*वन्दना* हे कालविधायक जगदीश्वर,. तेरी तो महिमा है अपार। ज्ञानी, ध्यानी , योगी हारे , कोई भी पाया नहीं पार।।१।। ...
*वन्दना*
हे कालविधायक जगदीश्वर,.
तेरी तो महिमा है अपार।
ज्ञानी, ध्यानी , योगी हारे ,
कोई भी पाया नहीं पार।।१।।
कर बिन तू ने सब विश्व रचा,
किस को तुमने क्या कुछ न दिया।
उसकी ही तूने रक्षा की,
जिसने भी तुझे पुकार लिया।।२।।
तुझ से तो कुछ भी छिपा नहीं ,
प्रभु तू सर्वज्ञ नियामक है।
कुछ मुझ पर भी कर कृपा नाथ ,
तू सक्षम है , सब लायक है।၊ ३ ॥
बिन कृपा तुम्हारी पत्ता तक,
इस जगती में ना हिल पाए ।
गर कर दो प्रभु तुम कृपा तनिक ,
इक अदना भी सब कर पाए ॥४॥
योगी और भोगी दुनिया में ,
आते हैं , रहते , जाते हैं ।
जैसा तुम चाहो नाथ वही,
सब के सब करते जाते हैं॥५॥
तू चाहे तो इक रंक यहाँ ,
क्षण में राजा बन जाता है।
यदि ना चाहे तो राजा भी -
इक रंक का दर्जा पाता है ॥६॥
ऐसी ही एक कथा प्रभु जी ,
तव पद में रखना चाह रहा ।
पर कृपा बिना तेरी प्रभु जी ,
मैं कर पा नहीं निबाह रहा ॥७॥
चरणों में मेरी विनती है ,
निज सुत की इच्छा पूर्ण करो।
जो आयें बाधाएं पथ में ,
प्रभु उसे मसल कर चूर्ण करो॥८॥
धन्य धन्य परमात्मा , धन्य धन्य महराज ॥
इक राजा योगी बना , ' कुसुमाकर ' किस काज॥९॥
भर्तृहरि (खण्ड काव्य)
क्षिप्रा का पावन तट है ,
चहुँ ओर छटा है छायी ।
गहन ,शान्त , गम्भीर , धीर ,
यह क्षिप्रा बहती आयी ॥१॥
कल कल ,छल-छल करती है ,
यूँ जैसे है इठलाती ।
ऐसा लगता है मानो ,
ये घाट देखने जाती ॥ २॥
क्षिप्रा के पावन तट पर ,
रजनी के प्रथम प्रहर में।
बहती थी पवन सुगन्धित ,
भरती थी सिहरन उर में ॥३॥
दीपक जल रहे तटों पर ,
पानी में पड़ती छाया।
क्षिप्रा के पावन जल में ,
ज्यों गगन उतर हो आया ॥४॥
हो रही आरती , मन्दिर -
में बजते ढोल मंजीरे।।
ऐसे में बैठे राजा ,
हैं क्षिप्रा के ही तीरे ॥५॥
था बाहर ठण्डा लेकिन ,
भीतर थी अति बेचैनी ।
इसका कारण, जाने क्या?
