हलीम आईना की हास्य व्यंग्य कविताएँ भटकन आज-कल प्रत्येक मनुष्य का दिमाग इक्कीसवीं सदी में घूम रहा है, इसी लिए तो- दिल पाषाण-युग की दहल...
हलीम आईना की हास्य व्यंग्य कविताएँ
भटकन
आज-कल
प्रत्येक मनुष्य का दिमाग
इक्कीसवीं सदी में घूम रहा है,
इसी लिए तो-
दिल
पाषाण-युग की
दहलीज चूम रहा है ।
0000
मेरी..नहीं... आपकी है कविता...
मैं
शब्द चुराता हूँ
आप लोगों के बीच से..
मैं
शब्द उठाता हूँ
अपने आस-पास से..
मैं
शब्द बीनता हूँ आप की
दबी-कुचली
आवाजों के ढेर से
मैं ने
आप के दर्द को
हृदय की गहराइयों में जिया है,
इस से अधिक
कुछ नहीं किया है..
मैं कवि हूं
लेकिन कविता
क्या मेरे बाप की है..
कविता तो आप की है,
आप की है:.. ।
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पैण्डुलम
आज का
आदमी
घड़ी के पैण्दुलम की तरह
घनचक्कर हो रहा है,
पैसे के पीछे
सरल आवर्त्त गति कर रहा है
और
अपने हाल पर
रो रहा है ।
घर से ऑफिस
मकान से दुकान..
कम्बख्त!
इस से आगे ही नहीं
बढ़ रहा है ।
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भेड़ जिससे डरते हैं भेड़िए
जंगल के सारे भेड़िये
खौफजदा हैं
सिर्फ एक भेड़ से,
जिस ने
ताक में रख दी है ' भेड़-चाल ' ।
वह ' एकला चालो रे ' का
सिद्धान्त ले कर
चल पड़ी है
मनुष्यता की राह पर ।
भेड़िये उड़ाते हैं उस का उपहास
आदमी-भेड़िया कह कर ।
भेड़िये चाहते हैं-
वह भेड़-चाल को कतई न छोड़े
भेड़पन से कभी नाता न तोड़े ।
ईमानधारी भेड़
बेखौफ है
शान्त है
खुश रहती है सदा ।
भेड़िये खत्म कर देना चाहते हैं
अमन का आदर्श बनी भेड़ को
उन्हें डर है
कि कहीं वह
जंगल में आतंक की सत्ता का
मटियामेट न कर दे,
जंगल के जानवरों में
आदमीयत न भर दे... ।
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आदमी या कुत्ता -
शमशान घाट में
टीन-शेड के नीचे
दो कुत्ते
बैठे-बैठे
आपस में बतिया रहे थे,
और एक-दूजे को
अपनी-अपनी
आप-बीती सुना रहे थे ।
पहला कुत्ता बोला-
'यार।
आज का आदमी भी
कितना गधा है
हर किसी
ऐरे-गैरे
नत्थू-खैरे को
कुत्ता कह देता है,
आखिर को
अपनी भी
कुछ तो रेपोटेशन है.. । '
तभी दूसरा कुत्ता चीखा- '
यार!
तुझे भी
फालतू की टेंशन है
अरे!
मुझे तो अपने कुत्तेपन पर उस समय
बड़ा गर्व होता है,
जब-
पाँच-पाँच जवान बेटों का
रिक्शा खेंचता बूढ़ा बाप
अपने हाल पे रोता है-
' बेटा!
इस कलजुग में
आदमी से अच्छा
कुत्ता होता है'... । '
आदमी से अच्छा हूँ...!
भेड़िए के चंगुल में फँसे
मेमने ने कहा-
'मुझ मासूम को खाने वाले
हिम्मत है तो
आदमी को खा! '
भेड़िया बोला-
' अबे! तू ने मुझे
उल्लू का पट्ठा
समझ रखा है क्या?
मैं जैसा हूँ, ठीक हूँ
ज्यादा क्रूर
नहीं बनना चाहूँगा
मैं आदमी को खाऊँगा
तो आदमी न बन जाऊंगा?
बेटा! तू अभी बच्चा है,
अक्ल का कच्चा है!
अरे । भेड़िया ही तो
आज-कल
आदमी से अच्छा है..
