस अवस्था में भी रामदरश जी की सीधी देह-यष्टि, चेहरे पर हर समय बनी रहनेवाली प्रफुल्ल हंसी और सबको अपने साथ ले चलने वाला सहयात्री का-सा भाव अभी बचा हुआ है...इसीलिए थोड़ा अचरज होता है, ‘‘अच्छा...रामदरश जी अस्सी के?’’
और फिर अस्सी तक आते-आते बहुतेरे लेखक लिखने में कम, यहां-वहां की ‘उड़ानें’ भरने और लिखने वालों की चिड़चिड़ाहट भरे लंबे-लंबे उपदेश पिलाने में ज्यादा रस लेने लगते हैं. उनके चेहरे, खासकर माथे पर गुरु गंभीरता की इतनी कठिन रेखाएं खिंच जाती हैं कि लगता है, उनसे दूर रहने में ही भला है! पर रामदरश जी में ऐसे लक्षण भी कतई नजर नहीं आते. अब भी लेखन की करीब-करीब ‘सिद्धावस्था’ या एक किस्म की उस्तादी तक पहुंचने के बावजूद, उनमें कुछ नया लिखने और रच पाने का एकदम बच्चों-जैसा निर्मल उत्साह नजर आता है. यहां तक कि कभी-कभी तो जिस गीत या गजल पर काम रहे हों, वह फोन पर ही सुनने को मिल जाती है...और चूंकि वे उस समय सृजन के अत्यंत निर्मल प्रकंप भरे क्षणों से गुजर रहे होते हैं, इसलिए ऐसे वक्त में उनकी मासूमियत और उत्साहभरी आवाज के साथ फोन पर ही उनका चेहरा टटोलने की कोशिश करता हूं, तो बहुत दफा वह एक मासूम-बहुत-बहुत भोले बच्चे का चेहरा लगता है...वह बच्चा जो बरसों पहले गांव से शहर आया था और आज तक ‘गुम’ नहीं हुआ!...अस्सी के रामदरश जी में वह अब भी कभी-कभी झलक उठता है. और यही ललक तब उनमें नजर आती है, जब किसी युवा, यहां तक कि एकदम नए, उदीयमान रचनाकार की कोई कविता, कहानी या लेख पढ़कर वे इस कदर मुक्त भाव से उसकी सराहना करते हैं या उसकी खूबियों को इतने विस्तार से बताने लगते हैं कि हमें अचरज होता है-‘अच्छा! इस उम्र में भी रामदरश जी इतना पढ़ लेते हैं? या इतने सजग हैं!’ यों यह अच्छा है कि उन्होंने इस अवस्था में भी खुद को ‘बुजुर्ग’ होने से बचा रखा है!
ऐसे रामदरश जी का अस्सी का होना उनके तमाम पाठकों और मिलने-जुलने वालों को थोड़ा अचरज में डाल गया हो, तो इसमें बुरा क्या है!...यह तो उनके अच्छे स्वास्थ्य (शरीर के साथ-साथ मन के भी!) तथा प्रफुल्ल, सक्रिय व्यक्तित्व की एक प्रसन्न स्वीकारोक्ति ही है.
यों सच तो यह है कि रामदरश जी की यह अस्सीवीं वर्षगांठ सिर्फ अस्सी वषरें की गिनती से ही पूरी नहीं होती, बल्कि इसके पीछे अपने देश की विराट जनता के सुख-दुख, संवदेना और संघर्षों से सीधे-सीधे जुड़ी उनकी एक से बढ़कर एक दर्जनों कृतियों की रचनात्मक समृद्धि और विपुलता भी है...यानी इन अस्सी वर्षों में कोई साठ-पैंसठ वर्षों की लंबी रचना-यात्रा की बेचैनी और ‘तप’ भी शामिल हैं. शायद इसलिए रामदरश जी का अस्सी का होना केवल उनके निजी जीवन की घटना नहीं है, यह हिंदी साहित्य से जुड़े लेखकों, पाठकों या उससे अनुराग रखने वाले सहृदयों, सभी के लिए एक ‘साहित्यिक पर्व’ से कम नहीं है. एक ऐसा प्रीतिकर क्षण, जब अपनी सहमतियों-असहमतियों के बावजूद हम कृतज्ञता के साथ अपने एक बड़े, वरिष्ठ लेखक को सम्मान देने के लिए एक जगह आ खड़े होते हैं.
