विजय कुमार सप्पत्ति की नई कविताएँ

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कुछ नई कविताएं : विजय कुमार सप्पत्ति – भाग एक …………..चल वहां चल …………… चल वहां चल , किसी एक लम्हे में वक़्त की उँगली को थाम कर !!!! जहाँ ...

रूपाली रूचिस्मिता की कला
कुछ नई कविताएं : विजय कुमार सप्पत्ति – भाग एक

…………..चल वहां चल ……………

चल वहां चल ,
किसी एक लम्हे में वक़्त की उँगली को थाम कर !!!!
जहाँ नीली नदी खामोश बहती हो
जहाँ पर्वत सर झुकाए थमे हुए हो
जहाँ चीड़ के ऊंचे पेड़ चुपचाप खड़े हो
जहाँ शाम धुन्धलाती न हो 
जहाँ कुल जहान का मौन हो
जहाँ खुदा मौजूद हो , उसका करम हो
जहाँ बस तू हो
चल वहाँ चल
किसी एक लम्हे में वक़्त की उँगली को थाम कर !!!!
उसी एक लम्हे में मैं तुझसे मोहब्बत कर लूँगा 
© विजय

……………..जीवन…………….

हमें लिखना होगा जीवन की असफलताओं के बारे में
ताकि फिर उड़ सके हम इतिहास के नभ में
हमें फूंकना होगा टूटे हुए सपनों में नयी उर्जा
ताकि मृत जीवन की अभिव्यक्ति को दे सके
कुछ और नयी साँसे !
© विजय

.......कुछ लफ्ज़ तेरे नाम ............

मेरे उम्र के कुछ दिन , कभी तुम्हारी साडी में अटके तो कभी तुम्हारी चुनरी में ....
कुछ रातें इसी तरह से ; कभी तुम्हारी जिस्म में अटके तो कभी तुम्हारी साँसों में .....
मेरे ज़िन्दगी के लम्हे बेचारे बहुत छोटे थे.
वो अक्सर तुम्हारे होंठों पर ही रुक जाते थे.
फिर उन लम्हों के भी टुकड़े हुए हज़ार
वो हमारे सपनों में बिखर गए !
और फिर मोहब्बत के दरवेशों ने उन सपनों को बड़ी मेहनत से सहेजा .
उन्हें बमुश्किल इबादत दी .
और फिर अक्सर ही किसी बहती नदी के किनारे बिखेर दिए .
यूँ ही ज़िन्दगी के दास्तानों में हम नज़र आते है ..
उन्हीं सपनों को चुनते हुए.. अपने आंसुओं से सींचते हुए..
गर्मी के मौसम में साँसों से हवा देते हुए और सर्दियों में उन्हीं साँसों से गर्माते हुए .
बारिशों में सपनों के साथ बहते हुए ..
कहानी बड़ी लम्बी है जानां ...
लेकिन मुझ में बड़ा हौसला है . कुछ खुदा की मेहर भी है
मैं हर रोज ,
अपनी बड़ी बेउम्मीद ज़िन्दगी से कुछ लम्हों में तुम्हारे लिए नज्में बुनता हूँ
और फिर उन्हीं नज्मों के अक्षरों में तुझे तलाशता हूँ.
तुझे मेरा इकबाल करना होगा इस हुनर के लिए
जो दरवेशों ने मुझे बक्शे हैं ....
मैं हर जन्म कुछ ऐसे ही गुजारना चाहता हूँ
तेरे पलकों की छाँव में जहाँ तेरे हर अश्क में मेरी इस कहानी का अक्षर समाया हो .
हां , यही अब मेरी इल्तिजा है .
और यही मेरा प्यार है तेरे लिये जानां !
हाँ !
© विजय

…………….. ज़िन्दगी ..............
मैं खुदा के सजदे में था ;
जब तुमने कहा, ‘मैं चलती हूँ !’
.....इबादत पूरी हुई
.............मोहब्बत ख़त्म हुई
.................और ज़िन्दगी  ?
© विजय

“ क्षितिज ”

