इ स बार बहुत दिनों बाद गांव गया. शाम को बिशुनपुरा का बाजार था. अपने भतीजे के साथ बाजार के लिए निकला. मन में एक उल्लास था कि बहुत दिनों बाद म...
इस बार बहुत दिनों बाद गांव गया. शाम को बिशुनपुरा का बाजार था. अपने भतीजे के साथ बाजार के लिए निकला. मन में एक उल्लास था कि बहुत दिनों बाद मदनेश जी से भेंट होगी. वे अपनी झोंपड़ी में या नीम के पेड़ के नीचे उसी तरह बगल में ‘वाल्मीकि रामायण’ या कालिदास की कोई पुस्तक लिए बैठे होंगे. जाते ही उल्लास से कहेंगे, ‘आओ-आओ, बहुत दिन पर आए.’ जब उनके दरवाजे पर पहुंचा तो उनकी झोंपड़ी खाली पड़ी थी. नीम के नीचे भी कोई खाट नहीं थी.
‘‘मदनेश जी नहीं दिखाई पड़ रहे हैं.’’ मैंने कहा.
‘‘मदनेश जी? क्या आपको मालूम नहीं है?’’
‘‘क्या?’’
‘‘कि मदनेश जी नहीं रहे.’’
‘‘कब?’’
‘‘छः सात महीने हो गए.’’
‘‘हे भगवान.’’ कहकर मैं चुप हो गया. तब तक मदनेश जी का पोता आ गया. उसने मुझे नमस्कार किया. उसके साथ कुछ देर के लिए उसके दरवाजे पर बैठ गया. उसने बताया कि वे उस दिन भी भले-चंगे उठे थे, व्यायाम किया, नहाया-धोया, पूजा-पाठ किया, खाना खाया, फिर न जाने एकाएक क्या हुआ कि देखते-देखते चल बसे.
बाजार से लौटकर आया. मन उदास हो गया. खाना खाकर बिस्तर पर गया तो नींद नहीं आ रही थी और मदनेश जी की जीवन-यात्रा मेरी स्मृति में उतरने लगी-
रानापार मेरे गांव से सटा हुआ गांव है. उस गांव के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे गणेशदत्त मिश्र ‘मदनेश’. उनके बारे में सुनता रहता था कि वे कवि हैं, पंडित हैं और उस गांव के सम्मानित व्यक्ति तो हैं ही. इस तरह मेरे छात्र-मन पर उनके व्यक्तित्व का एक आतंक-सा छा रहा था. मैं प्राइमरी का छात्र था, मेरा उनसे कोई काम नहीं था, इसलिए उनके व्यक्तित्व का आतंक छाने का कोई मतलब नहीं था. वे मेरे पिता जी के मित्र थे. पिता जी के साथ आते-जाते मैं देखता था कि वे पिता जी या गांव के किसी अन्य व्यक्ति से जब बात करते थे तो वे गांव के एक ठेठ व्यक्ति होते थे, पंडित जी या कवि नहीं. गांव वालों को उनकी पंडिताई और कविताई से लेना-देना था नहीं और उन्हें उनसे या उनसे उन्हें जोड़ने वाली कोई बात थी तो खेती-बारी, घर-द्वार, भूख-प्यास, सुख-दुख. एक अच्छे जमींदार खानदान के होते हुए भी उन्होंने अपनी साहित्यिक गतिविधियों में लग रहने के कारण परिवार को अभाव और तज्जन्य दुख के उस स्तर पर ला दिया था जहां गांव के लोग एक दूसरे के बहुत करीब दिखाई पड़ते हैं और किसी से किसी को कोई आतंक नहीं होता.
लेकिन मैं मदनेश जी से आतंकित था क्योंकि उनसे असंबद्ध रहते हुए भी कहीं संबद्ध था. प्राइमरी स्कूल का छात्र होने के बावजूद मैं कविता से एक लगाव अनुभव करता था, बल्कि लोक गीतों के तर्ज पर कुछ लिखने का हुलास भी मन में उठता था. यानी मैं भीतर-भीतर एक अव्यक्त कवि था. इसलिए कवि मदनेश के प्रति मेरे मन में एक संभ्रांत भाव था. अपने संकोची स्वभाव और किसी आवश्यकता के न होने के कारण उनसे कभी मिलता नहीं था लेकिन मेरे भीतर का अव्यक्त कवि उनसे लगातार मिलता रहता था. उनकी कविताओं से भी मेरा कोई परिचय नहीं था किंतु हम स्कूल वाले एक बार बाढ़-पीड़ितों की सहायता के लिए आसपास के गांवों में भीख मांगने निकले तो मास्टर जी ने हमें एक गीत गाने को कहा था. हम लोग समवेत स्वर में वह गीत गाते जाते थे और द्वार-द्वार झोली फैलाए हुए अन्न की याचना करते थे. वह गीत मुझे याद नहीं है किंतु उसकी एक पंक्ति अभी भी स्मृति में बची रही है-
उजड़ गए हैं फिर क्या बसेंगे
हम पीड़ितों की पुकार सुन लो
... ... ...
ये राप्ती का कछार सुन लो
यह गीत मुझे बहुत अच्छा लगा था, शायद इसलिए भी कि यह हमारे कर्म के साथ जुड़ गया था. बाद में ज्ञात हुआ कि यह गीत मदनेश जी ने लिखा था. बाद में जब मैं उनके संपर्क में आया तो ज्ञात हुआ कि देहात में बैठे-बैठे वे इस प्रकार के संदर्भों से जुड़े गीत लिखते रहते हैं.
आते-जाते तो उन्हें देखता रहता ही था लेकिन उन्हें असल में पहली बार देखा अपनी कक्षा में-कक्षा चार में. वे यों ही घूमते-घूमते स्कूल की ओर आ गए थे. मास्टर साहब ने उनसे अनुरोध किया कि वे छात्रों को हिंदी पढ़ा दें. वे प्रसन्नता के साथ बैठ गए और ‘‘नर हो न निराश करो मन को’’ कविता का ऐसा रसमय अध्यापन किया कि उसकी अनुगूंज आज तक मेरे मन में शेष है. उनसे मेरा मानसिक लगाव और गहरा हो गया किंतु उनके लिए मेरी क्या अहमियत थी? मिलने-जुलने का कोई प्रत्यक्ष कारण तो था नहीं. उनके लिए मेरी क्या विशेष पहचान होती? बस पिता जी के साथ आते-जाते देखकर इतना ही जानते रहे होंगे कि मैं उनके चन्नर भाई का बेटा हूं.