यह किताब ‘रामदरश मिश्र : एक अंतर्यात्रा’ इसी सिलसिले की एक कड़ी है. रामदरश जी पर समय-समय पर लिखे गए लेख, संस्मरण, इंटरव्यू एक किताब की शक्ल में आएं, यह इच्छा लंबे समय से थी. वाणी प्रकाशन के भाई अरुण कुमार माहेश्वरी से चर्चा हुई, तो उन्होंने खुशी-खुशी इसे मान लिया. संभवतः एक और नजरिए से रामदरश जी को देखने के साथ-साथ उनका ‘एक और सादा, खुरदरा तथा ज्यादा विश्वसनीय चेहरा’ यह किताब सामने रख सके, जो बहुतों के लिए थोड़ा अनजाना है! उनकी कृतियों पर अपनी बेबाक राय रखते हुए, कहीं-कहीं हो सकता है, मैं थोड़ा अधिक कठोर हो गया हूं. पर यह तो रामदरश जी से ही सीखा है कि भीतर-बाहर से एक होकर जियो, एक होकर लिखो, तभी रचना बनती है.
रामदरश जी के बारे में जब-जब सोचता हूं, एक गांव के आदमी की सहज सादगी या गंवई गंध सबसे पहले आकर रास्ता रोककर खड़ी हो जाती है. जैसे वह उंगली पकड़कर यह बता देना चाहती हो कि प्रकाश मनु, तुम जिस शख्स के बारे में लिख रहे हो, उसके बारे में यह दर्ज करना मत भूलना कि बरसों से दिल्ली में रहते हुए भी, वह दिल्ली वालों जैसा कभी नहीं हुआ और अपने गांव का होकर ही गांव को अलग-अलग शक्लों में जीता रहा...यानी रामदरश जी दिल्ली के होकर भी सबसे पहले तो गांव के आदमी हैं. इतने बरस दिल्ली में रहने के बाद भी वह अपने कुछ-कुछ ग्रामीण चेहरे के साथ लेखकों की भीड़ में दूर से पहचान में आ जाते हैं-सीधी, तनी हुई देह, बगैर उलझाव वाला अकुंठ व्यक्तित्व और प्रफुल्ल आत्मीयता भरी मुस्कान जो बात करने के लिए निरंतर न्योतती है. इस लिहाज से दिल्ली ने उन्हें बहुत कम बदला है. न वह महानगर की चतुराई भरी छद्म विनम्रता कभी अपना सके और न अपना ठेक और बेलाग अंदाज ही छोड़ा. भले ही बहुतों को इससे परेशानी हो जाती हो, लेकिन उनके अपने उन्हें जानते हैं और इसीलिए उनका सम्मान भी करते हैं.
यह रामदरश जी को जानने का एक बहुत बड़ा ‘क्लू’ है...बहुत बड़ी कुंजी है. उन्हें गांव से अलग करके आप उन्हें या उनकी रचनाओं को जान ही नहीं सकते. बहुत संभव है कि अगर आप यह नहीं जानते या संजीदगी से नहीं जानते तो उनकी रचनाएं आपके निकट अपना अर्थ खोलेंगी ही नहीं. उनकी चर्चित कविताओं, कहानियों, उपन्यासों के अलावा उनके निबंध, यात्रा-वृतांत और सहज सादा संस्मरणों में भी सादगी की शक्ल में यह अकृत्रिम गंवईपन व्याप्त है. गांव की धरती, गांव के खेत-खलिहान, गांव की मुक्त प्रकृति, नदी, आकाश और संबंधों की सहज ऊष्मा...सभी कुछ.
