प्रेमचन्द ने प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन 1936 के अपने प्रसिद्ध वक्तव्य में कहा कि ‘‘साहित्य और साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति ...
प्रेमचन्द ने प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन 1936 के अपने प्रसिद्ध वक्तव्य में कहा कि ‘‘साहित्य और साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई ही नहीं, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई हैं।’’ अवधी और खड़ी बोली में समान रूप से काव्य सृजन करने वाले पं0 वंशीधर शुक्ल और उनके काव्य पर ये पंक्तियाँ पूर्णतया सटीक बैठती हैं। वे एक ऐसे साहित्यकार हैं जिन्होंने साहित्य को जीवन की वास्तविकता के साथ जोड़ा। उन्होंने समकालीन समाज का यथार्थ चित्रण अपनी रचनाओं में किया है। आम जन के जीवन से सम्बन्धित दुःख-सुख के विविध चित्र उनकी रचनाओं में मिलते हैं। वे एक जनवादी और युगद्रष्टा कवि हैं। जनवादी साहित्यकार अपने साहित्य द्वारा एक ऐसी सामाजिक-व्यवस्था कायम करना चाहता है, जहाँ विषमता, दुःख-दारिद्रय, शोषण-अपमान आदि न हों। किसी अन्य का श्रम किसी अन्य के भोग-विलास का साधन न बने। इस व्यवस्था की प्राप्ति के लिए कवि लेखनी का सहारा लेता है। वह अपनी रचनाओं द्वारा जन-मानस को उद्वेलित करके रूढ़िग्रस्त तथा विषमता से भरे सामाजिक ढाँचे को परिवर्तित करने हेतु क्रान्ति उत्पन्न करना चाहता है। कवि दलित-दमित और शोषित वर्ग को क्रान्ति और विद्रोह की पे्ररणा देकर समाज में बदलाव लाने की पुरजोर कोशिश करता है। वंशीधर शुक्ल का काव्य प्रगतिवादी चेतना और सामाजिकता का काव्य है। उन्होंने जनता के दुःख-दर्द को बयान करने के लिए ही काव्य-रचना की है। सामाजिक-चेतना से युक्त साहित्यकार अपने समय, समाज और संस्कृति से विमुख रहकर साहित्य रचना नहीं करता। वह हमेशा अपने आसपास के वातावरण-परिवेश, समाज और देश की नब्ज पकड़ने की कोशिश करता है। संवेदनशील साहित्यकार को समाज में घटित हो रही दमन और शोषण की घटनाएँ इस हद तक आन्दोलित करती हैं कि वह दमनकारी शक्तियों से निर्भय रहकर स्याह को स्याह और सफेद को सफेद कहने में तनिक भी संकोच नहीं करता। वंशीधर शुक्ल ऐसे ही रचनाकार थे। उन्होंने कृषकों, श्रमिकों और मजदूरों की व्यथा को न केवल अपनी रचनाओं में व्यक्त किया, बल्कि उसे दूर करने के लिए शासन-सत्ता को सदैव चेतावनी भी देते रहे। उन्होंने कभी भी अपने व्यक्तिगत लाभ-हानि पर विचार नहीं किया। उनका जीवन इसका स्वतः प्रमाण है।