कविता तो नहीं, पर वैसी ही कोई चीज, मेरे भीतर बार-बार कुलबुलाती थी, कुछ बाहर भी झांक जाती थी, फिर शांत हो जाती थी. मैं दर्जा पांच या छः में रहा हूंगा, मेरे एक सहपाठी ने बताया कि ‘‘उसके गांव का एक लड़का है, शहर में पढ़ता है, वह कविता लिखता है.’’ उसका यह कहना मेरे लिए एक चुनौती बन गया. मैंने कहा, ‘‘मैं भी लिख सकता हूं. देखो आज लिखता हूं.’’ मेरे कुछ अंतरंग मित्रों ने मेरा उत्साह बढ़ाया, ‘‘हां-हां क्यों नहीं, तुम तो लिख ही सकते हो.’’
उसी दिन शाम को स्कूल के सामने वाले बागीचे में कांग्रेस की एक सभा थी. मैंने उसी को आधार बनाकर एक कविता लिखी. दूसरे दिन कक्षा के मित्रों को सुनाई. सभी मित्र खुश हुए लेकिन दीनानाथ ने कहा, ‘‘आज चलो मदनेश जी के यहां चलते हैं, उन्हें दिखाते हैं यह कविता.’’
‘‘स्कूल से लौटते समय चलेंगे.’’ मैंने कह तो दिया किंतु उनके सामने जाने में बड़ा डर लग रहा था. इतने प्रसिद्ध कवि हैं वे, मेरी टूटी-फूटी कविता देखकर कहेंगे, ‘कूड़ा है’ और फेंक देंगे. लेकिन दीनानाथ मुझे खींच ले गए. मदनेश जी अपने दरवाजे पर ही नीम के नीचे खाट बिछाकर बैठे थे. हम गए और उन्हें नमस्कार कर खड़े हो गए.
‘‘हां-हां, अरे कहो भाई, मुझसे कोई काम है?’’
‘‘पंडित जी, इन्होंने एक कविता लिखी है-पहली कविता. आपको दिखाने आए हैं.’’ दीनानाथ बोले.
‘‘हां-हां, देखूं तो. अरे यह तो बहुत अच्छी बात है.’’
उन्होंने कविता पढ़ी. जब तक पढ़ते रहे मेरा जी धक-धक करता रहा.
‘‘अरे यह तो बहुत अच्छी कविता है. इसमें शक ही क्या है? इसमें तो तुम्हारे बहुत उज्ज्वल भविष्य के बीज सन्निहित हैं. एक दिन अवश्य अंकुरित होंगे, पल्लवित-पुष्पित होंगे और अपनी सुगंध से दिशाएं भर देंगे.’’
उस समय वे ठीक-ठीक कौन-सी भाषा बोले थे याद नहीं किंतु कुछ ऐसा ही बोले थे. बाद में जब भाषा की समझ आई और उनके बोलने की प्रकृति का ज्ञान हुआ तो मैंने अनुमान लगाया कि उस समय वे इसी भाषा में बोले थे. बहरहाल इतना समझ गया था कि वे कविता की प्रशंसा कर रहे थे अतः मुझे बड़ी आश्वस्ति मिली और भीतर से खिल आया.
हम चलने लगे तो बोले, ‘‘हां, लिखते रहो और मुझे दिखाते रहो. अरे हां, क्या नाम बताया, रामदरश मिश्र. हां, रामदरश मिश्र. तुम चन्नर भाई के बेटे हो न.’’
‘‘जी हां.’’
हम वहां से चले तो मुझे इस बात का भी बड़ा सुख मिला कि वे मुझे जानते थे.
फिर तो मैं जुट गया कविताएं लिखने में. लिखता था और लेकर मदनेश जी के पास पहुंच जाता था. कभी वे घर पर होते, कभी खेत-खलिहान में. वे जहां भी होते, जितना भी व्यस्त होते, कविताएं पढ़ते, बहुत इतमीनान से पढ़ते और उन पर राय देते, उनका संशोधन भी करते. इस प्रक्रिया में मैं उनके बहुत निकट होता गया और उनके जीवन के भीतर कुछ झांकने का अवसर भी मिला.
एक जमींदार परिवार का साहित्यकार बेटा. लोग कहते, ‘‘कितना निकम्मा आदमी है. इतनी बड़ी जमींदारी बर्बाद कर दी. कुछ करना न धरना, बस दरवाजे पर बैठकर किताबें पढ़ना और टोपी लगाए घूमना. और...’’ मैं इस अंतिम ‘और’ को ठीक से नहीं समझ पाता. शेष बातें तो समझता था, लेकिन जिस भाव से लोग बातें कहते थे, वह भाव मुझे ग्राह्य नहीं होता था. मदनेश जी मेरे लिए बहुत सम्मानित व्यक्ति थे, इसलिए उनके साथ जुड़े या जोड़े गए तथ्यों को मैं क्रूर रूप से नहीं ले पाता था. और बाद में जब उनका विश्लेषण करने की क्षमता आई, तब उन तथ्यों का दूसरा पहलू खुलता गया तथा मदनेश जी के व्यक्तित्व के प्रति मेरा सम्मान भाव और भी गाढ़ा होता गया.
