जंजीरा १ - घर के सब लोग बिलाय गये , कहु, कौन सहायकबाहर के। हर के हरि ने जब मात-पिता , दुख-दर्द दिये दुनिय...
जंजीरा
१ - घर के सब लोग बिलाय गये ,
कहु, कौन सहायकबाहर के।
हर के हरि ने जब मात-पिता ,
दुख-दर्द दिये दुनिया भर के।
भर के अति सुन्दरता उसमें ,
सब व्यर्थ किया कंगली करके ।
करके अपमान मनो निकली,
टुक मांगन बाहर वो घर के ।
२ - घटके घट फोड़ दिये , पथ , रोक ,
डटे , न हटे ,मटके पट के।
पट के गुन चीर दिये , चुरियाँं ,
कर की, कचबन्ध पड़े लटके'।
लटके सब सीपज भंग हुये ,
बिखरे ब्रज बाल कहे नटके |
नट केलि वृथा , हट छोड़ हमें ,
रसिया रस के , बसिया घट के ।
गजल
अपने गले का हार है , विषधर ही क्यों न हो ?
दिल ने नगर बसाया है , खुद बेघर ही क्यों न हो ?
क्यों नहीं बिजली भरे , बादल की तड़प से ,
नन्दन सा खिलखिला उठे , ऊसर ही क्यों न हो ?
जो बोझ बनकर जिन्दगी की चाल रोक दे ,
उसको उतार फेंकिये , वह सर ही क्यों न हो ?
हर तम की पीठ फेर दी , मतहीन सा खड़ा,
मालिक से भी बड़ा हुआ , नौकर ही क्यों न हो ?
जब दिल पिघल कर स्फुरित अधरों से झर पड़ा ,
'सम्पूर्ण महाकाव्य' है अक्षर ही क्यों न हो?
रोया. तो रुदनशील,. चुपाने लगे मुझे ,
सीधा उपाय मिल गया , दुःख कर ही क्यों न हो ?
चोटें उगलवा लेती हैं पत्थर से रोशनी ,
कुछ तो चमक मिल जाती है ,नश्वर ही क्यों न हो ?
जिसका वजूद सिद्ध हो ,तर्कों के सहारे ,
उसको न सर झुकाऊँगा, ईश्वर ही क्यों न हो ?
पूर्वांचल में मेरे बचपन में एक प्रकार का लोकगीत ('बिरहा') गाया जाता था।यह लोकगीत प्राय: एक अकेला व्यक्ति गाता था। मेरे एक मित्र के चाचा इस प्रकार के गीत गाया करतेथे।उन्हीं के आग्रह पर कुछ प्रयास किया था।उन्हीं को समर्पित हैं ये गीत -----.
- शिव स्तुति -
धन धन हो अड़ भंगी , जेकर जग में ना केव संगी,
बेड़ा तोहईंं प्रभु कइल्य वोकर पार ।
तीन लोक नाथ बस्ती में तू बसउल्य,
अपना बीरान सुनसान में सिधउल्य,
शीश पर जटा जूट मुकुट बनउल्य,
गरवा के बीच मुण्ड माल लटकउल्य,
सिरवा पे चाँद गंगामाई तू बसउल्य,
शेरवा कै चाम बीच कमर झुलउल्य,
बूढ़े बरदवा पे नाथ चढ़ि धउल्य,
भुतवा परेत बैताल सँग नचउल्य,
अपने शरीरिया पे खाक रमउल्य,
राजा कैदुलारी सुकुमारी कहाँ पउल्य,
इन्द्र के इन्द्रासन धन कुबेर के दियउल्य,
लाख हूं करोड़न कै विपद हटउल्य,
बेड़ा प्रभु तोहईं कइल्य वो कर पार।
. कहै 'कुसुमाकर', सारी दुनिया बा चाकर,
भगवन, लाज तोहरे हाथे बा हमार।
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२ -भइया सब पर समया आवै,
केवल चीन्है और चिन्हावै,
जिनघबरायs एहि के देखि मोरे भाय .।
'दशरथ' पे समया आइल ,'राम' गइलैं बनवाँ ,
ओनके बन जातै एनकर निकलल परनवाँ,
'रामजी' पे आइल भयल 'सीता' के हरनवाँ,
'लछिमन' के बन बीचे लागल शक्ति बनवाँ,
राजा 'शिवि' पे समया आइल काटे निज तनवाँ,
'हरिश्चन्द्र' बिक डोम के हाथे माँगैलैं कफनवाँ,
'ईसा' शूली पर चढ़आपन छोड़लैं परनवाँ,
'गाँधी' गोली खायके मरलैं दिल्ली दरम्यनवाँ,
'सरमद' के शरीरिया से उतारल गइलैं चमवाँ,
