आपने कहा है ताकि मनोबल बना रहे मैं सामाजिक -साहित्यिक एवं सांस्कृतिक विचारों की मासिक पत्रिका ‘प्राची’ का पाठक हूं. पत्रिका में प्रकाशित ...
आपने कहा है
ताकि मनोबल बना रहे
मैं सामाजिक-साहित्यिक एवं सांस्कृतिक विचारों की मासिक पत्रिका ‘प्राची’ का पाठक हूं. पत्रिका में प्रकाशित उत्कृष्ट कोटि की कहानियां, लेख, कविताएं, समीक्षाएं आदि के कारण मेरे जैसे पाठक के लिए यह पत्रिका नितान्त ज्ञानवर्धक, मार्गदर्शक एवं संग्रहणीय रही हैं, जो निश्चय ही आपके सफल सम्पादन का परिचायक है.
अपने कुशल सम्पादन में पाठकों के समक्ष निरन्तर उत्कृष्ट और सराहनीय साहित्यिक सामग्री प्रस्तुत करने के लिए कृपया आप मेरी बधाई स्वीकार करें. यह पत्रिका निश्चय ही अपनी विधा में सर्वश्रेष्ठ मानदण्डों पर खरी उतरती है.
थोड़ा बहुत लिखने, अपनी संवेदना, अनुभवों, सरोकारों को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करने की कोशिश मैं भी करता रहता हूं. अपनी उन्हीं स्वरचित, अप्रकाशित रचनाओं में से एक कहानी संलग्न कर इस आशय से प्रेषित कर रहा हूं कि कृपया इसे ‘प्राची’ के आगामी अंक में प्रकाशनार्थ शामिल कर अनुगृहीत करने की कृपा करना चाहें, ताकि मुझ रचनाकार का उत्साह एवं मनोबल आगे भी बना रहे.
∙राम नगीना मौर्य, लखनऊ (उ.प्र.)
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आपका अन्वेषण मानता हूं
‘प्राची’ निरंतर हमारी पाठकीय संतुष्टि की कसौटी पर निखरती जा रही है. ‘व्यंग्य विशेषांक’ की दो-चार रचनाओं को छोड़कर बाकी की सभी रचनायें अपनी विधा की सार्थकता पूरी करती हैं. ‘गधा बिरादरी की एक चिंतन बैठक’ (राजेश सेन) तथा हरि जोशी की ‘हमारी पार्टी ही देश को बचायेगी’ ने खास तौर संतुष्ट किया. अर्चना चतुर्वेदी का व्यंग्य ‘कवयित्री बनने का चश्का’ भी मजेदार है. वैसे तो सभी रचनायें संतुष्ट करती हैं, पर इस छोटे से पत्र में सभी का जिक्र कर पाना संभव नहीं है, फिर भी दिनेश बैस का ‘मुर्खोत्सव से फसलोत्सव तक’ की बात ही अलग है.
मई 2017 अंक! आपके अनुसार मनुष्य की प्रकृति ही पतनशीलता का समर्पित है. हालांकि आपने इसे व्यंग्य शैली में लिखा है, फिर भी इसे मैं आपका अण्वेषण मानता हूं. डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी की कहानी ‘वन्य’ अत्यंत ही मार्मिक बन पड़ी है तथा जो लोग पर्यावरण से खिलवाड़ कर खुद का ही नुकसान करते हैं, वन्य जीवों पर अत्याचार कर अमानवीयता का परिचय देते हैं, वैसे लोगों की आंखें खोलने वाली कहानी है यह.
प्रेमपाल शर्मा की ‘मोक्षदायी द्वारकापुरी की तीर्थयात्रा’ भी अच्छी रचना बन पड़ी है. दिनेश बैस अपने हर अंक की रचनाओं के साथ एक वैचारिक दृष्टि प्रदान करते हैं. ‘देने लायक होना भी...’ इसी कड़ी की रचना है.