वे जमींदार के बेटे थे लेकिन पंडित थे, कवि थे. पंडित भी उन्हें होने कहां दिया गया, लेकिन वे बन गए. हिंदी-उर्दू मिडिल करने के बाद देहात की किसी संस्कृत पाठशाला से मध्यमा की थी. शायद वह भी नहीं कर पाए थे कि पिता की मृत्यु के कारण उन्हें पढ़ाई छोड़कर घर आ जाना पड़ा और परिवार के उत्तरदायित्व का बोझ संभालना पड़ा. इकलौते बेटे जो थे. कविताएं वे तभी से लिखते थे. एक रास्ता यह होता कि घर आकर वे घर-गृहस्थी में डूबे गए होते, जमींदारी शोषण के अस्त्र-शस्त्र द्वारा संपत्ति बढ़ाते, गरीबों को कर्ज देकर उनके खून में से भारी सूद उगाहते, उनसे बेगार करते, उन्हें मारते-पीटते और पिता द्वारा छोड़ी गई मिल्कियत को दूनी-तिगुनी करके सपूत कहलाते. लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके क्योंकि उनके भीतर एक वाल्मीकि था, एक कालिदास था, एक तुलसी था, एक कबीर था, एक निराला था, जो घर जोड़ने के स्थान पर फूंकने का पाठ पढ़ाता था. लोगों ने मदनेश जी को उनके जमींदार पिता के नालायक पुत्र के रूप में तो देखा किंतु उन्हें वाल्मीकि, कालिदास आदि के लायक पुत्र के रूप में नहीं देखा. देख ही नहीं सकते थे. इसलिए उनके लिए वे निकम्मे थे, लेकिन मेरे लिए श्रद्धेय.
मैंने कहा न कि मैं कविताएं लिखता था और उन्हें लिए मदनेश जी के पास पहुंच जाता था. वे खेत में होते, खलिहान में होते, घर पर होते, बड़े प्यार से मिलते, ‘‘आओ-आओ, कुछ नया लिखा है क्या?’’ वे देखते और कहते, ‘‘अच्छा है, इसमें शक ही क्या है?’’
एक दिन पहुंचा तो वे छाता लगाए अपने खेत के मेड़ पर खड़े थे. खेत जोता जा रहा था और कुछ मजदूर लड़कियों और लड़कों को ढेला फोड़ने और दूब चिखुरने के लिए लगा रखा था. मुझे आते देखा तो दूर से ही बोलने लगे, ‘‘आओ-आओ, मैंने देखा तो लगा कि यह तुम्हारे जैसा कोई आदमी आ रहा है, फिर लगा कि यह तो तुम्हीं हो.’’ वे और न जाने क्या-क्या बोलते रहे कि मैं पहुंच गया. कविता देखते रहे, साहित्य के बारे में बोलते रहे, हालचाल पूछते रहे. इस प्रक्रिया में वे इतने लीन थे कि खेत में क्या हो रहा है, पता ही नहीं था. मैं उनकी बात सुनता रहा और खेत में देखता रहा था. लड़के-लड़कियां एक-दूसरे से मजाक कर रहे थे, ढेला फोड़ने और दूब चिखुरने के स्थान पर एक-दूसरे के ऊपर ढेला फेंक रहे थे. मुझे बुरा लग रहा था. पंडित जी का ध्यान उधर आकर्षित किया तो वे बोले, ‘‘हरे-हरे, तुम लोग क्या कर रहे हो? अच्छा-अच्छा करो कजाकी, शाम को मजूदरी काटूंगा तब मालूम होगा.’’
लड़के-लड़कियां खिलखिलाकर हंसने लगे और काम में लग गए. मदनेश जी भी हल्के मुस्कराए और फिर साहित्य-चर्चा में लीन हो गए. मैंने देखा कि लड़के-लड़कियां फिर अपनी हलकी-फुलकी विनोदमुद्रा में आ गए थे. वे जानते थे कि मदनेश जी न उन्हें जोर से डांट सकते हैं, न उनकी मजदूरी काट सकते हैं. उनकी उपस्थिति उनके लिए क्रूर भार नहीं, एक हलका-फुलका फूल लग रही थी.
मैं समझ गया कि क्यों मदनेश जी को नालायक कहते हैं. एक तो ये अपने हाथ से कोई काम नहीं करते हैं, दूसरे मजदूरों को अपनी क्रूर उपस्थिति का तनिक भी अहसास कराए बिना काम को हलके-हलके चलने देते हैं. हां, मदनेश जी को मैंने कभी अपने हाथ से काम करते नहीं देखा. वे गांव में भी पूरे वेश में निकलते थे, जूता, धोती, कुर्ता, टोपी. कभी-कभी अपने दरवाजे पर भी टोपी लगाए बैठे होते थे. जमींदार का बेटा अपने हाथ से खेती-बारी, सानी-पानी आदि का काम नहीं करेगा और एक पंडित, एक कवि ही यह काम क्यों करने लगा-भले ही काम बिगड़ रहा हो, भले ही अभाव की धार तेज होती जाती हो. मजदूरों को गाली दे-देकर काम कराने वाले, उनसे ज्यादा मेहनत से खेत गोड़ने वाले, बीज बोने वाले, पानी चलाने वाले, कटिया करने वाले, दंवरी हांकने वाले, अपने सिरों पर खाद, अनाज, भूसा और तरह-तरह की मोटरियां-गठरियां ढ़ोने वाले ब्राह्मणों को इन सबसे मुक्त मदनेश जी भला कहां से कर्मठ और लायक व्यक्ति प्रतीत होते?
एक दिन उनके यहां बैठा था. नांद पर बैल सानी खा रहे थे. सानी खत्म हो गया था. वे ताक रहे थे. साहित्य चर्चा के बीच से उन्होंने बैलों को देखा और खड़े होकर चमरौटी की ओर मुंह करके आवाज देने लगे, ‘‘अरे, भाई मुरतिया, तू कहां है? यहां मेरे बैल अनशन कर रहे हैं और तुझे अपने घर की ममता सता रही है.’’
बैल ताकते रहे, वे स्वगत भाषण की मुद्रा में मुरतिया से बात करते रहे. लेकिन यह नहीं हुआ कि खांची में भूसा लेकर नांद में डाल आएं.
