ध र्मवीर भारती की कहानियों की समीक्षा करते हुए, रामदरश मिश्र ने ‘अनुभवशील आधुनिकता’ की जो बात कही है, वह उनकी कहानियों के संदर्भ में भी उतनी...
धर्मवीर भारती की कहानियों की समीक्षा करते हुए, रामदरश मिश्र ने ‘अनुभवशील आधुनिकता’ की जो बात कही है, वह उनकी कहानियों के संदर्भ में भी उतनी ही सही और समर्थक है, बल्कि अधिक प्रामाणिक भी. वस्तुतः जब एक रचनाकार समीक्षक का धर्म निभाता है तो जाने-अनजाने वे तत्व स्वतः प्रमुखता प्राप्त कर लेते हैं जो रचनाकार समीक्षक के सर्जन के क्षणों में महत्त्वपूर्ण होते हैं. मिश्रजी ने लिखा है, ‘‘आधुनिकता आज की रचना की प्रकृति भी है और उसकी अनिवार्यता भी. किन्तु आधुनिकता क्या है, अनेक बहसों के बावजूद यह तै नहीं हो पाया. आधुनिकता के ठीक-ठीक परिभाषित न होने के बावजूद रचनाओं में आधुनिकता की खोज होती रहती है और इस आधार पर रचना की प्रासंगिकता-अप्रासंगिकता का ही नहीं, उसकी रचनात्मक उपलब्धि और सीमा का भी निर्णय होता चलता है.’’...
मैं समझता हूं कि ‘आधुनिकता बोध’ अपने आप में सही और सार्थक रचना की एकमात्र कसौटी नहीं हो सकता जब तक कि उसके साथ रचनात्मक ईमानदारी और उदात्तता के अन्य तत्त्व जुड़े न हों. रचनागत ईमानदारी रचना को व्यक्ति-समाज सापेक्ष यथार्थ से जोड़ती है और उदात्तता रचनाकार की मूल्यवादी दृष्टि से व्यक्त होती है. पिछले दिनों वस्तुवादी क्रूर दृष्टि और मूल्यवादी दृष्टि को अनिवार्यतः छत्तीस की स्थिति में स्वीकार करनेवाले लेखक-समीक्षकों ने बड़े गलत ढंग से आधुनिकता की परिभाषा की और उसे महानगरीय बोध से जोड़कर वहीं तक सीमित कर दिया. लेकिन आधुनिकता जैसे व्यापक साहित्यिक मूल्य पर खुले नजरिये से सोचना इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि परिवेशगत संपृक्तता को सही रूप से देखा समझा जाये. जब कभी भी परिवेश की बात उठती है तो अनायास ही ‘आधुनिक परिवेश’ जैसा पारिभाषिक शब्द उभर पड़ता है और भारत में बदलते हुए व्यापक जीवन-संदर्भ, जो शहरों से दूर, ग्रामों, कस्बों छोटे नगरों में उभरते हैं, नजर अंदाज कर दिए जाते हैं. यहीं पर उन समीक्षकों और रचनाकारों की दृष्टि भी मुझे सीमित जान पड़ती जो समकालीन के नाम पर किसी भी मूल्य-दृष्टि को नकारते रहे हैं.
रामदरश मिश्र की कहानियों के संदर्भ में आधुनिकता के प्रसंग को उठाना इसलिए जरूरी हो जाता है क्योंकि उनकी अधिकांश उल्लेखनीय कहानियां ग्राम-जीवन पर आधारित हैं, उसकी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति करती हैं. यही कारण है कि उनका अनुभव-जगत, वस्तुवादी दृष्टि तथा विशिष्टता अपने विश्लेषण और मूल्यांकन के लिए कथा-बोध के व्यापक दृष्टिकोण की अपेक्षा करती है.
मिश्रजी के पास ग्राम-जीवन के व्यापक अध्ययन से बनी जीवन दृष्टि है तो नगर जीवन के अध्ययन से उभरी ज्ञानात्मक संवेदना भी है जो उनके रचनाकार को इन दोनों परिवेशों में कोई कृत्रिम दीवार खड़ी न करने की प्रेरणा देती है. मेरी धारणा यह है कि आज के साहित्य में उभरी आधुनिकता विज्ञान और प्रविधि के प्रभाव में जिस विघटन, संत्रास, व्यक्तिवादिता और अकेलेपन, परायेपन के बोध को नगर के संदर्भ में निरूपित करती है, वे सारे संदर्भ ग्राम-जीवन को भी वैसा ही आधार देते हैं. तेजी से नगरों, महानगरों में बदलते जीवन-मूल्य जिस सामाजिकता के लिए खतरा बनते दिखते हैं, उसी प्रकार का संकट गांवों में भी है. यह मिश्रजी के कथाकार की विशिष्टता है कि उन्होंने अपने अनुभव जगत को नितान्त स्वाभाविक और सहज रूप से गांव और नगर के साक्षात्कार ‘कन्फ्रन्ट्रेशन’ तक ही नहीं रखा, बल्कि क्रूर वस्तुवादी दृष्टि से परे, बदलाव का अनुभव करते हुए मनुष्य की उस संवेदना को अभिव्यक्त किया है जो कहीं जुड़ने की विवशता लिए है लेकिन जुड़ नहीं पाती. इस कारण मिश्र जी प्रामाणिक अनुभव के आधार पर कहानी को कभी गांव के छोर से शुरू करके गांव तक ही रखते हैं, कभी उसका फलक बड़ा होकर नगर को समेटता है और कई बार वे शहर से लेकर गांव तक एक ऐसी सड़क बना देते हैं जो बदलाव के धर्म को एक साथ गांव और शहर के आकाश में व्यापक कर देती है.
