जनता को सूचना का कानूनी अधिकार भले ही दे दिया है पर इससे इंकार किया जाना मुश्किल है कि अभी भी आम जनता तो क्या विभागों के लोक सूचना अधिकारि...
जनता को सूचना का कानूनी अधिकार भले ही दे दिया है पर इससे इंकार किया जाना मुश्किल है कि अभी भी आम जनता तो क्या विभागों के लोक सूचना अधिकारियों तक में इस कानून की जानकारी और जागरूकता का अभाव है। मिसाल के तौर पर राजस्थान में कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार वहाँ 18 प्रतिशत लोक सूचना अधिकारियों (पीआईओ) को इसके आवेदन फार्म तक की जानकारी नहीं है और तो और केवल 20 प्रतिशत पीआईओ को पता है कि इस नए कानून के तहत उन्हें पीआईओ के रूप में जनता और अपने विभाग के बीच सूचना के आदान-प्रदान का माध्यम बनाया गया है।
रपट के बारे में सूचना के अधिकार के अधिकार की जानकारी जिन लोगों को है उनमें से बहुत कम लोग इसका उपयोग कर रहे हैं। बाजार प्रतिस्पर्धा और उपभोक्ता मामलों पर अध्ययन एवं परामर्श सेवा देने वाले गैर सरकारी संगठन कट्स इंटरनेशनल ने महात्मा गाँधी रोजगार गारंटी योजना, स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना और इंदिरा आवास योजना में भ्रष्टाचार का पता लगाने और इसे रोकने के लिए आरटीआई के उपयोग और प्रभाव जानने के लिए एक सर्वेक्षण किया। यह सर्वेक्षण राजस्थान के शहरी और अर्धशहरी इलाकों में किया गया।
कट्स की इस रिपोर्ट को प्रस्तुत करने वाले मधुसूदन शर्मा ने कहा कि इन योजनाओं में 78 प्रतिशत पीआईओ ने कहा कि उन्हें इस कानून की जानकारी है, पर उनमें से ज्यादातर ने इस अधिनियम के तहत सूचना उपलब्ध कराने में उदासीनता दिखाई। कट्स की सर्वे रिपोर्ट की जानकारी देते हुए संस्था के निदेशक जॉर्ज चेरियन ने बताया कि जयपुर और टोंक जिलों में संस्था इस सर्वेक्षण में मात्र 37 प्रतिशत लोगों ने बताया कि उन्होंने सूचना के अधिकार (आरटीआई) के बारे में सुना है, जबकि इनमें से 5-6 प्रतिशत लोग ही इसका उपयोग कर रहे हैं।
राजस्थान में मात्र 26 प्रतिशत लोग जानते हैं कि आरटीआई के लिए कोई आवेदन फार्म भी होता है। जबकि सिर्फ सात आठ प्रतिशत लोग ही ऐसे हैं, जिन्हें आरटीआई के तहत 30 दिन में जवाब मिलने की समय सीमा अथवा सूचना न मिलने पर प्रथम अथवा द्वितीय अपीलीय अधिकारी की जानकारी है। रिपोर्ट के मुताबिक 43 लोगों ने कहा कि भ्रष्टाचार रोकने में आरटीआई एक सक्षम हथियार हो सकता है। 39 प्रतिशत ने कहा कि यह कानून लागू होने से सरकार की योजनाओं में पारदर्शिता आई है।
सर्वे में शामिल किए गए लोगों ने कहा कि निगरानी की कमी, बड़े अधिकारों के ध्यान न देने और जनभागीदारी के अभाव में नरेगा, इंदिरा आवास योजना और स्वण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना जैसे कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार को जन्म मिलता है। श्री चेरियन ने कहा कि सूचना के अधिकार के साथ-साथ जबावदेही का अधिकार भी होना चाहिए, ताकि सरकार के हर स्तर पर सेवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित कराई जा सके। राजस्थान सरकार के प्रशासनिक सुधार विभाग के उपसचिव श्री एसपी बस्वाला ने कहा कि नरेगा और इंदिरा आवास जैसी योजनाओं में जन-भागीदारी बहुत जरूरी है। कहा गया है कि आम लोगों को उनके अधिकारों की प्रति जागरूक किया जाएगा, तभी कल्याणकारी योजनाओं को कारगर तरीके से लागू किया जा सकता है।