एक गाय को देखकर थोड़ी देर में एक बैल ने रस्सी तुड़ा ली. फिर भी वे निरुद्वेग भाव से मुरतिया को पुकारते रहे. कुछ देर बाद मुरतिया आया तो उससे निरुद्वेग स्वर में बोले, ‘‘अरे तू कहां चला गया था? देखता नहीं मेरे बैलों का क्या हाल हो गया है. तू जानता नहीं कि आहार और मैथुन प्राणि-मात्र के जीवन के मूल तत्व हैं. कब से ये वृषभ आहार-विहीन हो आकुल-व्याकुल हो रहे हैं और यह वृषभ तो मैथुन के आकर्षण से निर्बंध ही हो उठा.’’
मुरतिया ने उनकी भाषा तो नहीं समझी किंतु आशय समझ गया और मुस्कराता हुआ बैल की ओर बढ़ गया. मदनेश जी भी मुस्करा रहे थे और फिर बैठ गए साहित्य-चर्चा करने के लिए.
मदनेश जी सनेही स्कूल के कवि थे. वैसे वे मात्रिक छंदों में भी लिखते थे किंतु सवैया, घनाक्षरी उनके मूल छंद थे. सनेही जी के संपादन में ‘सुकवि’ निकलता था. उसमें समस्या-पूर्तियां छपती थीं. मदनेश जी भी समस्या-पूर्तियां भेजते थे. उनके संपर्क में आकर मैंने छंदों का अभ्यास करना शुरू किया और दर्जा सात पास करते-करते कई छंदों का ज्ञान प्राप्त कर लिया था. मदनेश जी थे तो सनेही स्कूल के किंतु उनकी पाठकीय प्रतिभा विलक्षण थी. वाल्मीकि से लेकर छायावाद के कवियों तक की कविताओं को वे समान भाव से समझते थे और उनका आस्वादन करते थे. गांव की सीमा में कैद होने पर भी अनेक समकालीन कवियों से उनके साक्षात् संबंध बने हुए थे. जब कभी अवसर मिलता था वे साहित्यिक समारोहों और कवि-सम्मेलनों में अवश्य जाते थे-चाहे घर के काम का कितना भी हर्ज क्यों न होता हो. गांव के परिवेश को गांव की तरह जीते हुए भी वे उसमें कभी गर्क नहीं हुए. बार-बार साहित्य की दुनिया उन्हें अपने में खींचती रही. गांव में नए साहित्य का कोई पुस्तकालय तो था नहीं इसलिए वे अपनी तृप्ति संस्कृत और हिंदी की पुरानी और क्लासिक कविताओं से करते रहते थे. उन्हीं को लेकर वे बैठे रहते थे, उनमें रमे रहते थे. बाद में जब मैं शहर में पढ़ने लगा तो चाहते थे कि मैं कुछ नई पत्रिकाएं और पुस्तकें उन्हें पढ़ने को दूं.
लेकिन केवल नया-पुराना साहित्य पढ़ लेने से साहित्यिक रुचि की तृप्ति नहीं होती. साहित्यकारों का सतत् साक्षात् संपर्क भी वांछित होता है. कह चुका हूं कि वे अवसर मिलने पर साहित्यिक समारोहों और कवि-सम्मेलनों में जाते थे किंतु यह अवसर भी उन्हें कहां मिल पाता था? पहले वे चाहे जितना बुलाए जाते रहे हों, जबसे मैं इस परिदृश्य से जुड़ा तो देखा कि मंचों पर बुलाए जाने वाले कवियों की जमात और हो गई है. गजपुर के रामाधर त्रिपाठी जीवन मदनेश जी के अच्छे मित्रों में से थे. वे कभी-कभी मदनेश जी के यहां आया करते थे, कभी-कभी मदनेश जी वहां जाया करते थे. मैंने यह भी देखा कि कुछ साहित्यिक अदा में बोलने-बतियाने वाले कुछ गंवई लोगों से भी मदनेश जी की अच्छी पटती थी. यानी उस देहाती दुनिया में अपना साहित्यिक जीवन जीने के कुछ रास्ते उन्होंने बना लिए थे.
मदनेश जी संस्कृत साहित्य के इतने बड़े मर्मज्ञ हैं, यह जानने का पहला अवसर मुझे तब मिला जब मैं बरहज में विशारद कर रहा था. विशारद में मैंने संस्कृत ले रखी थी. कोर्स में बहुत कुछ चीजों के साथ ‘रघुवंश’ का तेरहवां सर्ग भी था. एक पंडितजी हमें संस्कृत पढ़ाते थे लेकिन हमारी समझ में कुछ आया नहीं था. दशहरे की छुट्टियों में मैं घर आया हुआ था. रानापार में संस्कृत के दो आचार्य थे. सोचा था, उनसे रघुवंश पढ़कर तैयार कर लूंगा. बारी-बारी से दोनों के पास गया और दोनों की समझ में कुछ नहीं आया. वे संस्कृत शैली में केवल वाक्यों का दुरूह अन्वय ही करते रह गए. मैं घबराकर वहां से भाग खड़ा हुआ और सोचा मदनेश जी से मिलता चलूं. वे घर पर ही थे. ‘‘आओ आओ, कब आए, अरे भाई तुम तो दिखाई ही नहीं पड़ते हो.’’
‘‘कल आया पंडित जी.’’
‘‘हाथ में कौन-सी पुस्तक है?’’
‘‘रघुवंश.’’
‘‘रघुवंश लिए क्यों घूम रहे हो?’’
‘‘आपके गांव के आचार्यों से पढ़ने आया था.’’
‘‘पढ़ लिया?’’ वे मुस्कराए.
‘‘क्या पढ़ लिया? उन लोगों ने जाल में ऐसा लपेटा कि जो आ रहा था वह भी जाने लगा.’’
‘‘अच्छा तो खोलो तेरहवां सर्ग.’’
मैं थोड़ा अचकचाया. ये क्यों खोलवा रहे हैं? माना कि ये संस्कृत जानते हैं किंतु क्या इतना कि रघुवंश पढ़ा पाएंगे.