‘नयी कहानी’ के आन्दोलन के कहानी में जिस अतिरिक्त व्यक्तिवादिता की प्रतिष्ठा हुई थी, वह धीरे-धीरे वाम दृष्टि के आधार पर आम आदमी के चरित्र में बदलती नजर आई.
इधर इस आम आदमी की चर्चा बहुत हुई है और निःसंदेह कुछ समर्थ रचनाकारों के द्वारा आम आदमी की पक्षधरता काफी सशक्त रूप में व्यक्त हुई है. मिश्रजी उन कथाकारों में विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं जिन्होंने सही परिप्रेक्ष्य में आम आदमी की बात आम आदमी के सामने ही रखी है. उनका आम आदमी नगरों की सड़कों पर संत्रस्त जीवन गुजारता है, और गांवों में खेती की मेंड़ों पर संस्कारों और परंपरा से जकड़ा, छूटने के लिए व्याकुल, बदलाव को स्वीकार करने की यातना से बंधा खड़ा है. यह बिंदु ही उनकी कहानियों का बुनियादी तत्व है जिसके आधार पर वे आंचलिकता के सीमित दायरे से निकलकर आधुनिकता के संदर्भ में संवेदनशील कहानीकार के रूप में आते हैं. और क्रूर वस्तुवादी दृष्टि से आगे आकर, व्यापक विघटन के बीच वैयक्तिता की रक्षा करते हुए, सामाजिकता की प्रतिष्ठा करते हैं.
डॉ. नित्यानन्द तिवारी ने मिश्रजी की कहानियों के विषय में लिखा है कि ‘‘उनको पढ़ते ही पाठक को इस बात का विश्वास हो जाता है कि लेखक का सब कुछ भोगा हुआ है. एक-एक पीड़ा का उसने साक्षात्कार किया है. यही तत्व व्यक्त अनुभव को पाठक के लिए इतना आत्मीय बना देता है कि लेख के प्रति वह सहज विश्वासी हो जाता है.’’ ...मैं यहीं से यदि मिश्रजी की कहानयों का विश्लेषण आरम्भ करूं तो एक मूल तत्व की ओर ध्यान देना चाहूंगा...यह तत्व है ‘‘अनुभव की ईमानदारी.’’ इस अनुभव की ईमानदारी के साथ, परिवेशगत सजगता और सक्रियता तथा व्यक्ति-समाज-सापेक्ष क्रूर वस्तुवादिता, एक ऐसे संश्लिष्ट जीवनानुभव का निर्माण करती है जहां आधुनिकता, आम आदमी का संकट और मूल्यवत्ता उनकी रचना को उदात्तता देते हैं.
‘खाली घर’ की सीमा को लेकर ‘एक वह’ की संबंध कहानी तक उनकी कथा-यात्रा में विविध अनुभव व्यक्त हुए हैं-जो इस बात का विश्वास दिलाते हैं कि अनुभव की गहराई के साथ दृष्टिगत वैविध्य भी उनकी कहानियों में पूरी तरह से हैं. सीमा, लाल हथेलियां, मुक्ति, एक औरत एक जिन्दगी, छूटता हुआ नगर-एक व्यक्ति को केंद्र में रखकर लिखी गई कहानियां हैं. इनमें मुक्ति और छूटता हुआ नगर की वेदना सीमा, लाल हथेलियों की वेदना से भिन्न है. उन अनुभूतियों को यदि वेदना न कहकर स्थितिगत अभाव कहा जाए तो अधिक अच्छा होगा. ये कहानियां एक-सी वेदना की कहानियां हैं जहां व्यक्ति अपने किसी अभाव से संत्रस्त है, उसके कारण उपेक्षित भी और टूटा हुआ भी. रचनात्मक धरातल पर व्यक्ति केंद्रित होने पर भी इन कहानियों में परिस्थितियों का चक्र भी महत्त्वपूर्ण है. दरअसल मिश्रजी को स्थितियां इस प्रकार उपलब्ध हुई हैं कि उन्हें कहानी में केवल भीतर से बाहर व्यक्त करना पड़ा है, गढ़ना नहीं पड़ा. यही उनकी कहानियों की स्वाभाविकता और सहजता है. ‘सीमा’ एक पंगु लड़की की कथा है जिसका मन अपनी स्थिति से बुरी तरह टूटा हुआ है और आस-पास वाले व्यक्ति व्यंग्य से उस टूटन को और भी घना बना देते हैं. कहानी का पूरा परिवेश