‘भि क्षुक’ निराला की सर्वाधिक लोकप्रिय और मार्मिक कविता है. यह छायावादी दौर में यथार्थवादी जीवन-चित्र प्रस्तुत करने वाली इकलौती कविता है. इस...
‘भिक्षुक’ निराला की सर्वाधिक लोकप्रिय और मार्मिक कविता है. यह छायावादी दौर में यथार्थवादी जीवन-चित्र प्रस्तुत करने वाली इकलौती कविता है. इस कविता में निराला ने लिखा है- ‘‘वह आता/दो-टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता!’’ यहाँ कलेजे के दो-टूक करना और पछताते हुए पथ पर आना, यह संकेत करता है कि निराला का यह ‘भिक्षुक’ पेशेवर भिखारी नहीं है. जिन लोगों का भीख माँगने का स्वभाव या धंधा होता है, वे अपने इस कर्म पर क्यों पछताएँगे? उन्हें भीख माँगते हुए शर्म क्यों आएगी? तो निराला का यह भिक्षुक कौन है? यह सवाल प्रायः अनुत्तरित है. इस सवाल को हल करने के लिए तत्कालीन समय और समाज की परिस्थितियों का बारीकी से अध्ययन करना होगा. साथ ही, यह भी देखना होगा कि क्या इस कविता द्वारा चित्रित जीवन-यथार्थ की भी कोई परम्परा है?
भारत में अंग्रेजी राज की जड़ें जैसे-जैसे मजबूत होती गईं, भारत की आर्थिक दशा बिगड़ती गई. पहले भारत कृषि और उद्योग दोनों में समुन्नत था. लेकिन अंग्रेजों ने यहाँ के उद्योग-धन्धों को नष्ट कर दिया और इस देश की आर्थिक निर्भरता का साधन मात्र कृषि रह गया. ब्रिटिश संसदीय जाँच समिति के अध्यक्ष माटगोमरी मार्टिन ने 1840 में भारत की आर्थिक दशा को दर्शाते हुए जो रिपोर्ट प्रस्तुत किया था उसमें आगाह करते हुए कहा था- ‘‘मैं यह नहीं मानता कि भारत एक कृषि प्रधान देश है. भारत जितना कृषि प्रधान है, उतना उद्योग प्रधान भी है, और जो उसे कृषि प्रधान देश की स्थिति तक लाना चाहते हैं, वे सभ्यता के पैमाने पर उसका स्थान नीचे लाने की कोशिश करते हैं.’’ तात्पर्य यह कि धीरे-धीरे भारत के उद्योग-
धंधों का विनाश हुआ और देश की पूरी निर्भरता कृषि पर आधारित होती गई. 1857 के स्वाधीनता-संघर्ष में अंग्रेजों द्वारा जो भारतीयों का नरसंहार किया गया और दमन का जो चक्र चलाया गया उससे लम्बे समय तक भारतवासी उबर नहीं पाये. 12 फरवरी, 1958 ई. को ‘हाउस ऑफ कॉमन्स’ में जॉर्ज कॉनेक्स लीविस ने इस पर बोलते हुए कहा था- ‘‘मैं पूरे विश्वास के साथ कहता हूँ कि धरती पर आज तक कोई भी सभ्य सरकार इतनी भ्रष्ट, इतनी विश्वासघाती और इतनी लुटेरी नहीं पाई गई.’’ ईस्ट इंडिया कम्पनी के सौ वर्षों के शासन काल को जॉन ब्राइट ने ‘ए हंड्रेड ईयर्स ऑफ क्राइम’ कहकर भर्त्सना की थी.
