प्राची - अगस्त 2017 : डायरी // वसन्त पंचमी // डॉ. रामदरश मिश्र

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लो फिर वसन्त पंचमी आ गयी. फिर मन घर में, घर के चारों ओर वसन्त की आहट सुनने को बेचैन हो उठा. सुबह-सुबह उठा था तो मन में एक गूंज थी कि आज वसन्...

लो फिर वसन्त पंचमी आ गयी. फिर मन घर में, घर के चारों ओर वसन्त की आहट सुनने को बेचैन हो उठा. सुबह-सुबह उठा था तो मन में एक गूंज थी कि आज वसन्त पंचमी है. यानी वसन्त का मंगलाचरण. सोचा था आज मेरे प्रिय ऋतुराज की अनुभूति मुझमें स्पंदित होगी. वह मुझे अपने साथ लेकर समय की रागरंजित धारा में बहायेगी. लेकिन कहीं कुछ तो नहीं हुआ. रोज की तरह उठा, छोटे से पार्क में टहला, कुछ व्यायाम किया.

सरस्वतीजी नित्य की तरह चार बजे से घर के कामकाज के साथ लग गयीं. नित्य की तरह कोयले का चूल्हा जलता रहा. वहां मैं कुर्सी पर बैठ गया और सरस्वतीजी चूल्हे पर सेंक-सेंक कर गरम-गरम रोटियां खिलाती रहीं. फिर चाय बनायी. मैंने सोचा- आज तो सरस्वती का ही दिन है. उनकी पूजा होती है. मैं तो खैर रोज पूजा करता हूं. किंतु आज उनका विशेष दिन है. लेकिन यहां तो सरस्वतीजी ही मेरी पूजा कर रही थीं. रोज ही करती हैं. मैंने हंसकर उनसे कहा, ‘आज तो वसन्त पंचमी है यानी आपका दिन.’ वे मुस्करायीं और अपने बहुआयामी कामों के साथ चलती रहीं. लगा ही नहीं कि कामों के आगे उनके मन में वसन्त की कोई भाव-लहरी उठी हो. वे सुखी हैं और कर्ममयता की संतुष्टि से ओतप्रोत. किन्तु मैं तो खाली बैठा हूं यह सोचता हुआ कि वसन्त पंचमी है. पर कहां है वसन्त पंचमी? इस बार तो मेरी आंगन वाटिका में लगाये गये गेंदे के पौधे भी संकुचित खड़े हैं. न जाने क्या हुआ इस बार कि बार-बार लगाये जाने पर भी गेंदे के पौधे लगे ही नहीं और लगे भी तो काफी बाद में. उन्हें अब तक फूल जाना चाहिये था. हर साल फूल जाते थे. बड़े-बड़े फूलों के मंगल कलश उठाये इन फूलों के बीच कुर्सी डालकर मैं बैठ जाता था. साथ में कभी स्मिता होती थी, कभी सरस्वतीजी. चम्पई धूप हम पर बिछी होती थी. और हम धूप की ऊष्मा के साथ चाय पीते थे और संवाद करते थे-कभी आपस में, कभी फूलों से. तो यह छोटी आंगन-वाटिका ही हमें वसन्त पंचमी के साथ होने का अहसास करा देती थी, परन्तु आज...?

आज तो इसे देख-देख कर मैं उदास हो रहा हूं और अपने से पूछ रहा हूं कहां है वसन्त पंचमी? घर के बाहर सड़क महीना भर से खुदी पड़ी है. पतझर की तरह लेटी हुई है. यानी उस पर भी वसन्त को आना है. लेकिन नेता और ठेकेदार के स्वार्थ से छूटे तब न. उनके लिए तो शरद-वसन्त का कोई अर्थ ही नहीं होता. उनके लिए तो उनका पैसा, उनकी कुर्सी, उनकी कुटिल नीति ही वसन्त होती है जो जनता के वसन्त को अपने पिंजरे में कैद कर जनता के पास तक आने नहीं देती. तो इस सड़क का वसन्त भी नेता और ठेकेदार के पिंजरे में कैद है. देखिये, कब छूटता है.

सड़क के दोनों ओर जो घर हैं, सड़क के पार सड़कों के किनारे जो घर हैं, बाजार हैं, लोग हैं, उनमें कहीं भी तो वसन्त पंचमी का आभास दीप्त नहीं हो रहा है. सब कुछ उसी तरह ठस है जैसे कल था. इस बड़े उपनगर में कहीं भी वाटिका नहीं है. अनियंत्रित ढंग से लोग बसते गये, एक-एक इंच की जमीन छोटे-बड़े मकान के लिए काम में लायी जाती रही.

