बच्चे सुन्दरता की कोमल कड़ियाँ, कोमलता का मृदु आभास। बच्चों में केन्द्रित करता है, ...
बच्चे
सुन्दरता की कोमल कड़ियाँ,
कोमलता का मृदु आभास।
बच्चों में केन्द्रित करता है,
बचपन अपना अनुपम हास।
नव कोंपल. की भाँति. सुकोमल,
सरस. हृदय का हो आगाज।
पुलकित तन मन अनुपम दर्शन
ऐसा है शैशव का साज।
मानव की अमूल्य निधियों में,
अद्वितीय निधि कोमल बच्चे।
अपनी सत्वर चञ्चलता से,
सबका हृदय प्रफुल्लित करते।
बचपन रक्खो इनका रक्षित,
ये हैं जीवन के. आधार।
इनके ही कोमल कंधों पर
टिका हुआ भविष्य का भार।
बच्चों का उन्मुक्त स्वभाव
. कहलाता ईश्वर का रूप।
इनकी ही इच्छा पर निर्भर,
भू-मण्डल का अखिल स्वरूप।।
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चिड़िया रानी
चिड़िया रानी,. चिड़िया रानी
नित आँगन में आती हो।
फुदक-फुदक कर क्या करती हो,
चुन-चुन कर क्या खाती हो?
सुबह सबेरे उषा-किरण लख,
जल्दी तेरा जग जाना।
चीं-चीं , चूँ-चूँ के सरगम में,
मधुमय गीत सुना जाना।।
कितनी प्यारी, कितनी न्यारी,
अखिल. जगत को भाती हो।
फुदक-फुदक कर क्या करती हो,
चुन-चुन कर क्या खाती हो?
मैं भी संग तुम्हारे खेलूँ,
मन में ऐसा आता है।
ऐसा लगता तेरा -मेरा,
जनम-जनम का नाता है।।
लेकिन जब आता ,मैं तुम तक,
फुर से तुम उड़ जाती हो।
फुदक-फुदक कर क्या करती हो,
चुन-चुन कर क्या खाती हो?
काश! मुझे भी फुदक-फुदक कर,
तुम-सा ही उड़ना आ जाता।
तो मैं सारे जग का सुख,
तुझ संग रह क्षण में पा जाता।।
मैं भी मीठा-मीठा गाता,
जैसा कि तुम गाती हो।
फुदक-फुदक कर क्या करती हो
चुन-चुन कर क्या खाती हो।
मेरी न्यारी चिड़िया रानी
खुश रहने का राज बताओ।
कभी-कभी मेरी भी सुन लो
कभी पास मेरे भी आओ।।
मैं बेशक. हूँ मित्र तुम्हारा,
नाहक हमें सताती हो।
फुदक-फुदक कर क्या करती हो,
चुन-चुन कर क्या खाती हो?
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कृष्णायन
जहॉ कृष्ण राधा निवास हो,
वही जगह है कृष्णायन।
जहाँ न होवें राधा माधव,
वह कैसा है कृष्णायन।
कृष्ण और राधा से शोभित,
वन भी होता वृन्दावन।
बेशक उस दर पर क्या रहना,
जहाँ न होवे कृष्णायन।।.
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ग़ज़ल
-डॉ०कुसुमाकर शास्त्री
कुछ तो तुमने दिया मुझे भी,
नहीं प्यार दुत्कार सही।
दोनों ही मंजूर हमें है,
जीत मिले या हार सही।
तुम इतने भी निठुर नहीं हो,
है इतना इतबार सही।
'गर इकरार नहीं कर सकते,
कर सकते इनकार नहीं।
हर हसीन चेहरे से गाली,
भी लगती है प्यार सही।
आना-जाना लगा रहेगा,
नहीं प्यार तकरार सही।
रातों दिन दिल यही चाहता,
हो जाये दीदार कहीं।
अपनी तो बस यही इबादत,
मन्दिर नहीं मजार सही।।
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गीत.
