परमपिता तू परमात्मा प्रतापी प्रभु , परम पवित्र सब तेरा कारोबार है। अलख, अनादि , अविनाशी , तू अखण्ड नाथ , ...
परमपिता तू परमात्मा प्रतापी प्रभु ,
परम पवित्र सब तेरा कारोबार है।
अलख, अनादि , अविनाशी , तू अखण्ड नाथ ,
अडिग , अगोचर , तू अगम , अपार है ॥
सर्व निवासी , दीनबन्धु , दया सिन्धु तू ही ,
तेरा ही बनाया हुआ सारा संसार है।
सबका सहारा 'कुसुमाकर' एक तू ही नाथ,
सुन्दर - सी सृष्टि का तू ही तो करतार है ॥१॥
अखिल भुवन का है पालक जगत पाल,
पल-पल करता सभी की देखभाल है।
छोटे -,बड़े सबको रिजक पहुँचाता यही ,
कीरी से करि तक ये इसका कमाल है ॥
छोड़ अभिमान जो भी इसकी शरण आये ,
एक क्षण माहि करे उसे मालामाल है।
परम दयालु है , कृपालु है, कृपा निधान ,
भक्तों को 'कुसुमाकर' करता निहाल है।।२॥
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तूहीं तो है अविनाशी , तू ही घट-घट वासी ,
तेरी ही कृपा से यह जग गुलजार है।
दीन बन्धु ,दीनानाथ , दीनों के है तू ही साथ ,
तेरी ही दया से भक्त होता भवपार है ॥
कहते हैं भक्त सन्त , तेरी है लीला अनन्त ,
जग उद्धार हेतु लेता अवतार है
'कुसुमाकर ' ' नेति - नेति' तेरा यश गाये वेद ,
तू तो है महान , तेरी महिमा अपार है।।३ ॥
पानी में न भींगे , हवा जिसको उड़ाये नहीं ,
शस्त्र से कटे न और जले न अगन में।
आदि, मध्य ,अन्त नहीं कोई ओर छोर जाको,
अटल ,असीम है जो जुगन - जुगन में।।
सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान कहलाती यही ,
सत्ता जो निवास करती है जन-जन में।
'कुसुमाकर' रूप, रंग, रेख से विहीन तो भी ,
सद्गुरु कृपा से दिखे ये इक छन में ॥४॥
महापुरुषों को प्यारा लगता पवित्र प्रेम ,
लोगों ने इसे ही परमात्मा भी माना है।
'लव इज गॉड 'कह इसकी प्रशंसा की है ,
प्रेमी ही प्रभु का दरअसल ठिकाना है ॥
जीवन सफल उसका ही कहलाता यहाँं ,
जिसने कि जगत पिता को पहचाना है ।
ऐसा पुण्यात्मा जो जाने परमात्मा को ,
'कुसुमाकर 'भक्ति ,शक्ति ,मुक्ति का ठिकाना है।५।
पल - पल परहित चित्त में बसा हो जाके ,
ऐसा परमार्थी पुरुष भाग्यवान है।
अजर, अमर है ,अछेद है ,अभेद प्रभु ,
शेष जग सारा ही नितान्त नाशवान है।
तज चतुराई, अभिमान, जो शरण आये ,
'कुसुमाकर' उसका ही होता कल्यान है |
सत्य को दिखाता और प्रभु से मिलाता यही ,
सन्त सदगुरु सारे जग से महान है। । ६ ।।
सारा जग कहता है परमपिता है एक ,
सारा संसार इस एक ने बनाया है।
इसकी ही सन्तान सभी इन्सान हैं तो ,
अपने यहाँ हैं सभी ,कोई न पराया है।
छोटा -बड़ा ऊँच - नीच कोई नहीं जग माहि ,
शरण जो आया उसे तूने अपनाया है।
धन्य-धन्य सद्गुरु धन्य-धन्य सन्तजन ,
'कुसुमाकर' जॊ भी मिला , तुझ से ही पाया है।।७॥
तुझे छोड़ नाथ और किसकी शरण जाऊँ ,
तेरे सिवा और की तॊ सोच भी न पायेंगे।
तुम हो दयालु ,दीनानाथ, कृपा सिन्धु तू ही ,
तेरे ही सहारे सारी जिन्दगी बितायेंगे।
तेरी ही कृपा से खुशहाल है ये सारी सृष्टि ,
जो भी तू ने दिया उसे शीश से लगायेंगे।
तेरा नाम लेके 'कुसुमाकर' इस दुनिया में ,
जहाँ - जहाँ जायेंगे , तेरा ही यश गायेंगे ॥८॥
धन्य-धन्य प्रभु तूने धरती बनाई खूब ,
गर्म - गर्म आग और ठण्डा मीठा पानी भी ।
जीव , आसमान , वायु कर निर्माण प्रभो !