बेशक रामदरश जी ने कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, निबंध-साहित्य की लगभग हर विधा में लिखा है और जमकर लिखा है. ‘अपने लोग’, ‘जल टूटता हुआ’ और ‘पानी के प्राचीर’ उनके ऐसे कालजयी उपन्यास हैं जो प्रेमचंद और रेणु की परंपरा को अपने ढंग से आग बढ़ाते हैं और उनकी सम्मानपूर्ण चर्चा के बगैर हिन्दी उपन्यास का कोई भी इतिहास पूरा नहीं हो सकता. इसी तरह रामदरश जी की कविताएं हों, कहानियां या निबंध, उनमें से फूटती एक सहज गंवई गंध उन्हें एक अलग शख्सियत देती है. यों मेरे ख्याल से साहित्य की अनेक विधाओं में समान अधिकार, बल्कि कहिए, ‘उस्तादाना’ कौशल के साथ लिखने के बावजूद अगर उनकी मूल या केन्द्रीय विधा की चर्चा करनी हो, तो शायद वह कविता ही होगी. उनकी कहानियां, उपन्यास, निबंध, यहां तक आलोचना भी-मुझे उनकी काव्य-प्रतिभा का अलग-अलग दिशाओं में विकास या विस्तार ही नजर आती हैं. और उनकी कविता का ‘मूल मर्म’ गीत है, जहां से सहज ही उनकी कविता-यात्रा शुरू हुई और उसकी पृष्ठभूमि में बचपन में मां से सुने हुए भावपूर्ण बहुरंगे लोकगीतों की स्मृति तलाशी जा सकती है. कोई आश्चर्य नहीं कि रामदरश जी ने अपनी आत्मकथा की शुरुआत इसी ‘मर्म बिन्दु’ से की है और उनके समूचे लेखकीय व्यक्तित्व का केंद्रीय मर्म बिंदु भी यही है जिसने उन्हें अपनी राह पर और आगे चलने का बल दिया और हर भटकन से बचाया. एक वक्त था जब उनके सहयात्रियों में गिरिजाकुमार माथुर, शमशेर जैसे कवि भी अकविता के प्रभाव में बहे, बाद में उनमें से कुछ के कनफेशन भी सामने आए. पर रामदरश जी अपनी राह छोड़कर किसी ऐसी ‘बाढ़’ में बहे हों, ऐसा एक भी उदाहरण याद नहीं पड़ता. इससे मालूम पड़ता है, वह जमीन जिस पर रामदरश जी खड़े हैं, कितनी पुख्ता है.
क्या यही वह बुनियादी कारण नहीं कि आज जब तमाम बड़े लेखक ‘न लिखने का कारण’ पर लंबी-लंबी, निरर्थक और उलझाऊ बहसें चलाकर अपने न लिख पाने के लिए बहाने तलाश रहे हैं, वहीं रामदरश जी ने खूब लिखा है-सहज और अंकुठ भाव से लिखा है और हर जगह अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ी है. शायद इसलिए कि उन्हें महज तात्कालिकता के रस-उत्तेजना में बहने के बजाए, साहित्य की निरंतरता, परंपरा से जुड़ने के बोध और अपनी रचना की शक्ति पर कहीं
अधिक भरोसा है. यहीं वजह है कि वे और बड़े-बड़े लेखकों की तरह अपने पाठकों को आतंकित नहीं करते, बल्कि उन्हें अपने साथ जोड़कर चलते हैं. कुछ अरसा पहले चौदह खंडों में छपी रामदरश जी की समूची रचनावली देख जाइए, उसमें कहीं भी कोई उलझाऊ वाक्य या निरर्थक वाग्जाल नहीं मिलेगा. यह हो ही नहीं सकता...शायद इसलिए कि यही चीज रामदरश जी को रामदरश मिश्र बनाती है. वह कविता लिखें या गद्य, उनके व्यक्तित्व की मूल पहचान, उनकी सरल सादगी की गंध उसमें जरूर रहती है. और इसके बावजूद जीवन की बड़ी से बड़ी उलझनों या पेचीदगियों का बयान करने में उन्हें कोई मुश्किल नहीं आती.
