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अपनी उम्र की 92वीं पायदान पर पहुंच चुके कवि, कथाकार, आलोचक रामदरश मिश्र को गत दिसंबर में जब उनके कविता संग्रह ‘आग की हंसी’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार देने की घोषणा सुर्खियों में आई तो सोशल मीडिया में उनकी गजल के इस शेर की याद बहुधा लोगों को आई : जहां आप पहुंचे छलांगे लगाकर. वहां मैं भी पहुंचा मगर धीरे-धीरे. उन्हें यह पुरस्कार वाकई तब मिला जब उन्हें खुद भी इसकी उम्मीद न रही होगी-यहां तक कि इसे हम देर आयद दुरुस्त आयद भी नहीं कह सकते. फिर भी देर से मिले इस सम्मान ने केवल उन्हें ही नहीं, समूचे हिंदी जगत को खुशी दी है. जीवन के सात दशक हिंदी लेखन को देने वाले रामदरश मिश्र ने हिंदी समाज को लगभग सौ कृतियां दी हैं. निरंतर लेखन, मनन, चिंतन करने वाले रामदरश जी की खूबी यह है कि वे साहित्य और ज्ञान का भार सिर पर लादे नहीं घूमते न ही सम्मानों से इतराने वाले लेखक हैं. रामदरश जी के लेखन पर निगाह जाते ही हम गांव के जीवनानुभवों से समृद्ध एक ऐसे लेखक को पाते हैं जिस तरह प्रेमचंद, रेणु, विवेकी राय आदि का समृद्ध कथालोक रहा है. यह अलग बात है कि रामदरश जी के लेखन में जो वैविध्य है वह उनके समकालीनों में विरल है. इसीलिए दर्जनों उपन्यास की रचना करने वाले और कोई दो सौ से ज्यादा कहानियों की रचना करने के बावजूद वे लोक में एक कवि के रूप में ही विख्यात है. आंचलिकता उनके कथा लेखन में एक गुणसूत्र की तरह समाई है तो ग्रामगंध उनकी कविताओं का प्राणतत्व है.
गोरखपुर के डुमरी गांव में 15 अगस्त 1924 को जन्मे रामदरश जी ने बीएचयू में डाक्टरेट तक की पढ़ाई की और एक लंबी अवधि तक गुजरात में अध्यापन से जुड़े रहे. उनके शुरुआती उपन्यासों की पृष्ठभूमि वहीं बनी. फिर वे दिल्ली आए और अंततः दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी के प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त हुए. दिल्ली में कुछ समय मॉडल टाउन में रहने के बाद वे पश्चिमी दिल्ली के वाणी विहार, उत्तम नगर आ गए, जहां उनके मित्र लेखक डॉ. रमाशंकर श्रीवास्तव, डॉ. ललित शुक्ल, डॉ. रामसुरेश पांडेय, डॉ. रमाकांत शुक्ल आदि पहले से ही रह रहे थे. लेखकों के इस समुदाय ने इस मुहल्ले को वाणी विहार नाम दिया. हाल में राज्य सभा चैनल को दिए इंटरव्यू में उन्होंने अपने लोकेल की चर्चा करते हुए इस तथ्य को ओझल नहीं होने दिया कि उनका मन महानगर में रहते हुए भी गांव को अपनी सुधियों में बसाए हुए हैं. यह अलग बात है कि इस बात का उन्हें क्षोभ भी है कि गांव से वे जिस गंवई ऊष्मा के साथ शहर आए थे, वह ऊष्मा जैसे क्षीण सी पड़ती गयी. वे लिखते हैं : जमीं गांव की साथ लेकर चला था. उगा इसमें कोई शहर धीरे-धीरे. फिर भी अब तक के लेखन में उनके यहां गांव भी है शहर भी पर शहर में रहते हुए भी शहरानी बोध को उन्होंने आज तक अपनी रचनात्मकता के भीतर पनपने नहीं दिया.