शायद कोई मृगनैनी ॥६॥
क्षिप्रा के निकट बसा था ,
उज्जयिनी नगर सुहाना।
गन्धर्वसेन थे शासक ,
समृद्धि चतुर्दिक नाना।।७॥
बीतता समय सुख पूर्वक,
हर दर खुशहाली छायी।
दो-दो शादियाँ किये नृप ,
बजती थी नित्य बधाई ॥८॥
दस वर्ष हो गये राजा ,
की हुईं शादियां प्यारी ।
पर अब तक उनके आंगन -
में , गूँजी ना किलकारी ॥९॥
बादल की ओट छिपा कब ,
है सूरज कहो छिपाये।
खुशियों को द्विगुणित करते ,
सूरज से दो सुत आये।।१०॥
दोनों ने पुत्र . जने थे ,
दोनों थे बड़े सलोने।
राजा न्यौछावर करते ,
थे निसदिन चाँदी-सोने ॥११ ॥
दोनों ने सीखे विद्या-
संग रण कौशल भी सारे।
थे मात-पिता की आंखों -
के , दोनों ही सुत तारे ॥१२ ॥
थी प्रजा सुखी,सुख समृद्धि ,
चहुँ तरफ वहाँ थी छाई।
था बड़ा भर्तृहरि एवं ,
विक्रम था छोटा भाई ॥१३ ॥
दोनों में प्रेम बहुत था ,
दोनों ही सँग - सँग रहते।
कटु बचन किसी को भी वे ,
दोनों थे कभी न कहते। । १४ ॥
बचपन दोनों का यूँ ही ,
गुजरा है खेलते - खाते।
कब युवा अवस्था आई ,
वे सोच भी नहीं पाते ॥१५ ।।
कल तक थे छोटे बच्चे ,
है होती आज सगाई ।
राजा के राजमहल में
चहुँ दिशि खुशियाँ हैं छाई ॥१६॥
शादियाँ किया राजा ने ,
दोनों की प्यारी - प्यारी।
दिन -रात दिखाई पड़ती ,
खुशियाँ ही खुशियाँ सारी ॥१७ ॥
खुश राजा सँग सब बच्चे ,
खुशियाँ थी राजमहल में ।
दिन बीत रहे थे उनके ,
बढ़ती खुशियाँ पल-पल में ॥ १८॥
बच्चों के बच्चे आये ,
उन सबकी खुशी बढ़ाते।
लख नाती - पोते राजा ,
अत्यधिक नित्य हर्षाते।।१९॥
दिन बीत रहा था उनका ,
यूँ हँसी-खुशी में सारा।
कोई . भी कमी नहीं थी ,
धन . वैभव सकल पसारा ॥ २०॥
पर समय बड़ा निर्मोही ,
किसके रोके रुकता है।
यह आसमान सा ऊँचा ,
किसके सम्मुख झुकता है।।२१॥
वह समय आ गया राजा ,
गन्धर्वसेन तन त्यागे।
अब बने भर्तृहरि राजा ,
फिर भाग्य प्रजा के जागे ॥ २२॥
हर ओर रही सुख समृद्धि ,
थे जन-जन के हितकारी ।
था समय बीतता जाता ,
थी प्रजा सुखी अति भारी।।२३॥
था नाम पिंगला उसका ,
थी भर्तृहरि की रानी।
था प्रेम घना दोनों में ,
आगे बढ़ चली कहानी ॥ २४॥
पिंगला सच्चरित रानी ,
सब गुण सम्पन्न परी-सी।
थे उसके बोल सुहाने ,
लगती थी वह मिश्री - सी ॥ २५ ॥
जब थककर राजा आते ,
सब राज -काज निबटा के ।
रख देती क्षण में उनकी ,
वह सारी थकन मिटा के ॥२६॥
सुख पूर्वक बीत रहा था ,
जीवन राजा रानी का ,
पर कालबली क्या सोचे ?
यह काम न इस प्राणी का ॥ २७॥
राजा को अनंगसेना ,
इक रोज पड़ी दिखलाई।
राजा ने परिचय पूछा ,
वह उनके मन अति भाई ॥ २८ ॥
फिर क्या था कुछ ही दिन में ,
राजा ने रचाई शादी।
उस रानी नवागता पर , ।
निज सारी खुशी लुटा दी ॥ २९॥
पिंगला से अधिक इसको
चाहने लगे थे राजा ।
दिन - रात बजा करता था ,
शहनाई , दुन्दुभि बाजा।।३०॥
रानी की सुन्दरता पर ,
राजा मोहित थे ऐसे ।
नाद मधुर सुन करके ,
होता मृग मोहित जैसे ॥ ३१॥
था सेनापति अति सुन्दर ,
था उसका वदन गठीला।
रानी ने उसको देखा ,
लगता था अतिशर्मीला ।।३२॥
उसकी नजरों ने रानी -
की , सुन्दरता को देखा ,
लगता था जैसे कोई ,
है खिंची हुई विधुलेखा ॥ ३३ ॥
धीरे-धीरे दोनों की ,
आंखें टकरा जाती थीं।
खुशियाँ उनमें दिखती थीं .