असल में, रामदरश जी का व्यक्तित्व हो या रचनाएं, उनकी विशेषता ही यह है कि उनमें बनावट कम से कम है और सहजता ही उसका प्राण है. उनकी हर रचना एक सीधे-सादे लेकिन संवेदना में गहरे धंसे आदमी का बयान है. इसके अलावा उनकी जो चीज सबसे ज्यादा भाती है, वह है गहरी लयबद्ध तल्लीनता. वह हड़बड़ी या उतावली में शायद ही कुछ करते हों. सामने जो प्रस्तुत क्षण है, उसको पूरे मन से जीते हैं. यह कहते हुए रामदरश जी के साथ जिए गए अनगिनत पल मेरी आंखों के आगे को जाते हैं, जिनमें मैं उनकी उस अद्भुत ‘हिन्दुस्तानियत’ से साक्षात्कार कर पाया, जिसमें परंपरा और आधुनिकता बड़े ही आश्चर्यजनक ढंग से मिलकर एकमेक हो जाते हैं.
रामदरश जी से पहली बार मिलने पर जो बात महसूस की थी, उनकी संपूर्ण रचना-यात्रा से गुजरकर उसे और
अधिक शिद्दत से देख-टटोल और महसूस कर पाया. रामदरश मिश्र का यह अर्जित रचनात्मक सत्य है कि-‘‘जो सादा है, वही सुंदर है और शक्तिशाली भी!’’ उनसे मिलने वाले जिज्ञासु और उनकी रचनाओं के पाठक दोनों पर सबसे पहला और गहरा असर इसी का होता है. इसीलिए रामदरश जी भले ही उन लेखकों में न हों जो चर्चा में रहने के ‘गुर’ जानते हैं और इस लिहाज से लिखना जिन्हें सबसे फिजूल कर्म लगता है, लेकिन रामदरश जी अपने लेखन के बल पर वहां जरूर पहुंचे हैं, जहां पहुंचना किसी लेखक का सबसे बड़ा सपना होता है. जो लेखन छोड़कर अन्यान्य कर्मों और करतबों में लगे हैं, कभी शायद उनका भी यही सपना रहा होगा. लेकिन यहां आने का तो सिर्फ एक ही रास्ता है-अपने लेखन पर भरोसा और सहजता और निरभिमानता के साथ खुद को अपने समाज के आमजन से एकमेक कर देना. लिहाजा आश्चर्य नहीं कि एक बड़े लेखक की ‘सिद्धावस्था’ तक पहुंचे रामदरश जी के होने में उन बहुत-से लोगों को अपना होना नजर आता हो जिनके लिए लेखन शगल नहीं, अब भी एक तरह की आस्था है और ‘एक बेहतर दुनिया का सपना’ भी. इस बेहतर दुनिया के लिए लड़ाई रामदरश जी की रचनाओं में भले ही अति मुखर न लगती हो, लेकिन कोई आधे शतक से भी अधिक कृतियों में फैली रामदरश जी की अनवरत रचना-यात्रा के हर सफे में वे बेचैनियां, तकलीफें, गहरी करुणा और छटपटाहट दिखाई पड़ सकती है, जिनके रेशे और अंतःसूत्र मिलकर किसी बड़ी लड़ाई की भूमिका जरूर बनाते हैं.