अंक की शेष रचनाओं के लिए भी संपादकीय श्रम को सलाम!
∙रतन वर्मा, हजारीबाग(झारखंड)
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एक संग्रहणीय अंक
प्राची का जुलाई, 2017 अंक मिला. सम्पादकीय से लेकर रचनाओं के चयन में पूरा ध्यान दिया गया है. यह एक संग्रहणीय अंक है. वर्षों बाद ऐसा सम्पादकीय पढ़ने को मिला, जिसमें राजनीतिज्ञों के चाल-चलन को उधेड़कर रख दिया है, किसी पार्टी या दल के नेता का नाम लिए बिना.
प्रेमचन्द की कहानी ‘दुनिया का अनमोल रतन’ का पुनः प्रकाशन कर सुधी पाठकों के लिए एक अनमोल तोहफा दिया है. कहानी की भाषा, कथ्य और अन्तर्निहित उद्देश्य स्पष्ट है. समझ में नहीं आता कि अंग्रेज प्रशासन ने इसमें कैसे देशभक्ति की बू सूँघकर जब्त कर लिया था.
अंक की पाँचों कहानियाँ पठनीय और रोचक हैं. ‘पर तन का’ कहानी का विषय पाठकों के अन्तर्मन को छू जाता है. वरिष्ठ नागरिक और युवा लड़की के मध्य दैहिक आकर्षण स्थूल तो है, लेकिन मर्यादित है. लड़की की सोच और समझ उम्र से अधिक परिपक्व है. ‘कामघर’ समाज में व्याप्त तेरहवीं नाम की कुरीति पर आधारित है. कहानी के माध्यम से ‘कामघर’ शब्द पहली बार जाना है. विवेक प्रियदर्शी की कहानी ‘साबुत बचा न कोय’ हिन्दू और मुस्लिम के मध्य होने वाले दंगों की पड़ताल करती है. दंगों के दौरान दोनों ही पक्ष उन्मादी होकर हत्या, बलात्कार करते हैं. स्थानीय लोकभाषा के संवाद कहानी को जीवन्त बनाते हैं. यह एक ऐसी कहानी है, जो पाठकों के जेहन में सालों साल रहेगी. सेराज खान ‘बातिश’ की कहानी ‘गजरा’ मुस्लिम समाज में होते बदलाव की कहानी है. पीढ़ियों की सोच और समझ की अच्छी रचना है.
राकेश भ्रमर की कहानी ‘नूर’ सबसे रोचक कहानी है. हिन्दू लड़के और मुस्लिम लड़की के मध्य पनपे प्यार को शादी के बन्धन तक ले जाना ही कहानी का सार नहीं है, बल्कि इस कहानी में अनेक सूक्ष्म भाव हैं. करीम का चरित्र है और समाज के प्रति व्यावहारिक दृष्टि है. वैभव का प्रेम के प्रति आस्था, नूर के अनपढ़ होने का कोई मलाल नहीं, साथ ही हिन्दू परिवार का मुस्लिम लड़की को सहज अपनाना भी है. कहानी की एक और विशेषता है- नायक हिन्दू प्रेमिका (पत्नी) मुस्लिम है. यह भ्रमर जी की सोच, समाज को नई ऊँचाई देती है. अभी तक प्रायः पढ़ने में आया है कि नायक को मुस्लिम और नायिका को हिन्दू ही दिखाया जाता है. एक साफ-सुथरी कहानी के लिए भ्रमर जी बधाई व धन्यवाद के पात्र हैं.
कविताएँ और गजलें अन्य अंकों की तरह पठनीय हैं. डॉ. गार्गीशरण ‘मराल’ का आलेख शोधपरक व पठनीय है. डॉ. भावना शुक्ल का आलेख भी ज्ञानवर्धक है.