किन्तु, इससे क्या होता है? भारत तो बरबाद और कंगाल हो चुका था. विक्टोरिया ने 1858 ई. में जब भारत की सत्ता का अधिग्रहण किया तब उनके घोषणा-पत्र से भारतवासियों को सुख-शान्ति का भरोसा हुआ था. उनके शासन काल में देश भर में तेजी से सड़कों और रेलों का विकास हुआ. भारतीयों को लगा कि अब उनकी दशा सुधरेगी. भारतेन्दु ने लिखा- ‘‘धन्य सहबा जौन चलाइस रेल/मानो जादू किहिस दिखाइस खेल.’’ विक्टोरिया के प्रति इसीलिए उस समय के देश-प्रेमियों में आदर का भाव दिखाई पड़ता है. किन्तु भारतीय जनता का त्रास नहीं मिट रहा था. यहाँ के लोग लगातार निर्धन होते जा रहे थे. भारतेन्दु की इस कविता में यही भाव प्रकट हुआ है-
तार औ’ रेल की चाल करी
‘हरिचन्द’ जो लोगन को सुखदायी.
दीन भये बलहीन भये धनहीन
भये सब बुद्धि हिरानी.
ऐसी न चाहिए आपु के राज
प्रजाजन ज्यों मछरी बिनु पानी.
टिक्कस देहु छुड़ाई कहै सब
जीवौ सदा विक्टोरिया रानी.
भारतेन्दु ने विक्टोरिया की प्रशंसा करते हुए कहा है कि आपने तार और रेल का भारत में प्रचलन किया, यह तो सुखदायक है, किन्तु भारत के लोग दयनीय, कमजोर, निर्धन हो गए हैं, उनकी बुद्धि जवाब दे रही है कि वे क्या करें. हे महारानी, आपका ऐसा राज्य नहीं चाहिए जिसमें भारत की प्रजा पानी के बगैर मछली की तरह तड़प रही है. उस पर टैक्स का बोझ! कम-से-कम उसे तो कम कर दिया जाए.
भारत में रेल की सुविधाएँ बढ़ने से कुछ ही समय बाद लोगों ने देखा कि भारत की कृषि-उपज बहुत तेजी से विलायत गमन कर रही है. और देखते ही देखते भारत में भीषण अन्न संकट पैदा हुआ. इससे अकाल का ताण्डव शुरू हुआ. लोग भूख से मरने लगे. डब्लू. डिगवी ने ‘प्रॉसपेरस ब्रिटिश इंडिया’ (1901) नामक पुस्तक में लिखा- ‘‘मोटे तौर पर कहा जाय तो 19वीं शताब्दी के अन्तिम तीस वर्षों में अकेले खाद्यान्नों की जितनी कमी हुई, वह सौ वर्ष पहले की तुलना में चार गुना अधिक और चार गुना ज्यादा व्यापक थी.’’ यह भारतीय रेल का ही चमत्कार था. भारत में अकाल पड़ा और उस पर एक ‘अकाल आयोग’ का गठन किया गया. रजनीपाम दत्त ने ‘इंडिया टुडे’ नामक अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में लिखा है- ‘‘1880 में प्रकाशित आयोग की रिपोर्ट का निष्कर्ष यह था कि अकालों के विनाशकारी परिणामों का मुख्य कारण यह है कि यहाँ की विशाल जनता प्रत्यक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है और ऐसा कोई उद्योग नहीं है, जिसके सहारे आबादी का उल्लेखनीय हिस्सा काम चला सके.’’ उद्योगधंधों के नष्ट होने के बाद भारतीय जनता पूरी तरह कृषि पर निर्भर थी और आकाशी कृपा तथा पारम्परिक कृषि-स्वरूप के कारण कृषि-उत्पादन बहुत कम हो पाता था, उस पर हर साल लगान या टैक्स का बढ़ाया जाना भारतीय जनता को अकाल की ओर ढकेल रहा था. भारत की इस आर्थिक दुर्दशा की ओर सबसे पहले दादाभाई नौरोजी ने ध्यान आकर्षित किया, फिर रमेश चन्द्र दत्त ने. उन्होंने ‘इकनॉमिक हिस्ट्री ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ तथा ‘इंडिया इन द विक्टोरियन एज’ नामक अंग्रेजी में दो पुस्तकें लिखीं. ये दोनों तब लंदन में रहते थे. कार्ल मार्क्स ने ‘पूँजी’ में भारत के तत्कालीन अर्थव्यवस्था के कई आँकड़े दिये हैं, जिसमें यहाँ के कृषि-उपज का विलायत जाने और वहाँ की संपत्ति में इजाफा होने का सप्रमाण आँकड़ा प्रस्तुत किया है. हिन्दी में राधामोहन गोकुल जी ने ‘देश का धन’ एवं महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘संपत्तिशास्त्र’ नामक पुस्तकें लिखकर भारतीय निर्धनता के कारणों की तलाश की है.