कहानी, उपन्यास, कविता, गजल, आलोचना, संस्मरण, यात्रावृत्त, ललित निबंध आदि तमाम विधाओं के सिद्ध लेखक रामदरश जी की अब तक कोई सौ से ज्यादा कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं और कई खंडों में रचनावली भी; किन्तु पाठकों के बीच उनका कवि व कथाकार का रूप ही ज्यादा सुपरिचित है. जिन दिनों गीत विधा अपने शिखर पर थी, पथ के गीत के
माध्यम से उन्होंने रचना में प्रवेश किया. फिर एक एक कर उनके कविता संग्रह, कहानी संग्रह, उपन्यास, ललित निबंध, संस्मरण, आत्मकथा, यात्रावृतांत व आलोचनात्मक कृतियां प्रकाशित होती रहीं. उन्हें भारत भारती, शलाका सम्मान, दयावती मोदी सम्मान, व्यास सम्मान, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं. पर अभी तक साहित्य अकादमी सम्मान न मिलने के पीछे कहीं न कहीं संकीर्ण लेखकीय राजनीति रही जिसके चलते उन्हें अब तक इस पुरस्कार से वंचित रहना पड़ा. जबकि उनकी लोकप्रियता का आलम यह कि अभी तक हिंदी के जीवित लेखकों में संभवतः सबसे ज्यादा शोधकार्य रामदरशजी पर हुए हैं. उनके पाठकों का संसार विपुल है. गुजरात में तो वे हिंदी के सबसे लोकप्रिय लेखकों में हैं जहां रह कर उन्होंने हिंदी के पठन पाठन और सर्जनात्मक लेखन का एक विशेष वातावरण निर्मित किया. वे नेपाल, चीन, उत्तरी दक्षिणी कोरिया, मास्को तथा इंग्लैंड की यात्राएं कर चुके हैं.
पिछले एक दशक में उनके समकालीन अनेक लेखक मित्र नहीं रहे. इस दर्द को उन्होंने एक गीत में दर्ज किया. एक एक जा रहे सभी मन बड़ा अकेला लगता है. लगभग डेढ़ बरस पहले अपने अभिनेता पुत्र हेमंत मिश्र को खो देने का उन्हें बहुत दुख है जिन्होंने अनेक फिल्मों सहित मैला आंचल धारावाहिक में अभिनय किया है. उनके गीतों की गंवई चेतना हमें अभिभूत करती है. उनमें एक जादुई सम्मोहन है. वह पके धान सी धूप की तरह सुनहली आभा से भरी है. उनके उपन्यासों व कहानियों में गांव अपने यथार्थवादी परिप्रेक्ष्य के साथ आता है. उनकी कहानियों व उपन्यासों के चरित्र छूते हैं. रेणु ने जिस आंचलिकता को मैला आंचल में विन्यस्त किया, रामदरश ने अपने उपन्यासों व कहानियों में उसे जिंदा रखा है. रामदरश जी की प्रेरणास्रोत सरस्वती मिश्र जी आज भी उनकी रचनाओं की पहली पाठिका होती हैं. रामदरश जी में शहरातीबोध के बदले भारतीय गांवों की समझ रखने वाले लेखक की आभा दीख पड़ती है तभी वे एक इंटरव्यू में कहते हैं : मैंने अपने आंगन में कच्ची जमीन छोड़ रखी है.
जैसा कि मैंने कहा ही है, रामदरश जी ने नाटक छोड़ कर सभी विधाओं में विपुल लेखन किया है किन्तु उनका कवि व्यक्तित्व इन सब पर भारी है. वे किसी भी गोष्ठी में हों, किसी कवि सम्मेलन में हों, लोकार्पण में हों, लोग उनसे गीत सुनाने की मांग करते हैं, उनसे गजलें सुनना चाहते हैं. कविताएं सुनना पसंद करते हैं. जीवन और लेखन के लंबे पथ पर चलते हुए बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो अनवरत और अथक चलते हुए जीवन के हर अनुभव को शब्दबद्ध करने में संलग्न रहते हैं. रामदरश मिश्र ऐसे ही लेखकों में हैं जिन्होंने लगभग छह दशकों से ज्यादा का रचनात्मक समय जिया है और साहित्य की हर विधा को गहराई से आत्मसात किया है. बानबे की उम्र में भी वे कविताएं लिखते हैं, डायरी दर्ज करते हैं और वक्त मिला और सेहत ने इजाजत दी तो बहुत आत्मीय अनुरोध पर सभा-समारोहों में भी चले जाते हैं. साहित्य अकादमी पुरस्कार के बाद अकादमी सभागार में उन्हें सुनने के लिए युवा पीढ़ी से लेकर उनके समकालीनों की भीड़ उमड़ उठी थी और वे एक के बाद एक कविताएं सुनाते गए. सच कहें तो उनके लिए कविता रचना जीवन के एक महोत्सव की तरह है.