उन्होंने शोषण पर आधारित सामाजिक-व्यवस्था के प्रति रोष व्यक्त करते हुए परिवर्तन के लिए सदैव आवाज उठायी। उनकी कविता में अमीर-गरीब, जमींदार-किसान तथा उच्च-निम्न वर्ग के वैमनस्य पूर्ण सम्बन्धों का चित्रण हुआ है। निर्धनता, भुखमरी, दुर्भिक्ष, बाढ़ तथा ग्राम्य-जीवन से जुड़ी तमाम समस्याओं का सूक्ष्म निरूपण उन्होंने किया है। वास्तव में वे एक संवेदनशील जनवादी कवि हैं। उनकी सबसे प्रमुख विशेषता है कि उनके जीवन और उनकी रचनाओं में अत्यधिक सामंजस्य है। ‘कवि जी’ ने अपने युगीन यथार्थ को अपनी कविताओं में मुखरित किया है। एक विस्तृत जीवन-दृष्टि रखने वाले शुक्ल जी की सम्पूर्ण रचनाएँ प्रगतिशील चेतना की वाहक हैं। उन्होंने कृषक, श्रमिक, दलित और शोषित वर्ग के दुःख और पीड़ा का मार्मिक चित्रण किया है। ‘मँजूर मनई’ कविता की पंक्तियाँ दर्शनीय हैं-
हम हन मँजूर मनई ककुवा
भोरहे जस मूडु उठाइत हैं, मोहरे मुखिया का पाइत है।
हम अधसोये उठि आइत हैं, आँखिउ मुँह धोइ न पाइत है॥
वह लिहे ठाढ़ पनही ककुवा। (पृ0 79)
वंशीधर शुक्ल का जन्म कृषक परिवार में हुआ था। कृषक जीवन की यातनाओं के वे स्वयं भुक्तभोगी थे। यही कारण है कि शोषण और अत्याचार का ऐसा वास्तविक चित्रण उन्होंने किया है, जो आँखों के समक्ष सम्पूर्ण दृश्य को साकार कर देता है। सन् 1935 में लिखी ‘किसान की अर्जी’ कविता की पंक्तियाँ देखने योग्य हैं-
जब धरिसि हाथु पीठी पर-‘बप्पा! ई कइसी बरतइँ’
हम बोलेने ‘ई हइँ भइया! खेती की जिंदा सरतइँ।’
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लरिका की फतुही नोची, बिटिया की फटी घेंघरिया,
हमरउ सरि गवा लँग्वाटा, घर नंगी बइठि मेहरिया।
हे राम! आजु का करिबा, कइसे ई पूत जियइबा,
जो इनका नाजु खवइबा, तउ पोत कहाँ ते लइबा। (पृ0 85)
पूँजीपति, सामंत और जमींदार सबके सब शोषण का पर्याय बनकर निर्बल वर्ग को उसके श्रम के वास्तविक फल से वंचित कर देते हैं। भूखे-प्यासे परिश्रम कर-करके किसान और मजदूर हडि्डयों का ढाँचा बन जाता है, फिर भी उन पर अत्याचार बन्द नहीं होते। भला ऐसे में सहृदय कवि मौन कैसे धारण कर सकता है? उसका मन कराह उठता है। किसान रात-दिन ऊसर-बंजर में बेगार करता है। उसका हाल पूछने वाला भी कोई नहीं होता। गाली-गलौच और मारपीट के भय से वह अपने काम में तनिक भी लापरवाही नहीं करता है। भुनी ‘सरई’ और तलैया का गर्म पानी पीकर वह अपना पेट भरता है। उसके परिवार की दशा कितनी दयनीय है-
जब भूखी आँतई खउलइँ तब सरई भूँजी खाई,
ऊपर तलिया का तत्ता पानी डटिकई पी जाई।
मेहरी का भूख सतावइ, व गुल्लर बीनइ जावइ,
ऊ महतऊ केर लरिकवा, सूधइ बिटिया गरियावइ।
गुल्लर हाँथन ते छीनइ भईँसिन का खूब खवावइ। (पृ0 84)
किसानों की बदहाली के लिए जिम्मेदार जमींदार वर्ग उन्हीं के श्रम से स्वयं तो विलासिता पूर्ण जीवन यापन करता है, परन्तु गरीब किसान को भरपेट भोजन और तन ढकने के लिए पर्याप्त वस्त्र भी नसीब नहीं हो पाते हैं-
कुरता, धोती, कमरी, फतुही, यकसरी साल माँ लइ पाई,
वहिते बसि अपनी गुजर करी, गँवहिउ माँ वहइ पहिरि जाई।(पृ0 98)