मिलना मुझे तुम उस क्षितिज पर
जहाँ सूरज डूब रहा हो लाल रंग में
जहाँ नीली नदी बह रही हो चुपचाप
और मैं आऊँ निशिगंधा के सफ़ेद खुशबु के साथ
और तुम पहने रहना एक सफेद साड़ी
जो रात को सुबह बना दे इस ज़िन्दगी भर के लिए
मैं आऊंगा जरूर ।
तुम बस बता दो वो क्षितिज है कहाँ प्रिय ।
© विजय

“ रे मन ”

रूह की मृगतृष्णा में
सन्यासी सा महकता है मन

देह की आतुरता में
बिना वजह भटकता है मन

प्रेम के दो सोपानों में
युग के सांस लेता है मन

जीवन के इन असाध्य
ध्वनियों पर सुर साधता है मन

रे मन
बावला हुआ जीवन रे
मृत्यु की छाँव में बस जा रे
प्रभु की आत्मा पुकारे तुझे रे
आजा मन रे मन  !

© विजय
“ सोचता हूँ................... ”


सोचता हूँ
कि
कविता  में शब्दों
की जगह
तुम्हें भर दूँ ;

अपने मन की भावों के संग

फिर मैं हो जाऊँगा
पूर्ण

© विजय


लम्हों का सफ़र....

किसी एक लम्हे में तुमसे नज़रें मिलीं
और
उम्र भर का परदा हो गया...
किसी एक लम्हे में तुमसे मोहब्बत हुई
और
ज़िन्दगी भर की जुदाई मिली......

लम्हों का सफ़र
लम्हों में ही सिमटा रहा !!!
© विजय

................नज़्म..........

मुझ से तुझ तक एक पुलिया है
शब्दों का,
नज्मों का,
किस्सों का,
और
आंसुओं का .......

......और हां; बीच में बहता एक जलता दरिया है इस दुनिया का !!!!
© विजय


...........एक ज़िन्दगी...............
एक ज़िन्दगी
और कितने सारे ख्वाब
बस एक रात की सुबह का भी पता नहीं ....
कितनी किताबें पढना है बाकी
कितने सिनेमा देखना है बाकी
कितने जगहों पर जाना है बाकी
हक़ीकत में एक पूरी ज़िन्दगी जीना है बाकी !
एक ज़िन्दगी
और कितने सारे ख्वाब
बस एक रात की सुबह का भी पता नहीं ....
© विजय


एक नज़्म खुदा के लिए.........

उस दिन जब मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ा
तुमने उस हाथ को दफना दिया
अपनी जिस्म की जमीन में !
और कुछ आंसू जो मेरे नाम के थे ,
उन्हें भी दफना दिया अपनी आत्मा के साथ !

अब तुम हो
और मैं हूँ
और हम बहुत दूर है !
हां; इश्क खुदा के आगोश में चुपचाप बैठा है!

खुदा ने एक कब्र बनायीं है ,
तुम्हारी और मेरी ,
उसने उसमें कुछ फूल और आहों के साथ मेरी प्रार्थनाओं को भी दफ़न किया है !

हां ;
कुछ लोग अब भी मेरी नज्में पढ़ते हैं और मोहब्बत की बाते करते हैं !
© विजय


/// दुनिया, तुम और मैं !!! ///


दुनिया भर घूम आते हो !
दुनिया को जी भर कर देखते हो !!
दुनिया से बाते करते रहते हो ....!!!

.......कभी उस मोड़ पर भी चले आओ.....जहाँ हम खड़े है ,
……….कभी हमें भी जी भर कर देख लो …….आँखें तुम्हारा इन्तजार करती रहती हैं ;
………कभी कोई एक लफ्ज़ हमारे नाम कर दो .......मन तुम्हें सुनने को तरसते रहता है !

और फिर..... दुनिया के पास वो निगाहें कहाँ जो हमारे पास है !
और दुनिया के पास वो अलफ़ाज़ कहाँ जो हमारे दिल में है !
और इस फानी दुनिया के पास वो आगोश कहाँ जो हमारे बांहों में है !

या तो इस तरह जी लो या फिर उस तरह ही जी जाओ , जो जी रहे हो .
फर्क बहुत मामूली है ,
उस जहान में मैं नहीं और इस जहान में मेरे सिवा कुछ भी नहीं ..!!!

© विजय


.............अंत............