पर थोड़ा शर्माती थीं। । ३ ४ ॥
यह रहा सिलसिला जारी ,
दोनों ही छिप -छिप मिलते।।
मिलने पर दोनों ही के ,
मन - कमल सदा थे खिलते ॥३५॥
दूसरी ओर राजा के ,
घोड़ों का था रखवाला ।
वह चन्द्रचूड़ भी रानी ,
के ऊपर डोरा डाला ॥३६॥
पैसों की खातिर उसने ,
रानी से प्रेम बढ़ाया।
पर सच्चा प्रेम कभी भी ,
ना उससे वह कर पाया।।३ ७॥
हाँ , राजनर्तकी से वह ,
था सच्चा प्रेम निभाता।
वह राजनर्तकी के भी ,
था मन को अतिशय भाता ॥ ३८ ॥
राजा दरबार लगाते ,
सुनते जनता की बानी।
इस ओर महल में उनके ,
चलती थी प्रेम कहानी ॥ ३९॥
इक सईस , इक सेनापति ,
दोनों रानी को चाहें।
रानी भी कुछ ऐसी थी ,
दोनों से प्रेम निवाहें ॥ ४०॥
पर अब तक बात किसी के ,
कानों तक पहुँच न पाई।
पर प्यार की बातें हरगिज ,
हैं छिपती नहीं छिपायी ॥४१॥
विधि का विधान है कैसा?
यह जान कौन पाया है ?
जो कुछ हो रहा जगत में ,
वह प्रभु की ही माया है ॥ ४२॥
यह समय बड़ा बेढंगा ,
कब कैसी करवट लेगा।
यह कोई जान न पाया ,
कब किसको काल छलेगा ?४३॥
दिन बीत रहे थे सुख से ,
हर -दर खुशहाली छायी।
पर काल चक्र यूँ घूमा ,
कुछ बात समझ ना आयी ॥४४॥
दरबार लगा था इक दिन ,
इक विप्र वहाँ पर आया।
उसने राजा को अपना ,
शुभ नाम 'जयन्त 'बताया। । ४५॥
वह परम तपस्वी ब्राह्मण ,
इक अद्भुत फल था लाया I
जो तप कर -कर के उसने -
था, देवराज से पाया। I४६ ॥
था नाम 'अमरफल ' उसका,
था काम अमर कर देना।
राजा ने पूछा उससे -
'क्यों मुझे चाहते देना ? ॥४७॥
मैं खुद खाता या पत्नी -
को इसे खिलाता राजन्!
तो बड़ी उम्र तक करना ,
पड़ता हमको भिक्षाटन ॥४८॥
इसलिए आपको देने -
हित फल ये लाया प्यारा।
यदि आप अमर होंगे तो ,
हित जनता का हो सारा ॥४९॥
' हो अमर भीख मैं माँगू , '
यह मुझको नहीं गवारा ।
इस फल पर राजन् पहला
अन्तिम हक नाथ तिहारा ॥५०॥
राजा ने फल लेकर के ,
माथे से उसे लगाया ।
उस ब्राह्मण की इच्छा के ,
प्रति अति आदर दर्शाया ॥५१॥
देकर काफी धन उसको,
राजा ने विदा किया है ।
उसकी इक - इक बातों पर ,
राजा ने गौर किया है।।५२॥
मुझको है अति प्रिय रानी ,
यदि वह ही अमर रहेगी।।
तो मेरे जीवन में भी ,
सुख-सरिता सदा बहेगी।।५३॥
यह निश्चय करके राजा ,
छोटी रानी ढिग आये,
सारा गुण वर्णन करके,
फल दिया कि रानी खाये ॥५४॥ ॥
रानी ने फल रख कर के ,
राजा की आवभगत की।
पर मन में क्या था उसके ?