मैंने सर्ग खोला तो वे पढ़ाने लगे. एक श्लोक का एक शब्द मैं बोलता था बाकी वे पूरा करते थे. उन्होंने जिस सफाई और कुशलता से इस सर्ग की कविताओं को खोला वह अद्भुत थी. भाव, अलंकार, भाषा सभी के मर्म खुलते जा रहे थे.
मैंने देखा उनका हलवाहा मुरतिया एक बार आया, कुछ देर खड़ा रहा, फिर चला गया. मदनेश जी पढ़ाने में डूबे रहे.
भीतर से कोई लड़की निकली. बोली, ‘‘बाबा आपको ईया बुला रही हैं.’’
मदनेश जी थोड़ा उबरे और बोले, ‘‘कह दो थोड़ी देर बाद आऊंगा.’’
‘‘नहीं जरूरी काम है, कहा है लेकर आना.’’
वे उठने को तैयार नहीं थे किंतु मैंने कहा, ‘‘पंडित जी हो आइए, मैं भी थक गया हूं, थोड़ा विश्राम कर लूं.’’
‘‘तो ठीक है, अभी आता हूं.’’ कहकर वे चले गए.
मैं उनकी काव्य-समझ से चकित था.
उनके पास वाल्मीकि, कालिदास आदि संस्कृत कवियों की कोई न कोई पोथी अवश्य देखता था किंतु उसी दिन मुझे भान हुआ कि वे इन पोथियों में कितने गहरे धंसे हुए हैं और इस देहाती माहौल में वे कैसे क्लासिक कृतियों से अपने को जोड़कर अपनी साहित्यिक पिपासा शांत करते रहते हैं.
उन्हें बारातों की भाषाओं में शास्त्रार्थ करते देखा था और देखा था कि किस तरह वे बड़े-बड़े पंडितों पर हावी हो जाते थे. एक घटना याद आ रही है. एक बारात की सभा में वे भी विराजमान थे. मेरे गांव के एक अधकचरे पंडित ने उधर के एक प्रकांड पंडित से बहस छेड़ दी और शुरू में ही कोई गलत शब्द बोल गए. उधर के पंडित बहस आगे बढ़ाने के पहले इस शब्द की अशुद्धता पर ही पिल पड़े. अब तो मदनेश जी को कूदना ही पड़ा और उन्होंने अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा और व्याकरणिक चतुराई दोनों से उस शब्द को सही सिद्ध कर दिया. दोनों ओर से जमकर वाग् युद्ध हुआ और किसी ने हार नहीं मानी. एक परंपरागत शुद्धता पर अड़ा हुआ था, दूसरा अशुद्धता को एक नई सर्जनात्मक शुद्धता प्रदान कर रहा था.
वे अंदर से लौट कर आए तो लगा उनके चेहरे पर कुछ तनाव है लेकिन वे उस कसाव को व्यक्त होने नहीं दे रहे हैं.
‘‘हां भाई निकालो कालिदास,’’ उन्होंने हंसते हुए कहा. वे ज्यों-ज्यों कालिदास में डूबते गए उनके चेहरे का तनाव खत्म होता गया और रसात्मक बहाव दिखाई पड़ने लगा था.
‘‘मालिक!’’ फिर मुरतिया हाजिर था.
उन्होंने ध्यान नहीं दिया, कालिदास में डटे रहे.
‘‘मालिक कब से कह रहा हूं बीया ले आइए, आप सुनते नहीं. खेत उकठ रहे हैं.’’
‘‘ओ इधर कालिदास उकठ रहे हैं तुझे खेत उकठने की चिंता लगी हुई है.’’
मुरतिया अपना कपार पीटता चला गया लेकिन मैंने वक्त की नजाकत समझी और कहा, ‘‘पंडित जी बस, यहीं रहने दीजिए. अब भारी पड़ रहा है. शेष कल-परसों-तरसों में पढ़ लूंगा-थोड़ा-थोड़ा.’’
‘‘अच्छा-अच्छा, अभी तुम हो न.’’
‘‘हां पंडित जी, अभी तो दस दिन तक हूं.’’
उन्हें प्रणाम किया और उठकर चला आया.
वहां से चला तो बहुत भारी हो आया था. सोचने लगा-ऐसा तो नहीं है कि बीया की चिंता नहीं होगी, होगी लेकिन पैसे नहीं होंगे. भीतर-भीतर वे सोच रहे होंगे-पैसे का इंतजाम कहां से करें. कहीं से हो नहीं पा रहा होगा. उनके बड़े बेटे रामानुज अभी पढ़ रहे हैं, छोटे बेटे तारकेश्वर पहलवानी करते हैं कभी घर-गृहस्ती में हाथ बंटाते हैं, कभी कमाई धमाई के लिए परदेश निकल जाते हैं और असफल लौट आते हैं. जो कुछ आसरा है, खेतीबारी का ही है. अच्छी खेतीबारी थी, बिकते-बिकते काफी कम रह गई और कछार की खेती कभी- खरीफ की फसल बची, कभी नहीं बची. कभी रबी की फसल अच्छी हुई, कभी नहीं हुई. और इतने बड़े और सम्मानित परिवार के विविध अर्थ-भार और सम्मान को ढोने का आधार खेत ही हैं. जब खरीफ की फसल नहीं होती है तो लोग बीज के रूप में बचा कर रखे हुए अनाज को भी खा-पी जाते हैं. इस साल ऐसा ही हुआ है.
घर के अंदर बुला कर पत्नी ने कहा होगा-खाने के लिए अनाज नहीं है और बाहर हलवाहा कह रहा है कि बीज नहीं हैं और दोनों अभावों का गहरा दंश अंदर-अंदर झेलते हुए भी मदनेश जी हंसने का बहाना ढूंढ़ रहे थे और बहाना था साहित्य.