रामदरश जी घोषित रूप से मार्क्सवादी भले न हों, लेकिन एक मार्क्सवादी लेखक की भीतरी जिद, वैचारिक समझ और लड़ाइयां उनके रचना-संसार में जगह-जगह फैली और दस्तक देती नजर आ सकती हैं. यह दीगर बात है कि रामदरश जी की आस्था किसी विचार या विचारधारा से अधिक अपने समय और अपने समय के आम आदमी के साथ रही है. इसीलिए जहां कई बार बड़े मार्क्सवादी भी चूकते, भटकते और भूल-
सुधार करके वापस लौटते दिखाई देते हैं, वहां रामदरश जी शांत, निरुद्वेग और विश्वासपूर्ण कदमों के साथ अपनी
सीधी-सरल राह पर चलते नजर आ सकते हैं.
इसलिए रामदरश जी की रचनाएं हिंदुस्तान के आम आदमी का पिछले पचास बरस का ‘इतिहास’ या उसके हालात का ‘कच्चा चिट्ठा’ खुद में समेटे हुए नजर आएं, तो कोई आश्चर्य न होना चाहिए. दूसरी बड़ी बात जो रामदरश जी की रचना-यात्रा से गुजरते हुए बार-बार महसूस हुई, वह यह कि एक धीमी-सी शुरुआत के बावजूद लेखक की सिद्धावस्था तक पहुंचने के पीछे रामदरश जी का यह निर्धूम विश्वास ही है कि अंततः ‘रचना ही सबसे बड़ा सत्य है.’ और यही भरोसा तमाम विपरीत स्थितियों से बचाकर उन्हें निरंतर आगे बढ़ने की शक्ति देता है. इसीलिए चौदह खंडों में फैली रामदरश जी की वृहद् रचनावली के आने से उन ‘महानों’ के चेहरे जो सिर्फ ‘वक्तव्यों’ की झड़ी लगाने और चर्चा में रहने के शगल से ही महत्त्वपूर्ण बने रहते हैं और जो लिखना भूल चुके हैं-थोड़े निष्प्रभ और फीके नजर आएं, तो यह अकारण नहीं है. रचना इसी तरह अपनी शांत गति और सरल निरभिमानता से अपनी शक्ति प्रकट करती है.
रामदरश जी की रचना-यात्रा कविताओं से शुरू हुई थी और वे स्वयं को प्रथमतः और मूलतः कवि ही मानते हैं. शुरू में गीत, लेकिन उनकी आगे की काव्य-यात्रा में गीत कम, कविताएं अधिक लिखी गईं. लेकिन यहां यह साफ देखा जा सकता है कि गीतों का कवि अपने समय और परिवेश के किन दबावों के तहत गीत से कविता की ओर मुड़ रहा है. अलबत्ता रामदरश जी की शुरू-शुरू की ‘बेरंग बेनाम चिट्ठियां’, ‘देहाती टीसन’, ‘नींव के पत्थर’, ‘निशान’ सरीखी कविताएं न सिर्फ बढ़िया और दमदार कविताएं हैं, बल्कि ये मिलकर वह पुख्ता नींव भी बनाती हैं, जिस पर आगे चलकर उनकी कविता की पूरी इमारत खड़ी नजर आती है. इसके बाद की रामदरश जी की काव्य-यात्रा में ‘पक गई है धूप’, ‘कंधे पर सूरज’ और ‘दिन एक नदी बन गया’ जैसे एक-एक कर जुड़ते जाते हैं और रामदरश जी के स्वर में न सिर्फ आत्मविश्वास आता है, बल्कि अपना मुहावरा खुद गढ़ने की एक अनायास कोशिश भी यहां देखी जा सकती है. हां, बहुतों को यह बात चकित करेगी कि रामदरश जी अपने तमाम आलोचकों को जो महज उन्हें ‘एक सीधा-सादा कवि’ कहकर एक छोटी पिटारी या खाने में डाल देना चाहता है, कभी-कभी बड़े मजे में खिलाते और छकाते भी हैं. ऐसे श्रीमंत लोग कल्पना तक नहीं कर सकते कि रामदरश जी ‘मृत्यु-बोध’ जैसी कविताएं भी लिख सकते हैं, जो उनके ‘फूले हुए अस्तित्ववादी पेट’ में बड़ी होशियारी से सुई चुभो देती है. और ‘आनंद-बोध’ कविता में तो वे अपने आलोचकों और पाठकों दोनों को लगभग भौंचक्का करते हुए, जिस तरह ‘कुकुरमुत्ता’ के साथ एक ‘जुत्ता’ ले आते हैं, उससे अच्छे-अच्छों की सांस उखड़ सकती है और चेहरा फक हो सकता है. लगता है, कहीं चुपके से रामदरश जी में विद्रोही, अक्खड़ निराला की आत्मा उतर आई है...मैं समझता हूं, रामदरश जी के हर आलोचक को आईने में अपना सही चेहरा देखने के लिए, कम से कम एक बार जरूर वह कविता जरूर पढ़ लेनी चाहिए. इसलिए कि जो उन्हें सूखा आदर्शवादी कवि कहते, उन्हें पता चल जाए कि उनके भीतर हास्य और सलीके से चोट करने का कितना माद्दा है.