‘संपत्तिशास्त्र’ में द्विवेदी जी ने विस्तार से भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रकाश डाला है. वे लिखते हैं कि ईस्ट इंडिया कम्पनी की प्रभुता के पहले, और उसके कुछ समय बाद तक भी, इस देश में उद्योग-धंन्धों की बड़ी अधिकता थी. प्रायः सब तरह का माल तैयार होता था और देश-देशान्तरों को जाता था. पर कम्पनी ने अपने शासन-शक्ति के बल से युक्तिपूर्वक उसका सर्वनाश कर दिया. इससे देश का निर्वाह अब प्रायः एकमात्र खेती की पैदावार पर रह गया है.’’ आगे वे बताते हैं कि किसानों का सम्बन्ध कृषि से है और कृषि का जमीन से. परन्तु अंगरेजी राज में भारत के किसानों से उसकी जमीन छीन ली गई. अंगरेजी सरकार हिन्दुस्तान में शासन भी करती है और जमींदारी भी. वह कुछ वर्षों बाद नए सिरे से जमीन की मापजोख करके, लगान बढ़ा देती है. और जो अधिक लगान नहीं देता उसे बेदखल कर देती है. खेती की उपज से ही जीवन-निर्वाह करने वालों की लोटा-थाली बिकती चली जाती है.
यही किसान थे जो धीरे-धीरे भूमिविहीन होकर मजदूर होते चले जाते थे और उन्हें भारत में उद्योग-धन्धा नहीं होने के कारण काम भी नहीं मिल पाता था. अनावृष्टि होने पर उन्हें खेतों में भी काम नहीं मिल पाता था और वे शहरों में जाकर भीख मांगते थे. अंग्रेजों ने भारत के किसानों को बरबाद करके रख दिया था. द्विवेदीजी ने एक अन्य पुस्तक भी लिखी है- ‘अवध के किसानों की बरबादी’. ‘संपत्तिशास्त्र’ में वे व्यंग्य करते हुए कहते हैं- ‘‘यदि इस देश के सम्पत्ति-रस को निचोड़ना ही था, तो और किसी मद से निचोड़ते जहाँ अधिक गीलापन होता. निचोड़ा कहाँ से जहाँ से मुश्किल से दो-चार बूंद निकली.’’ इस तरह भारतीय किसानों को भिखारी बना दिया गया. निराला का ‘भिक्षुक’ वही भारतीय किसान है, इसलिए वह अपनी दुर्दशा पर और भिखारीपन पर दो-टूक कलेजे के करता है और पछताता हुआ पथ पर आता है.
द्विवेदी जी बताते हैं कि पुराने जमाने में जब अन्न बहुत मंहगा हो जाता था और लोग भूखों मरने लगते थे तब राजा हुक्म देता था कि देश से बाहर अन्न न जाए. पर आजकल का जमाना ठहरा अंगरेजी! इस देश वाले चाहे भूखों मर जायँ, विदेश माल भेजना बन्द नहीं होता. ‘संपत्तिशास्त्र’ का प्रारम्भ ही इन पंक्तियों से होता है- ‘‘हिन्दुस्तान संपत्तिहीन देश है. यहाँ सम्पत्ति की बहुत कमी है. जिधर आप देखेंगे उधर ही आपको दरिद्र देवता का अभिनय, किसी न किसी रूप में अवश्य ही देख पड़ेगा. परन्तु इस दुर्दमनीय दारिद्र को देखकर भी कितने आदमी ऐसे हैं जिनको उसका कारण जानने की उत्कंठा होती हो? यथेष्ठ भोजन-वस्त्र न मिलने से करोड़ों आदमी जो अनेक प्रकार वे कष्ट पा रहे हैं उनका दूर किया जाना क्या किसी तरह सम्भव नहीं? गली-कूचों में, सब कहीं, धनाभाव के कारण जो कारुणिक क्रन्दन सुनाई पड़ता है उसके बन्द करने का क्या कोई इलाज नहीं? हर गाँव और हर शहर में जो अस्थिचर्मावशिष्ठ मनुष्यों के समूह के समूह आते-जाते देख पड़ते हैं, उनकी अवस्था उन्नत करने का क्या कोई साधन नहीं?’’ यहाँ वहीं निराला का भिक्षुक है, जिसकी ओर द्विवेदी जी ध्यान दिलाते हैं. उनमें यह चेतना शुरू से विद्यमान थी, इसलिए 1903 ई. में लिखित ‘स्वदेशी वस्त्र का स्वीकार’ कविता में वे देशवासियों को जगाते हुए कहते हैं-
‘‘न सूझे है अरे भारत भिखारी!
