समीक्षा बलजीत सिंह : “डाली का फूल”(हाइकु संग्रह), नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१७, पृष्ठ, १३६, मूल्य, रु.२५०/- सौन्दर्य का दर्पण डा. सुरेन्द्र ...
समीक्षा
बलजीत सिंह : “डाली का फूल”(हाइकु संग्रह), नमन प्रकाशन, नई दिल्ली, २०१७, पृष्ठ, १३६, मूल्य, रु.२५०/-
सौन्दर्य का दर्पण
डा. सुरेन्द्र वर्मा
बलजीत सिंह के हाइकु-संग्रह “डाली का फूल” पाकर मुझे एक सुखद आश्चर्य हुआ। हाइकुकार, बलजीत सिंह, से मेरा यह प्रथम परिचय था। बलजीत सिंह जी हरियाणा के एक छोटे से गाँव, राजपुरा, में खेतीबाडी करते हैं। लेकिन एक कृषक का ह्रदय साहित्य में भी इतनी गहराई से रम सकता है कि वह एक से बढकर एक लगभग ५०० हाइकु रचनाएं लेकर सामने आकर उपस्थित हो जाए, यह सचमुच बड़े आश्चर्य का विषय है। सामान्यत: हम किसी भी खेतीवाडी करने वाले व्यक्ति में उस ‘सोफेस्टीकेशन’ की उम्मीद नहीं करते जिसकी मांग हाइकु रचनाओं में होती है। लेकिन बलजीत सिंह खेतों में फसल उगाते उगाते साहित्य में हाइकु की फसल भी साथ ही साथ काटते चले गए, यह उनकी अनूठी प्रतिभा का उदाहरण है।
एक कृषक के नाते बलवीर सिंह को प्रकृति का भरपूर साथ मिला है। हाइकु रचनाओं में उन्होंने प्रकृति के अपने इसी साथ का भरपूर लाभ उठाया है। वह ‘अपनी बात’ कहते हुए, कहते हैं, ‘यह हमारा जो संसार है, प्रकृति का एक बहुत ही प्यारा तोहफा है। प्रकृति ने हमें रंग-बिरंगे फूल, हरी-भरी धरती, नीले नीले पर्वत, कलरव करते हुए पक्षी, इठलाती नदियाँ, गुनगुनाते झरने, लहराते सागर, आदि बहुत कुछ नि:शुल्क प्रदान किया है।’ बलजीत सिंह प्रकृति के इस अमूल्य उपहार के प्रति न केवल कृतज्ञ हैं बल्कि अपनी प्रकृति-केन्द्रित रचनाओं द्वारा प्रकृति का ऋण चुकाने की कोशिश भी करते दिख्जाई देते हैं। -
विश्व हमारा / कुदरत का एक / तोहफा प्यारा (पृष्ठ १४)
फूलों की झोली / बिखर जाने पर / बने रंगोली (१५)
गहरा राज़ / चन्द्रमा धरती का / अनोखा ताज (१८)
काली घटाएं / सावन में इनकी / देखो अदाएं (१९)
कवि प्रकृति के सौन्दर्य पर तो मुग्ध है ही, वह मानव प्रकृति को भी प्रकृति से जोड़कर उसकी काव्यात्मक व्याख्या करने से बाज़ नहीं आता। बलजीत जी का यह दृढ़ विश्वास है कि
‘प्रत्येक जीव / प्रकृति में रखता / अपनी नींव’ (३०)
जीवन डोर / प्रकृति खींचती है / अपनी ओर (२२)
यही कारण है कि जब कवि ऊपरी तौर से प्रकृति के स्वभाव का चित्रण कर रहा होता है तो वस्तुत: वह मनुष्य की प्रकृति की ओर ही संकेत कर रहा होता है। अपने एक इसी प्रकार के एक हाइकु की व्याख्या तो बलजीत जी ने ‘अपनी बात’ कहते हुए स्वयं ही की है।
डाली का फूल
नाज़ुक सी ज़िंदगी
करे कबूल