...............और अंत में कुछ भी न रह जायेगा !!
न ही ये सम्मान , न ही ये मान ,
न ही ये धन और न ही ये यश !
बस ...चंद यादें कुछ अपनों के मन में
और वो शब्द भी जो मैंने कभी लिखे थे !!!
एक अनंत की जिज्ञासा भी साथ में थी ,
साथ में ही रही और
अंत में साथ ही चली गयी !
प्रभु तुम ही तो हो एक मेरे
बाकी तो सब जग झूठा .....!
© विजय

................यूँ ही ...

यूँ ही ...
ज़िन्दगी भर कुछ साए साथ साथ ही चलते है
और उन्हीं सायों की याद में ये ख़ाक ज़िन्दगी;
.......कभी कभी गुलज़ार भी होती है !!!

सोचता हूँ अक्सर यूँ ही रातों को उठकर ...
अगर अम्मा न होती ,
अगर पिताजी न होते .
अगर तुम न होती ..
अगर वो दोस्त न होता ...
...चंद तकलीफ देने वाले रिश्तेदार न होते ...
...चंद प्यार करने वाले दुनियादार न होते ..

तो फिर जीना ही क्या होता !
यूँ ही ज़िन्दगी के पागलपन में लिखे गए अलफ़ाज़ भी न होते !

© विजय


||| ज़िन्दगी ||


भीगा सा दिन,
भीगी सी आँखें,
भीगा सा मन ,
और भीगी सी रात है !


कुछ पुराने ख़त ,
एक तेरा चेहरा,
और कुछ तेरी बात है !

ऐसे ही कई टुकड़ा टुकड़ा दिन
और कई टुकड़ा टुकड़ा रातें
हमने ज़िन्दगी की साँसों तले काटी थी !

न दिन रहे और न रातें,
न ज़िन्दगी रही और न तेरी बाते !

कोई खुदा से जाकर कह तो दे,
मुझे उसकी कायनात पर अब भरोसा न रहा !

© विजय


प्रेम


हमें साझा करना था
धरती, आकाश, नदी
और बांटना था प्यार
मन और देह के साथ आत्मा भी हो जिसमें !
और करना था प्रेम एक दूजे से !
और हमने ठीक वही किया !

धरती के साथ तन बांटा
नदी के साथ मन बांटा
और आकाश के साथ आत्मा को साझा किया !

और एक बात की हमने जो
दोहराई जा रही थी सदियों से !

हमने देवताओं के सामने
साथ साथ मरने जीने की कसमें खायी
और कहा उनसे कि वो आशीष दे
हमारे प्रेम को
ताकि प्रेम रहे  सदा  जीवित !

ये सब किया हमने ठीक पुरानी मान्यताओं की तरह
और
जिन्हें दोहराती आ रही थी अनेक सभ्यताएं सदियों से !
और फिर संसार ने भी माना कि हम एक दूसरे के स्त्री और पुरुष है !

पर हम ये न जानते थे कि
जीने की अपनी शर्तें होती है !
हम अनचाहे ही एक द्वंद में फंस गए
धरती आकाश और नदी पीछे ,
कहीं बहुत पीछे;
छूट गए !

मन का तन से , तन का मन से
और दोनों का आत्मा से
और अंत में आत्मा का शाश्वत और निर्मल प्रेम से
अलगाव हुआ !

प्रेम जीवित ही था
पर अब अतीत का टुकड़ा बन कर दंश मारता था !

मैं सोचता हूँ,
कि हमने काश धरती, आकाश और नदी को
अपने झूठे प्रेम में शामिल नहीं किया होता !

मैं ये भी सोचता हूँ की
देवता सच में होते है कहीं ?

हाँ , प्रेम अब भी है जीवित
अतीत में और सपनों में !

और अब कहीं भी;
तुम और मैं
साथ नहीं है !

हाँ , प्रेम है अब भी कहीं जीवित
किन्हीं दूसरे स्त्री –पुरुष में ! 

© विजय



अंतिम यात्रा

एक दिन ऐसे ही प्रभु की भेजी हुई नाव में बैठकर
एक न लौटने वाली यात्रा पर चले जाऊँगा !
अनंत में खो जाने के लिए
धरती में मिल जाने के लिए
अंतिम आलिंगन मेरा स्वीकार करो प्रभु
मैं भी तेरा , मेरा जीवन भी तेरा प्रभु
मैं मृत्यु का उत्सव मनाता हूँ प्रभु
बस मेरे शब्द और मेरी तस्वीरें ही मेरे निशान होंगे प्रभु
मुझे स्वीकार करो प्रिय प्रभु
इसी उत्सव के साथ , इसी ख़ुशी के साथ
मैं अंत में तुझमें समां जाऊं प्रभु
© विजय


मैं, वो और मोहब्बत !