पूरे जवार का जीवन बाढ़ की सुरसा के मुंह में समाकर इसी अभाव की नियति को भोग रहा है. भोगने वालों की दयनीयता की सीमा का कोई अंत नहीं है. हर घर यही सोचता होगा कि उसकी स्थिति दयनीय है लेकिन थोड़ा इधर-उधर देखने पर लगता है कि कुछ घर उससे भी दयनीय हैं. और उनकी दयनीयता का अनुमान कीजिए जिनके पास न खेत है न बारी, न घर न दुआर. मेरे घर ने इस दयनीयता को कम नहीं भोगा है इसलिए इसके चौतरफा दर्द को समझता हूं. जब से मेरे भाई साहब बाहर कमाने लगे, इस दयनीयता की स्थिति कुछ टूटी. इसी प्रकार जिन घरों के लोग बाहर कमा रहे हैं और पैसे भेजते हैं उनकी दयनीयता कुछ टूटती रहती है किंतु मदनेश जी के यहां तो बाहर का कोई सहारा नहीं, क्या करें? लेकिन वे हंस तो सकते हैं. हंसते हैं.
जहां तमाम लोग अपनी दयनीयता का प्रदर्शन करते रहते हैं और उसे तोड़ने के उनके प्रयत्नों का शोर सुनाई पड़ता रहता है, वहां मदनेश जी अपनी दयनीयता छिपाते हैं, उसे तोड़ने का प्रयत्न करते रहते हैं किंतु उनके प्रयत्नों की पदचाप नहीं सुनाई पड़ती. इसीलिए लोग शायद समझते हैं कि वे निकम्मे हैं, अपनी स्थिति से लड़ते नहीं हैं. शायद उनके घर वालों को भी यही भ्रम है. बाहर से शांत, निरुद्वेग यह व्यक्ति अपने भीतर न जाने कितना ज्वालामुखी छिपाए बैठा है, इसे कोई नहीं समझता. तमाम दर्दों को साहित्य के रस में घोलकर पी जाने वाले इस व्यक्ति को थोड़े-थोड़े कष्टों में झुंझला जाने वाले, चीखने-चिल्लाने वाले व्यक्ति क्या समझेंगे?
रामानुज मेरे साथ ही बरहज में थे. मैं विशारद, फिर साहित्य-रत्न करने की प्रक्रिया में वहां था और वे वहां हाई स्कूल में थे. उन्होंने शायद पैसे के लिए मदनेश जी को लिखा होगा. किंतु पैसे नहीं आए. मैं घर जा रहा था तो रामानुज ने भी नहीं कहा कि आप जा रहे हैं तो पिता से मांग कर पैसे लेते आइएगा. इसमें उन्होंने अपने घर की प्रतिष्ठा का अपमान समझा होगा. इस बार मैं सात-आठ दिन के लिए गांव गया था.मदनेश जी के यहां जाने का संयोग नहीं बना सका. शायद उन्होंने कहीं से जान लिया कि मैं आया हुआ हूं. जाड़े की सुबह थी. मैं एकदम सवेरे घर से निकल पड़ा-बरहज के लिए. भयानक कुहरा छाया हुआ था. दो गज आगे का दृश्य नहीं दीखता था. पकरपुरा के बागीचे तक पहुंचा हूंगा कि लगा कोई मुझे आवाज दे रहा है. कुहरे में आवाज भी खो गई थी किंतु कुछ लग रहा था कि कोई आवाज मेरा पीछा कर रही है. मैं बगीचे में रुक गया और अनकने लगा. आवाज निकटतर आती गई और मुझे लग गया कि यह आवाज मदनेश जी की है.
मैंने चिल्ला कर कहा, ‘‘हां पंडित जी सुन रहा हूं. मैं खड़ा हूं.’’
‘‘अरे भाई आवाज की घंटियां दो, तुम कहां हो?’’
मैंने चिल्ला कर कहा, ‘‘मैं बागीचे के शुरू में ही खड़ा हूं.’’
वे बोलते हुए निकटतर आते गए और जब बहुत नजदीक आ गए तो बोले, ‘‘तुम इस बार मिलने नहीं आए. सोचा था आओगे. आज तुम्हारे घर गया तो मालूम हुआ कि तुम अभी-अभी निकल गए. बस चला आ रहा हूं आशा की डोर पकड़े कि तुम कहीं न कहीं मिल ही जाओगे. अरे भाई, ये दो रुपए ले जाओ. रामानुज चातक की तरह चोंच खोले हुए प्रतीक्षा कर रहे होंगे. दो घूंट स्वातिजल की तरह उनकी चोंच में डाल देना.’’
मुझे हंसी आ गई, वे भी हंसने लगे. मैंने देखा वे बड़े इत्मीनान से खड़े हुए थे और हंस-हंस कर बातें कर रहे थे. जल्दी-जल्दी आने की कोई घबराहट नहीं थी और न चेहरे पर इस भय के निशान थे कि ‘हाय रामदरश नहीं मिले तो क्या होगा.’ मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि मेरे न मिलने पर वे बड़ी आश्वस्ति के साथ घर लौट गए होते जैसे कुछ हुआ ही नहीं, और रास्ते भर उसी तरह अपने से दार्शनिक बात करते हुए होते.
मैं ज्यों-ज्यों उच्चतर पढ़ाई की ओर बढ़ता गया और फिर नौकरी में उलझ कर एक शहर से दूसरे शहर तक भटकता त्यों-त्यों गांव जाने का क्रम क्षीण होता गया और मदनेश जी से भेंट का सिलसिला भी टूटता गया. इस बार बहुत दिनों बाद गांव आया तो वह दुखद सूचना मिली. लेकिन उनके पोते के मुख से यह सुनकर कि उस दिन भी उन्होंने कसरत की थी, लगा कि वे अंत तक जवान बने रहे. पारिवारिक अभावों ने न उन्हें जर्जर किया, न बूढ़ा.