गई है हाय तेरी बुद्धि मारी!
हजारों लोग भूखों मर रहे हैं
पड़े वे आज या कल कर रहे हैं
महा अन्याय हा हा हो रहा है;
कहें क्या कुछ नहीं जाता कहा है
मरें असगर, बिसेसर और काली;
भरें घर ग्रांट, ग्राहम और राली.’’
‘भारत भिखारी’ शब्द पर ध्यान दीजिए, यही भारत भारतेन्दु के नाटक ‘भारत-दुर्दशा’ में पहली बार दिखाई देता है और यही निराला का भिक्षुक भी है, जिसके पेट-पीठ मिलकर एक हो गए हैं. भूखा-नंगा और भिखारी भारत. इस भारत को भारतेन्दु हरिशचन्द्र के बाद सबसे गहराई से महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने लेखन में सजीव उपस्थित किया है. द्विवेदी जी भी प्रारम्भ में ब्रजभाषा में ही कविताएँ लिखा करते थे. उन्होंने अकाल पीड़ित भारतीय जनता का मार्मिक चित्रण करते हुए ‘भारत दुर्भिक्ष’ नामक कविता लिखी थी, जो 11 मार्च, 1897 ई. के ‘हिन्दोस्तान’ नामक समाचार पत्र में प्रकाशित हुई थी. इसकी इन पंक्तियों को ध्यान से पढ़ें तो निराला का ‘भिक्षुक’ यहाँ दिखाई पड़ेगा-
गली-गली कंगाल पेट पर हाथ दोउ धरि धावैं,
अन्न-अन्न पानी-पानी कहि शोर प्रचंड मचावैं.
बालक, युवा, जरठ, नारी, नर, भूख-भूख कहि गावैं,
अविरल अश्रुधार आँखिन ते बारम्बार बहावैं.
अस्थिमात्र जिनके शरीर हैं ऐसे बालक नाना;
गोद माहिं माता की लिपटे रोवत कंठ सुखाना.
माँगे मिले न भीख माय कहँ किहि विधि राखहि प्राना,
विह्वल विकल विपन्न पुकारति हा! हा! हा भगवाना!!!
लोचन चले गए भीतर कहँ कंटक समकच छाए
कर में खप्पर लिये, अनेकन जीरन पट लपटाए.
माँस विहीन हाड़ की ढेरी भीषण भेष बनाए
मनहुँ प्रबल दुर्भिक्ष रूप बहु धरि विचरत सुख पाए.
यह अकाल का महा ताण्डव अंग्रेजीराज में लगातार चल रहा था और स्वाधीनता के बहुत बाद तक चलता रहा. द्विवेदीजी ने इस कविता के बाद एक और कविता लिखी- ‘त्राहि नाथ! त्राहि!!’ जो कलकत्ता के साप्ताहिक ‘हिन्दी बंगवासी’ में 29 नवम्बर, 1897 के अंक में प्रकाशित हुई थी. इसमें वे बताते हैं कि भारत में अकाल का कोप भारत झेल रहा था और लोग भूख से लगातार मरते जा रहे थे, दूसरी ओर हैजा, प्लेग आदि महामारियाँ भी लोगों को ग्रस रही थीं, साथ ही प्रकृति भी अपनी विनाशलीला जगह-जगह दिखला रही थी- कहीं बाढ़, तो कहीं भूकम्प और कहीं तूफान- लगातार इस देश की आबादी को खत्म कर रही थी.
