जब तक दलित-वंचित महिलाओं का संघर्ष सामने नहीं आता तो ऊंचे तबकों की महिलाओं का फेमिनिज्म बेकार है ये आजादी हमें आसानी से नहीं मिली है। हमने ब...
जब तक दलित-वंचित महिलाओं का संघर्ष सामने नहीं आता तो ऊंचे तबकों की महिलाओं का फेमिनिज्म बेकार है
ये आजादी हमें आसानी से नहीं मिली है। हमने बहुत कुछ खोया है। हमने अपने बच्चों को खोया है। हमें आजादी की कीमत समझनी होगी और इसकी कद्र करनी होगी।
- आपको साहित्य के क्षेत्र में काफी प्रसिद्धि मिली, साथ ही सम्मान भी। फिर ख़ुद को खानाबदोश कहने के पीछे आपका क्या मतलब है?
उ. इसके पीछे एक कहानी है। दरअसल, मेरी जिंदगी खानाबदोश की तरह ही थी। मेरे हसबैंड की एक महबूबा थी। जब वो कहीं चली जाती थी तो मुझे बुला लेता था और जब वो आ जाती थी तो मुझे पीहर भेज देता था। 13 साल तक उसने मुझे फुटबॉल बनाए रखा। मेरे तीन बच्चे थे। तीनों बच्चों के साथ कभी मैं इधर चली आती थी तो कभी उधर। बाद में ऐसा सिलसिला हुआ कि छह महीने हसबैंड के पास और छह महीने पीहर। इसी से मैंने खुद को खानाबदोश कहा।
- आपने वक़्त के एक लम्बे दौर को देखा है, सत्ता की हर आतताई गतिविधि का खुल कर विरोध किया है। आज देश में जो साम्प्रदायिक माहौल बनाया जा रहा है, इसका दूरगामी परिणाम क्या हो सकता है?
उ. ख़ौफनाक...(रुक जाती हैं) साम्प्रदायिकता बहुत ख़ौफनाक चीज है। इस मुल्क में बहुत सारी कौमें हैं, बहुत सारी ज़बाने हैं, सारे मिल-जुल कर नहीं रहते। मुल्क में सबको जगह मिलनी चाहिए, सबको सम्मान मिलना चाहिए। ख़ौफनाक दहशत बढ़ती ही जा रही है। ये बहुत दुखद बात है। (रुक कर) ये आजादी हमें आसानी से नहीं मिली है। हमने बहुत कुछ खोया है। हमने अपने बच्चों को खोया है। हमें आजादी की कीमत समझनी होगी और इसकी कद्र करनी होगी।
- आजकल आप क्या लिख रही हैं?
उ. अभी कुछ भी नहीं लिख रही हूँ। मेरी एक किताब आने वाली है ‘यहीं कहीं होती थी जिंदगी’ किताब घर प्रकाशन से। पढ़ भी नहीं पाती। बीमार रहती हूँ। मेरी आँखों में परेशानी है। खून जम जाता है। इंजेक्शन लगवा रही हूँ। मेरी अक्खां न जवाब दे दीत्ता। अब क्या करूँ। बस यही लगता है कि ज्यादा लिख नहीं पाई। और लिखने की इच्छा बची ही रह गई।
4. आपके लेखन में दलित-उत्पीड़ित-वंचित तबकों का संघर्ष भी सामने आया है, फिर आपको फेमिनिस्ट क्यों कहा जाता है ?
उ. मेरा फेमिनिज्म में यकीन रहा है, पर मैं वैसी फेमिनिस्ट नहीं हूँ जो हर बात में पुरुषों का विरोध करते हैं। मैं विचारों से फेमिनिस्ट हूँ। मेरी नज़र में फेमिनिज्म का मतलब है अपने अंदर मजबूती लाना, न कि हर मामले में पुरुषों का विरोध करना। दलित-वंचित तबकों में औरतों की हालत ज्यादा खराब है। मैं शुरू से ही उनकी जिंदगी को देखती रही, उनकी पीड़ा को समझती रही। इसलिए मेरे लेखन में उनका जीवन और संघर्ष आया है। मेरा मानना है कि साहित्य में उनका संघर्ष सामने आना चाहिए। जब तक दलित-वंचित महिलाओं का संघर्ष सामने नहीं आता तो ऊंचे तबकों की महिलाओं का फेमिनिज्म बेकार है।
5. सार्क एकेडमी ऑफ आर्ट एंड कल्चर संस्था की स्थापना के पीछे मुख्य प्रेरणा क्या रही ? फिलहाल, इसकी क्या गतिविधियाँ चल रही हैं ?