'सुकरात' के जहर पियउलैं समया के करनवाँ,
'मन्सूर' कै बोटी-बोटी कइलैं सारा तनवाँ,
ई तो हौ पुरान सुना नयका दस्तनवाँ,
मरलैं देश खातिर लेकिन पउलैं,ना कफनवाँ,
बनि गइलैं यहि देशवा कै मालिक बेईमनवाँ,
अबहीं देखा खेल का-का आवा ला समनवाँ ,
जिन घबराय एहि. के देखि मोरे भाय ।
कहैं 'कुसुमाकर' बिचारी, सारी दुनिया अनारी,
समया कै बा सारे जग ऊपर राज।
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३-दुर्दिन समइया,देखा कोई ना सहइया,
बाबू बनले कै सारा संसार।
जब ले तोहरे पास भइया पैसा-कौड़ी होई,
नेह नाता जोड़ै खातिर दौड़ी सब कोई,
जब ले खर्च करबा तबले संगी सब होई,
पैसा घटि जाई ना दिखाई मुँह कोई,
बार छोड़िहैं नाऊ, धोबिन कपड़ा न धोई,
रान औ' परोसी ताना मारी सब कोई,
भाई -भौजाई, सास-ससुर नहीं कोई,
घर कै मेहरियौ न तोहरे खातिर रोई,
दुर्दिन समइया बिरलै साथी तोहरा होई,
जग की हलतिया देखि,हँसीं हम कि रोईं,
भाग कै लिखल कबतक अँसुवन से धोईं,
बनले कै सारौ बनल चाहै सब कोई,
बिगरे कै केव ना बनाला बहनोई,
बाबू बनले कै सारा संसार।
'कुसुमाकर' अब आलस त्यागा,
बहुत सोये गाफिल जागा,
अपने हाथ में सँभारा पतवार।
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मेरे अति सम्माननीय भाई साहब श्री ऋषि त्रिपाठी जी 'घनश्याम दास शिवकुमार विद्यालय'के लब्ध प्रतिष्ठ अध्यापक हैं। पठन-पाठन के अतिरिक्त वाद्यवादन में भी पारंगत हैं। उन्हें मैं आदर केसाथ
'भाई सा'ब'कहता हूँ। उन्हीं के प्रति दो छन्द जो कभी लिखे गये थे,आज उन्हीं को , क्षमा याचना सहित ,समर्पित हैं----
परिचय एवं कंघा
सुबह से शाम तक करके भ्रमण नित,
अजब है चाल औ' गजब परवाज है।
पुस्तकों के पढ़ने का शौक है सुहाना और,
तबला ,पखावज परम प्रिय साज है।
'घनश्यामदास' के हैं लोक प्रिय शिक्षक वो,
'मुल्लाकट' दाढ़ी पर सबको ही नाज है।
कहे'कुसुमाकर' हमेशा जिन्हें भाई सा'ब,
. हैं वो त्रिपाठी और नाम ऋषि राज है।
पहले पहल एक कंघा खरीदा आज,
जिसको दिखाने मेरे घर तक आयेथे।
आधे से भी ज्यादा जब फसल तबाह हुई,
तब कहीं गोड़ने के लिए सुधियाये थे।
पुरुवा बयार बड़ी तेज तर्रार बहे,
काले-काले मेघ आसमान पर छाये थे।
कहे'कुसुमाकर' हुई जो बरसात आज,
नये-नये कल्ले देखा कई उग आये थे।
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परन्तु 'सबै दिन जात न एक समान' । एक दिन भाई साहब का वह प्यारा दुलारा कंघा कहीं खो गया,फिर क्या होता है,देखिये--
(मान्य भाई साहब से क्षमा याचना सहित)
कंघे को हमारे लग गई किसकी ए दृष्टि,
सृष्टि की अनोखी चीज जाने कहाँ खो गई?
इतना सहेज औ' सँभाल रखते थे जिसे,
डर जिसका था वही बात रात हो गई '।
'कुसुमाकर'सुनके हँसेंगे सबलोग. सोच,
आफत में जानआज हाय मेरी हो गई।।
लगता है कंघा नहीं,भाग्य मेरा खो गयाहै,
तन मन रोया, मेरी रूह तक रो गयी है।
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बस एक कंघा से जो तनिक लगाव रहा ,
उसके बिछोह से ही हाय पछता रहा।
मेरी आज दशा जो है कहते बने है नहीं.