इधर सूचना के अधिकार पर केंद्रित योजना आयोग को विजन फाऊंडेशन द्वारा पूर्व में सौंपे गए दस्तावेज के अनुसार संविधान के अनुच्छेद १९ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा में कहा गया है-भारत के सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति और अभिभाषण की स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है।साल १९८२ में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार के कांमकाज से संबंधित सूचनाओं तक पहुंच अभिव्यक्ति और अभिभाषण की स्वतंत्रता के अधिकार का अनिवार्य अंग है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा-सरकारी कामकाज में खुलेपन का विचार सीधे सीधे सरकारी सूचनाओं को जानने के अधिकार से जुड़ा है और इसका संबंध अभिभाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से है जिसकी गारंटी संविधान के अनुच्छेद १९(ए) में दी गई है। इसलिए, सरकार को चाहिए कि वह अपने कामकाज से संबंधित सूचनाओं को सार्वजनिक करने की बात को एक मानक की तरह माने और इस मामले में गोपनीयता का बरताव अपवादस्वरुप वहीं औचित्यपूर्ण है जब जनहित में ऐसा करना हर हाल में जरुरी हो। अदालत मानती है कि सरकारी कामकाज से संबंधित सूचनाओं के बारे में गोपनीयता का बरताव कभी कभी जनहित के लिहाज से जरुरी होता है लेकिन यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सूचनाओं को सार्वजनिक करना भी जनहित से ही जुड़ा हुआ है।
इडियन इविडेंस एक्ट,१८७२, की धारा ७६ में वे बातें कहीं गई हैं जिन्हें सूचना के अधिकार का बीज रुप माना जा सकता है। इस धारा के तहत प्रावधान किया गया है कि सरकारी अधिकारी को सरकारी कामकाज के कागजात मांगे जाने पर वैसे व्यक्ति को दिखाने होंगे जिसे इन कागजातों के निरीक्षण का अधिकार दिया गया है। परंपरागत तौर पर भारत में शासन-तंत्र अपने कामकाज में गोपनीयता का बरताव करता आ रहा है। इसके लिए अंग्रेजो के जमाने में बने ऑफिशियल सिक्रेसी एक्ट का इस्तेमाल किया गया। इस एक्ट को साल १९२३ में लागू किया गया था। आगे चलकर साल १९६७ में इसमें थोड़े संशोधन हुए । इस एक्ट की व्यापक आलोचना हुई है। द सेंट्रल सिविल सर्विस कंडक्ट रुल्स, १९६४ ने ऑफिशियल सिक्रेसी एक्ट को और मजबूती प्रदान की क्योंकि कंडक्ट रुल्स में सरकारी अधिकारियों को किसी आधिकारिक दस्तावेज की सूचना बिना अनुमति के किसी को को बताने या आधिकारिक दस्तावेज को बिना अनुमति के सौंपने की मनाही है।
इंडियन इविडेंस एक्ट, १८७२, की धारा १२३ में कहा गया है कि किसी अप्रकाशित दस्तावेज से कोई प्रमाण संबंधित विभाग के प्रधान की अनुमति के बिना हासिल नहीं किया जा सकता और संबंधित विभाग का प्रधान चाहे तो अपने विवेक से अनुमति दे सकता है और चाहे तो नहीं भी दे सकता है। सरकारी कामकाज के बारे में सूचनाओं की कमी को कुछ और बातों ने बढ़ावा दिया। इसमें एक है साक्षरता की कमी और दूसरी है सूचना के कारगर माध्यम और सूचना के लेन-देन की कारगर प्रक्रियाओं का अभाव। कई इलाकों में दस्तावेज को संजो कर रखने का चलन एक सिरे से गायब है या फिर दस्तावेजों को ऐसे संजोया गया है कि वे दस्तावेज कम और भानुमति का कुनबा ज्यादा लगते हैं। दस्तावेजों के अस्त-व्यस्त रहने पर अधिकारियों के लिए यह कहना आसान हो जाता है कि फाइल गुम हो जाने से सूचना नहीं दी जा सकती।