उ. इसके पीछे हमारा मकसद पड़ोसी मुल्कों के लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को एक साथ जोड़ना और एक मंच पर लाना था। हम इसमें कामयाब भी हुए। यह संस्था बेहतर काम कर रही है, मैं बीमार रहती हूँ, इसलिए अब समय नहीं दे पाती, पर यह संस्था आपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। यह आठ मुल्कों की एकमात्र संस्था है, जहाँ सारे लेखक और कलाकार मिलते हैं। अपने विचार साझा करते हैं। सार्क के जरिए ही हमने राइटर्स वीज़ा हासिल करना आसान बनाया। यह एक बड़ी बात है।
6. कहा जाता है कि जगजीत सिंह की सफलता के पीछे आपका हाथ रहा है। उनसे जुड़ा कोई एक वाकया साझा करें।
उ. वेस्टर्न टीवी के ज्ञान वचानी मुझे जानते थे। एक दिन वो मेरे पास आए और जगजीत सिंह का जिक्र किया। उन्होंने बताया कि जगजीत सिंह उनके बड़े अच्छे दोस्त हैं और बहुत अच्छी ग़ज़ल गाते हैं। फिर मैने कहा कि जगजीत सिंह को मेरे घर लेकर आओ, मैं भी सुनना चाहूँगी। फिर जगजीत सिंह तबला-हारमोनियम लेकर मेरे पास आ गए। मैंने सुना। सचमुच बहुत अच्छा गाता था। इसके बाद मैंने उसका प्रोग्राम करवाने के लिए कमानी ऑडिटोरियम बुक करवाया। तब उन्हें कोई जानता नहीं था और पोस्टर लगे प्रोग्राम के तो कोई आने को तैयार नहीं था। ऑडिटोरियम में 600 सीटें थीं, पर सिर्फ 20 सीट बुक हुई। टिकट बिक नहीं रहे थे। जब मैं लोगों से कहती कि जगजीत सिंह ग़ज़ल गाएँगे, आप लोग आओ, तो लोग कहते कि सिख ग़ज़ल नहीं गाते, वे तो कीर्तन करते हैं। मैं बहुत परेशान थी कि क्या होगा। दिलीप कुमार मेरे दोस्त थे। मैंने उनसे आने को कहा कि उससे कार्यक्रम सफल हो जाएगा। उन्होंने मेरी बात नहीं टाली। फिर हमने बैनर लगवाए कि दिलीप कुमार आ रहे हैं। कमानी दोगुना भर गया। जगह नहीं रही। दिलीप कुमार मंच पर आए तो कहा कि मैंने अजीत कौर जैसी औरत नहीं देखी जो अपने पैसे खर्च कर नये लोगों को मौका देती हैं। मैंने ऐसे बहुत से लोगों को देखा है जो स्थापित कलाकारों को प्रमोट करने के नाम पर पैसा बनाते हैं। फिर उन्होंने कहा कि आज तक मैंने खुले मंच पर नहीं गाया। पर आज गाऊँगा। फिर पहली ग़ज़ल दिलीप कुमार ने गाई और बाद में जगजीत सिंह ने। बहुत सफल रहा प्रोग्राम। आज भी लोग याद करते हैं। जगजीत सिंह का पहला रिकॉर्ड मैंने ही बनवाया था एचआईवी से। फिर तो हमारा मिलना-जुलना बढ़ता गया। अर्पणा की एग्जीबिशन जहाँ-जहाँ होती, वह आता था। आख़िर में कुवैत एयरपोर्ट पर मुलाक़ात हुई। वह परफॉर्मेंस दे कर आ रहा था और हम जा रहे थे।
7. पंजाबी के कुछ नये कथाकारों के बारे में बताएं जिन्हें आपने हाल में पढ़ा हो और जिनके बारे में आपको लगता है कि वे बढ़िया लिख रहे हैं ?