उसकी सोच ये कि,
उसने मुझे सिर्फ आशिक समझा;

जबकि मुझे ये हौसला कि,
मैं इंसान भी बेहतर हूँ !

उसको ये फ़िक्र कि
जमीन और ज़माने का क्या करे;

जबकि मैं ख्वाबों और
आसमान की बाते करता रहा !

उसने मेरे और अपने बीच
बंदिशों के जहान को ला दिया;

जबकि मैं अपने
इश्क के जुनून से फुर्सत न पा सका !

मोहब्बत शायद हो न पाएगी ,
इसका इल्म थोडा सा मुझे भी था;

पर उसने मुझे चाहने की कोशिश ही न की,
इसका गम ज़ियादा हुआ !

पर उम्मीदों के दिये
मैंने अब भी जलाए रखे है

तुम्हारे आने तक
उन्हें बुझने न दूंगा ;
ये वादा रहा !

तुम बस मिलो तो सही !
फिर एक बार !!!
© विजय

सपने

सपने टूटते हैं ,
बिखरते हैं
चूर चूर होते हैं
और मैं उन्हें संभालता हूँ दिल के टुकडों की तरह
उठाकर रखता हूँ जैसे कोई टूटा हुआ खिलौना हो
सहेजता हूँ जैसे कांच की कोई मूरत टूटी हो .

और फिर शुरू होती है ,
एक अंतहीन यात्रा बाहर से भीतर की ओर
खुद को सँभालने की यात्रा ,
स्वयं को खत्म होने से रोकने की यात्रा
और शुरू होता है एक युद्ध
ज़िन्दगी से
भाग्य से
और स्वयं से ही
जिसमें जीत तो निश्चित होती है
बस
उसे पाना होता है

ताकि
मैं जी सकूँ
ताकि
मैं पा सकूँ
ताकि
मैं कह सकूँ
हां !
विजय तो मेरी ही हुई है.
© विजय


अक्सर

अक्सर….
ज़िन्दगी की तनहाइयों में जब पीछे मुड़कर देखता हूँ ;
तो धुंध पर चलते हुए दो अजनबी से साये नज़र आते है ..
एक तुम्हारा और दूसरा मेरा.....!
पता नहीं क्यों एक अंधे मोड़ पर हम जुदा हो गए थे ;
और मैं अब तलक उन  गुमशुदा कदमों के निशान ढूंढ रहा हूँ.
अपनी अजनबी ज़िन्दगी की जानी पहचानी राहो में !
कहीं अगर तुम्हें “ मैं “ मिला  ;
तो उसे जरुर गले लगा लेना ,
क्योंकि वो "मैं" अब तन्हा है ......!

अक्सर ...
बारिशों के मौसम में ;
यूँ ही पानी की तेज बरसाती बौछारों में ;
मैं अपना हाथ बढाता हूँ कि तुम थाम लो  ,
पर सिर्फ तुम्हारी यादों की बूंदें ही ;
मेरी हथेली पर तेरा नाम लिख जाती है .. !
और फिर गले में कुछ गीला सा अटक जाता है ;
जो पिछली बारिश की याद दिलाता है ,
जो बरसो पहले बरसी थी .
और ; तुमने अपने भीगे हुए हाथों से मेरा हाथ पकड़ा था;
और मुझमें आग लग गयी थी .
तुम फिर कब बरसोगी जानां ....!

अक्सर ....
हिज्र की तनहा रातों में
जब जागता हूँ मैं - तेरी यादों के उजाले में ;
तो तेरी खोयी हुई मुस्कराहट बिजली की तरह कौंध जाती है,
और मैं तेरी तस्वीर निकाल कर अपने गालों से लगा लेता हूँ .
इस ऐतबार में कि तुम शायद उस तस्वीर से बाहर आ जाओ .
पर ऐसा जादू सिर्फ एक ही बार हुआ था ,
जो कि पिछली बहार में था,
जब दहकते फ्लाश की डालियों के नीचे मैंने तुम्हें छुआ था.
तुम जो गयी , ज़िन्दगी का वसंत ही मुरझा गया ;
अब पता चला कि ;
ज़िन्दगी के मौसम भी तुम से ज़ेरेसाया है जानां !

