प्राची - अगस्त 2017 : कहानी // मछली कूदी पानी में // डॉ. कुंवर प्रेमिल

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अब बालमंडली में दादाजी भी शामिल हो गये थे . दादाजी मछल के अनन्य भक्त हो गये थे. मछली की पूरी चौकसी हो रही थी. एक दिन दादाजी कह रहे थे...‘‘सच...

अब बालमंडली में दादाजी भी शामिल हो गये थे. दादाजी मछल के अनन्य भक्त हो गये थे. मछली की पूरी चौकसी हो रही थी. एक दिन दादाजी कह रहे थे...‘‘सच पूछो तो पूरी दुनिया ही मछलीमय है. जमीन से आसमान तक मछलियों की पहुंच है. तभी ने यहां आकाश गंगायें हैं और करोड़-करोड़ तारे रूपी मछलियां. अगर मछलियां न हो तो सड़ांध मारने लगे आसमान.’’

छली कूदी पानी में

कूदी मछल पानी पें

किसी कवि की ये पंक्तियां मुझे बेहद पसंद हैं. मैं जहां कहीं भी नदी-तालाब, समंदर देखता हूं तो मेरे जेहन में पंक्तियां अपने आप स्पंदित होने लगती हैं.

कहते हैं कि मछली दर्शन शुभ होता है. सपने में मछली देखना तो और शुभ होता है. मछली का इंसान से पुराना रिश्ता है, इसलिए मेरी तमन्ना थी कि मैं भी मछली पालूं और सुबह-शाम उन्हें देखकर जी हल्का करूं. वन्य जीव, जल जीव पालना आदमी का मौलिक अधिकार होना चाहिए.

पर, घर में सभी मेरी इस सनक पर फब्तियां कसते. कहते, इस जमाने में आदमी तो ठीक से पल नहीं रहे हैं, तुम्हें मछलियां पालने की पड़ी है.

अब ये लोग क्या जानें कि एक आदमी में एक बच्चा हमेशा जब-तब प्रवेश करता रहता है. आदमी कब बच्चा बन जाये कौन जानता है? पर हां, जब तक वह बच्चा बना रहता है, तब तक बुरे कृत्यों से बचा रहता है.

कई वर्ष, माह, दिन गुजर गये पर मेरी यह तमन्ना पूरी नहीं हुई. उम्र के चौथे पड़ाव जा पहुंचा. गुस्सैल और चिड़चिड़ाहट भरी जिन्दगी गुजारता रहा. मेरे इस शुष्क जीवन में कभी बहार आयेगी, कल्पनातीत था. जवानी बीत जाने के बाद चारों तरफ हताशा सी समायी रहती है न! इसलिए.

जब भी कभी मैं ध्यानमग्न होता, मुझे पानी में उछलती हुई मछलियां दिखाई देतीं. वे उत्साही क्षण मुझसे ताजगी भर जाते. अनायास ही मेरी उम्र छोटी कर जाते. कई समस्याओं के हल भी सुझा जाते.

एक दिन भयानक बरसात हुई. सड़क का पानी आंगन में घुस आया. आंगन में बहकर एक सूखे कुंड में जा घुसा. उस कुड में छपाक से कूद पड़ी एक बड़ी सीमनोहरा सींगन मछली.

सुबह होते ही मैं उस कुड की ओर मरता जीता भागा. मौका-ए-वारदात का निरीक्षण किया और खुशी से फूला नहीं समाया. वहां सचमुच मेरे सपनों की हसीन शहजाती, दिलरूबा, मछली रानी, अपनी रौ में तैर रही थी.

‘‘ऐ...हो...’’ मैंने अपनी पत्नी को आवाज दी.

पत्नी जहां थी, वहीं से गुर्रायी- ‘‘तुम क्या मुझे भी फालतू समझते हो.’’

उन्हें शायद सुबह की चाय नहीं मिली थी, इसलिए मूड उखड़ रहा था.

‘‘अरे देखो तो, अपने कुंड में एक प्यारी सी मछली घुस आई है.’’ मैं चिल्लाया.