खुदा की खुदाई
बाद नमाज
एक युवा मौलवी साहब
हाथ उठा कर बोले-
' या खुदा तेरी खुदाई
किस ने देखी? '
पास खड़े
एक मस्त फकीर ने कहा-
'मैं ने देखी! मैं ने देखी!
इसी बात पर दोनों भिड़ गए,
लड़ते-झगड़ते
शहर काजी तक पहुँच गए ।
काजी साहब चीखे-
'हाथ कंगन को आरसी क्या?
चलो भाई।
खुदा की खुदाई हमें भी दो दिखा । '
फकीर ने दहाड़ लगाई-
' काजी साहब!
अब आप ही बताइए,
ये नदी
मौलवी साहब के बाप दादा ने खुदाई है
या
खुदा की खुदाई है? ... '
.
जर्दा नहीं खाऊंगा..
अध्यापक ने लंच में
छात्र श्याम से
पनवाड़ी की दुकान से
जर्दा-चूना मँगवाया,
तो शब्द चबाते हुए
छात्र बड़बड़ाया-
' गुरुदेव!
आप भी ज्जी गंगा बहाते हैं,
एक तरफ कक्षा में क्यों पढ़ाते हैं-
बच्चो!
जर्दा बुद्धि का अपहरण करता है,
काया की कांति हरता है
अन्दर की चमड़ी गला कर
कैंसर बनाता है,
बिन टिकट के स्वर्ग धाम पहुँचाता है ।
इतने ज्ञानी हो कर भी
आश्चर्य है आप, जर्दा खाते हैं?
शर्म नहीं आती
अपने चेलों से जर्दा मँगवाते हैं?'
चेले का उपदेश सुन कर
बूढ़े गुरु ने छात्र को डाँटा
तिलमिला कर मार दिया चाँटा-
' कमबख्त। जुबान लड़ाता है,
लौफर बौफर कहीं का
अपने ही टीचर को
जर्दा पुराण पढ़ाता है! '
वर्दी के पीछे क्या है..
एक दरोगा से
मैं ने पूछा-
'वर्दी के पीछे क्या है? '
दरोगा बोला- ' डण्डा। '
मैं ने फिर पूछा -
' डण्डे के पीछे क्या है '
दरोगा चीखा- ' अण्डा। '
मुझे छेड़ सूझी-
' अण्डे के पीछे क्या है? '
दरोगा गुस्से में बोला-
' धन्धा। '
मैं ने फिर जिज्ञासा जताई-
' दरोगा भाई! धन्धे के पीछे क्या है ' दरोगा ने
जमीन पर फटकारा डण्डा
और उगल दिया जुमाने का अस्ली फण्डा,
गुस्से में बोला-
' ओ, यारा!
आजकल धन्धा है मन्दा,
क्यों कि-
मन्दे के पीछे है वैश्विक मन्दी
मन्दी की मार से
दुनिया हो रही है अन्धी..
लोग हो 'गए हैं दन्द-फन्दी... । '
दोहे
आजादी को लग चुका, घोटालों का रोग ।
जिस के जैसे दाँत हैं, कर ले वैसा भोग । ।
खाकी में काला मिला, उस में मिला सफेद ।
यही तिरंगी रूप है, लोक-तन्त्र का भेद । ।
छत पर मोरा-मोरनी, बैठे आँखें भींच ।
इक अबला का चीर जब, दुष्ट ले गया खींच । ।
जीवन भी इक व्यंग्य है, इस को पढ़ ले यार ।
जिस ने खुद को पड़ लिया, उस का बेड़ा पार । ।
माँ है मन्दिर का कलश, मस्जिद की मीनार ।
ममता माँ का धर्म है, और इबादत प्यार । ।
जब जुगनू से सामने, दीप करे खुद रास । '
आईना' तब जान लो, अन्त दीप का पास । ।
बेटे-बहुओं को लगे, बड़ी अम्मा भार ।
दो रोटी के वास्ते, रोज चले तकरार । ।
(हास्य व्यंग्य कविता संग्रह हँसो भी हँसाओ भी से साभार)
कमल नेमा की हास्य व्यंग्य कविताएँ
सद्भावना
ईश्वर एक है
और इसके लिए
रास्ते अलग अलग हैं
यह विचार - '
बदला हुआ लगता है - ,
अब इस तरह -
' 'ईश्वर एक है
और
इसके लिये लड़ने के रास्ते
अलग अलग हैं ''
क्रमशः
वे
कुछ पैग लेकर
कुछ पग लेते हैं
और कुछ
पिग' हो जाते हैं ।
किंकर्त्तव्यविमूढ़
'मद्य निषेध ' पर
बोलने के लिये
आयोजक -
जब उनका नाम लेने लगे वे -
'हिचकने ' लगे।
समाधान
उनसे जब
पूछा गया कि
महोदय,
आपके कितने बच्चे हैं?