नागपुर से माधव राव सप्रे ‘हिन्दी निबन्धमाला’ नामक मासिक पत्रिका निकालते थे. इसके मई, 1908 ई. के अंक में उन्होंने लिखा था कि 1713 ई. से 1900 ई. तक दुनिया भर की तमाम लड़ाइयों में सिर्फ पचास लाख लोग मारे गये हैं, किन्तु हमारे हिन्दुस्तान में केवल 1891 से 1901 ई. यानी इन दस वर्षों में अकाल और भूख के मारे एक करोड़ नब्बे लाख मनुष्यों ने प्राण त्याग किए. इसके अलावा प्राकृतिक आपदाओं से भी लाखों लोग मरे. इसी बात को मैथिली शरण गुप्त ने ‘भारत-भारती’ में इस प्रकार लिखा-
सब विश्व में सौ वर्ष में, रण में मरे जितने हरे
जन चौगुने उससे यहाँ दस वर्ष में भूखों मरे.
राष्ट्रकवि ने आगे लिखा कि जिस प्रकार तेज हवा चलने पर सूखे पत्ते उड़ते हैं वैसे ही लाखों भिखारी चारों ओर घूमते रहते हैं. आदमी का पेट खाली हो तो वह उससे नीच से नीच काम भी करवा लेती है. कुल, जाति का भेद मिट गया है, बस एक मुट्ठी अन्न चाहिए. उनके कमर में एक चिथड़ा रहता है और हाथ में खप्पर. किसी पेड़ के नीचे सो रहते हैं. नंगे और भूख से बिलबिलाते हुए बच्चे उनके साथ रोते हुए चलते हैं. निराला के ‘भिक्षुक’ को हम शब्दशः यहाँ देख सकते हैं-
वह पेट उनका पीठ से मिलकर हुआ क्या एक है?
मानो निकलने को परस्पर हड्डियों में टेक है.
निकले हुए हैं दाँत बाहर, नेत्र भीतर हैं धंसे,
किन शुष्क आंतों में न जाने प्राण उनके हैं फंसे!
अविराम आँखों से बरसता आँसुओं का मेह है,
है लटपटाती चाल उनकी, छटपटाती देह है
गिरकर कभी उठते यहाँ, उठकर कभी गिरते वहाँ
घायल हुए से घूमते हैं वे अनाथ जहाँ-तहाँ.
एक मुट्ठी अन्न को वे द्वार-द्वार पुकारते,
कहते हुए कातर वचन सब ओर हाथ पसारते-
‘‘दाता, तुम्हारी जय रहे, हमको दया कर दीजियो,-
माता! मरे हा! हा! हमारी शीघ्र ही सुध लीजियो.’’
यह है असली भारत- भूखा, नंगा. इसीलिए निराला ने ‘विधवा’ कविता में ‘दलित भारत’ कहा है. निराला के क्रांतिकारी चिन्तन का यही उत्स है. जिस देश में हर वर्ष भूख से लाखों लोग मरते हैं, वहाँ वर्ण-व्यवस्था कैसी? तुलसीदास ने ‘दारिद दसानन’ कहा है, जिसने सबको ग्रस लिया है. निराला कहते हैं- अब वास्तव में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य नहीं हैं, सब शूद्र हैं. अर्थात् जाति-बन्धनों में बंधे हुए भारतीय समाज में सबकी स्थिति शूद्र की है क्योंकि भारत ही दलित है. इसलिए सबके अधिकार और सबकी सामाजिक स्थिति एक ही है. भूखे और नंगों से पटी हुई भारत भूमि में वर्ण और धर्म का सवाल कहाँ? यहाँ तो लोगों को रोटी चाहिए. शिकागो सभा में व्याख्यान देते हुए विवेकानन्द ने यही बात कही थी कि हमारे यहाँ धर्म और दर्शन बहुत है, भारत को रोटी चाहिए और उसकी जब माँग की जाती है तो उसे पत्थर मिलता है.