‘‘मुझे मालूम था कि तुम जरूर कोई ऐरी-गैरी-नत्थू खेरी जिंस लाकर पटकोगे.’’

‘‘अरे मछली है मछली. वास्तुविदों के अनुसार घर के सामने पानी हो, पानी में यदि मछली हो तो क्या कहने हैं. एकदम शुभ ही शुभ है, जरा समझो तो.’’

‘‘अरे बाबा, एक मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है.’’

मैं उन लोगों में से हूं जो अपनी खुशी में पत्नी को भी शामिल करते हैं. पत्नी को मैं अपने से अलग रखकर कभी नहीं देखता. अतः वहीं से फिर चिल्लाया- ‘‘अजी रुपया-पैसा बढ़ेगा. तरक्की होगी. मकान-दुकान होगी. वारे-न्यारे होंगे.’’ पत्नी जी फिर भी नहीं पिघलीं. बिफर कर बोलीं- ‘‘मछली के नाम से ही मुझे मितली आती है. तुम्हीं निहारो, पूजा करो उसकी. घर बैठे लक्ष्मी जो आई है.’’ स्त्री हठ से सभी वाकिफ हैं. बाल हठ, राज हठ और स्त्री हठ. इनका कोई समाधान नहीं है. वह नहीं आईं तो नहीं ही आईं. उल्टे फब्तियां कसती रहीं. तब मैं अकेले ही मछली की अठखेलियां निहारता रहा.

वह कभी सर्र से सामने आती फिर तीर सी दूर निकल जाती. नीचे से ऊपर, फिर नीचे. मंथर, कभी तीव्र, लहराती हसीन चाल से मुग्ध कर जाती. नजरें झुकी, कमनीय, कमर हिलाती पूरी षोडसी नजर आती. चक्करघिन्नी हुई मछली, मेरे मन की प्यास बुझा रही थी. मैं उसे देखकर अघा नहीं रहा था.

जब भी कभी मैं कुंड के समीप पहुंचता, न जाने कैसे उसे खबर लग जाती. एकाएक मेरे सामने आकर गजब के करतब दिखाती. कभी चील सी मंडराती, तो कभी हवाई जहाज सी डैने पसार देती. चपल, चलायमान, चतुर नारी सी नखरे बिखेरती.

खुली हवा में सांस लेकर पानी में बुलबुले छोड़ती. मुंह दिखाकर नव वधू सी मुंह मोड़ लेती. कभी सामने, कभी बाजू में, निगाहें जोड़ लेती. उसकी बांकी चितवर, बांकी चाल ने कर दिया था मेरा बुरा हाल.

लचीला था अंग-अंग मानो कटी पतंग. पानी में लुका-छिपी खेलती जब किसी प्रेमिका से कम क्या नजर आती. कभी मुंह बनाती, कभी मुंह चिढ़ाती. उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चित, कन्नी काटती निकल जाती. सच कहूं तो मेरी बन आई थी, इस साठोत्तरी में भी जवानी लौट आई थी.

‘‘एक चतुर नारि करके शृंगार.’’ फिल्मी गाना मैं अक्सर गुनगुनाता और उसके कई रूपों के दर्शन पाकर फूला नहीं समाता.

मैंने अपनी मनोदशा पत्नी को बतायी. वह हंसकर बोलीं, ‘‘गनीमत है कि वह एक सीधी-सादी मछली है. जादूगरनी होती तो तुम्हें जरूर ले उड़ती. तब मैं उसे कहां ढूंढ़ पाती, मुझे तो वह धता ही बता जाती.’’

एक दिन अखबार में मेरे नाम से एक बड़ा सा इनाम छपकर आ गया. पुत्री को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तो बालक का स्टूडियो धड़ाधड़ चलने लगा. मुझे महसूस हुआ कि जरूर यह मछली हमारा भाग्य बदलने आई है. वह कोई भटकती हुई गंधर्व कन्या सी हमारे लिए कारूं का खजाना लेकर आई है. वह मत्स्य कन्या हमारे लिये भाग्य लक्ष्मी, श्रीदेवी, साक्षात् जल देवी थी.