वंशीधर शुक्ल की प्रगतिवादी चेतना का मुख्य केन्द्र बिन्दु किसान, मजदूर और ग्राम्य जीवन है। उनकी अधिकांश कविताओं में इसी वर्ग की पीड़ा का चित्रण है। मानवीय श्रम का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण होने के कारण समाज में उसे विशेष स्थान मिलना चाहिए। जो उसे कभी प्राप्त नहीं हुआ। वह हमेशा से उपेक्षित, असहाय और अनिश्चित भविष्य से युक्त जीवन-यापन करता आया है। वंशीधर शुक्ल ने समाज में व्याप्त विषमता का जितना यथार्थ चित्रण किया है, उतना ही डटकर उसका विरोध भी किया। उनका काव्य लोकमंगलकारी काव्य है, जो समाज को सबल और उन्नत बनाने का पुनीत कार्य करता है। वे सही मायने में जनकवि हैं। इसीलिए समाज में व्याप्त विषमता उन्हें आहत कर देती है। ‘दीपावली’ कविता इसी भाव को लेकर रची गयी है-
महलन माँ घिय के दिया जरैं, मन्दिर-मन्दिर गूगुल कपूर;
जरि रही मडै़यन माँ देरी, पाँजर माँ तलिया सरै घूर;
क्वै नये-नये कपड़ा साजै, कोइ रंग बिरंगा सजै चीर;
कोई के तीर नहीं चिथरा, कोई दुबरा नंगा सरीर;
कहुँ छर्र उड़ै रुपया पैसन, कहुँ नाचि रही कंगाली॥
आई आई दीपावली। (पृ0 122)
प्रगतिवादी चेतना से वंशीधर शुक्ल का काव्य भरा पड़ा है। वे समानता के पक्षधर हैं। इसीलिए उन्हें भोले-भाले ग्रामवासियों, किसानों तथा मजदूरों से गहरी सहानुभूति है। कृषक जीवन की कठिनाइयों को उन्होंने स्वयं झेला था। वे भली-भाँति जानते थे कि किसान भयंकर सर्दी-गर्मी की परवाह किये बिना निरन्तर कठोर परिश्रम करता है, फिर भी जीवन भर कष्ट और अभावों में रहता है। संतोषी प्रवृत्ति का किसान अपने सीमित साधनों में भी खुशी ढूँढ लेता है। लेकिन कभी-कभी निष्ठुर ईश्वर से उसकी ये खुशी भी देखी नहीं जाती। घोर आर्थिक विपन्नता, भुखमरी और बीमारी उसके परिवार को मृत्यु के मुख ढकेल देती है। किसान के लिए ये दुःख असहनीय हो जाता है। वह आत्मघाती कदम उठा लेता है-
सब कथरी गुदरी बरतन भड़वा जमा किहिसि आगे-पाछे।
चारिउ घाईं दावा लगाइ पउढ़ा मलिकिनि के संग-संग
छिन माँ सब फुँकिकइ ढेर भवा दउरे परोस के चिलम नंग। (पृ0 145)
कभी-कभी मजदूर को कई-कई दिन काम नहीं मिल पाता है। तब उसके घर चूल्हा तक नहीं जलता। पेट की आग बेचैन करती है। बेचारा कहाँ जाये, कैसे अपने बच्चों का पेट भरे। ‘अम्मा रोटी’ कविता में भूख से तड़पता बच्चा रो रहा है, माँ उसे समझाने का लाख प्रयास करती है। परन्तु भूख बहलाने से शान्त नहीं होती। बच्चा बार-बार ‘अम्मा रोटी’ ‘अम्मा रोटी’ कहकर रोने लगता है-
मुलु कइउ दिनन का भूँखा लरिका, आँतन माँ परि रही जरनि,
तब कइसे सोइ सकइ चुप्पे, फिरि सुरू किहिस रोवनि भुकुरनि।
फिरि भय देखाइ कै महतारी, चपटाइ प्याट माँ चुपुवावइं,
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भँखे माँ को सुनि सकइ कथा, ‘अम्मा रोटी-अम्मा रोटी’। (पृ0 141)
सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी शोषण और सामाजिक विषमता का दर्द झेलने वाले दलित और शोषित वर्ग का श्रम-बिन्दु रूपी रक्तपान कर पूँजीपति वर्ग अपनी विलासिता की पिपासा को शान्त करता रहता है। वह अपनी कुत्सित मानसिकता से शोषण के नित नये तरीके निकालकर शोषित वर्ग को रोटी से आगे सोचने का अवकाश ही नहीं देता। उनकी ऊँची-ऊँची अट्टालिकाएँ शोषण का पर्याय बनी हुई हैं, जहाँ मानवीय मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं है-