कविता में सांस्कृतिक स्पेस
बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे-जीवन की उत्तरशती में भी रामदरश जी की समर्पित रचना यात्रा विगत पांच दशकों से भी ज्यादा समय से अपने इसी दम खम पर चलती रही है. एक समय था, जब गीतों के रोमानी विन्यास से हृदय को आकुल कर देने वाली पुकार उनकी संवेदना को सजल-तरल बनाती रही है-यह वही दौर है जब वे अपने भीतर का लालित्य अपने गीतों में उड़ेल रहे थे-बार-बार बांसुरी बजाओ न पिया/लहारों के पार से बुलाओ न पिया. छायावादी तलछट से हरसंभव अपने को बचाने के लिए रामदरश जी के गीत शुरू से ही चेष्टारत रहे हैं और समकालीन यथार्थ की कुछ विश्वसनीय छवियां भी उनके यहां सदैव दृश्यमान रही हैं-जैसे पांव थर थर गात जर्जर, झुर्रियां युग की निशानी. बेशक ऐसे चित्र उनके यहां विरल हैं, परन्तु उनके कवित्व में प्रणति है, फागुनी रंगत है, रेती पर रचे गए चित्र और गुजरते उन्मन दिन हैं, लाज बसन डुबोते यायावर बादल हैं, विदाभास देती बनराइयां हैं, झर झर झरते हरसिंगार हैं, पके धान-सी झरती धूप है, टूटा हुआ दर्पण है, जलते हुए फूल हैं, लहरों के पार से बांसुरी बजा कर बुलाती हुई प्रिय की टेर है-अर्थात एक जीवंत संवेदना उनके गीतों और कविताओं की आधार भित्ति रही है.
रामदरश मिश्र की कविताओं का पहला दौर गीतों का था यानी पथ के गीत का तो बैरंग बेनाम चिट्ठियां कविता में उनके आराम का एक मजबूत प्रमाण है. समकालीन आलोचना अक्सर उनकी कविताओं के बगल से कतरा कर गुजर जाती रही. जब कि यही वह दौर था जब कविता में रघुवीर सहाय प्रतिष्ठित हो रहे थे. आगे चल कर उनसे छोटी वय के केदारनाथ सिंह जी कविता के केंद्र में आए. रघुवीर सहाय की कविताओं का एक स्कूल बना तो दूसरा स्कूल केदारनाथ सिंह का. प्रतीकों व बिम्बों की सघनता ने कविता की एक नई किस्म ईजाद की. रामदरश मिश्र ने जीवन के सहज अनुभवों को कविताओं कहानियों में पिरोया. न उसे प्रयोगों का जामा पहनाया न उसमें प्रगतिवाद की नक्काशी उकेरने की कोशिश की. इसीलिए उनकी कविताओं में प्रकृति प्रेमी कवि के हृदय-छंद का आभास मिलता है. बहुत तराश-भरी कोटि की न सही, अनगढ़ काव्यात्मकता की जमीन पर ही बेशक-रामदरश जी की कविताएं अपने समय के सांस्कृतिक जीवन के चित्र अंकित करती हैं, अपने समय की विडम्बनाओं से टकराती हैं और कविताओं में छोटी-छोटी टिप्पणियों के जरिए अपने क्षोभ और प्रसन्नता का इजहार करती हैं. रामदरश जी का यह कहना कि मैंने अपने आंगन में कच्ची जमीन छोड़ रखी है-मौजूदा समय के बीहड़ यथार्थ के मध्य संवेदना-सजल मानस को बचाए रखने का उपक्रम है. इससे आज की महानगरीय रुक्षता के बीच भी एक गंवई संवेदना सहेज कर रखने और उस पर गर्व करने वाले कवि के भीतरी संसार का परिचय मिलता है.