इस रूप में उजागर हुआ है कि भावुकता की वकालत नहीं करता लेकिन यहां वह अपरिहार्य तत्व के रूप में आया है. अनुभव की ईमानदारी ‘सीमा’ को अत्यधिक प्रामाणिक और प्रभावोत्पादक कहानी बना देती है. तो क्या इसकी सफलता का आधार केवल अनुभव है? और क्या यह कहानी मिश्र जी की उन कहानियों में आती है जो संदर्भों की व्यापकता के कारण अधिक सफल हैं. दरअसल प्रारंभिक कहानियों में लेखक की रचनात्मक शक्ति संवेदनात्मक गहराई तक विचरण करती ही है...और बाद में विविध संदर्भों से जुड़कर...विस्तृत फलक पर उभरी है. सीमा में फलक विस्तृत नहीं है. ‘सीमा’ में ही नहीं, ‘बादलों भरा दिन’ में भी फलक सीमित है. अन्य कहानियों में इस सीमितता को मिश्रजी भावनात्मक उद्वेग से पूरा करते हैं, पर ‘बादलों भरा दिन’ में यह संभव नहीं हो पाया है. वहां पर वर्णित स्थितियां रचनात्मक उद्वेग का पर्याय नहीं बन पाई हैं बल्कि पाठक के संदर्भ में यह केवल एक खास स्थिति की अभिव्यक्ति ही रह जाती हैं. यह कहानी स्थितियों की अभिव्यक्ति करते ‘क्रियेशन’ के गहरे अर्थों से जुड़ी कहानी है. सीमा के बाहर आकर खुले में अपने को पाना, व्यक्ति को कितना प्राणवान बना देता है. ‘सीमा’ की सीमा जब चाचा शर्मा जी की मदद से रेलिंग पर आ जाती है तो वह ताजगी महसूस करती है, उसका फैला हुआ असीम आकाश कुछ छोटा हो जाता है. इस कहानी से ही इन प्रश्नों को उभारा जा सकता है जो आध्ुानिकता के संदर्भ में क्रूर यथार्थ के नाम पर उछाले जाते रहे हैं. पंगु और अशक्त, अपने को बोझ समझने वाली सीमा, राधा और कृष्ण की फोटो देखती है, रामायाण-महाभारत-धर्मकथाएं पढ़ती है, मां को किसी से भी झगड़ा न करने के लिए कहती है-ये सारी स्थितियां उस अभाव से उपजी हैं जो सीमा के अन्दर हैं, बाहर से आधुनिकता के नाम पर आरोपित नहीं. यहीं विघटन, संत्रास, अकेलापन सभी कुछ है और इस सब कुछ के साथ समाज से न जुड़ने की, उसका एक सक्रिय अंग न बन पाने की विवशता भी. और ये तमाम अनुभव खंड, अधूरेपन को कभी न भर पाने की अशक्तता में भी क्रूर यथार्थ के साथ जितने संवेद्य हो पाये हैं, उस संवेदनशीलता में ही इस कहानी की सफलता है. इसी प्रकार अकेलेपन की वेदना को घनीभूत करने वाली कहानी ‘लाल हथेलियां’ है. सुभाष की पहली पत्नी उसके विकसित होते सौंदर्यबोध को तृप्त नहीं कर पाती, फलतः वह उसकी उपेक्षा करता है, यहां तक कि वह मृत्यु को प्राप्त होती है. उसके बाद वह ज्योत्सना से विवाह करता है लेकिन धीरे-धीरे जीवन का क्रूर यथार्थ उसके समक्ष खुलता जाता है और वह पाता है कि अब वही उपेक्षा का पात्र बन गया है. जीवन के व्यावहारिक पक्ष में उसकी आर्थिक स्थिति ज्योत्सना के जीवन-बोध के समानान्तर नहीं चल सकी, उसे अपने अहं का क्षरण करके ससुर के घर जाना पड़ता है-इसके बाद चलता है मानसिक तनाव, द्वंद्व का असमाप्त होने वाला चक्र और याद आती है सेवा परायण पहली पत्नी. लेकिन जो छूट गया है उसे पाया नहीं जा सकता और जो है उससे दुःख और भी घना हो जाता है. इस कहानी में पर्याप्त भावुकता के होते भी करुणाजनक स्थितियां एक साथ ही अर्थगत असमानता और प्यार को आमने-सामने उपस्थिति करती हैं.