वे कहते हैं, फूल बड़ा नाज़ुक होता है। पर अनेक विपदाएं झेलने के बाद भी वह उम्मीद का दमन नहीं छोड़ता, वह प्रत्येक चुनौती को स्वीकार करता है और मुस्कुराता है। वह ज़िंदगी को कभी बोझ नहीं समझता।| कहने की ज़रूरत नहीं है, यही बात मनुष्य पर भी उतनी ही सटीक बैठती है। प्रसिद्ध अँगरेज़ दार्शनिक सेमुएल अलेक्ज़ेन्डर ने एक बार कहा था जहां हमारा वश नहीं चलता उसे एक प्राकृतिक निष्ठा (natural piety) के साथ हमें स्वीकार कर लेना होता है। फूल और आदमी दोनों को ही अपनी ‘नाज़ुक सी ज़िंदगी’ “कबूल” है।
प्रकृति के बहाने मानव स्वभाव को दर्शाती बलवीर के यहाँ अनेक हाइकु रचनाएं प्राप्त हो सकती हैं। निम्न लिखित रचनाओं में पाठक सहज ही निहित अर्थ ढूँढ़ सकता है –
हलकी फुहार / सौन्दर्य का दर्पण / देती निखार (१८)
ऊंची उड़ान / आज़ाद परिंदों की / होती है शान (१७)
नई उमंग / सागर में उछाले / जैसे तरंग (२२)
जल की धारा / अपना बनाती है / स्वयं किनारा (३१)
मस्त निगाहें / पंछी नहीं भूलते / अपनी राहें (३८)
कैसी उमंग / नदी इठलाती है / पत्थर संग (४३)
शरीर भारी / फिर भी गजराज / बना सवारी (६०)
हल्का अन्धेरा / जानवर भी खोजे / रैन बसेरा (७१)
अच्छा बहाना / लिपटती बेल का / पेड़ दीवाना (५६)
स्पष्ट रूप से ये रचनाएं बेशक मानव स्वभाव के बारे में कुछ नहीं कहतीं किन्तु इनका आशय मानव प्रकृति पर भी सहज ही आरोपित किया जा सकता है।
हमारा भारत, जैसा कि हमेशा कहा जाता है, अनेकता में एकता का देश है। अनेकता में यह एकता, या कहें एकता के साथ अनेकता, हम प्रकृति में भी आसानी से देख सकते हैं। प्रकृति की ताकत इसी में निहित है, और मानव-बल भी एकता में अनेकता में ही छिपा है –
अनोखी बात / इंद्रधनुष एक / रंग हैं सात (१५)
फूलों की माला / एकता में स्वरूप / बदल डाला (२५)
ब्रह्माण्ड एक / धरती जैसे गृह / तारे अनेक (२८)
लता है एक / उसपर खिलते / फूल अनेक (३०)
छोटा अनार / हज़ार मोतियों का / उठाए भार (५२)
भेद गहरे / एक ही सागर में / लाखों लहरें (७७)
प्रकृति है तो पर्यावरण है। प्रकृति को बचाए रखना, पर्यावरण को बचाए रखना है। पर्यावरण के बचाव का एक बहुत कारगर उपाय अधिक से अधिक पेड़ पौधों को लगाना और उनकी रक्षा करना है।
छाए बहार / आँगन में जिसके / पौधे हों चार (६६)
प्रत्येक पौधा / पर्यावरण हेतु / बना है योद्धा (७१)
पेड़ पौधों को बचाए रखने के लिए सम्यक वर्षा बहुत ज़रूरी है। वैसे भी वर्षा धरती और मनुष्य का आनंद है। यों तो हाइकु उन्होंने लगभग हर ऋतु पर रचे हैं किन्तु बलजीत जी को वर्षा से कुछ अधिक ही प्रेम और लगाव है। -
वर्षा का पानी / एक एक पौधे को / दे जिंदगानी (१७)
बरखा रानी / धरती को लुभाए / तेरी जवानी (२१)
बारिश आई / ठहरा हुआ पानी / ले अंगडाई (३८)
बेचैनी बड़ी / अम्बर पर घटा / खामोश खडी (७२)