विद्यानिवास मिश्र ने कहा है-‘‘गंवई मन बड़ा दुर्निवार होता है...नगरों में रहते हुए भी ‘जस का तस.’ यही वजह है कि गरबीली गरीबी की तरह अपने दर्प का इजहार न कर उनकी संवेदना अपनी ऋजुता और सरलता के बखान में ही निमग्न रही है और लगातार उन प्रवत्तियों, बुराइयों, अनादर्शों से टकराती रही है, जो हमारे समय में मानवीय आचरणों में गहरे घुस गई है. उनके लिए गांव एक विजन है अपने परिवेश को आंकने-सहेजने की एक दृष्टि जिसे पंत की इस पदावली से समझा जा सकता है-देख रहा हूं आज विश्व को मैं ग्रामीण नयन से.
इसी विजन से रामदरश जी अपने परिवेश को देखते-आंकते आए हैं.
प्यार के फूल और कविताएं
रामदरश जी की कविता का स्वभाव इतना सहज और बोलचाल वाला है कि कई बार तो यह लगता है कि यह भी कोई कविता हुई? तभी वही कहीं से एक पंक्ति ऐसी आ धमकती है कि
साधारण से साधारण अनुभव भी एक बड़े अर्थ में-एक विरल अनुभव में बदल जाता है. यद्यपि अनेक बार वे अपनी इकहरी अनुभूतियों को ही कविता में शब्दबद्ध कर लेने के लिए एकाग्र दिखते हैं और ऐसी एकाग्रता कई जगहों पर महसूस की जा सकती है फिर भी आज के शोरीले वातावरण में भी रामदरश जी जीवन के सुरीलेपन के लिए प्रतिश्रुत दिखते हैं. सूनेपन और सन्नाटे से भरे जीवन में भी संवाद की समरसता कायम करना चाहते हैं. इसीलिए वे किन्हीं धारदार मुहावरों, सुभाषितों, अतिकथनों और शिल्प के चमकीले मुलम्मे के अभाव में भी एक विश्वसनीय लोक कवि के रूप में अपनी सहजता का लोहा मनवा लेने में सफल रहते हैं. हर कवि की एक विरासत होती है जो वह नई पीढ़ी के नाम करना चाहता है. वयसश्रेष्ठ रामदरश जी अपनी रचनात्मक विरासत का अधित्याग जिन चिंताओं के साथ करना चाहते हैं वे ध्यात्वय हैं-
छोड़ जाऊंगा कुछ कविताएं
कुछ कहानियां, कुछ विचार
जिनमें होंगे कुछ प्यार के फूल
कुछ तुम्हारे, उसके दर्द की कथाएं
कुछ समय-चिंताएं
रामदरश जी अपनी कविताओं में आयरनी और व्यंग्य का विन्यास रचते हुए कहीं भी शिथिल नहीं पड़ते. विश्वग्राम जाने वालों पर चुटकी लेती पता नहीं कविता तथा साहित्य के मौजूदा परिदृश्य पर धारदार टिप्पणियां जड़ती साहित्य पुराण शीर्षक कविताएं इसी कोटि की हैं. एक उदाहरण-
मैंने एक मैगजीन निकाली है नाम है कौआ
दुनिया जानती है वह क्या क्या खाता है
मगर वह नहीं जानती
कि वह सुबह शाम पीता है विदेशी पौवा
प्यारी विरहिनियों,
बीस रुपये में, फकत बीस रुपये में इसे ले जाओ
यह प्यारा पंछी सगुन उजारेगा
पिया को पास बुलाएगा
चाहे वह कलकतिया हों, या लखनौआ
और पिया घर जा जाएं तो
भेज देना छपने को एक अनुभव महकउवा.