-डॉ०कुसुमाकर शास्त्री
हँसने का हक भले न दो पर,
रोने का अधिकार न छीनो।।
तुम से भला करूँ क्या शिकवा,
जब तकदीर बुरी पाई. है।
यूँ तो साराआलम अपना,
है,फिर भी ए तनहाई. है।।
दो पल का जो मिला मुझे ये,
अपना स्वर्णिम प्यार न छीनो ।।हँसने का---------
दर्द समेटे जीवन भर का,
मैं चुपचाप चला जाता हूँ।
अन्धकार की सघन पर्त में,
बन कर दीप जला जाता हूँ।।
दो या न दो मुझे साहिल पर,
मुझ से ये मँझधार न छीनो।। हँसने का-----------
कितना शूल चुभे पग में,कब,
इनकी मैं. गिनती करता हूँ।
अब तो जगन्नियंता से,मैं,
इतनी ही विनती करता हूँ।।
फूल युक्त पथ मुझे न दो,पर,
पथ के ये काँटे मत बीनो।। हँसने का-------
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बाल कविता
जन्मदिवस निज'बालदिवस'कर बने हितैषी सच्चे।
चाचा नेहरू को गुलाबप्रिय उससे भी प्रिय बच्चे।।
जन्म लिया 'आनन्दभवन' में,मात-पिता हर्षाये। अपनेसत्कर्मों से जग में उनका नाम बढ़ाये।।
लाल जवाहर नाम मिला थे लालजवाहर सच्चे।
चाचा नेहरू को गुलाबप्रिय उससे भी प्रिय बच्चे।।
लाल गुलाब फूल चाचा नेहरू के मन को भाये।
कोमल -कोमल पंखुड़ियाँ लख,चाचा जी मुसकाये।।
सदा खींच लाते बच्चों तक प्रेम के धागे कच्चे।
चाचा नेहरू को गुलाबप्रिय उससे भी प्रिय बच्चे।।
काँटों में खिलते गुलाब , दु:ख में बच्चे मुसकाते।
परोपकार कर-कर बच्चे, हैं जग में सुख पाते।।
स्वयं कष्ट सह कर गुलाब सा,हैं उपकारी बच्चे।
चाचा नेहरू को गुलाबप्रिय उससे भी प्रिय बच्चे।।
मानवता के इन सुमनों से,खिल उठता घर आँगन।
इनके सहज स्वभाव रूप पर,न्यौछावर'वन-नन्दन'।।
इन पर ध्यान जरूरी देना, हैं ये कोमल कच्चे।
चाचा नेहरू को गुलाबप्रिय उससे भी प्रिय बच्चे।।
सुमनों का कुम्हलाना , चाचा जी को तनिक न भाये।
ऊँच-नीच का भेद-भाव तज,सब को गले लगाये।।
लगते बच्चों को चाचा, चाचा को अच्छे बच्चे।
चाचा नेहरू को गुलाबप्रिय उससे भी प्रिय बच्चे।।
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गजल
डॉ० कुसुमाकर शास्त्री
मत भूलो जो आज नया है,
कल को वही पुराना होगा।
सदियों का अवसाद छिपाये,
सुख का ताना 'बाना होगा।।
आज जहाँ में फैल रही है,
घोर अमावस की अँधियारी ।
उसको दूर भगाने खातिर,
मन का दीप जलाना होगा।।
कपट स्वार्थ झंझावातों से,
यह सारा जग जूझ रहा है।
मानवता मर रही देखिये ,
उसको शीघ्र बचाना होगा।।
भोला बचपन, अनगढ़ यौवन,
भटक. रहा. है वीराने में।
उसको सही दिशा देने हित,
सबको आगे आना होगा।।
आज देश की सीमाओं पर,
खड़ा शत्रु ललकार रहा है।
वीर वंश की आन यही है,
उसको मजा चखाना होगा।।
यह दुनिया की रीति पुरानी,
इसे कौन झुठला पाया है।
जो भी इस जगती में आया,
इकदिन उसको जाना होगा।।
'बिना चोट खाये वीना के ,
तार नहीं,झंकृत होते हैं।
उतना ही वह गीत मधुर है,
जितना दर्द पुराना होगा।।
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मनहरण छऩ्द
नन्द जसुमतति लाल,संग लिये ग्वाल बाल,
मन्द मन्द चलें चाल, नाचे ताता थैया है।
तरनि तनूजा तट, कदम्ब विटप झट,
चढ़ि. गये. लिये पट,. बाँसुरी. बजैया. है।
सघन. विटप. डाल, बैठे चढ़ि नन्दलाल,
चलत अजब चाल,. नाग. के नथैया. हैं।
बीच जमुना के. धार,.गोपियाँ.रहीं निहार,
