नीरजा हेमेन्द्र 1- ’’ परिवर्तन शाश्वत् है ’’ कोहरे-सी घनीभूत होती जा रही हैं भावनायें तुम्हारी स्मृतियों के साथ देने लगी हैं दस...
नीरजा हेमेन्द्र
1- ’’ परिवर्तन शाश्वत् है ’’
कोहरे-सी घनीभूत
होती जा रही हैं भावनायें
तुम्हारी स्मृतियों के साथ
देने लगी हैं दस्तक
मेरे हृदय पटल पर
जीवन की समतल.....पथरीली...पगडिडयों पर
मार्ग में अनेक ऋतुयें मिलीं
मादक वसंत......वीरान पतझड़.....
ग्रीष्म की तपिश में खूब झुलसीं संवेदनायें
आहत हुआ हृदय स्याह रातों में.....
कोहरे भरी यह रात
उतरती जा रही है मेरे भीतर
मैं जानती हूँ
देखते ही देखते अन्धकार भर जायेगा
मेरे भीतर.....किन्तु आप्लावित नहीं कर सकेगा मुझे
भोर की लालिमा फैलने तक
इसे मैं रखूँगी तुम्हारी स्मृतियों के साथ
नैसर्गिक है परिवर्तन......शाश्वत् है.....।
2- ’’ सरकंडे की जड़ें ’’
जला दी गयीं
सरकंडों की जड़ों से
फूटने लगी हैं नन्हीं हरी कोपलें
अनेक ऋतुयें आयीं-गयीं
अनेक मौसम बदले
धूल-धूसरित पड़े
अस्तित्वहीन जड़ों को देखकर
सभी चले गये मुँह फेर कर
आज सरकंडों से फूट पड़ी हैं
सहसा नयी कोपलें
स्तब्ध हैं विपरीत ऋतुयें
उनकी जीवन्तता को देखकर
लहललाते सरकंडे.......
अस्तित्व के लड़ाई में विजेता
सरकंडे.......
बारिश, तपिश, आँधियाँ, शीत
आयेंगी-जायेंगी
सरकंडे अपनी जड़े जमाते रहेंगे
गहरी.....गहरी....और गहरी
सिर उठायेंगे गर्व से
विजेता बन कर।
3- ’’ चुनौती तुम्हारे अस्तित्व को ’’
उगने लगी है चेतना
मन मस्तिष्क में
मेरी पहचान....मेरा अस्तित्व
अब तक अदृश्य हैं मुझसे
स्वयं को पाने के प्रयास में
मैंने की थी तुम्हारी आराधना....पूजन....अर्चन....
तुम अनदेखा करते रहे मुझे
तुमने ही तो सृजित किये थे धरती पर
हृदय, प्रेम और संवेदनायें.....
गढ़े थे विकास और सभ्यताओं के नये आयाम
मैं तो अब तक आदिम युग में खड़ी हूँ
असभ्य प्राणियों के मध्य
जहाँ स्त्री भोग्या है.....मात्र अंग है
बर्बर पशुओं सदृश्य तथाकथित पुरूषों के लिए
जिन्हें सद्यःजन्मी बेटी भी मादा दिखती है
कहाँ है तुम्हारी सृजित....विकसित सभ्यतायें
उनमें विचरते विकास पुरूष
कहाँ हो तुम....मेरे ईश्वर.....मेरे प्रभु.....
तुम हो भी या नही.......
मुझे मेरे अस्तित्व से परिचित कराओ
मुझे भी विकास के सोपानों से
सभ्यताओं की ओर ले चलो
मेरे प्रभु!
तुम भी अस्तित्व विहीन तो नही
मेरी ही भाँति......।
4- ’’ बौद्धकालीन खंडहरों में तुम ’’
आज तुम पुनः उतर आये हो
मेरी स्मृतियों में
तुम्हारे साथ चलते-चलते
उन बौद्धकालीन खंडहरों में
मैंने पा लिया था जीवन तत्व
दूर-दूर तक विस्तृत नर्म हरी दूब पर
तुम्हारे साथ-साथ चलते-चलते
मैं पहुँच जाती थी
सूरजमुखी के पुष्पों से भरे खेतों में
युवा दिनों के मेरे सहयात्री
तुमने जब भी मेरी भावनाओं को छुआ
मैं झुकती गयी महामानव के चरणों में
तुम्हारी परछाईयों के साये में
मैं बनती गयी प्रतिरूप प्रेम का
उन दिनों सभी ऋतुयें
परिवर्तित हो गयी थीं वसंत में
शीत ऋत में वृक्षों से गिरते पत्ते
भूमि पर बिछा देते मखमली कालीन
तुम्हारे हाथों को थामे हुए, मैं
गुनगुनी धूप में निकल पड़ती
खूबसूरत क्षणों को अपने भीतर
आत्मसात् कर लेने के लिए
मैं....मेरे कॉलेज के दिन...