रतन वर्मा की धारावाहिक आत्मकथा (सातवीं किस्त) ‘जीवन के मध्यान्तर के बाद’ उनके संघर्ष और साहित्य के प्रति लगाव का दस्तावेज है. आत्मकथा में स्पष्टता और दुख के प्रति दुराव नहीं है. जैसे एक तटस्थ दर्शक की भाँति जीवन के बहाव को देख रहे हैं, महाभारत के संजय की तरह.
हिन्दी में प्रकाशित मासिक साहित्यिक पत्रिकाओं में प्राची का स्थान निश्चित रूप से अग्रणी है.
∙राजेन्द्र कुमार, झाँसी (उ.प्र.)
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कहानी में अधूरापन लगा
प्राची जून 2017 का अंक हर अंक की तरह अपेक्षित अनुकूल लगा. संपादकीय अपनी प्रखरता बनाए हुए है. संपादक की यह विशेषता है कि सर्वप्रथम किसी विशेष पहलू पर उसकी वर्तमान दशा, फिर दिशा और अंततः निराकरण की तरफ अभिव्यक्ति रहती है. आदरणीय भारत यायावर की भूमिका से प्राची खुलती हुई केदारनाथ सविता की कविता पर विराम लेती है. लघुकथा कमजोर, कहानी अज्ञात वनवास, देवता प्रेरक एवं धाराप्रवाह बनी रही. व्यंग्य कथा में सुभाष चन्दर की मेहनत सफल लगी. वहीं खाली आसमान कहानी में अंत तक लेखकीय उद्देश्य स्पष्ट नहीं हो पाया, कहीं न कहीं कहानी में अधूरापन लगा. यूनुस अदीब की गजल विशेष रूप से सराहनीय है. अन्य सामग्री भी मनोरम है.
लघुकथा लेखक राकेश भ्रमर ने अपनी लघुकथा ‘तलाक’ में पात्रों का भावानात्मक और संवेदनात्मक पक्ष और लेखकीय गहन दृष्टि और गंभीर चिंतन का सार्थक परिचय दिया है. लेखक की यही विशेषता है कि जीवन के सूक्ष्म सत्यों को व्यंजना के रूप में लेकर व्याख्या प्रस्तुत करते हैं. उनकी भाव-भाषा-शैली, घटनाक्रम-स्थितियों की सूक्ष्म छानबीन-पैनी कथा वस्तु-नवनिर्मित भव्य सदृश्य लघुकथा साहित्यकार दर्पण स्वतः बन जाती है. वरना ज्यादातर तीक्ष्ण-कटाक्ष, व्यंग्य बनकर या हास्य की एक प्रतीक रूप तक सीमित रह जाती है. आशान्वित हूं कि राकेश भ्रमर अपनी सूक्ष्म अनुभूतियों, सरोकारों और संवेदनात्मक विचारों को भविष्य में प्राची के माध्यम से हम पाठकों तक इसी तरह पहुंचाते रहेंगे. एक प्रतिष्ठित हस्ताक्षर राकेश भ्रमर को उनके उत्कृष्ट लेखन के लिए बधाई.
∙राकेश माहेश्वरी ‘काल्पनिक’ नरसिंहपुर
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गेहूं के साथ घुन भी पिस जाते हैं
‘प्राची’ का जुलाई 2017 अंक! प्रत्येक रचना पठनीय एवं संग्रहणीय बधाई. हालांकि इस अंक का सम्पादकीय कुछ खास नहीं लगा.
भारत यायावर प्रत्येक अंक में अपने प्रधान सम्पादक होने के दायित्व का निर्वाह करते हुए पाठकों के लिए कुछ खास सामग्री अवश्य उपलब्ध करवाते रहते हैं. इस अंक में प्रेमचन्द की 1907 में प्रकाशित उनकी प्रथम कहानी उपलब्ध करवा कर वैसे पाठकों का ज्ञानबंधन किया है, जिन्हें जानकारी नहीं होगी कि प्रेमचन्द की पहली कहानी कौन सी है. वैसे पाठकों की ओर से भारत यायावर का आभार.