थी सोची अभ्यागत की ॥५५ ॥
रानी ने फल वह रखकर,
कुछ सोचा और विचारा।
देने का फल उसको ही ,
जो था उसको अति प्यारा '।।५६॥
रानी ने कर दृढ़ निश्चय ,
फल चन्द्र चूड़ हित छोड़ा।
पर हा! विपत्ति से उसने ,
इस मिस था नाता जोड़ा।।५७॥
यह कालचक्र अब घूमा ,
देखो विपरीत दिशा में ।
होनी हो कर है रहती,
कब थमी किसी के थामें॥५८॥
वह सुन्दर फल लखकर के ,
रानी के मन में आया ।
यह चन्द्र चूड़ को दे दूँ,
उसने गर यह फल खाया ॥५९॥,
वह अमर रहेगा जग में ,
नव यौवन बना रहेगा '।
फिर प्रेम हमारा जग में ,
युग-युग तक अमर रहेगा॥ ६०॥
जो पड़ा प्रेम के पाले ,
वह भला - बुरा ना जाने ।
मजबूर प्रेम के हाथों ,
हित -अनहित ना पहचाने। I६१॥
ले चन्द्र चूड़ उस फल को ,
रख लिया पास है अपने।
फिर तरह-तरह के वह भी ,
अब लगा देखने सपने।।६२॥
संयोग रहा यह अच्छा ,
राजा ने उसे बुलाया ,
आदेश मिला फिर सत्वर ,
नर्तकी पास पहुँचाया ॥ ६३॥
था चन्द्र चूड़ भी इच्छुक ,
उस गणिका से मिलने का I
मौका था दोनों जन के ,
अरमानों के फलने का ॥६४॥
नृप मदिरा पी-पी कर के
जब थे मदहोश हुये तब |
वह चन्द्र चूड़ पा मौका ,
फल दिया बता कर गुण सब ॥६५॥
नर्तकी रूपलेखा ने ,
फल ले कर के रख छोड़ा।
इन लोगों के जाने पर,
है सारा तथ्य निचोड़ा ॥६६॥
क्या लाभ अमर होने से ,
है जीवन घृणित हमारा ।
हो अमर करूँगी क्या मैं ,
यह तन है अधम हमारा ॥६७॥
क्या करूँ बहुत दिन जी कर ,
मैं नारकीय गुणहीना
बन तो जाऊँगी ना मैं ,
अति पूता परम प्रवीना ॥६८॥
राजा हैं गुणी हमारे ,
उनको यह फल दे आऊँ।
वे खाकर इसे अमर हों,
मैं धन्य-धन्य हो जाऊँ॥ ६९॥
ले समय नर्तकी राजा ,
से मिलती राज महल में ,
सब गुण बतला कर फल का ,
था डाल दिया हलचल में ॥७०॥
राजा ने फल को देखा ,
पहचान गये वो क्षण में ॥
तलवार उठाकर गरजे ,
ज्यों जाते होवें रण में ॥७१॥
राजन मैं परम अघी हूँ ,
हो अमर भला क्या पाती।
इसलिए आपके ढिग यह ,
लेकर फल हूँ मैं आती ॥७२॥
हैं आप हमारे राजा ,
गर आप अमर हो जायें।
तो सारी प्रजा सुखी हो ,
प्रभु का जैकार मनाये।।७३॥
राजा ने पूछा- "आखिर ,
यह फल तू कैसे पायी?"