बेबस करें पुकार, सुने ना. कन्हैया है।।
कुसुमाकर
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काका हाथ रसी की जयन्ती,निर्वाणदिवस,(१८सितम्बर)पर कुछ कुंडलियां
काकाजी को स्वर्ग से मिला प्रेम सन्देश।
हमें रुला खुद चल दिये,जो थे हास्य नरेश।
जो थे हास्य नरेश,हमारा दु:ख ना देखा।
कौन मिटाये हाय हाथ की टेढ़ी रेखा।।
कह 'कुसुमाकर'आज चैन पर डाला डाका।
गये रुला कर वही हम -सादे थे जो काका।।१।।
काकाजी तो चल दिये धरती से मुंह मोड़।
रोते चिल्लाते हुये परिजन पुरजन छोड़।
परिजन पुरजन छोड़,चले तज सबसे नाता।
सारे श्रोता दु:खी,हुआ अब वाम विधाता।
कह 'कुसुमाकर' बन्द हुआ कहकहा ठहाका।
गये रुला कर वही,हंसाते थे जो काका।।२।।
काका जी को देखने को आतुर थे नैन।
उमड़ पड़ी थी भीड़ वह,अति व्याकुल बेचैन।
अति व्याकुल बेचैन,नैन से झरते आंसू।
कवि सम्मेलन हुआ घाट पर अतिशय धांसू।
कह 'कुसुमाकर' सुबह शाम नित लगे ठहाका।
किये वसीयत अजब गजब के थे वे काका।।३।।
* काकाजी की वसीयत*
ऊंट शकटिका लादकर,ले जावें मम लाश।
यह भी इक अन्दाज था, काकाजी का खास।
काका जी का खास,न कोई देवे कन्धा।
खतम किया इस तरह,जगत का गोरखधन्धा।
कह' कुसुमाकर' शिला सामने थी स्फटिका।
चली लाश लै भीड़,लादकर ऊंट शकटिका।।४।।
करते थे काका सदा,अमृत की बौछार।
शीतल मन्द सुगन्धमय,लगती हास्य फुहार।
लगती हास्य फुहार,चित्त सुन -सुनके चहके।
परम लहलही हास्यबेल,मह मह कर महके ।
कह' 'कुसुमाकर' सदा लोग थे उन पर मरते।
काका जी थे अजब गजब के कौतुक करते।।५।।
काकी अर्धांगिनि रहीं ,काका जी अर्धंग।
सुबह शाम होती सदा,भीतर बाहर जंग।
भीतर -बाहर जंग,रंग दिखलाते काका।
बस शब्दों की मार शब्द के डालें डाका।
कह'कुसुमाकर' गौरतलब कुछ रहा न बाकी।
काका स्वर्ग सिधार गये,पर बैठीं काकी।।६।।
----------.
बिना ही सनेह के सनेही बनते हैं लोग,
बिना हित चिंतन हितैषी कहलाते हैं।
धन्य ये शहर धन्य -धन्य शहरातू बन्धु,
कागज के फूल के सरीखे सब नाते हैं।।
स्वार्थमयी है प्रीति -रीति ,नीति कार -बार,
नि:स्वार्थ बेशक किसी को नहीं पाते हैं।
काम पड़ने पर बाप भी हैं मान लेते पर,
काम सरने पर खुद बाप बन जाते हैं।१।
जहां अपने भी बन जाते हैं पराये बन्धु,
हाय बाज आया आज आपके शहर से।
इससे तो अच्छा होता गांव का गंवार बन,
गीत गाता गाता जाता गंवईं डगर से।
चिड़ियां चहकतीं महकती वो सोंधी गंध,
धरती ये पट जाती सरसों मटर से।
खुशियां ही खुॉशियां बिखरती हैं चारों ओर,
नाता है अजीब. प्यार भरा गांव भर से।।२।।
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अपने होठों पर प्रभु तेरा,
नाम हमेशा रहा करे।
अपनी रसना राधा राधा,
कृष्ण कन्हैया कहा करे।
सुख दुख सारे जगमें फैले,
बेशक हमें डिगाते हैं।
बस तेरे ही प्रेम के अॉसू,
इन नयनों से बहा करें।।२।।
मैं दुनिया की रीति -नीति पर,
ध्यान कभी ना दिया करूं।
औ रोंके दोषों को हरगिज,
ना इंगित मैं किया करूं।
करना ही है तो बस बेशक ,
,प्रेम तुम्हारा काफी है।
सुबह -शाम ,दिन -रात ,हमेशा,
नाम तुम्हारा लिया करूं।।३।।
यह जग अज्यानी,इसकी,
बातों पर ध्यान न दिया करूं।
जो कुछ भला बुरा कह डाले,
क्षमा उसे नित किया करूं
इस जग से दिल ऊब चुका है,
बेशक अब अभिलाष यही,
जब भी होंठ खुलें रसना से,