वैसे तो अंक की प्रत्येक रचना के चयन में सम्पादक की दृष्टि और श्रम परिलक्षित हैं, जिनपर पाठकीय मंतव्य रखा जाना चाहिए, लेकिन पत्र-विस्तार की सीमाबद्धता कलम को इजाजत नहीं दे रही. फिर भी अंक की दो कहानियों पर विचार व्यक्त करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं. भैया विवेक प्रियदर्शी की ‘साबुत बचा न कोय’ तथा राकेश भ्रमर की ‘नूर’ पर. लेकिन इन दो कहानियों के विचार के पूर्व सेराज खान ‘बातिश’ की कहानी ‘गजरा’ को तवज्जो न दिया जाना खुद से ही नाइंसाफी होगी. भाषा, शिल्प और प्रवाह के स्तर पर ‘गजरा’ ने प्रभावित किया ही, कथ्य के स्तर पर भी सशक्त बन पड़ी है. अंधविश्वास कभी-कभी इतना घातक सिद्ध होता है कि हंसती-खेलती ज़िन्दगी को भी तबाह कर जाती है. जुनैदन के फौजी पुत्र का अरमान भी उसी अंधविश्वास की भेंट चढ़ जाता है. पर कहानी में सिर्फ इतना नहीं है, बल्कि गांव के यथार्थ, फौजी जीवन के यथार्थ आदि का भी शब्दांकन पाठकीय संतुष्टि से परिपूर्ण है. अब उक्त दोनों कहानियों पर-
‘साबुत बचा न कोय’ कहानी साम्प्रदायिक दंगों को आधार बनाकर लिखी गयी कहानी है, जिसे किसी प्रत्यक्षदर्शी की तरह प्रस्तुत किया है कथाकार ने. लेकिन विषय-वस्तु को दंगे की भयावहता से अधिक बलात्कार पर केन्द्रित कर दिया है. जैसे दंगाइयों का मुख्य उद्देश्य दूसरे समुदाय की स्त्रियों का बलात् शील-हरण ही हो. वैसे, कहानी के माध्यम से यह स्पष्ट करने का सफल प्रयास अवश्य किया गया है कि दंगे कभी दो समुदाय के लोग नहीं करते, बल्कि उन समुदायों के बीच के कुछ असामाजिक तत्व, अपनी हितपूर्ति के उद्देश्य से ऐसे कुकृत्य को अंजाम देते हैं और यह भी स्पष्ट किया है कि दंगाई, न हिंदू होते हैं, न मुस्लिम बल्कि वैसे अपराधी तत्व होते हैं, जिनके लिए धर्मिक उन्माद फैलाकर राजनीतिक या निजी हित साधना सर्वोपरि होता है. ऐसा नहीं, तो तुषार बाबू भी दूसरे समुदाय के विरुद्ध विक्षिप्तता की हद तक आक्रामक मनःस्थिति के बावजूद मौका मिलने पर बलात्कारियों की तरह अपना बदला जरूर निकलाते. और वे असामाजिक लोग, जिन्हें इम्तियाज और उनके साथियों के द्वारा अपने ही समुदाय की स्त्री तुषार बाबू की पत्नी की अस्मत लूटकर हत्या कर दिये जाने के बावजूद उन्हें इत्मियाज वगैरह पर आक्रोश नहीं आना, बल्कि इस बात का अफसोस होता है कि दंगे जैसे माहौल का लाभ उठाकर उन लोगों ने तो तुषार बाबू की बीवी पर हाथ साफ कर लिया और वे सोचते ही रह गये... कहानी का अंत लेखक की एकतरफा सोच से होता है, ‘‘यह कैसी विडम्बना है कि इस दंगे के जिम्मेवार सारे सियासतदान और गुण्डे आजाद घूम रहे हैं और जेल की सारी कोठरियां, हमारे-आपके जैसे बेकसूरों से भरी जा रही है!’’ इस प्रकार लेखक ने पुलिस महकमे को ही कठघरे में ला खड़ा किया है, जबकि दंगे जैसे हालात में पुलिस यदि सक्रियता से असामाजिक तत्वों पर काबू न करें, तो दंगा रुक ही नहीं सकता. हां, गेहूं के साथ कुछ घुन भी अवश्य पिस जाते होंगे.