यों रामदरश जी की कविताओं के केंद्र में मुख्य रूप से क्रोध नहीं, पारिवारिकता और करुणा ही है, जिसमें ‘मम’ और ‘पर’ का अंतर कम होता जाता है और दुनिया एक ‘घर’ में तब्दील होने लगती है. इधर रामदरश जी ने रोजमर्रा के काम आने वाली चीजों-मेज, चाकू, चम्मच वगैरह पर इंतनी सुंदर और अनौपचारिक किस्म की लंबी कविताएं लिखी हैं कि लगता है, उन्होंने अपने भीतर कई और सीढ़ियां उतरकर, समय के विस्तार और अनुगूंजों को एक अलग अंदाज में पकड़ता बिल्कुल नया काव्य-मुहावरा पा लिया है. गो कि इसका विकास उनके यहां सहज और अनायास ही हुआ है. सच तो यह है कि इधर की रामदरश जी की कविताएं कविता और कथा की लय को एक-दूसरे में गूंथकर एक नया शीर्ष रचती नजर आती हैं.
रामदरश जी की कथा-यात्रा की शुरुआत बेशक उतनी सबल और आकर्षक नहीं रही. उनके मन में अपने ‘कहानीकार’ का वैसा बिंब शायद न था, जैसा अपने कवि का. तो भी यह कम आश्चर्यजनक नहीं कि कहानी के फैशनों की बजाए, अपने अनुभवों पर भरोसा करते हुए वे आगे बढ़े और ‘सन्ध्या’, ‘मनोज जी’ जैसी कहानियों से चलकर ‘खाली घर’, ‘मां, सन्नाटा और बजता हुआ रेडियो’, ‘आज का दिन भी’, ‘फिर कब आएंगे’ और ‘ही इज हेमंत’स फादर’ जैसी कहानियों तक पहुंचे, जिसमें कहानी और संस्मरण घुल-मिलकर एक नई आब पा लेते हैं. ये ऐसी कहानियां हैं जिसमें आज की कहानी, बल्कि कहें कि ‘इक्कीसवीं सदी की कहानी’ के तमाम नए रास्ते खुलते हैं. साफ शब्दों में कहूं तो ये ‘कहानी की मुक्ति’ की कहानियां हैं. ये ‘अद्वितीय’ कहानियां भले ही न हों, मगर ऐसी कहानियां जरूर हैं जो अपने साथ बहा ले जाती हैं और इन्हें पढ़कर अपने समय और समाज की एक बेहतर समझ बनती है. रामदरश जी की कहानियां पाठकों को अपने अनुभवों पर यकीन करने का भरोसा दिलाती हैं. कोई कथा-लेखक इस तरह का भरोसा अपने पाठकों के दिलों में पैदा कर लेता है, तो यह भी यकीनन एक उपलब्धि तो है ही. यों यह भी कोई कम आश्चर्य की बात नहीं कि बगैर किसी बड़बोली घोषणा के, रामदरश जी ने दलितों के उत्पीड़न और स्त्रियों की वेदना पर जितनी कहानियां लिखी हैं, उतनी तो शायद दलितों और स्त्रियों के बड़े ‘मसीहाओं’ ने भी नहीं लिखी होंगी.