साल १९९० के दशक के शुरुआती सालों में राजस्थान के ग्रामीण इलाके के लोगों की हक की लड़ाई लड़ते हुए मजदूर किसान शक्ति संगठन ने व्यक्ति के जीवन में सूचना के अधिकार को एक नये ढंग से रेखांकित किया। यह तरीका था-जनसुनवाई का। मजदूर किसान शक्ति संगठन ने अभियान चलाकर मांग की कि सरकारी रिकार्ड को सार्वजनिक किया जाना चाहिए, सरकारी खर्चे का सोशल ऑडिट(सामाजिक अंकेक्षण) होना चाहिए और जिन लोगों को उनका वाजिब हक नहीं मिला उनके शिकायतों की सुनवाई होनी चाहिए। इस अभियान को समाज के की तबके का समर्थन मिला। इसमें सामाजिक कार्यकर्ता, नौकरशाह और वकील तक शामिल हुए।
प्रेस काउंसिल ऑव इंडिया ने साल १९९६ में सूचना का अधिकार का पहला कानूनी मसौदा तैयार किया। इस मसौदे में माना गया कि प्रत्येक नागरिक को किसी भी सार्वजनिक निकाय से सूचना मांगने का अधिकार है।ध्यान देने की बात यह है कि यहां सार्वजनिक निकाय शब्द का मतलब सिर्फ सरकारी संस्थान भर नहीं था बल्कि इसमें निजी क्षेत्र के सभी उपक्रम या फिर संविधानएतर प्राधिकरण, कंपनी आदि शामिल हैं। इसके बाद सूचना के अधिकार का एक मसौदा कंज्यूमर एजुकेशन रिसर्च काउंसिल(उपभोक्ता शिक्षा अनुसंधान परिषद) ने तैयार किया। यह सूचना पाने की स्वतंत्रता के संबंध में सबसे व्यापक कानूनी मसौदा है। इसमें अंतर्राष्ट्रीय मानको के अनुकूल कहा गया है कि बाहरी शत्रुओं के छोड़कर देश में हर किसी को हर सूचना पाने का अधिकार है।
आखिरकार साल १९९७ में मुख्यमंत्रियों के एक सम्मेलन में संकल्प लिया गया कि केंद्र और प्रांत की सरकारें पारदर्शिता और सूचना के अधिकार को अमली जामा पहनाने के लिए काम करेंगी। इस सम्मेलन के बाद केंद्र सरकार ने इस दिशा में त्वरित कदम उठाने का फैसला किया और माना कि सूचना के अधिकार के बारे में राज्यों के परामर्श से एक विधेयक लाया जाएगा और साल १९९७ के अंत तक इंडियन इविडेंस एक्ट और ऑफिशियल सीक्रेसी एक्ट में संशोधन कर दिया जाएगा। सूचना की स्वतंत्रता से संबंधित केंद्रीय विधेयक के पारित होने से पहले ही कुछ राज्यों ने अपने तईं सूचना की स्वतंत्रता के संबंध में नियम बनाये। इस दिशा में पहला कदम उठाया तमिलनाडु ने(साल १९९७)। इसके बाद गोवा(साल १९९७), राजस्थान(२०००), दिल्ली(२००१)महाराष्ट्र(२००२), असम(२००२),मध्यप्रदेश(२००३) और जम्मू-कश्मीर(२००४) में नियम बने।
सूचना की स्वतंत्रता से संबंधित अधिनियम(द फ्रीडम ऑफ इन्फारमेशन एक्ट) भारत सरकार ने साल २००२ के दिसंबर में पारित किया और इसे साल २००३ के जनवरी में राष्ट्रपति की मंजूरी मिली। सन २००५ से यह क़ानून पूरे देश पर लागू है लेकिन इस अधिनियम के प्रावधानों को नागरिक समाज ने अपर्याप्त मानकर आलोचना की है। वहीं सर्वेक्षणों में बार-बार् यह बात सामने आ रही है कि जानकारी,जागरूकता और प्रतिबद्धता के अभाव में इस का असर देखना मुमकिन नहीं हो पा रहा है। यह एक बड़ी चुनौती है।
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लेखक आटीआई स्टेट रिसोर्स पर्सन
और दिग्विजय कालेज, राजनांदगांव
के राष्ट्रपति सम्मानित प्रोफ़ेसर हैं।
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