इस स्थल से मिश्रजी की कहानियों में दृष्टि विषयक नया अध्याय जुड़ता है. वे मानवीय संबंधों को जीवन के अन्य व्यावहारिक तत्वों से जोड़कर देखने लगते हैं...कहीं पर आर्थिक कसाव में घिरा ‘चिट्ठियों के बीच’ का डा. देव है, कहीं पर पति के मरने के बाद अकेली सारे कष्टों से जूझती ‘एक औरत एक जिंदगी’ की भवानी, कहीं पर मशीन न बनने की कामना से भाग जाने वाली ‘मुक्ति’ की चंदा है. यह सभी पात्र अपने चारों तरफ की स्थितियों पर जिस तरह से ‘रियेक्ट’ करते हैं उससे स्पष्ट होता है कि भावमयता के साथ मिश्रजी ने घोर यथार्थ का साक्षात्कार करते हुए व्यक्ति-मन को काफी गहराई से पकड़ा है. मनुष्य संबंधों को ढोने की मजबूरी लिए है, यह मजबूरी एक सस्सती जीवन-दृष्टि का प्रक्षेपण न करती हुई व्यक्ति के संघर्ष को कई धरातलों पर व्यक्त करती है. डॉ. देव परिवार की आवश्यकताओं को समझते-बूझते द्वन्द्वमय क्षणों से तब छुटकारा पाते हैं जब वे सही और क्रूर यथार्थ के सामने अपने संस्कारों के बढ़ते आवेग को रोगते हैं. वस्तुतः समकालीन अनुभव अपने को होम करके परिवार, समाज के प्रति उत्तरदायित्व का निर्वाह करने की मानसिकता को अस्वीकार करता है. महानगरीय बोध को लेकर आधुनिकता के धरातल पर जो कहानियां लिखी गई हैं-उसकी तुलना में ‘खण्डहर की आवाज’, ‘मां, सन्नाटा और बजता हुआ रेडियो’ जैसी कहानियां ग्रामों के संदर्भ में अधिक आधुनिक लगती हैं.
मिश्र जी की कहानियों का मूलस्वर संस्कार विजड़ित मानसिकता और यथार्थगत व्यावहारिक अशक्तता के बीच उपजा द्वंद्व है. उन्होंने कहीं पर इस द्वंद्व को जीवन-संघर्ष की ऊर्जा से व्यक्त किया है, कहीं पर अशक्त स्वीकार में. लेकिन दोनों ही स्तर अधिक संवेद्य और विश्वसनीय बन पड़े हैं. ‘मुक्ति’ की चंदा का अल्हड़पन किसी भी उस विवशता को मानने को तैयार नहीं जो उसके वैयक्तिक अस्तित्व को समाप्त करे. वह अपनी बड़ी बहन, पिता के द्वारा अपनाये जीवन को विवशतावश रोती कलपती स्वीकार न करके, भाग जाती है. उसका यथास्थिति के विरोध में व्यक्त ‘प्रोटेस्ट’ कहीं पर बदलते जीवन-मूल्य की ओर भी संकेत करता है. यहां भागना सामाजिक रूढ़ अर्थ में अनैतिक हो सकता है लेकिन वैयक्तिक उन्मुक्त जीवन के संदर्भ पात्रगत ऊर्जा की ही अभिव्यक्ति करता है. इसी तरह ‘एक औरत एक जिंदगी’ की भवानी का संघर्ष है. यह संघर्ष दो स्तरों पर है, एक अपने-आपसे टूटने की नियति को अस्वीकार करता हुआ संघर्ष, दूसरे स्तर पर परिवेश (समाज) की स्वार्थ लिप्सा के विरोध में अपने को जमाये रखने का संघर्ष. ये सारी स्थितियां निश्चित ही उस गहरे अनुभव से उपजी हैं जो अनारोपित, अनाविल और सहज रचनात्मक धर्म का स्वरूप उपस्थित करता है. लेखक की कलात्मक क्षमता इस बात में है कि वह अभाव को सहज रूप से स्वीकारते क्षणों में जीवन के सत्य का साक्षात्कार करता है. भवानी कहती है, ‘‘छोड़िये बाबा, उन बीते दिनों को. वे पकड़ में कहां आते हैं! झूठे हैरान करते हैं!’’ यह सत्य मनुष्य को कितनी शक्ति देता है, यह जानना केवल अनुभव के आधार पर ही संभव है.
‘यह भटकी हुई मुलाकात’ कहानी भी भवानी के कहे शब्दों की सत्यता चरितार्थ करती है. मिश्र जी ने इस सत्यता को काफी गहरे उतारकर मानव-अनुभव की दीप्ति से मुखर किया है- दरअसल जीवन की गतिमत्ता के बीच छूटते क्षण जहां कहीं सार्थक होकर एक जीवन-क्रम को रूपायित करते हैं वहां कभी-कभी जीवन में अवरोधक तत्व के रूप में भी उपस्थित होते हैं. सुधांशु और अंजना ऐसे मोड़ पर मिलते हैं जहां एक पूरा अतीत विश्लेषण के लिए उनके सामने उपस्थित हो जाता है. अंजना मां की संवेदना भोगती, पत्नी की असफलता को स्वीकारती खुद के काटे गये जीवन-क्रम के घेरे से बाहर नहीं आ पाती. यही स्थिति सुधांशु की है, लेकिन यहां छूटते क्षण ऐसा अवरोध उपस्थित करते हैं जो व्यक्ति के अस्तित्वगत चैतन्य में भी दरारें पैदा करता है.