बलजीत सिंह के हाइकु परम्परागत रूप से प्रकृति और उसके मानव सरोकारों तक ही सीमित नहीं हैं, उन्हों ने बड़े काव्यात्मक ढंग से मनुष्य और उसके सामाजिक जीवन और चरित्र का भी बखूबी चित्रण किया है। एक सार्थक जीवन के लिए वे कर्म और परिश्रम को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं –
जीवन पथ / हिम्मत से दौड़ता / इच्छा का रथ (८३)
घर चौबारे / मेहनत के रंग / सजते सारे (८४)
कष्ट हज़ार / कर्म योगी मनुष्य / माने न हार (८६)
संघर्ष सार / ज़िंदगी के सामने / मौत की हार (८७)
खून पसीना / बाजुओं की ताकत / सिखाए जीना (९२)
यह एक बड़े दुख का विषय है कि जिस समाज में आज हम रह रहे हैं, उसमें सामाजिक मूल्यों का निरंतर ह्रास होता चला जा रहा है। लोगों को अपनी नैतिक सीमाएं और मर्यादाएं तोड़ने में कोई झिझक ही नहीं रही है। जानते हुए कि यह संभव नहीं है, पैसा और हिंसा के सहारे लोग सबकुछ पा लेना चाहते हैं। -
बरछी भाले / आत्म रक्षा की चाह / मौत हवाले (१०२)
कैसी नादानी / थोड़ा सा आकर्षण / बड़ी कुर्बानी (१०७)
कष्ट कमाई / बहाकर पसीना / नींद न आई (११४)
दांव लगाना / बहते पानी पर / बर्फ ज़माना (११७)
कैसा समाज / शरीफों को ठोकर / चोरों को ताज (१२५)
कुर्सी न मेज़ / भ्रष्ट अधिकारी / नोटों की सेज (१३२)
आखिर इस सबसे छुटकारा पाने का इलाज क्या है ? बलजीत सिंह इसका इलाज एक सहज-सरल जीवन जीने तथा नैतिक मूल्यों और चरित्र में ही खोजते हैं। -
झोंपड़ी छोटी / मिलजाए जिसमें / सुख की रोटी (१०६)
भाव पवित्र / जीवन का आधार / सिर्फ चरित्र (११५)
चैन करार / प्यार मोहब्बत के / रंग हज़ार (१२७)
मिट्टी न धूल / विश्वास से महकें / रिश्तों के फूल (१३१)
बलजीत सिंह हाइकु शिल्प की लगभग सभी शर्तें पूरी करते दिखाई देते हैं। उनका हर हाइकु बिना किसी अपवाद के हाइकु की तीन पंक्तियों में ५-७-५ अक्षरों का अनुशासन पालते हुए लिखा गया है। जहां तक संभव हुआ है हर रचना में भाषा और कथ्य की एक ताज़गी है।
हाइकु मूलत: एक तुकांत कविता नहीं है लेकिन हिन्दी में जो हाइकु लिखे जा रहे हैं वे अक्सर तुकांत होते हैं। हाइकु का रायबरेली स्कूल भी हाइकु लेखन में कहीं न कहीं ‘तुक’ की वकालत करता है। पर बलजीत सिंह के सभी हाइकु पहली और तीसरी पंक्ति में आग्रह पूर्वक तुकांत हैं। मुझे लगता है, हाइकु कभी कभी सहज ही तुकांत हो जाए, तब तक तो ठीक है किन्तु उसे साग्रह तुकांत बनाकर परोसना कुछ कुछ ऐसा आभास देता है मानों “तुक’ हाइकु के शिल्प की अनिवार्यता हो, जो वह नहीं है।
जो भी हो <डाली का फूल> बलजीत सिंह का प्रथम संग्रह होते हुए भी, एक सुविज्ञ हाइकुकार का परिष्कृत संग्रह है और यह कवि से बड़ी उम्मीदें जगाता है।
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-डा. सुरेन्द्र वर्मा (मो.९६२१२२२७७८)
१, सर्कुलर रोड, १०, एच आई जी
इलाहाबाद -२११००१
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