कॉलोनाइजरों के मन में कहां कोई वसन्त होता है जो अपने लिए एक पार्क की मांग करता हो. उनके ठस मन को तो केवल पैसा दिखाई पड़ता है. बड़ी मुश्किल से वाणी विहार में दो छोटे-छोटे पाकरें के लिए जमीन छुड़वायी गयी, जो पार्क तो हैं किन्तु पुष्पविहीन पार्क. तो सुबह-सुबह वे भी मुझे वसन्त पंचमी की हंसी नहीं दे सके.

कितने सुखी हैं वे लोग जिन्हें ऋतुओं के सौन्दर्य की अनुभूति नहीं होती. शहर में ये ऋतुएं आती तो हैं, किन्तु उनका उल्लास तो खेतों और बाग-बागीचों में ही दिखायी पड़ता है न. शहर में ये अपना उल्लास कहां फैलायें. पत्थरों पर तो उल्लास का रंग चढ़ता ही नहीं. तो मेरे जैसे गंवई लोग शहर में पड़े हैं वे इन ऋतुओं और उत्सवों के आने पर उनका उल्लास देखने को उत्सुक हो उठते हैं और नहीं देखकर तड़पने लगते हैं तो वे लोग कितने सुखी हैं जिन्हें ऋतुओं और उत्सवों के उल्लास का बोध ही नहीं है. उन्हें तो पत्थरों का उल्लास ही अभीष्ट है.

वसन्त पंचमी के साथ होने को मन बेचैन है. चलो आंगन वाटिका में फूल तो न सही, प्यारी-प्यारी धूप तो है. उसी के साथ हो लिया. वाटिका में कुर्सी डालकर बैठ गया हूं. इधर मौसम में ऊष्मा आने लगी है अतः धूप में देर तक बैठना हो नहीं पाता किन्तु कई दिनों से हवा में ठंडक समा गयी है. एक तुर्सी महसूस हो रही, अतः धूप में बैठना अच्छा लग रहा है. सो बैठा हूं. हाथ में कलम है, कागज है. पता नहीं कब दोनों में संवाद छिड़ जाये. बैठा हूं. लेकिन मन कहां बैठा रह सकता है. वह तो उड़ चला है न जाने कहां-कहां.

लेकिन पहले तो उसे वहीं जाना था जहां उसे वसन्त का पहला साक्षात्कार हुआ था और फिर वर्षों उसके फूलों के साथ फूला है, महका है, चिड़ियों के साथ गाया है, कूका है, हवा में उड़ा है, फसलों के साथ झूमा है, नाचा है. तो आज पहले उसे कहीं जाना था. वह घूम रहा है-गांव के गाइंड़ से लेकर सिवानों तक उमड़ी फसलों के बीच. फूली सरसों, तीसी और मटर के फूलों की रंग-बिरंगी आभा में स्नात हो रहा है. फूल-फूल पर तितलियां उड़ रही हैं, उनके संग मन उड़ रहा है. गदराती फसलों के बीच धंसी हुई पगडंडियों से आते-जाते लोगों का मन नाम ले-ले कर पुकार रहा है. घूमता-घूमता चला जाता है अमराई में.

आम खुशी से पुकार उठते हैं, ‘अरे तुम? तुम कब आये?’ और मन सारे पेड़ों के नाम ले-लेकर उनसे बातें करता है और देखता है कि वे बौराने के लिए कसमसा रहे हैं. वे कह रहे हैं- ‘पहचान रहे हो न? स्कूल से लौटते समय तुम अपने साथियों के साथ यहीं चिक्का खेलते थे. रातों को मेरे फल बीनते थे. तुम्हें यह भी याद होगा कि कितनी बारातें हमारी छाया में पनाह लेती थीं और तुम नाच देखने के लिए आते थे, खुश होते थे. तुम जानते हो न कि मेरे बीच से होकर एक कच्ची सड़क उत्तर और दक्खिन को दूर-दूर तक जाती थी और तुम इसके किनारे खड़ा होकर आते-जाते यात्रियों को देखते थे.