साहित्य पुराण का यह नेपथ्य आज किसी से छुपा नहीं है. नैतिक मूल्यों की तरफ पीठ फेरे साहित्य आज प्रेमचंद के शब्दों में मशाल नहीं रहा, वह अपने हितों के लिए समीकरण रचता साहित्य के नए पुराण में बदल गया है. आम के पत्ते में रामदरश जी मेज, कलम, चमचा, सुई, चाकू, पंखा, कुर्सियां, झाड़ू, माइक जैसी बेजान चीजों से भी एक जीवंत संवाद रचते हैं. यहां उनके कई गीत भी हैं जो रामदरश जी की काव्य-यात्रा में सदैव एक हमसफर की तरह शामिल होते रहे हैं. पथ सूना है, तुम हो हम हैं/आओ बात करें-शीर्षक गीत में एक अनुष्ठान है, जो उम्र की पायदान पर तेजी से बढ़ते रामदरश जी के अपने जीवनानुभवों से ही परिचालित लगता है-
कहते सुनते, सुनते कहते दिन कट जाएंगे
हंसी हंसी से, आंसू से आंसू बंट जाएंगे
साथ सफर की घड़ियां कम हैं,
आओ बात करें!
अपनी अपनी गठरी ले क्या अलग अलग चलना
खोल कहीं दो पल हंस लेना, फिर घंटों जलना
खुशियां थोड़ी, ढेरों गम हैं,
आओ बात करें!
आम के पत्ते के बहाने रामदरश जी की कविताओं में सांस्कृतिक विलोपन और विचलनों के प्रति उनकी गंभीर चिंताएं दर्ज हैं और मुझे लगता है, हिंदी कविता के एक वृहत्तर संसार में उनका होना कविता के सुस्वास्थ्य के लिए आवश्यक ही नहीं, अपरिहार्य है. वे कविता में सांस्कृतिक स्पेस रचते हैं. इसी संग्रह में उनका कथन इसका प्रमाण है-मेरे मकान में एक आंगन भी है-और आगे बढ़ कर उनके पिछले कहे पर ध्यान दें तो मैंने अपने आंगन में कच्ची जमीन छोड़ रखी है-कहना प्रकृति से अपने रिश्ते को जोड़ना है. चिंता यही है कि आज हम इतने नागर हो गए हैं कि कच्ची जमीन की हमें कोई दरकार नहीं रही. कविता को सांस्कृतिक स्पेस से भरने के लिए जिन कुछ कवियों में अनूठी एकाग्रता शुरू से ही सक्रिय रही है, रामदरश मिश्र उनमें अनन्य हैं.
जीवन में समाए बसंत का रचनानुभव
रामदरश जी की कविता यात्रा में कई मोड़ खोजे जा सकते हैं. बैरंग बेनाम चिट्ठियां से लेकर पक गई है धूप, कंधे पर सूरज, दिन एक नदी बन गया, जुलूस कहां जा रहा है संग्रहों के साथ उनकी कविता का एक वृत्त बनता है. इस दौर की रचनाओं में उनका मन प्रकृति के साहचर्य में जैसे फूला फला है. बसंत पर सैकड़ों कविताएं व गीत उन्होंने इसी दौर में लिखे. यह जैसे जीवन में समाए बसंत का ही रचनात्मक अनुभव हो. गीतों की कोमल पदावलियों का विन्यास मिलता है तो कविताओं में हार्दिकता की एक विरल नमी जिससे आज की कविताएं वंचित हो रही हैं. बीच का एक दौर गजलों का भी रहा, पर कविताओं का तीसरा दौर आग कुछ नहीं बोलती से शुरू होता है तथा बारिश में भीगते बच्चे, ऐसे में जब कभी, आम के पत्ते, हवाएं साथ हैं, कभी-कभी इन दिनों, आग की हंसी से होते हुए नवीनतम संग्रह मैं तो यहां हूं तक चिह्नित किया जा सकता है. मुझे याद है, जिन दिनों रामदरश जी को दयावती मोदी सम्मान मिला था, उसी के आस पास उनके संग्रह आग कुछ नहीं बोलती पर विद्यानिवास मिश्र की अध्यक्षता में वाणी विहार में एक गोष्ठी आयोजित की गयी थी. मुझे रामदरश जी के अनेक कविता संग्रहों पर लिखने का सौभाग्य मिला है, किन्तु आग कुछ नहीं बोलती पर बोलते हुए पंडित जी के विचार काफी निर्णायक थे. जिस सांस्कृतिक बोध की बात मैंने ऊपर उठाई है, उन्होंने रामदरश जी को सांस्कृतिक वैभव व गंवई जनजीवन का एक बड़ा कवि माना था. अचरज नहीं कि रामदरश जी के यहां आम के पत्ते, बारिश, धूप, सूरज, आग के बिम्ब बहुत आते हैं. किन्तु उनका कवि मानस परंपराओं का पिछलगुआ नहीं है. वह प्रगतिशीलता की आंच में सहज ही पका है. उनकी कविताओं में किसी प्रकार की धर्मान्धता नहीं मिलती बल्कि उसका पर्याप्त विरोध मिलता है. मंदिर जाने के बदले वे उसे तरजीह देते हैं जो किसी
अंधेरी चौखट पर चुपचाप एक दिया रख जाता है. वे ऐसी बातों पर जगह-जगह पर कविताओं में तंज कसते हैं जो मनुष्य को पीछे ढकेलने वाली है.