उ. मैं अब तो पढ़ नहीं पाती, पर पहले पढ़ती रही हूँ और चर्चा सुनती रहती हूँ। इनमें जितेन्द्र हालत, जसबीर राणा, बलविंदर सिंह बराड़, बलजिंदर नसराली, हरप्रीत सिख, तरसपाल कौर, गुरमीत घड़ियालवी, सुखजीत, हरजिंदर हटवाल, गुरदयाल और तलविंदर सिंह बहुत बढ़िया लिख रहे हैं। इनसे मुझे काफी उम्मीदें हैं।
8. देश के विभाजन को आपने नजदीक से देखा, क्या भारत-पाकिस्तान के संबंधों में सुधार आ सकता है?
उ. हाँ, मैंने वह सब देखा और अब उसकी याद भी मुझे बहुत परेशान कर देती है। ये विभाजन बहुत गलत हुआ। यह राजनीतिक वजहों से हुआ। सच तो ये है कि दोनों मुल्कों की संस्कृति सांझी है, लोग एक हैं। जहाँ तक दोनों देशों के संबंधों में सुधार का सवाल है तो मुझे लगता है कि आम लोगों के बीच संबंध खराब हैं ही नहीं। यह बड़े और राजनीतिक स्तर पर है। इसके पीछे सत्ता का स्वार्थ है। मैं जब पाकिस्तान गई थी तो वहाँ अनारकली बाजार में जाना हुआ। वहां हमारे साथ आर्ट और कल्चर से जुड़े लोगों का स्वागत हुआ और उन्हें तोहफ़े दिए गए। मुझे दो तोहफे दिए गए। मैंने पूछा कि दूसरा किसलिए तो वो बोले अर्पणा के लिए। मैंने पूछा कि आप कैसे जानते हैं उसे। उन्होंने कहा कि हम भारत के हर बड़े और अच्छे कलाकार को जानते हैं। आज तो माहौल बहुत खराब हो रहा है। पाकिस्तान के कलाकारों को भारत में काम नहीं करने दिया जा रहा है। इस तरह तो संबंध और खराब होंगे।
9. अंतिम सवाल। विभाजन के वक़्त की त्रासदी की वो कौन-सी घटना है जो आज भी याद आने पर आपको विचलित कर देती है।
उ. मैं बहुत छोटी थी तब जब शोर सुना विभाजन वाला। उस समय लाहौर ही सेफ समझा जाता था। पेशावर ती तरफ जम कर क़त्लेआम मचा था। बेटे-बेटियों की गर्दन कटवाई जा रही थी। लड़कियों की इज्जत के साथ खिलवाड़ हो रहा था। मेरी माँ मुझे लाहौर के रिफ्यूजी कैम्प में लेकर गई। वहाँ जाते ही देखा कि सारी औरतें रो रही हैं, कुछ बोल रही हैं कि उन्होंने इज्जत बचाने के लिए अपनी लड़कियों को कुएँ में फेंक दिया। अभी तक मैं वह सब नहीं भूल पाई हूँ जो मैंने लाहौर के रिफ्यूजी कैम्प में देखा। इसके बाद अप्रैल-मई का महीना था, लाहौर में भी दंगे शुरू हो गए। मैंने अपनी आँखों से लोगों का क़त्ल होते देखा। बहन-बेटियों की इज्जत लुटती देखी। बार छत पर खड़ी थी। मैंने देखा कि एक आदमी को तीन-चार लोग तलवारें लिए घेरे आ रहे हैं। उन्होंने उसे तलवार मारी और वह एक लंबी चीख के साथ वहीं गिर गया। खून फैल गया। उसकी चीख मुझे आज तक सुनाई पड़ती है और मैं आँखें बंद कर सोचने लग पड़ती हूँ। अब भी जब यह सब याद आता है तो मेरी हड्डियों में खून लगता है कि जम गया हो। ऐसे बुरे दिन फिर ना आएँ।
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