वस्तुतः मिश्रजी की कहानियों में उभरी स्थितियों, संवेदनाओं और घटनाओं पर जब मैं गहराई से विचार करता हूं तो पाता हूं कि वे, जैसे सारी कहानियों में आत्म-विवेचन का भावनात्मक रुख अपनाते चलते हैं अर्थात् आज के वैज्ञानिक और प्रबिधि के भागते युग में भी मिश्र जी का लेखक व्यक्ति को सोचने-समझने का एक और अवसर देना चाहता है. संपूर्ण पारिवारिक और सामाजिक असंगति, विघटन, वैयक्तिक टूटन को स्वीकार करते भी वे इन स्थितियों को केवल तथ्य मानकर चलते हैं, सत्य नहीं. वे कहीं-कहीं, शायद अनेक स्थलों पर, मानव की जिजीविषा का प्रतिपादन करते उसके हृदय पक्ष की अवहेलना नहीं करते हैं, बल्कि कहना चाहिए कि वे हार्दिकता को मानव-संचेतना का संवाहक मानते हैं. इस स्थिति का अतिरेक ही उनसे खाली घर, पिता, मंगलयात्रा, जैसी कहानियां भी लिखवा लेता है, जिनकी व्यक्त स्थितियां पाठक को दूर तक प्रभावित नहीं करतीं.
वैयक्तिक संवेदना को केन्द्र में रखकर संपूर्ण सामाजिक आचरण के क्रूर यथार्थ को ‘खाली घर’ की दो कहानियों में सशक्त रूप से व्यक्त किया गया है. ये कहानियां हैं ‘खण्डहर की आवाज’ और ‘मां, सन्नाटा और बजता हुआ रेडियो’. इन कहानियों का रचनात्मक कौशल लेखक की सामाजिक दृष्टि का साक्षात्कार कराता है जिसके संदर्भ में हम देख सकते हैं कि किस प्रकार व्यक्ति परिवेशगत स्थितियों को अपने अनुकूल करता हुआ बदल जाता है और किस प्रकार व्यक्ति सारी सुविधाओं की घोषणा के बावजूद व्यक्ति की छूटती जमीन उसे एक क्षण के लिए भी आश्वस्त नहीं कर पाती. ‘खण्डहर की आवाज’ के पंडितजी अपने सहज, त्यागी जीवन से त्रस्त होकर व्याप्त भ्रष्टाचार के दलदल में फंसते हैं. नैतिकता और सेवा की भावनाओं को पालते हुए अभावग्रस्त जीवन जीने की स्थिति के विकल्प में वे राजनीति और फिर लाभ की राजनीति को अपनाते हैं. यहां पर पंडितजी की मानसिकता को उभारने के लिए लेखक ने परिवेश को अत्यंत जीवंत रूप से पाठक के सामने उपस्थित किया है. लगता है स्थितियां व्यक्ति से अधिक सशक्त होकर उसका संचालन कर रही हैं. ... इधर पंडित जी की मानसिकता के बनने-बिगड़ने में और ‘मां, सन्नाटा और बजता हुआ रेडियो’ के ‘मैं’ की मानसिकता के उतार चढ़ाव में एक मूर्त सामाजिक आधार दृढ़ होता चला गया है. इन कहानियों में उभरी सामाजिकता दरअसल सामाजिक-बोध के रूप में उभरी है क्योंकि आज का लेखक रूढ़ सामाजिक-चेतना का समर्थन नहीं करता.
‘खाली घर’ की कहानियों में लगभग सारी कलागत मान्यतायें सामाजिक-वैयक्तिक बोध के स्तर पर स्पष्ट हो जाती हैं, जो मिश्रजी को आगे की रचनाओं को ठोस वैचारिक आधार देती हैं. उनके दूसरे कहानी-संग्रह ‘एक वह’ से व्यक्ति की वेदना और समाजगत चेतना का एक नया दौर शुरू होता है. इन कहानियों में लेखक अनुभवगत ईमानदारी को गहराता हुआ समाज-सापेक्ष चिंतन की विविध सरणियों को अपेक्षाकृत नये कथाबिंबों में उभारता है. मिश्रजी का आम आदमी अब तक भावुक जीवन-दृष्टि के घेरे में घूमकर बाहर आकर फिर वहीं लौटने की संवेदना से ग्रस्त था लेकिन ‘एक वह’ की कहानियों में वह भावुकता से पीछा छुड़ाकर अधिक सतर्कता से जीवन के बीच खड़ा होता दीखता है. शायद वे आस्थाएं जो जीवन-संघर्ष में जूझते केंचुल उतारने की स्थिति में मूर्त होना चाहती थीं- अब निर्विकल्प होकर तटस्थ जीवन-भोग की खुली सड़क पर रूपायित होती हैं. इस दृष्टि से उनकी ये कहानियां पहली कहानियों की उपेक्षा अधिक आधुनिक और संश्लिष्ट जीवन-दृष्टियों की मूल्यगत संवदेना को उभारती हैं.