एक घटना याद आई. एक बार जब सुबह-सुबह मैं बनारस जा रहा था तो राजधानी गांव के बाहर वाले बागीचे में उनसे भेंट हुई. शायद वे वहां पहले से बैठे थे. बहरहाल हम लोगों ने उस बागीचे के पंप पर दातौन किया और गुड़ का जलपान किया. गुड़ खाकर मैंने पानी पिया. जब उनके लिए लोटे में जल लाया तो बोले, ‘‘नहीं पानी नहीं पिऊंगा, मिठासे मुंह चलूंगा.’’ उनकी बात सुनकर उनके साथ मैं भी मुसकरा तो पड़ा किंतु लगा कि इस कथन में मदनेश जी की जीवन-यात्रा का सारा मर्म छिपा है. कितने कष्ट आए, कितनी यातनाएं झेलनी पड़ीं लेकिन उन्होंने अपने मुंह का स्वाद नहीं बिगाड़ा, मिठासे मुंह चलते रहे. मुझे लगता है साहित्य उस गुड़ की डली के समान है जिसे एक बार मुंह में डाला तो उसके स्वाद को बिगाड़ने वाली और कोई चीज नहीं लो.
‘‘जानते हो एक जर्मन डाक्टर ने क्या कहा है?’’ चलते-चलते वे बोले.
‘‘कुछ कहा ही होगा?’’
‘‘अरे कुछ नहीं बहुत कुछ कहा है. कहा है कि आदमी कभी बूढ़ा न हो यदि वह चाहे तो.’’
‘‘मुझे तो यह बात गलत लगती है. क्या बुढ़ौती हमारे चाहने न चाहने पर आएगी या नहीं आएगी. कौन चाहता है बूढ़ा होना लेकिन सभी बूढ़े होते हैं.’’
‘‘नहीं, उसने सच कहा है. अब मुझी को लो मैं नहीं चाहता कि बूढ़ा होऊं और बूढ़ा नहीं हूं.’’
मैं कुछ सोचने लगा था कि बोले, ‘‘तुमने कहा कि कौन चाहता है बूढ़ा होना लेकिन चाहने का मतलब बड़ा गहरा होता है. मन को ऐसा बनाना पड़ता है कि उस पर बूढ़ेपन की परछाई न पड़े. जैसा मन होता है वैसा तन होता है. शरीर थोड़ा अशक्त भले हो जाए किंतु यदि मन बूढ़ा नहीं हुआ है तो तन में भी एक ऊर्जा बनी होती है. लेकिन मन को बूढ़ा न होने देना आसान काम तो नहीं है. मन बूढ़ा हो जाएगा तो लोग जवानी में ही बूढ़े हो जाते हैं.’’
मुझे लगा कि मदनेश जी अपनी मस्ती का राज उद्घाटित कर रहे हैं. सचमुच इस कवि ने अपने मन को बूढ़ा नहीं होने दिया और साठ-पैंसठ साल की उम्र में भी उसकी ऊर्जा बनी हुई है.
जीवन-यात्रा के रेगिस्तान में मदनेश जी को एक नखलिस्तान मिला था. रामानुज बी.ए. करके कानपुर के एक मिल में क्लर्क लग गए थे. कुछ पैसे नियमित रूप से घर आने लगे थे. एक दिन सुना कि रामानुज पागल हो गए हैं. उन दिनों मदनेश जी के यहां गया तो मदनेश जी का वही निरुद्वेग चेहरा. उसी तरह प्रकृतिस्थ होकर साहित्य पर बातचीत. बिना किसी झल्लाहट के रामानुज से बातचीत, उनकी दवा-दारू की व्यवस्था. रामानुज अच्छे नहीं हुए किंतु उन्हें लेकर मदनेश जी की वही निरुद्वेगता अंत तक दिखाई पड़ती रही. सो उस दिन जब उन्होंने अपनी सतत जवानी की बात कही तो उनसे जुड़े इस तरह के अनेक प्रसंग मेरे भीतर कौंध गए.
चलते-चलते एक सघन पेड़ के नीचे मदनेश जी रुक गए और कहा, ‘‘थोड़ा छंहा लो. जल्दी क्या है?’’
‘‘ठीक है.’’ कहकर मैं रुक गया. देखा तीन-चार जवान मजदूरनें भी वहां बैठी थीं. मैं सामने पकती हुई फसलों का विस्तार देख रहा था. ‘‘भक्क हई बुढ़वा क्या निहार रहा है रे सखी! लगता है अंखियों से निगल लेगा.’’
मैंने चौंककर उधर देखा. मदनेश जी ने झटके से अपनी निगाह खेतों की ओर फेर ली थी और मजदूरनें मुसकरा रही थीं.
‘‘चलो चलते हैं.’’ कहकर मदनेश जी चल पड़े.
‘‘अरे तुम लोगों को किसी की बुजुर्गियत का भी लिहाज नहीं है जो मुंह में आता है बक देती हो.’’ मैंने मजदूरनी को एक डांट पिलाई.
वे मुस्कराने लगीं. एक बोली, ‘‘बाबूजी, वे आपसे अभी ज्यादा जवान लगते हैं. जो उन्हें देखना चाहिए था वह आप देखते रहे, जो आपको देखना चाहिए वह वे देखते रहे.’’
लपककर मदनेश जी के साथ हो लिया और उनकी जवानी का एक रंग यह भी खुला. वैसे कोई नया नहीं खुला, लोग तो इसके बारे में कितना कुछ कहते रहते हैं. मैंने शुरू में जिस ‘और...’ की बात कही थी वह यही थी. पंडित जी का मन ही नहीं, सारी इंद्रियां भी अभी जागरूक हैं. वे इस अवस्था में भी डटकर खाते हैं, सोते हैं, व्यायाम करते हैं और सुंदर औरतें उन्हें अच्छी लगती हैं. वे कवि हैं, एक जीवन्त मनुष्य हैं. दोनों के लिए नारी का आकर्षण बहुत अर्थवान होता है. कवि के लिए नारी का साहचर्य कई दृष्टियों से बहुत आवश्यक होता है. प्रकृति-सौंदर्य के साथ ही नारी-सौंदर्य कविता का मुख्य विषय रहा है. दृष्टियां बदलती रही हों किंतु यह विषय कभी बासी नहीं हुआ, क्योंकि मन के लिए यह सौंदर्य हमेशा अपनी अनिवार्यता बनाए रहा. दूसरी बात यह है कि कवि नारी को अपने काव्य की प्रेरणा के साथ-साथ कविता के श्रोता सहयात्री के रूप में भी देखना चाहता है. और तीसरी बात यह है कि उसका सौंदर्य-प्रेमी मन काफी अवस्था तक नारी के तन-मन के आकर्षण से बंधा रहता है. शहरों के सभ्य समाज में कवियों को समानधर्मा नारियों के संपर्क में आने की अनेक सुविधाएं हैं किंतु देहात में मध्यवर्ग इतना बंद रहता है कि इस परिदृश्य की कल्पना ही नहीं की जा सकती. वहां कौन-सी स्त्री पढ़ी-लिखी है? कौन कविता समझती है? और पर-पुरुषों के सामने आने का उन्हें कहां अवसर है? इसलिए मदनेश जी जैसे कवि देहात में अपना सौंदर्य-बोध तृप्त करने के लिए निम्न वर्गीय नारियों के साथ एक रूमानी लगाव स्थापित कर लेते हैं. उस लगाव के पीछे भोगवाद नहीं होता (होता भी होगा) बल्कि एक भावात्मक स्निग्धता और उदारता से भरा मानवीय व्यवहार होता है. इसमें उनके जीवन और कवि दोनों की जिजीविषा शक्ति पाती रहती है. मदनेश जी को मैंने इसी रूप में पाया था.