डर कर फिर उसने सारा -
ही ,राज उन्हें बतलायी।।७४॥
राजा ने उसको धन दे ,
महलों से बिदा किया है।
फिर फल लेकर सत्वर ,
रानी को दर्श दिया है ॥७५॥
असमय आना उनका लख ,
है रानी अति घबड़ाई ।
जैसे उसके सिर ऊपर ,
है आफत कोई आई।।७६॥
राजा ने पूछा- 'रानी -
क्या तूने वह फल खाया ?'
'हाँ - हाँ कह कर रानी ने ,
सिर अपना खूब हिलाया ॥७७॥
राजा ने खड्ग सम्भाला ,
और फल सम्मुख दिखलाया।
रानी थी असमंजस में ,
फल इन तक कैसे आया ? ॥७८॥
आखिर डर कर के रानी -
ने , सारा सच कह डाला।
था चन्द्रचूड़ को मैंने,
यह सुन्दर फल दे डाला ॥७९॥
जब चन्द्रचूड़ को राजा -
ने , अपने पास बुलाया।
उसने अपने सँग सेना -
पति , का भी नाम बताया ॥ ८० ॥
है होनहार जो होनी ,
वह समय पड़े होती है।
कोई इसमें हँसता है ,
कोई इसमें रोती है ॥ ८१॥
राजा ने सेनापति को ,
है मृत्युदण्ड दे डाला।
अरु निज सईस को उनने,
दे डाला देश निकाला ॥ ८२॥
वह रात अमावस की थी ,
हर दर था घोर अंधेरा।
रानी अनंग - सेना ने,
निज जीवन से मुँह फेरा ॥ ८३॥
अपने ही बीच महल के ,
मर गई चिता में जल के।
राजा सन्तप्त अधिक थे ,
बाहर ना गये महल के ॥ ८४॥
अनमने रह रहे राजा ,
कुछ समझ नहीं था आता।
लगती थी दुनिया नीरस,
दिल उनका ऊबा जाता।।८५ ॥
जिस पर मम प्रेम सवाया,
वह और किसी को चाहे ।
किस तरह मनुज इस जग में ,
अपना सत्प्रेम निबाहे ॥८६॥
निःसार जगत है सारा ,
कोई अपना न यहाँ है।
जो साथ सदा दे जग में ,
वह अपना कौन यहाँ है?॥८७॥
ऐसा करके रानी ने ,
था उनको बहुत सँभाला।
अवसाद ग्रस्त राजा को ,
था उससे शीघ्र निकाला।।८८॥
ऐसे में राजा जी को ,
रानी पिंगला सँभाले।
दिल में जो भरी व्यथा थी ,
आहिस्ता उसे निकाले ॥८ ९॥
कुछ दिन ऐसे ही बीते ,
कुछ स्वस्थ हुये जब राजा ।
आखेट के लिए रानी -
ने उनको बन में भेजा।।९०॥
रानी की सोच यही थी ,
कुछ उनका मन बहलेगा।
जो सदमा दिल में बैठा ,
धीरे - धीरे निकलेगा ॥९१॥
आखेट के समय बन में ,
इक गया सिपाही मारा।
इकलौता पति पत्नी का ,
वह था किस्मत का मारा ॥९२॥
जब पता चला पत्नी को ,
आयी जँह मरा अभागा।
फिर चिता लगा शव रखकर ,
खुद भी सँग जल तन त्यागा॥९३॥
राजा था विस्मित भारी ,
लख उसकी करुण कहानी |
इक वह थी , इक थी उन की ,
वह लाड़ - लड़ैती रानी ॥९४॥
इक तरफ रूपलेखा थी ,
जो भला चाहती उनका।
कुछ समझ न पाया राजा ,
क्या करता उस दुर्गुन का ॥९५॥
नारी बन गई पहेली ,
राजा कुछ समझ न पाया।
"नारी को वह क्या समझे ?