जिस भारत के धन से अंग्रेज जाति अमीर हो रही थी, उसी के अभाव में यहाँ के लोग मर रहे थे. द्वितीय विश्वयुद्ध के समय बंगाल में इतना भीषण अकाल पड़ा और उसमें इतने लोग मरे कि उसकी गणना ही नहीं हो सकी. रांगेय राघव ने उस अकाल का मार्मिक चित्रण ‘विशाल भारत’ में कई रिपोर्ताज लिखकर किया. फणीश्वरनाथ रेणु ने 1944 से 1951 ई. तक कई कहानियाँ और रिपोर्ताज लिखकर भूख से तड़पते और मृत्यु से जूझते मनुष्यों का हृदय-विदारक चित्रण किया है.
1947 ई. में भारत में सत्ता-परिवर्तन हुआ, लेकिन व्यवस्था वही बनी रही. रेणु ने उसी दौर में ‘इतिहास, मजहब और आदमी’ नामक एक कहानी लिखी, जिसमें इस व्यवस्था को ईश्वर, गुलामी, गरीबी, भूख, मौत, जुल्म, दंगे, लूट, कत्लेआम को बरकरार रखने वाला बताया है. 1947 ई. में हिन्दू-मुस्लिम जगह-जगह लड़ रहे थे. रेणु इस कहानी में सवाल उठाते है- ‘‘भूखे, बीमार मुल्क में धर्म के नाम पर लड़ाइयाँ होती हैं अथवा रोटी के लिए? रोटी के लिए नोवाखाली और बिहार के गाँवों ने कितनी बार सम्मिलित कोशिश की?’’
अर्थात् भारतीय लोगों का संघर्ष रोटी के लिए होना चाहिए था, किन्तु वे धर्म के लिए लड़ रहे थे. मुसलमान लड़ रहे थे पाकिस्तान के लिए और हिन्दू हिन्दुस्तान के लिए. 1950 ई. में रेणु ने ‘हड्डियों का पुल’ लिखा. हिन्दी साहित्य में इतना मार्मिक और जीवंत कथा-रिपोर्ताज पहली बार लिखा गया था, जिसमें भूख से मरते हुए लोगों का चित्रण सामाजिक विषमताओं को दर्शाते हुए अनूठी शैली में किया गया है. रेणु बताते हैं कि मरे हुए लोगों की इतनी हड्डियाँ बिखरी हैं कि उससे एक शानदार पुल बनाया जा सकता है. 1966 ई. में बिहार में अकाल पर लिखते हुए अंत में उन्होंने लिखा-
‘‘ओकराहा गाँव के रत्तु सिंह ने हमें प्रेम से पाँच बेर लाकर दिए. उससे पूछा गया कि जब यह बाजरा भी नहीं मिलेगा तो क्या करोगे? क्या होगा?’’
उसने उसी सरलता से जवाब दिया - ‘‘होतै की? खायला न मिलतै- त मरतै.’’ खाने को नहीं मिलेगा, तो मरेंगे. और क्या होगा?
रत्तु सिंह मर जाएगा तो क्या होगा? इतने लोग मर गए तो क्या हुआ? क्या होगा? कुछ नहीं होगा.
19 वीं शताब्दी से अब तक अकाल, बाढ़ और महामारी से भारत में जितनी मौतें हुर्इ्रं, उसका आँकड़ा प्रस्तुत करना मुश्किल है, लेकिन इन सवालों का जवाब भारतीय जनतंत्र में अब तक नही ढूँढा जा सका है. निराला का ‘भिक्षुक’ जिस जीवन-स्थिति में दिखाई पड़ता है, आज भी भारत के हर शहर और गाँव में सामान्य जन की कमोबेश वैसी ही स्थितियाँ हैं, आदमी जहाँ जिन्दा है, मुर्दे की तरह!
सम्पर्कः यशवंत नगर, मार्खम कॉलेज के निकट, हजारीबाग-825 301 (झारखण्ड)
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