ऊँची नीची रंग-बिरंगी, लगी सरग माँ चोटी,
बड़ी दूरि ते चमकि रही हइ, वह राजा की कोठी।
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पंछी कइदी, पउधा कइदी, देखतइ काँपइ बोटी,
कइदि किहे जियरा किसान का यह राजा की कोठी।
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मनमाने सासन के बल पर, फूली लूट खसोटी,
आजु जबाना देखे लरजइ, यह राजा की कोठी। (पृ0 115-116)
मजदूर तथा किसानों की तरह नारी भी शोषित है। वह युगों-युगों से सामंतों और पूँजीपतियों की वासना का शिकार बन रही है। उच्च कहलाने वाले इस वर्ग की दृष्टि में स्त्री के सम्मान का कोई मूल्य नहीं है-
जहाँ सतीत्त्व लुटइ अबलन का, छीनी जाय लँगोटी,
हुँवइ बनी बइतरनी तट पर, महाराजा की कोठी। (पृ0 116)
सामाजिक व्यवस्था के प्रायः हर विषय पर वंशीधर जी ने कविताएँ लिखी हैं। गरीबी, भुखमरी, मँहगाई, लगान, बेदखली, बेगार, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, पश्चिमी अन्धानुकरण आदि विषयों पर उन्होंने अपनी लेखनी चलाई है। आज सामाजिक व्यवस्था ऐसी हो गयी है, जिसमें रिश्वतखोर, नफाखोर, बेइमान और भ्रष्टाचारी फलते-फूलते हैं। इसके विपरीत ईमादार और मेहनती व्यक्ति परेशानियाँ झेलता है। ‘मँहगाई’ कविता हमारे समाज के वास्तविक रूप का पूरा चित्र खींच देती है-
नफाखोर मेढुका अस फूलइँ, हमरा सबु डकराई,
थानेदार जवानी देखे पिस्टल देइ धराई।
जो जेत्ता मेहनती वहे के घर वत्ती कंगलाई,
जो जेत्ता बेइमान वत्तिहे तोंदन पर चिकनाइ।
हमका चूसि रही मँहगाई। (पृ0 379)
प्रगतिवादी चेतना सम्पन्न ‘अवधी के निराला’ पं0 वंशीधर शुक्ल समाज में क्रान्ति की ऐसी ज्वाला प्रज्ज्वलित करना चाहते हैं, जिसमें दीन-हीन, शोषित किसानों और मजदूरों का दुःख-दारिद्रय जलकर भस्म हो जाये तथा साम्यवाद की स्थापना हो सके-
मजदूर जाग, मजदूर जाग ।
तेरी नस नस में भरी क्रांति, फिर भी लानत की बना ताँति,
उठ वेग मचा दे वह अशांति, उजड़े पूँजीपतिनी-जमाति।
फिर साम्यवाद का मचे फाग।
मजदूर जाग, मजदूर जाग। (पृ0 509-510)
शुक्ल जी शोषित वर्ग में चेतना जाग्रत कर उन्हें स्वावलम्बी बनने का आह्वान करते हैं ताकि वे अपना उद्धार स्वयं कर सकें। उन्हें अपने प्रति होने वाले शोषण और अत्याचार को रोकने के लिए अपने श्रम की महत्ता का आभास होना बहुत ही आवश्यक है-
अन्न इन्हीं के, वस्त्र इन्हीं के, सब व्यापारिक यन्त्र इन्हीं के,
रेल, तार, जलयान, बसें सब शासन के सब तंत्र इन्हीं के।
फिर भी इनमें बैठ जमाना
रहा इन्हीं को घूर।
कहाँ तक सहन करें मजदूर? (पृ0 514)