हमारे घर का माहौल बदला तो श्रीमती जी भी बदल गईं. सुबह टहलने जातीं तो सबसे पहले मछली दर्शन करती हुई जातीं. नित्य-प्रति शाम को मछली की आरती उतारना उनके दैनिक शेड्यूल में शामिल हो गया था. पूरे मुहल्ले के लोग मछली दर्शन करने आते, साथ में उसके लिए मूंगफली, चने आदि जरूर लाते.

एक दिन पड़ोसी मेरे कान में फुसफुसाया- ‘‘सर बड़ी नेक रहमदिल, एकदम फरिश्ता मछली है. जिसके पास रहेगी, रहमतों के ढेर लगा देगी.’’

‘‘किसी ने चुरा लिया तो फिर उम्र भर पछताइयेगा.’’

मैं बुरी तरह घबरा गया था. घबराहट में मेरी चीख ही निकल गई थी मानो. वह अपनापन जताते हुए बोला- ‘‘सर, इस दुनिया में क्या कुछ चोरी नहीं जाता. हर कुछ अच्छा-अच्छा, चोर की ओर स्वयं ही खिंचा चला जाता है.’’

‘‘पूरा चुंबक होता है चोर, सब कुछ अनजाने ही उससे चिपकते चला जाता है.’’

‘‘हुजूर, आज का चोर एक वी.आई.पी. आइटम होता है. उसके पीछे-पीछे पुलिस, मजिस्ट्रेट, वकील न जाने कौन-कौन भागते रहते हैं...कई तो उसके नाम से ही घबराते हैं.’’

मुझे लगा यही आदमी चोर है, तभी न चोर का गुणगान कर रहा है. मुझे तो चोर के नाम से ही फुरहरी छूट रही थी. मैंने उसी समय एक बड़ी सी चीज उस कुड के ऊपर रखवा दी थी.

बच्चों के अलावा अब मैं किसी को भी वहां फटकने नहीं देता था. मेरा वश चलता तो उसे जेड प्लस की सुरक्षा मुहैया करा देता.

इन्हीं दिनों बच्चों के दादा जी जमीन का एक बड़ा केस जीत गये. उनका वकील हैरान था, यह सब कैसे हो गया. वह कौन फकीर मेहरबान था जिसकी मिली थी दुआ. विरोधियों ने गवाहों को पढ़ाया था जैसे सुआ. पर वे सब बदल गये. उनके छल-बल सब धरे के धरे रह गये.

अब बालमंडली में दादाजी भी शामिल हो गये थे. दादाजी मछल के अनन्य भक्त हो गये थे. मछली की पूरी चौकसी हो रही थी. एक दिन दादाजी कह रहे थे...‘‘सच पूछो तो पूरी दुनिया ही मछलीमय है. जमीन से आसमान तक मछलियों की पहुंच है. तभी ने यहां आकाश गंगायें हैं और करोड़-करोड़ तारे रूपी मछलियां. अगर मछलियां न हो तो सड़ांध मारने लगे आसमान.’’

‘‘वे तिनका-तिनका बटोर लेती हैं और आकाश पथ बुहार देती हैं. तभी न सूर्य रथ निकलता है और चांद अपनी बिन घोड़ों की बग्घी लेकर पूरे गर्व से फिसलता है.’’

बच्चे-बच्चियां पूरे मनोयोग से दादाजी की मछली वाली कहानियां सुनते. वे मछली के प्रति करुण भाव रख रहे थे. अपने से ज्यादा मछली का ख्याल रख रहे थे.

मछली ने बच्चे पैदा कर दिये थे, जो बच्चों के लिए कौतूहल का विषय बन गये थे. नन्हें-नन्हें बच्चे अपनी माता के साथ कुंड में मस्ती करते और दिन भर नाच-नाच कर अपनी खुशियां जाहिर करते. कुंड में छोटी-छोटी लहरें बनतीं और मछली परिवार से छुआ-छू खेलती हुई दूर निकल जाती.