अपना या अन्य पराया ॥९६॥
ये सारी बातें मन में ,
उस वक्त घुमड़ती रहतीं।
सोते-जगते हर क्षण ये ,
जाने क्या- क्या थी कहती ॥। ९७ ॥
इक रोज लिवाकर उनको ,
आखेट के लिये रानी ।
चल पड़ी गहन कानन में ,
अब आगे बढ़ी कहानी ॥९८ ॥
पूरे दिन राजा भटके ,
पर कहीं न कुछ मिल पाया।
घर वापस होने खातिर ,
राजा ने कदम बढ़ाया।।९९॥
तब तलक झुण्ड हिरणों का ,
उनके सम्मुख है आया ।
रानी ने रोका लेकिन ,
राजा ने तीर चलाया।। १००॥
राजा का तीर लगा तो ,
गिर पड़ा हिरन धरती पर।
आत्मा तब उसकी बोली ,
राजा क्यूँ रहम न मुझ पर।।१०१ ॥
तुमने ये किया न अच्छा ,
मुझ निरपराध को मारा।
अब जो कहता हूँ सुन ले ,
कहना ये मान हमारा।।१०२॥
श्रृंगी बाबा को सीगें ,
दे चख चञ्चल नारी को।
ये त्वचा साधु-सन्तों को ,
या पूत ब्रह्मचारी को ॥१०३॥
मेरे पैर भागने वाले ,
चोरों को तुम दे देना।
मेरे शरीर की मिट्टी ,
पापी राजा को देना ॥१०४॥
इस करुण कथा ने राजा ,
को , द्रवित कर दिया क्षण में ।
जो कभी न विचलित होते ,
थे, भीषण - भीषण रण में ॥ १०५॥
घोड़े पर हिरन - कलेवर ,
ले राजा आगे आये ।
गोरखनाथ मिले पथ में ,
राजा कुछ साहस पाये ॥१०६॥
राजा ने सारी बातें ,
गोरखजी को बतलायी I
मृग को जिन्दा करने की ,
उनसे है विनय सुनाई ॥१०७॥
सुन सारी कथा गुरु ने ,
नृप की सब बातें मानी।
पर शर्त लगा दी उनसे ,
अतिरोचक हुई कहानी' ।।१०८ ॥
हे राजन !यह मृग जिन्दा ,
कर दूँगा पर यह सुन लो ।
इसके जिन्दा होने पर ,
शिष्यत्व हमारा चुन लो ॥१०९॥
गुरु गोरख की शर्तों पर ,
राजा ने हामी भर दी ।
गुरु ने फिर चन्द पलों में ,
मृत मृग को जीवित कर दी ॥११०॥
राजा के सिर से भारी ,
अपराध बोध था छूटा।
जो भी मिलता था नृप को ,
उनको ही जी भर लूटा।।१११॥
सब छोड़ - छाड़ कर राजा ,
बन गोरख के अनुगामी ।
चल पड़े साथ उनके ही ,
पर वे न बने थे स्वामी ॥११२॥
गुरु गोरख ने फिर दूजी ,
इक भारी शर्त लगा दी ।
राजा को लगा ज्यूँ गुरु ने ,
है उनको बड़ी सजा दी ॥११३॥
माता सम्बोधन करके ,
पिंगला से भिक्षा लाओI
इक भण्डारा दे कर के
मेरे चेला बन जाओ ॥११४॥
राजा बन चले भिखारी ,
भिक्ष माँगें अब दर-दर ।
किस्मत क्या खेल दिखाये ,
है खानी पड़ती ठोकर ॥११५ ॥
थे भगवा वस्त्र पहन कर ,
वे खड़े महल के द्वारे I
"माँ पिंगला भिक्षां देहि "
कह कर के उसे पुकारे' ॥११६॥
राजा का स्वर पहचानी ,
झट पिंगला बाहर आयी।
देखा स्वरूप राजा का ,
उसकी आँखें भर आयीं ॥११७ ॥
" यह सजा मुझे क्यों देते?