अक्सर ...
मैं तुम्हें अपने आप में मौजूद पाता हूँ ,
और फिर तुम्हारी बची हुई हुई महक के साथ ;
बेवजह सी बाते करता हूँ ;
कभी कभी यूँ ही खामोश सडकों और अजनबी गलियों में,
और पेड़ो के घने सायों में भी तुम्हें ढूंढता हूँ.
याद है तुम्हें - हम आँख मिचौली खेला करते थे
और तुम कभी कभी छुप जाती थी
और अब जनम बीत गए ..
ढूंढें नहीं मिलती हो अब तुम ;
ये किस जगह तुम छुप गयी हो जानां !!!

अक्सर .....
उम्र के गांठे खोलता हूँ और फिर बुनता हूँ
बिना तुम्हारे वजूद के .
और फिर तनहाइयाँ डसने लगती है ..
सोचता हूँ कि तेरे गेसुओं में मेरा वजूद होता तो
यूँ तन्हा नहीं होता पर ..
फिर सोचता हूँ कि ये तन्हाई भी तो तुमने ही दी है ..
ज़िन्दगी के किसी भी साहिल पर अब तुम नज़र नहीं आती हो ...
अक्सर मैं ये सोचता हूँ की तुम न मिली होती तो ज़िन्दगी कैसी होती .
अक्सर मैं ये सोचता हूँ कि तुम मिली ही क्यों ;
अक्सर मैं ये पूछता हूँ कि तुम क्यों जुदा हो गयी ?
अक्सर मैं बस अब उदास ही रहता हूँ
अक्सर अब मैं जिंदा रहने के सबब ढूंढता हूँ  ....
अक्सर........

© विजय


सिलसिला


सिलसिला कुछ इस तरह बना..........!

कि मैं लम्हों को ढूंढता था खुली हुई नींद के तले |
क्योंकि मुझे सपने देखना पसंद थे - जागते हुए भी ;
और चूंकि मैं उकता गया था ज़िन्दगी की हकीक़त से !
अब किताबों में लिखी हर बात तो सच नहीं होती न .
इसलिए मैं लम्हों को ढूंढता था ||

फिर एक दिन कायनात रुक गयी ;
दरवेश मुझे देख कर मुस्कराये
और ज़िन्दगी के एक लम्हे में तुम दिखी ;
लम्हा उस वक़्त मुझे बड़ा अपना सा लगा ,
जबकि वो था अजनबी - हमेशा की तरह ||

देवताओं ;
मैंने उस लम्हे को कैद किया है ..
अक्सर अपने अल्फाजों में ,
अपने नज्मों में ...
अपने ख्वाबों में ..
अपने आप में ....||

एक ज़माना सा गुजर गया है ;
कि अब सिर्फ तुम हो और वो लम्हा है ||

ये अलग बात है कि तुम हकीक़त में  कहीं भी  नहीं हो .
बस एक ख्याल का साया  बन कर जी रही हो मेरे संग .
हाँ , ये जरुर सोचता हूँ कि तुम ज़िन्दगी की धडकनों में होती
तो ये ज़िन्दगी कुछ जुदा सी जरुर होती……||

पर उस ज़िन्दगी का उम्र से क्या रिश्ता .
जिस लम्हे में तुम थी, उसी में ज़िन्दगी बसर हो गयी .

और ये सिलसिला अब तलक  जारी है …….|||
© विजय 


  image

© विजय कुमार सप्पत्ति

VIJAY KUMAR SAPPATTI,
FLAT NO.402, FIFTH FLOOR,
PRAMILA RESIDENCY; HOUSE NO. 36-110/402,
DEFENCE COLONY, SAINIKPURI POST,
SECUNDERABAD- 500094 [TELANGANA] INDIA
Mobile : +91 9849746500
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तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: विजय कुमार सप्पत्ति की नई कविताएँ
विजय कुमार सप्पत्ति की नई कविताएँ
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