बोले वे खीझकर –
पालते सम्हालते
अब दो ही बचे हैं
निष्कर्ष
संगोठी का एक मुद्दा
अमीरी-गरीबी की खाई
कैसे भरें?'
इस पर निष्कर्ष
'बेशक
खाई भरने जैसा यह काम भी
गरीब ही करें।
भाषा-विद
छात्र की - उत्तर पुस्तिका पर
टिप्पणी आई -
' 'भाषा सुधारें ''
पढ़कर
छात्र घबराया?. -
जाँच-कर्ता से बोला -
' भाषा सुधारने ' जैसा दायित्व मुझ जैसे
कमजोर छात्र पर क्यों आया?''
टिप्पणी
वे
माडर्न आर्ट के
गरीब चित्रकार हैं
उनके पुत्र का कहना है
' 'लकीर के फकीर हैं 1' '
सुर
वे संगीतज्ञ हैं
धीरे धीरे सुर पकड़ते हैं
और श्रोता -
धीरे धीरे सर पकड़ते हैं ?
डायबिटीज
उनके लिए
डायबिटीज
असाध्य है;
पत्नी बहुत मीठी है ।
खस्ता
उन्होंने
चाट वाले की बेटी से
विवाह रचाया
कहते हैं. वे आजकल
बिकुल 'खस्ता' हैं।
बचाव
वे इस् साल
गंजे, नहीं हो पाए
बच गए हैं
बाल बाल ।
व्यथा
एक तंगहाल
घोड़े व्यापारी ने व्यथा कही –
मैं -
घोड़े बेचकर सोया
फिर भी
रात भर जागता रहा । ''
बेलन
उनसे
पड़ोसन ने जब
बेलन उधार माँगा
बोलीं वे -
' 'बहन
जल्दी वापस करना
पप्पू के पापा भी
आते ही होंगे ।''
अग्नि
एक पत्नी-पीड़ित ने
व्यथा सुनाई -
' 'मैंने
अग्नि के फेरे लिये थे
अब -
'अग्नि' मेरे फेरे ले रही है 1''
रेल यात्रा
रेल टिकट पर छपा था –
'शुभ यात्रा' ।
किया परम इन्तजार
मिली बदहाली
हुई 'शोभा यात्रा' ।
सुविधा
द्रेन में
यह देखकर कि
वे जो पौधे लेकर चले थे
उनमें फल लग चुके थे,
उन्हें याद आई -
रेलवे की उद्घोषणा
' 'आपकी यात्रा (स) फल रहे ।
समस्या
मिट्टी का तेल
गाँव में
हर एक को बाँटने का
पाकर आदेश
वितरक गिड़गिड़ाया -
' 'हुजूर
गाँव के डिब्बे'बोतल -
भरने को मना नहीं करूंगा
लेकिन -
मिट्टी के तेल मिलने की खुशी में
जो गाँव वाले
खुद भी
फूलकर कुप्पा हो गए हैं
बताइए, उन्हें कैसे भरूंगा?''
पूत के पाँव
एक नेता की माँ से
पत्रकार ने चाही -
नेता के जन्म समय की घटना
बोलीं वह -
''चंदू का जन्म नगर था पटना।
हुआ जन्म जब इसका
हो रहा था तब सवेरा
और मुहल्ले भर का घर में –
पड़ा हुआ था डेरा
पैदा होते ही बोला था,
मेरा नन्हा चन्दू -
नमस्कार! मुहल्ले के मतदाता बंधु ।''
(कविता संग्रह - शेष कुशल है से साभार)
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