‘खाली घर’ की कहानियों में रचनात्मक क्षमता यदि मूल्यों के टूटने पर वेदना से आक्रांत पात्रों की मनःस्थिति के द्वंद्व को सिर्फ झेलती थीं और उनसे बाहर आने से डरती थीं तो ‘एक वह’ की कहानियों में उसका एतद्विषयक वैचारिक धरातल निश्चित रूप से बदल गया है. तो क्या वह बदलाव लेखक की दृष्टि से परिवर्तन का द्योतक है या परिप्रेक्ष्य में. मैं कहूंगा कि बदलते परिप्रेक्ष्य में परिवर्तित दृष्टि की स्वस्थता का परिचायक यह मूल्यबोध मिश्रजी के रचनाकार की सफलता और जीवन-दृष्टि का विकास है. उदाहरण के लिए ‘चिट्ठियों के बीच’ का डॉ. देव जब सारे तनाव को झेलता अंततः पत्र को डालने का निश्चय करता है तो एक टूटन का एहसास, कहीं-न-कहीं उसे अपराध-भावना से ग्रसित कर देता है, जबकि उससे कोई अपराध हुआ ही नहीं. सामाजिक दायित्व की पूर्ति के अभाव में उसकी वेदना बार-बार उसके निर्णय को प्रभावित करती है- ‘‘वह एक क्षण जोर से तड़पा जैसे उसने दोनों कनपटियों पर साथ ही जोर का दबाव अनुभव किया हो, फिर उसने घर के नाम लिखा हुआ पत्र उठा लिया- आज इसे पोस्ट करना ही होगा. लेकर कमरे से बाहर हुआ. मगर यह तो शाम हो गई है, पोस्ट तो निकल गई होगी, कल पोस्ट कर देता और लौटकर मेज पर उसे पेपर वेट से दबा दिया.’’ डॉ. देव का यह कथन पूरे तनाव, चिंतन-मनन के बाद की निर्णयात्मक स्थिति का द्योतक है- फिर भी उसका निर्णय संस्कारों के प्रभाव से मुक्त नहीं माना जा सकता. इसके आगे ‘एक वह’ संग्रह की कहानी ‘सड़क’ के पांडेजी भी आद्यन्त मूल्यगत चेतना से जकड़े हैं. लेकिन जहां स्थितियां बार-बार अहं पर, अस्तित्व पर चोट करती हों वहां किस प्रकार व्यक्ति के मूल्य बदल जाते हैं- इसकी बेबाक अभिव्यक्ति पांडेजी की ‘साबुत धोती की मांग’ में वस्तुवादी दृष्टि की व्यावहारिकता और सशक्तता में हुई है.
रमेश सामान लिए अंदर जा रहा था कि पांडेजी ने पुकारा.
‘‘रमेश’’
‘‘हां बाबूजी’’
‘‘तुम्हारे पास एक के अलावा कोई साबुत धोती है?’’
‘‘हां है बाबूजी’’
‘‘लाना तो बेटा’’-
इस अंतिम वाक्य में निर्णय की क्षमता की दीप्ति ही नहीं बल्कि नये जीवन-मूल्य को स्वीकारने का साहस भी व्यक्त हुआ है. यही वह बिंदु है जिससे मिश्रजी अपनी तमाम भावुकता को भावप्रवणता में बदलते क्रूर यथार्थ के सामने शक्ति में खड़े हो जाते हैं.