है क्या अपराध हमारा?
तज बीच भँवर में नैया ,
क्यों तुमने किया किनारा ॥ "११८॥
इस स्वार्थ भरी दुनिया में ,
निःस्वार्थ न कोई पाया।
किस पर विश्वास करें हम ,
विश्वासी है ना पाया ॥११९ ॥
मैं, मेरा, तू और तेरा ,
यह सब ही तो है माया।
इनमें पड़ कर के हमने ,
ए नाहक जन्म गँवाया ॥१२० ॥
"हूँ मैं तेरी अर्द्धांगिनि,
तू पति मेरे हो प्यारे I
इस तरह मुझे बिसरा कर ,
ना जा आंखों के तारे ॥१२१॥
इस तरह न तुम ठुकराओ ,
अपनी इस परिणीता को ।
क्या अग्नि- परीक्षा देनी ,
है शेष अभी सीता को॥१२२॥.
''मां अब कुछ भी ना लेना-
ना, देना शेष रहा है।
बस इक चुटकी भर भिक्षा,
ही पाना शेष रहा है।। १२३॥
जो कुछ भी भाल लिखा है ,
वह मिलता ही है माता ।
है रंक यहाँ पर कोई ,
कोई है भूप कहाता ॥१२४॥
"यह उचित नहीं है राजन् ,
परिणीता को ठुकराना।
यह कैसे जी पायेगी ,
क्या इसको भी है जाना'॥१२५॥
जो भाग्य लिखा है उसको ,
वह ही है मिलता माता ।
भिक्षा दे दो योगी को ,
या , बिन भिक्षा है जाता ॥१२६॥
रो-रोकर रानी , राजा -
से यह सब कुछ कहती थी।
पर दोनों आँखों से ही -
अविरल धारा बहती थी ॥१२७॥
जब मना - मना कर रानी ,
निज राजा को है हारी।
फिर भिक्षा दे देने की -
ही उसने बात बिचारी ॥१२८॥
रानी जब भिक्षा लेकर,
है नंगे पाँवों आयी।
उसकी आंखों ने सावन -
भादों की झड़ी लगाई ॥१२९॥
लो योगी भिक्षा ले लो ,
यह अन्तिम भेंट हमारी।
पर रखना याद तुम्हारी ,
भी थी इक कोई नारी।।१३०॥
तुम बन में तप करते हो ,
वह तपती निज महलों में |
पर अन्तर कुछ भी था ना ,
इन दोनों के ही फलों में।।१३१॥
लेकर भिक्षा योगी ने,
है अलख जगाया भारी।
''माँ सुखी रहो" यह कहकर ,
की चलने की तैयारी ॥१३२॥
दिल टूट चुका रानी का,
वह जा महलों में सोई।
पति योगी हो , गति उसकी ,
समझे विरला जन कोई ॥१३३॥
X X X
बारह वर्ष तपस्या कर -
के , बने सिद्ध वे योगी।
ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञता भी ,
बिरले ही जन में होगी ॥१३४॥
X. X X
दशहूँ दिशाओं तीनों कालों में है परिपूर्ण ,
चैतन्य स्वरूप जो अनन्त कहलाता है।
वही अनुभव गम्य , शान्त , तेजोमय ब्रह्म ,
जिसकी उपासना में चित्त चैन पाता है ॥
केवल विरक्ति बनी उनकी थी संगीनी औ'
देवन के देव महादेव मन भाता है
'कुसुमाकर' ऐसे ही थे भूप भर्तृहरि योगी ,
भक्ति - भागीरथी में लगाते रहे गोता है।।१३५।।
०००
भर्तृहरि खण्डकाव्य अत्यन्त सरस सुगम भावपूर्ण एवं ऐतिहासिक महत्व का है। अपने अतीत में झांकने का प्रयास सराहनीय है। बहुत बहुत बधाई।
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