हाल के वर्षों में उनके दो महत्त्वपूर्ण संग्रह आए- आग की हंसी और मैं तो यहां हूं. आग की हंसी इसलिए महत्त्वपूर्ण नहीं है कि उस पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. बल्कि इसलिए कि एक बार वे इस पुरस्कार के बहाने फिर चर्चा में आए. आग की हंसी या आग कुछ नहीं बोलती के पारस्परिक मिजाज में भी कोई खास अंतर नहीं है, फिर भी उनकी कविताओं में ध्वन्यात्मकता और व्यंग्य की अन्विति उत्तरोत्तर सघन और प्रभावी हुई है. जीवन में इतनी विडंबनाएं है कि वे तंज करने का कोई मौका नहीं छोड़ते.
खुद लेखकों के जीवन की क्षुद्रताओं पर वे उनकी आलोचना करते हैं. अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने वालों को आड़े हाथों लेते हैं तो दंद फंद कर महत्त्व पाने की कोशिशों को वे रचनात्मकता का शत्रु मानते हैं. वे बाजार का विरोध करने के लिए बाजार बाजार चिल्लाते नहीं बल्कि कैसे बाजार हमारे घरों में घुस आया है प्रसंगवश, उसकी महीन पड़ताल करते हैं. चाहे गुरुदेव हजारी प्रसाद द्विवेदी के आदेश से ही, बगीचे में जाकर फूल तोड़ना न जाने क्यों उनके कवि मन को कचोटता है. घर और बाजार को उन्होंने किसी बाजारवाद की थिथरी पढ़कर नहीं, खुद के अनुभवों से जाना पहचाना. खुद के घर के सामने रेत कारोबारी की दूकान की पारस्परिक तुलना से जो कविता पैदा हुई वह घर और बाजार के फर्क को आमने-सामने रख कर पहचानती है.
वे बूढ़े भले हुए हों लेकिन जीवन और समाज को दर्ज करने में उनकी कलम अभी थकी नहीं है. हमेशा बोलचाल के लहजे में कवताएं लिखने वाले इस कवि ने कविता के किसी प्रतिमान को अपने लिए रूढ़ नहीं बनने दिया, बल्कि वे अपनी सधी हुई लीक पर चलते रहे हैं. इस संग्रह की भूमिका में वे कहते हैं, ‘‘मैंने कई विधाओं में इस दुनिया को उतारा है. कथ्य को जो राह पसंद आई, उस राह वह हो लिया. वह राह छोटी भी थी और लंबी भी. अब लंबी राह चलने की शक्ति मुझमें नहीं रही. अतः छोटी-छोटी कविताओं या डायरी के माध्यम से रूप देता रहता हूं. ये कविताएं इसी तरह बनी हैं.’’
रामदरश मिश्र की कविता ने जीवन का कोना-कोना खंगाला है. जीवन का कोई ऐसा भाव नहीं होगा, जो छूटा हो. शुरुआत गीतों से हुई. फिर कविताओं में उतरे. गजलें लिखीं. कथा साहित्य के अनवरत लेखन के बीच कविताओं के अंखुए फूटते रहे. कभी उन पर लिखते हुए मैंने उनकी कविताओं को नए संवत्सर की लय का शीर्षक दिया था. उन्हें जब जब पढ़ने बैठता हूं, उनका धुनी कवि अपनी कविताओं में मुक्त चिन्तन करता हुआ दिखता है. वे एक एक कर हमारी विडंबनाओं पर प्रहार करते हैं. पहली ही कविता ईश्वर हमारे बीच ईश्वर को लेकर दिखने वाली तंगनजरी पर प्रहार करती है. यानी हम जिस तरह एक दूसरे के ईश्वर से नफरत करते हैं, कवि उस विडम्बना पर चोट करता है.