‘‘रूस में जो कुछ हो रहा है, वह तुम्हें कैसा लगता है.’’ पंडित जी का स्वर था.
मैं अपने ध्यान में चौंका था.
‘‘क्या पंडित जी?’’
‘‘अरे भाई वहां जो साम्यवादी व्यवस्था का रथ चल रहा है जिसमें सभी लोगों की नौकरी-चाकरी, खाने-पीने, दवा-दारू तथा अन्य आवश्यकताओं की चिंता सरकार की चिंता होती है, उसके बारे में पूछ रहा हूं. मुझे तो यह सब बहुत अच्छा लग रहा है. तुम्हें कैसा लग रहा है?’’
‘‘पंडित जी, मैं तो मार्क्सवादी विचारधारा से बहुत प्रभावित हूं. मुझे तो अच्छा लगता ही है किंतु आपको अच्छा लग रहा है, जानकर आश्चर्य हुआ.’’
‘‘क्यों?’’
‘‘क्योंकि आप ठहरे ईश्वरवादी व्यक्ति, सुबह-शाम पूजा-पाठ करते हैं, तमाम परंपराओं के प्रति आपका बेहद लगाव है फिर कैसे?’’
‘‘अरे यह सब व्यक्तिगत बातें हैं, इससे सामाजिक कार्यों पर क्या असर पड़ने वाला है? मुख्य समस्या है भूख, गरीबी, बेकारी आदि. एक देश में कोई भूखा न रहे, कोई बेकार न रहे, कोई बेघर न रहे, कोई दवा के बिना मर न जाए, कागज-किताब, फीस के कारण किसी का बच्चा अनपढ़ न रह जाए, पैसे के बल पर असभ्य, असंस्कृत लोग सम्मानित न होते रहें और गरीबों पर जुल्म न ढाते रहें तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है? सुना है रूस में यही सुखद स्थिति पैदा की जा रही है?’’
‘‘हां पंडित जी, सचमुच रूस का यह परिदृश्य बहुत ही उत्साहवर्धक है. आप इसके समर्थक हैं. यह बहुत अच्छा लग रहा है.’’
पंडिज जी चुप हो गए लेकिन मैं मन-ही-मन मुखर हो गया. पंडित जी गांव की इस दुनिया में बंदी होकर भी यहां-वहां से सुदूर देशों की नई हलचलों की खोज-खबर पाते रहते हैं या लेते रहते हैं. उनकी इस जागरूकता के प्रति मैं नत हो आया और भारतीय परंपरा के साथ गहराई से जुड़े हुए इस पंडित कवि का रूस के प्रति यह उत्साह तो मुझे चकित कर गया और साथ ही लगा कि उनकी पंडिताई और कविताई की मस्ती के नीचे भौतिक अभाव और तकलीफों का जो मौन दर्द छिपा हुआ है वह बोल पड़ा है. उन्हें लगा कि निरंतर चुपचाप सालने वाले इस दर्द का इलाज रूस के पास है. हमारे यहां भी होना चाहिए.
‘‘पंडित जी, आपसे पूछा नहीं कहां जा रहे हैं? किसी साहित्यिक समारोह में जा रहे हैं क्या?’’
‘‘साहित्यिक समारोह? अरे हां, नहीं...अब साहित्यिक समारोहों में मुझे कौन पूछता है भाई! अब तो काफी नए प्रकार का साहित्य आ गया है, नए प्रकार के साहित्यकार आ गए हैं. अरे मुझे अच्छा लगता है यह नया साहित्य.’’
‘‘तो?’’
‘‘सुना है देवरिया में बाहर से कोई डाक्टर आया है जो तपेदिक का इलाज करता है. वहीं जा रहा हूं. देखूं तो क्या बात है?’’
‘‘तपेदिक?’’ मैं चौंका.
‘‘हां रामानुज की मां है न.’’
‘‘तो उन्हें तपेदिक है? आपने कभी बताया नहीं. शायद कोई भी नहीं जानता.’’
वे चुप थे. उनकी चुप्पी से मुझे लगा कि वे भारी हो आए हैं. कुछ देर बाद बोले, ‘‘रहिमन निज मन की व्यथा मन ही राखौ गोय. तुम कविता के सत्य को जीने में विश्वास रखते हो न.’’
‘‘हां रखता हूं.’’
‘‘तो फिर.’’ वे जोर से हंसे और जब चुप हुए तो लगा कि आसपास एक गहरा सन्नाटा छा गया है. कुछ देर हम यों ही चलते रहे कि गाड़ी के इंजन की झकझाकहट सुनाई पड़ी.
‘‘गाड़ी आ गई.’’ मैंने कहा.
‘‘हां हम भी आ गए...गाड़ी गति का ही तो पर्याय है. चरैवेति चरैवेति...यही जिन्दगी है.’’ वे फिर जोर से हंसे और उनकी हंसी इंजन की आवाज से जुड़ गयी.
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