राधा,-राधा कहा करूं।।४।।
जमुना तट बंशीवट, झुरमुट,
चिड़ियां कलरव करती हैं।
सुबह सवेरे नटखट तेरे,
दरशन हेतु विचरती हैं।
वैसे तो पनघट पर घट ले
आती बेशक बालायें।
पर दर असल बहाने से वे
तेरे दरशन करती हैं।५।।
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"कुसुमाकर,"
आज हिमालय की चोटी से आई फिर आवाज,
जवानों बढ़े चलो,जवानों बढ़े चलो।
तूफां आवें लाख तुम्हारी मन्द नहो परवाज,
जवानों बढ़े चलो,जवानों बढ़े चलो।
मां का आंचल नित लहराये,
इस जानिब जो पांव बढ़ाये,
उस पर तो गिरनी लाजिम है,तुम वीरों की गाज।
जवानों बढ़ै चलो,जवानों बढ़े चलो।
तुम मैत्री का हाथ बढ़ाये,
लेकिन दुश्मन दगा कमाये,
नहीं पता था यहां मिलेगी,तुम्हें कोढ़ में खाज।
जवानों बढ़ै चलो,जवानों बढ़े चलो।
बदनीयत से जो चढ़ आया,
उसने ही है मुंह की खाया
क्या होगा अंजाम सोचले, अभी तो ए आगाज।
जवानों बढ़े चलो,जवानों बढ़े चलो।
जिसने भी तुमको ललकारा,
उसको दिया जवाब करारा,
तेरे मिलने का भी सबसे,अलग रहा अंदाज।
जवानों बढ़ै चलो,जवानों बढ़े चलो।
उड़ी हो या माछिल अब्दुलिया,
आर एस पुरा या के ड़ी पुलिया
एक के बदले दस दस मारा,
फिर भी उसे न लाज।
जवानों बढ़े चलो ,जवानों बढ़े चलो।
युगों युगों से जो सम्मानित,
होने ना पावे अपानित,
तुम्हें बचानी है पुरखों की,आन,बान और लाज।
जवानों बढ़े चलो,जवानों बढ़े चलो।।
तन माहि क्षमा मन माहि दया,
सब धारे फिरैं जगती तलमें।
जन से जन की नहि दूरी बढ़ै,
सब प्रेम करैं इस भूतलमें।
अपनापन हो सबके मनमें,
सुख शान्ति रहे जलमें थलमें।
,"कुसुमाकर"जो सब लोग चहैं
दुख दर्द मिटै सबको पलमें।
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तुझे छॉड़ि अब और किसकी सरन जाऊं,
मेरीऔर तेरी आसनाई चली जायेगी।
सोचो प्रभो होयगो ए तेरो अपमान महा
दूसरों के कान जो दुहाई चली जायेगी।
तेरे ही सहारे तीनपन ये गुजारे स्वामी,
चौथेपन में क्या ये भलाई चली जायेगी।
मेरो तो न कछू बिगरैगो न बनैगो नाथ,
तेरी तो युगों की ये कमाई चली जायेगी।
----------.
बड़ी करामाती इन चरणों की धूली नाथ,
फाकाकश को ये खुशहाल कर दे की है।
जिसे तेरे चरणों की धूली ए नसीब हुई,
उसको तो क्षण में निहा ल कर दे की है।
चरण शरण में जो" कुसुमाकर" आया,तेरी
उस रंक को ए मालामाल कर दे की है।
पग का तो प्रभु तेरे कर सकता मैं नहीं
पर पग धूली ए कमाल कर दे की है।।
उस बड़ी करामाती इन चरणों की धूली नाथ
छूते ही ये पत्थ र को नारी बना दे की है।
अधम निषाद को भी पग धो ते धो ते नाथ,
स्वर्ग लोक का ए अधिकारी बना दे की है।
पग धूली माथे लगे मन निरमल होवे,
मित्र "कुसुमाकर" दुनिया सारी बना देती है।
बड़े भाग वाले को ए सन्त सद्गुरु मिलें,
पग धूली भाग्य सुखकारी बना देती है।।
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तेरे पग धूली की तो चर्चा जहां में प्रभु,
जाने जुग जुगन से यहां दर दर है।
एक बार पत्थर को नारी बनते है देखा,
पग का ना नाथ पग धूली का अस र है
'बिना पग धो ए नाथ नाव पे चढ़ाऊं नहीं
"नारी बन जा ये," इसी बात का तो डर है।
," कुसुमाकर " दर आए वा को बंधन छुडाए,
नाथ तेरा पग,पग धूली जादूगर है।
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