अपने लोकेल को रामदरश जी ने हमेशा अपने लेखन में उतारा है. चाहे उपन्यास हो, कहानियां या कविताएं. गांव से उनका जुड़ाव भी इसकी एक वजह है. इसीलिए उनकी कहानियों में आंचलिकता का पुट मिलता है तो कविताओं में भी शहरी संवेदना के सूखते स्रोत दिखाई देते हैं. रामदरश जी वाणी विहार में रहते हैं लिहाजा वाणी विहार नामक कविता के बहाने घरों तक घुस आए, बाजार पर चिंता जताते हैं. उनके मित्र सुधाकर शुक्ल द्वारा बसाई गयी कालोनी में अब उन्हीं का मकान बाजार की भेंट चढ़ चुका है. वे याद करते हैं कि कैसे वाणी विहार को वाणी पुत्रों की कालोनी के रूप में बसाना चाहा था, कहां यह वाणी पुत्रों की कालोनी वाणी विहार वणिक विहार में तब्दील हो चुकी है, जहां आज कवियों के भाव स्वरों की लहरियां नहीं गूंजतीं, लेनदेन वाली बाजारू बोलियों की बजबजहाट सुनाई देती है. कविता ही क्यों, वाणी विहार के घरों के भीतर की कहानियों को उन्होंने काम वाली नौकरानी के बहाने अपने एक लघु उपन्यास बिना दरवाजे का मकान में सलीके से उकेरा है.
जीवन की उत्तरशती
उत्तर-वय की लेखकीय दुनिया ही कुछ अलग होती है. लेखक अपने एकांत में लिखना भी चाहे तो लोग ऐसा नहीं करने देते. वे चाहते हैं वह लेखकों की पुस्तकों पर अनुशंसाएं लिखता रहे, गोष्ठियों की अध्यक्षता करता रहे. रोज ब रोज के तकादे. इतनी मतलबी दुनिया जो सर्जना की खिड़कियां खुली नहीं रहने देती बल्कि लेखक को सनद बांटने का एक माध्यम बना देती है. इन दिनों कविता में उन्होंने जैसे हर बुजुर्ग लेखक की दुखती रग पर उंगली रख दी है. कलाकार और कवि होना क्या आम मिस्त्री से कुछ अलग होता है. कवि कहता है घर बनाने वाले किस सुघरता व कला से घर का निर्माण करते हैं पर वे कलाकार नहीं कहलाते, बल्कि कलाकार वह कहलाता है जो ऐसे मकानों में बैठकर कैनवस पर आकृतियां उकेरता है. चाहे वे किसी के काम की हों या न हों. मिस्त्री की सौंन्दयग्राही दृष्टि की शायद ही कोई उस तरह तारीफ करता हो जैसे कलाकार या कवि की. आज का समाज का यही ढर्रा बन गया है.
रामदरश जी ने कभी कविता के प्रतिमानों की परवाह नहीं की. वे लिखते हैंः ‘‘मेरी रचनाएं जैसी भी हैं, मेरी हैं, वे शुष्क सिद्धांत नहीं हैं, अंतर के छोटे बड़े गान हैं; यानी आदमी के आदमी होने की पहचान है.’’ वे चैनलों पर बाबाओं के बढ़ते प्रभुत्व की आलोचना करते हैं तो एक दल की एक दूसरे दल द्वारा की गयी आलोचना भी उन्हें रास नहीं आती जिससे आज के अखबार प्रायः आच्छादित रहते हैं. कभी उमाकांत मालवीय ने लिखा थाः ‘‘खोली पर खोली में घर गए उधर. रहने लायक नहीं रहे महानगर.’’ लिहाजा महानगर के अपने घर के खुले आंगन को निहार कर कवि-मन खुश होता है. आंगन में पहुंचते ही उसे लगता है कि वह अतीत के बाग बगीचों में पहुंच गया है. कवि समाज के जीते जागते चरित्रों से ही नहीं, निर्जीव चीजों से भी बतियाता है. रामदरश जी ने ऐसा बहुतेरी कविताओं में किया है. कुर्सी, चारपाई, आईना, अंगीठी, फाइल के साथ, चाबी ऐसी ही कविताएं हैं.