हां-हां! यह वही सड़क है. अब पक्की हो गयी है. अब तो इस पर वाहन चलने लगे हैं. ‘कुऊऊ...कुऊऊ...’ कोयल बोल पड़ी. पेड़ मुस्करा पड़े. बोले- ‘क्यों कुछ याद आया- तुम इन्हीं कोयलों के बोल दुहराते हुए इस पेड़ से उस पेड़ तक दौड़ा करते थे...हां अभी तो कोयल इक्का-दुक्का बोल रही है, चैत आते आते इनके बोल का रस-ज्वार उमड़ पड़ेगा. उस मौसम में आओ न. तुमने तो आना ही छोड़ दिया है.’ ‘हां मेरे दोस्तों, सचमुच मैंने आना छोड़ दिया है किन्तु आने को तड़पता रहता हूं. क्या करूं चाहकर भी इस बूढ़े तन से यात्राएं नहीं हो पातीं. किन्तु तुम लोग तो हमेशा मेरे भीतर चलते रहते हो.’

तो मन देर तक गांव का चक्कर लगाता रहा. गांव का ही क्यों, गांव से लेकर स्टेशन तक ही वासन्ती आभा में नहाता रहा. फिर वह स्टेशन से गाड़ी पर सवार होकर बनारस चला गया. समय दिन का था अतः वह रेल मार्ग के किनारे दूर-दूर तक उमड़ी हुई फसलों की उमंग में नहाता चला गया. बनारस में पैठा तो फिर उसके सुख का क्या कहना?

हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना ही वसन्त पंचमी को हुई थी. तो उस दिन इस हिन्दू विश्वविद्यालय की शोभा देखते ही बनती थी. जुलूस चला जा रहा है स्थापना स्थल की ओर. पीले-पीले परिधानों से सजी छात्राओं की पंक्ति की छवि का क्या कहना? छात्र भी किसी न किसी रूप में अपने को पीताभा के साथ किये होते थे और जुलूस कुल गान से स्पंदित हो रहा होता था. नौ साल तक मैं इस सौन्दर्य का भोक्ता और साक्षी रहा हूं.

वसन्त पंचमी को वसन्त आता था तो विश्वविद्यालय की उन्मुक्त प्रकृति में महीनों रमा रहता था. और हम उसके साथ अपने को चलता हुआ पाते थे. वैसे भी बनारस तो संस्कृति-नगर है. नगर के भीतर प्रकृति का प्रसार नहीं है तो क्या हुआ, लोग अपने अपने घरों में बैठे हुए भी ऋतुओं को जीते हैं, उत्सवों को जीते हैं और बी.एच.यू. तो प्रकृति की गोद में ही बसा हुआ है. उसके भीतर भी प्रकृति का अनंत प्रसार है. अतः उसमें पढ़ने-पढ़ाने वालों के मन में भी वह गहरे व्याप्त रहती है. मैं लगभग पचास साल पहले की बात कर रहा हूं. समय बहुत बदल गया है, अब वहां भी वसंतगान का उल्लास पूर्ववत है कि नहीं, नहीं जानता.

मैं चौंक उठा. मन चारों ओर यात्रा से एकाएक लौट आया. देखा आंगन में अमरूद पर एक गौरैया चिचिया रही है. कौआ उसे दबोचे हुए है, मैंने क्रोध में आकर पत्थर खींचकर उसे मारा. वह चिडिया को चोंच में दबाये हुए उड़ गया और वसन्त पंचमी के ध्यान में चलता हुआ मेरा मन एकाएक उचट गया. लगा कि पीड़ित और पीड़क के स्वर से गुंथी हुई समय की आवाज आयी हो. हां समय बहुत बदल गया है.

राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय वातावरण में बहुत विषम हवाएं बहने लगी हैं. बाजार घरों को आतंकित किये हुए हैं. आतंकवाद नाना वेश में मनुष्यता के लिए खतरा बना हुआ है. यहां-वहां इधर-उधर गोलियों की आवाज आ रही है. निर्दोष लोग छटपटा कर गिर रहे हैं. घरों से लेकर व्यापक समाज तक हिंसा छायी हुई है. व्यभिचार न जाने कितनी स्त्रियों का जीवन नरक बना रहा है, धर्म का कट्टरवादी आदेश व्यक्ति-स्वातंत्र्य का गला घोंट रहा है, राजनीति का मायाजाल न जाने क्या-क्या अमानवीय खेल दिखा रहा है और पैसा न जाने किस-किस रूप में अमानुषीकरण कर रहा है. हलचल मची हुई है, भागमभाग जारी है.