समाज में श्रमिकों और किसानों की दुर्दशा से क्षुब्ध शुक्ल जी सामंतों और जमींदारों के विरुद्ध विद्रोह का स्वर बुलंद करते हैं। उन्होंने शोषित वर्ग की दुर्दशा का चित्रण कर उन्हें शोषण की यातना से मुक्ति पाने के लिए क्रान्ति की पे्ररणा दी-
तू है स्वदेश का कर्णधार, उठ कार्यभार शासन सँभार,
तुझको करना देशोद्धार, ये मिटे-मिटाये जमींदार।
उठ घुमड़ तोड़ जुल्मी विधान।
ओ भारत के भोले किसान। (पृ0 515)
शुक्ल जी ग्रामीणों और किसानों के कवि हैं। वे सर्वहारा वर्ग के सच्चे प्रतिनिधि हैं। उन्होंने व्यवस्था-विद्रोह के प्रति जो स्वर 1925 के आस पास बुलंद किया, उसे कभी मद्धिम नहीं होने दिया। देश के कर्णधारों की विलासिता और लूट-खसोट की मनोवृत्ति उनके समाजवादी विचारों से तनिक भी मेल नहीं खाती थी। इसीलिए उन्होंने किसानों और श्रमिकों को अत्याचारी शासन के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बजाने के लिए पे्ररित किया-
यह काल-चक्र है प्रगतिशील
परिवर्तन में ही फलता है,
जो जुल्मों पर आधारित हो
ऐसा संसार बदल डालो। (पृ0 568)
स्वतंत्रता से पूर्व गाँवों में जमींदारी व्यवस्था का बोलबाला था। जमींदार तरह-तरह से किसानों को अपने चंगुल में फंसाये रखता था। उसे सपरिवार कठिन परिश्रम करने के बाद भी दो जून की रोटी मिलना मुश्किल थी। जमींदार के साथ-साथ उसके चपरासी, कारिंदे, महाजन, पटवारी आदि भी किसान का शोषण करने से बाज नहीं आते थे। वंशीधर शुक्ल ने जमींदारों को चेतावनी देते हुए ‘जिमींदार सिकुड़ जावेंगे’ कविता में कहा है-
ये जिमींदार जग में सिकुड़ जायँगे,
जिस घड़ी सब कृषक वृन्द अड़ जायँगे।
राज होगा किसानों का संसार में
जिस समय ये जरा सा अकड़ जायँगे।
इनकी एकदम छिनेंगी जिमींदारियाँ,
जुल्म इनके इन्हीं पर उलड़ जायँगे। (पृ0 496)
ऐसे दो टूक, खरे और आक्रामक लहजे में अपने भाव व्यक्त करने का साहस कोई-कोई ही कर पाता है।
कवि मानव प्रेमी है। इसीलिए दीन-हीनों की दीनता उन्हें द्रवित करती है। मनुष्य मात्र के दुःख से उनका हृदय इतना दुःखी हो जाता है कि वे ईश्वर को उलाहना देने से भी नहीं चूकते। उन्होंने सबका हित करने वाले मनुष्य को ईश्वर से बढ़कर माना है। ‘झूँठा ईसुर’ कविता का भाव दर्शनीय है-
डेढ़ करोड़ भूख ते मरिगे जूठउ अन्नु न पाइनि,
कहाँ गए उई पतित उधारन जिनका भोगु लगाइनि।
लाज लुटै दुइ दुइ दानन पर कहँ गे चीर बढ़ैया,
मरिगे सब पहलाद सुदामा कहँ गे खम्भु फरैया।
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ईसुर ह्वहैं अपने घर के, हम हन अपने घरिके,
जो क्वै कामु करै ईसुर अस होई राम ते बढ़िके। (पृ0 237)
कवि की सौन्दर्य दृष्टि श्रम और ग्राम्य जीवन में सौन्दर्य के दर्शन करती है। वे साज-सज्जा और अलंकरण में नहीं बल्कि सामान्य जीवन और ठोस यथार्थ में सौन्दर्य खोजते हैं। सौन्दर्य की परम्परागत अवधारणा से परे अभावों का सौन्दर्य उन्हें अधिक लुभाता है। अभाव ग्रस्त किसान की बेटी पाँवों में सनई की झुनझुनिया पहन थिरक रही है। जिसे देखकर किसान फूले नहीं समाता है-