लेकिन लेखक कितनी ही शक्ति से निर्णय की धुरी को पकड़े, जीवन की कटु वास्तविकता कई बार उसकी शक्ति को डांवाडोल करती हुई केवल वस्तुस्थिति के स्वीकार तक रोक देती हैं. समाज में व्याप्त वे स्थितियां जो बाहर से व्यक्ति को तोड़ती या आक्रांत करती हैं- केवल अभिव्यक्ति के स्तर पर उभरती हैं... उनके बीच कोई भी निर्णय कारगत नहीं हो सकता. ‘एक वह’ और ‘निर्णयों के बीच निर्णय’, ‘दूरियां’ और ‘आधुनिक’ कहानियों में मिश्रजी का कथाकार ऐसे पात्रों का सृजन करता है जो अपनी विवशता, अभाव को झेलने की नियति को अस्वीकार कर ही नहीं सकते. ‘एक वह’ का गरीब बुड्ढा बावजूद संस्कारगत चेतना के किसी भी अनुकूल स्थिति का नियामक नहीं हो सका. गरीबी हटाओ के व्यापक प्रयासों को मिश्रजी ने अत्यंत संवेदनात्मक क्षणों के बीच असफल होते दिखाया है. वह गरीब बुड्ढा, अपना पेट पालने की मजबूरी से ग्रस्त है लेकिन घर की याद रह-रहकर उसकी अशक्तता को कुछ संबल देती है किंतु यह मिथ्या भ्रम कि वह कुछ कर सकेगा, वह बहुत जल्दी ही क्रूर यथार्थ की चोटों से ढह जाता है. उसकी मृत्यु प्रकारांतर भेद से सारी सामाजिक व्यवस्था के प्रति व्यंग्य करती हुई अपनी अनिवार्यता को ‘जस्टीफाई’ करती है. ‘निर्णयों के बीच निर्णय’ के ज्ञान की दशा किसी विशिष्ट सामाजिक या वैयक्तिक मूल्यगत संघर्ष की देन नहीं है फिर भी उसके प्रति श्रीवास्तव या अन्य व्यक्तियों का व्यवहार सारे मानवीय संबंधों की गहराई को उथला कर देता है. इस कहानी में उभरा कथा बिंब केवल ज्ञान की स्थिति को ही नहीं उभारता अपितु अनेक छोटे-छोटे संश्लिष्ट बिंबों के माध्यम से जीवन की विविधत को उपस्थित करता है.
आधुनिकता और नई संवेदना का सबसे अधिक प्रभाव व्यक्ति के व्यवहार पर पड़ा है. जिन स्थितियों में पहले का आदमी असुविधा होते भी ‘एडजस्ट’ कर लेता था, अब वह उससे कतराता है. हर एक की अपनी एक दुनिया बन गई है और उस दुनिया से निकलकर कुछ देर के लिए भी आदमी अपने को सहज नहीं कर पाता है. ‘दूरियां’ कहानी में मिश्रजी ने इस बात को सफलता से व्यक्त किया है. ऐसी स्थिति में असहज होना व्यक्ति के मन की अनिवार्यता हो गई है. पप्पू की असहजता स्वाभाविक है और उतनी ही स्वाभाविक मजबूरी काशी मइया की है. ‘दूरियां’, ‘घर’ और ‘पिंजड़ा’ कहानियों में अलग-अलग संदर्भों से सिमटती दुनिया का चित्रण मिश्रजी ने संबंधों की ललक से छुटकारा पाने की छटपटाहट में किया है. बल्कि कहा जा सकता है कि संबंधों के प्रति लगाव और स्थितिगत क्रूरता के बीच द्वंद्व की धुरी से इन कहानियों की शुरूआत होती है... हर पात्र के पास दो जिंदगियां हैं- एक में उसके विश्वास, भावना, संस्कार जगे हैं, दूसरे में विघटन, क्रूरता से साक्षात्कार होता है. यहीं संघर्ष उपजता है और रचना सामयिक जीवन के संदर्भ में प्रासंगिक हो उठती है.
आज के जीवन की अनेक समस्याओं में अभिजात वर्ग के अस्तित्व की समस्या और शिक्षा-पद्धति की समस्या भी सामाजिक ढांचे को प्रभावित करती है. इन समस्याओं को लेखक ने ‘जमीन’ और ‘मिसफिट’ कहानियों में उभारा है. ‘जमीन’ का मोहन स्कूल में मंत्री जी के भाषण को सुनता है, तो एक और स्वप्निल जिंदगी उसकी आंखों के सामने तैरती है पर लौटते समय और बपई से बात करते हुए वह जिस यथार्थ का साक्षात्कार करता है वह उसके विकास को अवरुद्ध करते हुए केवल भूख जगाता है. मिश्रजी की यह कहानी एक वेदना को उभारती है लेकिन अब उसकी एप्रोच बौद्धिक हो गई है. लगता है जैसे वर्तमान का भेद-भाव, अलगाव, इस देश के भविष्य को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं पनपने देगा... इधर की इन कहानियों में उन्होंने वैचारिक धरातल पर खड़े होकर स्थितियों का विश्लेषण ही नहीं किया बल्कि उन्हें विकल्प की चेतना तक भी पहुंचाया है. ‘मिसफिट’ में लेखक आज की शिक्षा-पद्धति, जो केवल वेशभूषा पर ध्यान देती है- का विवेचन किया है. बावजूद सारे प्रयासों को आज की शिक्षा रचनात्मक स्तर पर व्यक्ति-मन का विकास नहीं कर पाती.