हँस रहा, रो रहा , न आ रहा , न जा रहा ।
'कुसुमाकर' धन्य हैं वो लोग संसार माहि,
दिल लगा खुश होके देखो बतला रहा।
मेरा तो है खाना पीना सोना दुश्वार हुआ ,
संसार देखो खुश हो-हो आज गा रहा।
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स्वर्गता पत्नी को , क्षमा याचना सहित, कुछ कुण्डलिया समर्पित -----
बीबी मुझको मिल गयी,बड़ी तेज तर्रार।
आधा सिर गंजा किया, जूता चप्पल मार।
जूता चप्पल मार,यार कुछ समझ न आवै।
बिन बादल बरसात या कहो गाज गिरावै।
कह 'कुसुमाकर' हाय, सुनो मम खोट नसीबी,
बरु रड़ुवा रहि जाय,मिले ना ऐसी बीबी।।१।
पत्नी ऐसी बलवती मिली मुझे है यार।
बात-बातपर वह सदा,लड़ने को तैयार।
लड़ने को तैयार लगे यहिया की काकी ।
मम पुरखा तरि जायँ,नहीं कुछ बरकत बाकी।
कह 'कुसुमाकर'हाय, कटेगी आगे कैसी।
बरुरड़ुवा रहि जाय,मिलै ना पत्नी ऐसी।।२।
होत भोर ही नेवतती,पूर्वज ,दादा, बाप।
एक साँस में अनगिनत ,दे जाती अभिशाप।
दे. जाती अभिशाप,न हम कुछ भी कह पाते।
नारिसशक्तीकरण ,सोच कर चुप रह जाते।
कह'कुसुमाकर'हाय, न कुछ कर सकूँ शोर ही।
नाकन दम ह्वैजाय,रे ककुवा होत भोर ही।३।
कुण्डलिया के छन्द सी ,बिनु नागा डटि जाय।
सुबह-शाम निशि-द्यौस ही,गुरूमन्त्र दोहराय।
गुरूमन्त्र दोहराय,न छिनहूँ हार मानती।
रुकने का तो जैसेे वह ना नाम जानती।
कह 'कुसुमाकर'हाय, भाड़ में जाय सँवलिया
बैठी कछनी काछ,मार करके कुण्डलिया।४।
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पराये तो खैर पराये होते हैं,वे भला करें या बुरा करें पर उसका उतना बुरा नहीं लगता। परन्तु जब(तथाकथित)अपने,अपनापन, छोड़कर परायापन अपना लेते हैं तो बहुत खल जाता है। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ-
विधना ने जाने किस बस्तु से बनाया- उन्हें,
'बिना शान धरे लगती हैं धारदार-सी।
वाक्चातुरी तो देखते ही बनती है बन्धु,
रात- दिन जीभ चला करती कटार- सी
दिन तो किसी न किसी भाँति कट जाता पर,
उनके समक्ष रात- लगती पहार -सी।
नये-नये तर्ज की गुलाबी गालियों को गूँथ,
स्वागत में रहती खड़ी हैं लिये हार सी।
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जेठ की दुपहरी- सी तपती हुई है प्रीति,
मीठा बोल स्वागत वो करते जहर से।
निद्रा माँ की गोद में तनिक सुख चैन मिले,
इन्तजार शाम का करूँ मैं दोपहर से।
ऐसे अपने न मिलैं जग माहि किसी को भी,
'बिनती यही है मेरी विधि, हरि ,हर से।
सपनों को देख अपनों ने साथ छोड़ दिया,
जोड़ दिया गाँठ मेरी बेशक कहर से।
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. प्यारे-प्यारे तारे
हिमांशी यादव
ओ बोलो- बोलो- तारे,ओ प्यारे-प्यारे तारे।
क्या राज छिपा है तुममें,
यह कोई जान न पाये,
तुम आसमान में टिम-टिम-
कर क्या बतलाते हमको
कभी पास हमारे आकर,
खेलो सँग हमारे।
ओ नन्हें-नन्हें तारे , ओ प्यारे-प्यारे तारे।
ब्रजगाँव
जहाँ राधा-कृष्ण ने कदम रखे बार-बार,
जादूमयी रेणु आज हुई उस ठाँव की।
जहाँ बजा बाँसुरी रचाई रास मोहन ने,
नन्दन भी सम ना कदम्बन की छाँव की।
मञ्जु मरालिका-सी तरी करे भव पार,
महिमा सुनाती कृष्ण नाम के प्रभाव की।
रमना-विरमना पड़ेगा यमुना के तीर,
करना उपासना है 'गर ब्रजगाँव की।
xx XX XX xx
ब्रजबीथिन माहि फिरै रसिया,
बँसिया निसि द्यौस बजावतु है।
सुन के उस बाँसुरी की धुनि को,
अपनो मन भी उमगावतु है।
सखि छोड़ चलो गृह काज सबै,
'कुसुमाकर' चैन नआवतु है।
नन्दलाल विहाल किये हमका,
वह गोधन गावतु आवतु है।
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द्रौपदी औ' गनिका, गज,गीध,
अजामिल सों तुम तारन हारे।
गौतम तीय तरी तुम ते
प्रह्लाद को कष्ट हरे तुम भारे।
और अनेकन को 'कुसुमाकर',
देखते ही भवपार उतारे।
तेरो कहाय के हौं दु:ख पावत,
क्या तुम पाछिलि बानि विसारे।
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