बिटिया थिरकइँ पाँवन पहिरे सनई की झुनझुनिया
देखि करेजा बित्तन बाढ़इ यह किसान की दुनिया। (पृ0 89)
गाँव के सहज प्राकृतिक सौन्दर्य का एक और चित्र दर्शनीय है-
गलिन माँ बिरवा छतुरी तने, बिछउना दूब रही बिछवाइ,
भरे चउगिरदा नद्दी ताल, कुमुदिनी कमल रहे अउँघाइ।
ममाखी फूल चूसि मन्नायँ, पसू चरि दूब घास पुँदुकाइँ,
हन्न उछरइ पंछी बुकिलाइँ, बलइया लइ बउडर मड़राइँ।
नदी गिरदावइ दइ दइ बाँव,
वहइ हइ अपना प्यारा गाँव। (पृ0 54)
ग्राम्य प्रकृति की गोद में खेल कर पले-बढ़े वंशीधर शुक्ल का ग्राम्यांचल और ग्राम्य प्रकृति से गहरा लगाव रहा है। उन्होंने अपने काव्य में ग्राम्य परिवेश और प्रकृति के अनूठे चित्र अंकित किए हैं। यद्यपि प्रकृति हमेशा से ही कवियों की पे्ररणा और उनके आकर्षण का केन्द्र रही है, परन्तु ग्राम्य प्रकृति का जैसा अनुभूत चित्रण शुक्ल जी ने किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है।
शुक्ल जी को अछूतों की पीड़ा का अहसास भी था। जिनके साथ छुआछूत का व्यवहार किया जाता है, उनकी मनःस्थिति क्या होती है, इसका चित्रण उन्होंने ‘अछूत की होरी’ कविता में किया है-
हमैं यह होरिउ झुरसावइ।
खेत बनिज ना गोरु गैयाँ ना घर दूध न पूत।
मढ़ई परी गाँव के बाहर, सब जन कहैं अछूत॥ (पृ0 117)
प्रगतिवादी विचारधारा शोषण मुक्त साम्यवादी समाज व्यवस्था की स्थापना पर बल देती है। प्रगतिवाद उस मानसिकता और व्यवस्था का घोर विरोधी है, जहाँ स्वयं श्रम न करके गरीब मजदूर और किसानों के श्रम बल पर खजाने भरे जाते हों तथा श्रम करने वालाों को ही पद-दलित किया जाता हो। प्रगतिवाद के आलोक में यदि हम पं0 वंशीधर शुक्ल के काव्य का अवलोकन करें तो पायेंगे कि प्रगतिवादी कविता की विशेषताएँ स्वाभाविक रूप से उनके काव्य में समाहित हैं। सामाजिक यथार्थ, मानवतावाद, शोषक वर्ग के प्रति विद्रोह, शोषितों की दीन-दशा का चित्रण, क्रान्ति का आह्वान, ग्राम्य जीवन और प्रकृति का यथार्थ चित्रण, राष्ट्रीय चेतना तथा हास्य-व्यंग्य आदि उनके काव्य के मुख्य विषय हैं। वास्तव में वंशीधर शुक्ल ने साहित्य को जीवन की वास्तविकता के साथ जोड़ा। उन्होंने समकालीन समाज का वास्तविक चित्र अपनी रचनाओं में उकेरा है। शुक्ल जी की कविताएँ आज भी प्रासंगिक हैं। क्योंकि वे जीवन के यथार्थ की, मानवतावाद की तथा लोक कल्याण की कविताएँ हैं। उन्हें मात्र अवधी का कवि कहना उनकी काव्य-प्रतिभा के साथ न्याय न होगा।
सन्दर्भ
1. वंशीधर शुक्ल रचनावली, सम्पादक-डा0 श्याम सुन्दर मिश्र ‘मधुप’, डा0 सत्यधर शुक्ल, उ0प्र0 हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण 2003 (सभी सन्दर्भ इसी पुस्तक से लिए गये हैं।)
--
डॉ0 सुरंगमा यादव
असि0 प्रो0 हिन्दी
महामाया राजकीय महाविद्यालय
महोना, लखनऊ।
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