तुम और पुस्तकें......
आज तुम पुनः उतर आये हो
मेरी स्मृतियों में...।
5- ’’ सुबह होनी ही है ’’
अभी-अभी तो हुआ था सवेरा
भोर की लालिमा फैली थी
चारों दिशाओं में
सूर्य का रंग चटख होकर
बिखर गया है मध्याह्न तक
पक गये हैं
खेतों में बोये गये गेहूँ के दानें
साँझ उतरने लगी है खेतों में
खलिहानों से समेट लिये गये हैं दाने
गाँव में उठ रहा है धुआँ
पकने लगे हैं दाने
अँधेरा घिरने से पूर्व
पुनः बिखेर दिये गये दाने
खेतों में नये दानों का अंकुरण
नस्लें लेकर जाती हैं
पीढियां दर पीढियां आगे
भयक्रान्त न होना तुम कभी भी
अँधेरे से.....साँझ से....सूने खेतों से.....
तुम उठोगे और सवेरा होगा।
6- ’’ प्रथम प्रेम का रंग ’’
वसंती हवाओं के साथ
खिल उठे हैं पुष्प सेंमल के
एक परिचित-सा स्पर्श
एक जानी पहचानी-सी आहट
बिखरने लगी है हवाओं में
अन्तराल पश्चात् ये हवायें लेकर आयी हैं
कुछ विस्मृत-सी स्मृतियाँ.....
कुछ युवा दिन.....और तुम्हें.....
सेंमल के पुष्पों की भाँति
रक्ताभ हो उठा है
जीवन का ये वियावान मौसम
स्मरण हैं मुझे अब भी वो क्षण
जब समेट लिया था तुमने
मेरा प्रेम अपनी मुटि्ठयों में
कुछ इसी प्रकार रक्ताभ हो उठी थीं ऋतुयें
मेरे चारों ओर बिखर गया था
प्रेम का लाल रंग
धूप भरे पथ पर चलते-चलते
प्रेम का वो रंग
यद्यपि फीका पड़ने लगा है किन्तु....
मेरे प्रथम प्रेम की अभिव्यक्ति का वो रंग
कच्चा नही था
सूर्यास्त के क्षितिज को
अब भी सुनहरा कर देता है
प्रेम का वो रंग.....।
नीरजा हेमेन्द्र
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परिचय-
जन्म- कुशीनगर, गोरखपुर ( उ0 प्र0 )
शिक्षा- एम.ए.( हिन्दी साहित्य ), बी.एड.।
संप्रति- शिक्षिका ( लखनऊ, उ0 प्र0 ) ।
अभिरूचियां-पठन-पाठन, लेखन, अभिनय, रंगमंच, पेन्टिंग, एवं सामाजिक गतिविधियों में रूचि।
प्रकाशन-
काव्य संग्रह - 1- ’’स्वप्न’’,
2- ’’मेघ, मानसून और मन ’’
3- ’’ भूमि और बारिश ’’
4- ’’ ढूँढ कर लाओ ज़िन्दगी ’’
कथा संग्रह- 1- ’’अमलतास के फूल ’’
2- ’ जी हाँ, मैं लेखिका हूँ
3- .....और एक दिन
उपन्यास- ’’ अपने-अपने इन्द्रधनुष ’’
सम्मान -- उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रदत्त सर्जना पुरस्कार, विजयदेव नारायण साही नामित पुरस्कार। फणीश्वरनाथ रेणु स्मृति सम्मान। कमलेश्वर स्मृति कथा सम्मान । साहित्य में योगदान हेतु 2017 का लोकमत पुरस्कार माननीय मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश श्री योगी आदित्य जी महाराज के कर कमलों द्वारा।
हिन्दी की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं कथाबिंंब, कथा समय, अमर उजाला, जनसत्ता, वागर्थ, कादिम्बनी, अभिनव इमरोज, सोच विचार, नई धारा, आजकल, नेशनल दुनिया, अक्षर-पर्व, अंग चम्पा , किस्सा, सुसंभाव्य, जनपथ, माटी, सृजनलोक, हरिगंधा( हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित पत्रिका), राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स लखनऊ, डेली न्यूज एक्टिविस्ट लखनऊ, साहित्य दर्पण, बाल वाणी (उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रकाशित पत्रिकायें ), अपरिहार्य, शब्द सरिता, प्रगति, रेल रश्मि, इत्यादि में कवितायें, कहानियाँ, बाल सुलभ रचनायें एवं सम सामयिक विषयों पर लेख प्रकाशित। रचनायें आकाशवाणी व दूरदर्शन से भी प्रसारित।
संपर्क- ’’नीरजालय ’’ 510/75
न्यू हैदराबाद, लखनऊ- 226007
उ0प्र0
सुन्दर कवितायें
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