हमारी यह मेल-मुलाकात कुछ दिन और चलती कि एक दिन सब मटियामेट हो गया. रात में भयानक बरसात हुई. बादल गरजे, बिजली चमकी, अंधाधुंध पानी गिरा. सड़क का पानी आंगन में होता हुआ कुंड तक जा पहुंचा. कुंड लबालब भर गया.

मछली सपरिवार कुंड से आंगन, आंगन से सड़क, फिर नाली और नाली से किसी गहरे जलाशय में जा पहुंची.

सुबह सब खाली था. कुंड में दूर-दूर तक लहरें नहीं उठ रही थीं. भूल से भी कोई मछली का बच्चा कुंड के ऊपर पानी पीने नहीं आ रहा था. सब कुछ तिलिस्मी लग रहा था. खाली डिब्बा, खाली बोतल, कुंड भांय-भांय सा खाने दौड़ रहा था.

बच्चा पार्टी रोने लगी, मैं भी रो रहा था. दादाजी तो दहाड़ मारकर रो रहे थे. श्रीमती जी पसोपेश में इधर से उधर टहल रही थीं. वे कुंड को बार-बार खंगाल रही थीं.

मैं पागल-सा गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले मछली ढूंढ़ रहा था. ‘‘मेरी मछली कहां गई.’’ मैं चिल्ला रहा था. बच्चा टीम अलग अपने-अपने समूहों में उसे खोज रहे थे. हर कोई ‘‘हाय मछली हाय मछली’’ की रट लगा रहा था.

कोई हम पर हंसता, कोई फब्तियां कस रहा था. कभी धीमें, कभी जोर से ‘पागल’ करार करता. हमें उनकी तनिक भी परवाह नहीं थी, हमें तो अपनी मछली ढूंढ़ने की धुन सवार थी.

मेरे पांव में पत्थर लगा तो, आत्मज्ञान हुआ. पानी में गई मछली फिर क्या वापस मिलती है जो हमें मिलती. वह तो जिस धोखे से आई थी, उसी धोखे से निकल गई. कुंड जैसी मामूली जगह क्या उसके रहने की जगह हो सकती थी जो वह रहती. उसे तो चाहिए थे गहरे जलाशय, ऊंची लहरें, मन-मर्जी की पानी में उड़ान.

छपाक छू खेलना, भागना-तैरना और फिर गहरे जल के आंचल में छुप जाना. उनका भी एक संसार है, परिवार है, नियम-कायदे और कानून हैं. पानी उनका घर है, पानी में से सब निडर हैं.

हमें किसी की आजादी को इस तरह कैद करने का क्या अधिकार है? वह अनाधिकृत चेष्टा नहीं तो क्या है? अपने स्वार्थ के लिए उस पर पहरे बैठाना, क्या नाइंसाफी नहीं है?

उस कवि की कविता अपनी जगह सही थी. मछली अपनी जगह सही थी. हमीं लोग कर्त्तव्य-विमुख थे. सही मायने में अपराधी, उसकी स्वतंत्रता का हनन हमने किया था. मुझे वह कविता पुनः याद आने लगी- ‘‘मछली कूदी पानी में, कूदी मछली पानी में.’’

मछली का जल में कूदना ही चिरंतन सत्य है. मछली और पानी का अलग-अलग कोई वजूद नहीं है. मछली पानी में कूदेगी, तभी उसकी कहानी बनेगी, कविता बनेगी...मछली कूदी पानी में...कूदी मछली पानी में.

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सम्पर्कः एम.आई.जी.-8, विजय नगर,

जबलपुर-482002 (म.प्र.)

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रचनाकार: प्राची - अगस्त 2017 : कहानी // मछली कूदी पानी में // डॉ. कुंवर प्रेमिल
प्राची - अगस्त 2017 : कहानी // मछली कूदी पानी में // डॉ. कुंवर प्रेमिल
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