दूसरी कहानी ‘नूर’!...यह संवेदना के धरातल पर रची गयी है. भाषा और प्रवाह के स्तर पर खुद को पढ़वा ले जाने में पूरी तरह समर्थ. संवेदना के धरातल पर इसलिए क्योंकि कोई भी बड़ा भाई किसी गैर मजहबी, सौतेली मां के द्वारा बुरी तरह सतायी हुई लड़की को उसके प्रेमपाश में गिरफ्तार अपने छोटे भाई को उसके साथ छुप-छुपाकर भगवाने का न तो जोखिम लेगा, न कोशिश करेगा. लेकिन किसी की घनघोर यातना का प्रभाव जब किसी संवेदनशील इंसान के मन को झकझोरने की हद को पार कर जाता है, तब उसकी संवेदना इतनी घनीभूत हो जाती है कि उसे यातना से मुक्ति दिलाने में वह अपनी सम्पूर्ण चेतना लगा सकता है. ऐसे में जब अपने छोटे भाई में असहाय नूरी की, यातना से मुक्ति का मार्ग नजर आता है, तब धर्म सम्प्रदाय, जात-पात सबसे ऊपर उठकर वह नूरी के साथ खड़ा हो जाता है. लेखक का शायद यही उद्देश्य भी हैं
∙रतन वर्मा, हजारीबाग (झारखंड)
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प्राची का नूर
घूस पर आधारित सम्पादकीय का एक अलग आनंद है. जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों के आधार पर ‘साबुत बचा न कोय’, ‘कामघर’, ‘पर तन का’, ‘गजरा’, ‘नूर’ की कथावली प्राची अंक की शोभा बढ़ा रही है. इस बार सभी आलेख अति उत्तम है. गीत-गजल कविताओं की अलग ही छटा बिखरी हुई है.आत्मकथा की निरंतरता बनी हुई है. बहुत ही उम्दा है. हास्य व्यंग्य एक अनोखे रंग में है. लघु कथाओं की बहार है जो विविध रंगों में अंतर्मन की अनुभूति का अहसास है का यथार्थ चित्रण है. पिछले अंकों में हमने डॉ. भावना शुक्ल के साक्षात्कार पढ़े जो उम्दा हैं पर चीन के मि. फिंग का साक्षात्कार पढ़कर बहुत अच्छा लगा जो हमारी हिंदी और हिन्दुस्तान की शान में गर्व का अनुभव करते हैं और आज चीन को लेकर स्थिति विकट बनी हुई है. पत्रिका को पढ़कर हमारा ज्ञान और भी बढ़ जाता है. संपादक और संपादक मंडल बधाई के पात्र हैं.
∙ममता व्यास, आर्वी (महाराष्ट्र)
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उत्कृष्ट पत्रिका
पहली बार जब मेरे हाथों में प्राची का मार्च/अप्रैल अंक आया, इसे मैंने पढ़ा तो जाना...प्राची मुझे बहुत उत्कृष्ट पत्रिका नजर आई. यह विविध विधाओं के रंगों में समाहित है. मुझे लग रहा है जो स्तरीय पत्रिकाएं हैं, उनके मुकाबले में प्राची है. मेरी ओर से यही शुभ कामना प्राची के लिए है. इसका भविष्य उज्जवल है. संपादक और संपादक मंडल को हार्दिक बधाई.
प्रो. रामदरश मिश्र, नई दिल्ली
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