तो भी इसमें शक नहीं कि रामदरश जी की कथा-यात्रा का शीर्ष उनकी कहानियां नहीं, उपन्यास ही हैं. खासकर ‘पानी के प्राचीर’, ‘जल टूटता हुआ’ और ‘अपने लोग’ रामदरश जी के इतने बड़े उपन्यास हैं कि आजादी के बाद के हिन्दी के एक दर्जन बड़े उपन्यासों का नाम लेना हो, तो रामदरश जी के किसी न किसी उपन्यास का जिक्र उसमें आएगा ही. रामदरश जी के उपन्यासों को अकसर आंचलिक उपन्यासों के खाते में डालने का आलोचकों का रवैया रहा है, पर मुझे साफ लगता है कि उनका रिश्ता रेणु के ‘मैला आंचल’ या ‘आंचलिक उपन्यास’ के नाम से जानी गई धारा से कहीं अधिक प्रेमचंद से है. वे अपने थोड़े ‘ढीले-ढालेपन’ और खुरदरे विस्तार में प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले उपन्यास हैं. जैसे प्रेमचंद के ‘रंगभूमि’, ‘गोदान’, सरीखे उपन्यासों को आंचलिक उपन्यास कहना किसी कदर उनके कद को घटाना है, इसी तरह रामदरश जी के उपन्यासों को आंचलिक उपन्यास कहना, उन्हें एक तरह से छोटा करना ही है. अपनी कुछ एक आंचलिक विशेषताएं रखते हुए भी, ये जीवन के कहीं अधिक विस्तार को सहेजती खुली कृतियां हैं.
अलबत्ता रामदरश जी की रचनाओं से गुजरते हुए यह बात अच्छी तरह समझ में आ जाती है कि एक लेखक की पहली और बड़ी जिम्मेदारी अपने समय और लोगों के प्रति होती है और यही चीज उसे बड़ा और सिद्ध लेखक बनाती है. दूसरे शब्दों में, यह वह सच्चा मार्क्सवाद है, जो किताबों से कम, गोर्की की तरह जीवन का पाठ पढ़ने से ज्यादा आया है. यह जीवन की खुली भाषा पढ़ने से आया है और इसे हम रामदरश जी में शुरू से आखिर तक लगातार विकासमान देखते हैं. बहुत-सी कमियों और थोड़े ‘ढीले-ढालेपन’ के बावजूद रामदरश जी के रचना-संसार को विश्वसनीय ही नहीं बनाता, शक्ति और सुंदरता से भी भरता है.
वे जो ‘कलावंत’ होने या दिखने के लिए किस्म-किस्म की ‘मुद्राएं’ पहनकर, एक बड़बोलेपन से भरा झूठा साहित्य लिख रहे हैं, ऐसे झुंड के झुंड ‘सूडो इंटेलेक्चुअल्स’ क्यों रामदरश जी की आब का सामना नहीं कर पाते, उनकी ‘चीरहरण वाली’ परपीड़क लीलाएं क्यों इस सहज सुंदर शख्सियत के आगे खोखली और हास्यास्पद जान पड़ती हैं, अगर खोजें तो इन सवालों के जवाब भी हमें यही कहीं नजर आएंगे. और यह भी कि आस्थाओं के संकट के दौर में, रामदरश जी का ‘होना’ लेखकों की मौजूदा पीढ़ी को किस कदर आस्था और विश्वास से भर देता है. रामदरश जी हैं और अपनी सहज, प्रसन्न चाल से, बगैर चाल से, यह कहीं न कहीं आने वाली पीढ़ियों के लिए एक रास्ता भी है-और आस्था से.
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