इधर के लेखन के संदर्भ में इन कहानियों की चर्चा और मूल्यांकन का आधार दूसरा हो सकता है लेकिन मिश्रजी के कथाकार के अपने विकास के संदर्भ में इन कहानियों की एक विशेषता यह है कि इनमें लेखक ने व्यक्ति-वेदना की अभिव्यक्ति के लिए प्रसंगों का संधान नहीं किया अपितु बदलती हुई स्थितियां स्वयं पात्र के रूप में उपस्थित हुई हैं. सड़क के पांडेजी, पिंजड़ा का अध्यापक, दूरियों का शरद, घर का घनश्याम ऐसे पात्र हैं जो स्थितियों के बीच से अपने अस्तित्व की शुरूआत करते हैं और उन्हें एक अर्थगत संदर्भ देकर उनमें समाहित हो जाते हैं. मिश्रजी की पहली कहानियों में याद रहते थे पात्र, लेकिन इनमें पात्रों से अधिक सशक्त परिवेश है और वही पाठक की चेतना के इर्द-गिर्द मंडराता है. मैं कहूंगा कि अंतश्चेतना से युक्त अंदर से बाहर की यह कथा-यात्रा लेखक की कलागत उपलब्धि है. साथ में ‘उत्सव’, ‘पराया शहर’ जैसी सामान्य संवेदना की कहानियां भी हैं जो कहीं दूर तक कोई विशेष प्रभाव नहीं छोड़ती.
मिश्रजी अनुभव की तल्खी अद्वितीयता के आधार पर भाषा की नई भंगिमा और बिंबात्मक ताजगी की तलाश करते हैं. वे पात्र की समूची वेदना की बिंब और प्रतीक के द्वारा सांकेतिक रूप से व्यक्त करते हैं :
‘चील एकाएक टिहा उठी और उदास सूखे हुए ताल-सी टंगी क्वार की दुपहरी में छोटी-छोटी दरारें उभर आईं.’’ ‘सीमा’. यहां पर लेखक ने भाव को प्रत्यक्ष और गहरे रूप में उभारने के लिए चील का टिहाना और दरारों के उभरने का प्रतीक कलात्मक रूप से प्रयुक्त किया है. ‘खाली घर’ की अधिकांश कहानियों की भाषा इस प्रकार की है जहां पात्र की स्थिति के समानांतर प्राकृतिक बिंब उभारा गया है. वैसे वे मानवीय संबंधों और तनाव के चित्रण में तटस्थ भाषा का प्रयोग करते हुए भी भावुकता के अतिरेक से नहीं बच सके हैं- अनेक स्थलों पर इस प्रवृत्ति के द्वारा विस्तार दोष भी आ गया है किंतु मूलतः उनके बिंब भाषागत क्षमता के के साथ पात्र को स्पष्ट रूप से साकार कर देते हैं.
‘‘पड़ोस में एक कुत्ता बहुत नंगे और भूखे स्वर में रो उठता है.’’
पु ऊं ऊं ऊं... मोहन को लगता है कि सारी चमरौटी इस आवाज में लिपट कर थर्रा उठी है... (जमीन).
यहां कुत्ते का प्रतीक मोहन की सामाजिक अवस्था को जिस रूप में व्यक्त करता है वह भाषिक सरंचना की क्षमता का प्रतीक है. कहानी की संपूर्ण केन्द्रिय संदेवना इस एक बिंब में समग्र रूप से उभरकर तीव्रतर होती हुई पाठक को द्रवीभूत करती है. जिस सहज और संवेगात्मक भाषा से रामदरश मिश्र ने ‘खाली घर’, ‘चिट्ठियों के बीच’, ‘एक भटकी मुलाकात’ कहानियों में परिस्थितियों को व्यक्त किया है वह उनकी इस काल की सामर्थ्य की द्योतक है. ‘एक वह’ के संदर्भों का वैविध्य, वैचारिक ठोस धरातल और बदलते परिप्रेक्ष्य में भाषा अधिक मुखर, सीधी और प्रभावशाली हो गई है.
‘‘मैं कल स्कूल नहीं जाऊंगा.’’
‘‘क्यों बेटे!’’
‘‘टीचर साली मारती है.’’ (मिसफिट)
यह तेजी और खुलापन उस तनाव की भाषा से अलग है जो अब तक वैयक्तिक संदर्भों में प्रयुक्त हुई थी. कुल मिलाकर रामदरश मिश्र की कहानियां आज के जीवन को उसके सही और विविध परिप्रेक्ष्य में चित्रित करती हैं. जैसे-जैसे उन्होंने बदलती संवेदनाओं के साथ अपने अनुभव के लगाव को सही रूप में पाया है उन्होंने सामान्य स्थितियों को भी आधुनिक और विश्वसनीय बनाकर प्रस्तुत किया है. उनका संस्कारशील कहानीकार आधुनिक-बोध की चेतना से रहित पात्रों को भी इस रूप में उपस्थित कर पाया है कि वे नितांत आधुनिक लगें- क्योंकि इसके लिए वे कुछ और नहीं करते, केवल पात्रों की उस मनःस्थिति का वर्णन करते हैं जो उन्हें सारे जीवन को स्वीकारते-अस्वीकारते गतिमान बनाए रखती है. यही कारण है कि वे आधुनिकता के फैशन से हटकर भी आधुनिकता-बोध की सशक्त कहानियां दे पाये हैं.
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