एक लंबा कवि जीवन जीते हुए रामदरश जी ने जीवन के हर पहलू को बारीकी से टटोला है तथा बनावटी अभिव्यक्ति से बचते हुए जीवन से सूक्तियां चुनी हैं. धन क्या है, वे कहते हैं जिसके पास अंतरात्मा का हीरा है वह अमीर है. जो मंदिर की देहरी पर दीप जलाने के बजाय अंधेरे में डूबे एक घर की देहरी पर चुपचाप एक दिया रख देता है उसका त्योहार फलीभूत होता है. फर्श और वाटिका के संवाद के जरिए उन्होंने बतलाया है कि फर्श कितनी ही चिकनी हो और वाटिका कितनी ही मिट्टी व कीचड़ से भरी, पर जब बसंत आता है फूलों से क्यारियां खिल उठती हैं, तो फर्श और वाटिका का फर्क पता चलता है. रामदरश जी ठहाके लगाने वाले इंसान हैं इसलिए ठहाकों पर असभ्यता की मुहर दर्ज करने वालों को उनकी ही एक कविता जबाब देती है कि ‘मुझमें अभी एक नादान बच्चा है जो मुझे बूढ़ा नहीं होने देता.’
रामदरश जी हमेशा प्रकृति के बिम्बों को कविता में चुनते बीनते रहे हैं. बसंत के दिन उन्हें भाते हैं तो दिसंबर-जनवरी की धूप उन्हें लुभाती है. बारिश के दिनों में कवि का मन मयूर आह्लादित हो उठता है तो खिलखिलाते खेतों के बीच पहुंचते ही बोल उठता है, ‘‘मैं तो यहां हूं, यहां हूं, यहां हूं.’’ यही नहीं, वह अभी भी यही मानता है कि तमाम तब्दीलियों के बावजूद गांव में गांव बचा हुआ है. यह कवि का ग्रामगंधी मन ही है जो महानगर में रहते हुए भी गांव की ऊष्मा को अपने अवचेतन में बसाए हुए है. अकारण नहीं कि वे कविता के प्रति आभार व्यक्त करते हुए कहते हैंः ‘‘आभारी हूं कविते! तुमने इस तप्त समय में भी मुझे भिगो दिया भीतर तक. और मैं गति-स्पंदित जीवन-राग की रचना के लिए अपने को तैयार कर रहा हूं!’’ रामदरश मिश्र की कविताएं निस्संदेह जीवन-राग को स्पंदित और गतिशील बनाए रखने वाली कविताएं हैं.
रामदरश मिश्र का कवि उक्ति-वैचित्र्य का नहीं, जीवन-राग का कवि है. रामदरश जी ने कविताओं में बारीकी बीनाई की बजाय जीवन को समग्रता में देखने की प्रविधि विकसित की और आज तक अपने उसी कौल पर डटे हुए हैं. जिन अर्थों में केदारनाथ सिंह अपने को पुरबिहा कवि कहने में फख्र महसूस करते हैं वहीं पुरबिहापन रामदरश जी के यहां मौजूद है कथ्य और अंदाजेबयां के फर्क के साथ; जो शहर की तेज रफ्तार जिंदगी से समरस नहीं हो पाता. एक मतलबी दुनिया कवि को इर्दगिर्द दिखाई देती है और वह पाता है कि उसके गंवई जीवनानुभवों की कोमल पाटी पर शहरी आघातों के निशान बनते जा रहे हैं. सच कहें तो रामदरश जी की कविताएं इन्हीं आघातों-प्रत्याघातों की साखी हैं.
सम्पर्कः जी-1/506-ए, उत्तम नगर,
नई दिल्ली-110059
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