इस माहौल में कौन देखता है कहां है वसन्त पंचमी? कहां है वसन्त? कहां है होली-दीवाली? अब तो लेखकों और कलाकारों को भी इनका पता नहीं मिल रहा. वे भी समाज के नये माहौल का होकर चलना वास्तविक चलना मान रहे हैं. ऋतुओं और मौसमों की चिन्ता करने वाले कवि और कलाकार उनके लिए उपहास के पात्र हैं. कहते हैं, ‘देखो दुनिया कहां से कहां जा रही है. वह यथार्थ के किन-किन नये और विषम आयामों से संक्रान्त हो रही है और एक हजरत ये हैं कि वसन्त पंचमी लिये बैठे हैं. ऋतुओं और मौसमों के सौन्दर्य पर रीझे हुए हैं.’

यह सब सोचते-सोचते मैं न जाने कहां से कहा चला गया. वसन्त पंचमी मेरे ध्यान से छूटकर कहीं गिर गयी. सच ही तो है कि आज ऐसे अमानवीय कृत्यों के कोलाहल के बीच रहकर वसन्त पंचमी का पंचम स्वर कैसे सुना जा सकता है? यह तो अपने सामाजिक दायित्व से विमुख होना कहा जायेगा न. मैं सोचने लगा-तो अपना सामाजिक दायित्व क्या है? क्या इस कोलाहल का बयान कर देना और कभी-कभी उसके विरुद्ध शब्दों की तलवार भांज देना ही सामाजिक दायित्व है? यह कोलाहल जिस प्रकृति सौन्दर्य और मानवीय राग के प्रति उदासीनता की सृष्टि कर रहा है, उसके प्रति लगाव को बचाये रखने का प्रयत्न सामाजिक दायित्व नहीं है?

सच बात तो यही है कि मनुष्य प्रकृति और मानवीय संवदेना से कट कर ही जड़ बनता जा रहा है और नाना क्षेत्रों में ऊधम मचा रहा है. वसन्त पंचमी प्रकृति में आने वाले नये सौन्दर्य का अभिज्ञान मात्र नहीं है, वह संस्कृति भी है. वह सरस्वती का भी पर्व है. वह ज्ञान यानी आंतरिक सौन्दर्य तथा बाह्य सौन्दर्य की लय सर्जित करने वाला सांस्कृतिक पर्व है. यह मनुष्य को उसकी उस मनुष्यता का बोध कराती है, जिससे कटकर वह तमाम खुराफातों के रेगिस्तान में बेतहाशा दौड़ रहा है, ऊधम मचा रहा है और अपनी तथा समाज की शांति में आग लगा रहा है.

तो मैं वसन्त पंचमी को इसीलिए जीना चाहता हूं, परन्तु कहां है वसन्त पंचमी? यहां तो सब कुछ वैसा ही जैसा कल था. ‘कुहू, देखो दादाजी वहां आंगन में बैठे हुए हैं.’ डेढ़ साल की कुहू को गोदी में लिए सागरिका मेरी ओर इशारा कर रही थी. कुहू ने मुझे देखा और मेरी गोद में आने के लिए मचलने लगी. हां मैं उसे रोज पार्क में घुमाने ले जाता हूं और वह मुझे देखकर समझ जाती है कि मैं उसे लेकर पार्क में जाऊंगा. वहां वह बहुत प्रसन्न होती है. कुत्तों को देखते ही भौं-भौं कहकर खिलखिलाने लगती है, पेड़ों को प्यार से निहारती है, प्यारी-प्यारी धूप में दूब के ऊपर डगमगाती हुई चलती है, हंसती है, खिलखिलाती है, नाचती है. मैं खड़ा हो गया और अपनी बांहें फैला दीं.

पीले वस्त्रों में दीप्त कुहू मेरी गोद में आ गयी और लगा कि कोई बड़ा सा फूल आ गया हो. मैं स्पंदित हो उठा और महकने लगा. दादी सरस्वतीजी ने पुकारा, ‘कुहू!’ पिता विवेक ने पुकारा, ‘कुहू!’ इधर-उधर से कई बच्चों ने पुकारा कुहू और मुझे लगा कि पेड़ पर बैठकर कोयल बोल रही है कुहू...कुहू...कुहू...कुहू. एकाएक मेरा ध्यान अपने फूल-पौधों पर गया. अरे इनमें नये-नये कोमल-कोमल पत्ते आ रहे हैं, इन्हें मैंने देखा ही नहीं और देखते-देखते वसन्त पंचमी का उल्लास छा गया.

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रचनाकार: प्राची - अगस्त 2017 : डायरी // वसन्त पंचमी // डॉ. रामदरश मिश्र
प्राची - अगस्त 2017 : डायरी // वसन्त पंचमी // डॉ. रामदरश मिश्र
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