बख्शी सभी को तूने यह जिन्दगानी भी ॥
तूने ही बनाये लाखों सूरज सितारे चाँद ,
जीवों काे दिया ये दिन -रैन सुहानी भी I
सुनने को कान , देखने को दिये नैन नाथ ,
'कुसुमाकर' पद में झुकाने को पेशानी भी ॥९॥
दुनिया की कोई धन-दौलत न जाये साथ ,
जिससे किया है प्यार काम नहीं आयेगा ।
कुटुम्ब ,कबीला , बीबी, बेटी-बेटा , माई -बाप ,
साथी औ' संहाती कोई साथ नहीं जायेगा।
घोड़ा -हाथी , मोटर -गाड़ी या होवे सवारी और ,
छूटते समय तू बहुत पछतायेगा।
अब भी है वक्त सद्गुरु की शरण आजा ,
'कुसुमाकर' भव जल पार चला जायेगा। १० ।
रूखी - सूखी कच्ची -पक्की खा के रहे अलमस्त,
भोजन पवित्र 'गर करे प्रभु ध्यान है।
बसन पुराने - फटे ,तन पर होवे भले ,
नंगे पाँव भी जो करे हरि यश गान है।
भले हो खजाना 'गर रब को न जाना धिक -
धिक् उसका ये मिष्ठान्न, पकवान है।
एक पल, एक छिन प्रभु देख यश गाया ,
'कुसुमाकर' उसकी तो महिमा महान है।।११ ॥
परमपिता ने यह जगत बनाया और ,
कण-कण , तृण-तृण माहि करे वास है।
करन करावनहार खुद परमेश्वर तू ,
जो भी है यहाँ वो सब कुछ तेरे पास है I
अंग -संग तुम हो बिराजमान आठों याम ,
रात -दिन सोते- जागते ये एहसास है।
शाहों के शहंशाह एक तुम्हीं दीनानाथ ,
'कुसुमाकर' प्रभु तेरे दासों का भी दास है।।१२ ।I
तुम्हीं है समर्थ परमात्मा निरंकार ,
जगत का कर्त्ता तू सबका आधार है।
कण-कण में है बस रहा तेरा रूप प्यारा,
तीनों काल सत्य हो तू , मिथ्या संसार है।
तूहीं घट- घट वासी , अविनाशी ,सुखराशी,
तू तो है बेअन्त, तेरी महिमा अपार है।
जग सन्तान तेरी , करो कल्यान प्रभु ,
'कुसुमाकर' दास तेरा फँसा मँझधार है ॥१३i
प्रभु तू है कारसाज, कहाँ लौं गिनाऊँ आज ,
एक से सरस एक सृष्टि ए बनाई है।
मनुज शरीर दिया , साँस दिया ,पीर दिया ,
धड़कन दिल में तुम्हीं ने उपजाई है ॥
साँस हेतु पवन , पियास हेतु पानी दिया,
अन्न, फल, फूल बना भूख भी मिटाई है।
'कुसुमाकर' सूर्य -चन्द्र का बना उजाला प्रभु ,
धूप-छाँव दे के सुख शान्ति पहुँंचाई है। ၊ १४ ॥
एक निरंकार यही जगत का कारसाज ,
पल-पल इसकी ही याद में बिताइये।
अब तक भेदभाव रहे जो समेटे , वह ,
भूल , भाईचारावाला सबसे निभाइये।।
गुण दूसरों के अपनाइये सहर्ष और ,
दुर्गुण अपने भी मन से मिटाइये।
मिल -जुल रहना ही अपना धरम होवे ,
'कुसुमाकर' सबका भला हो ये मनाइये। I१ ५ I
दूसरों को सुख - पहुँचाने का प्रयास करें ,
दूसरों से पाने की कभी न आस कीजिये।
जहाँ में सदैव दूसरों का हित चाहें ,पर ,
घर आये को कभी निराश मत कीजिये।
हर दिल में है दिलदार बसा अपना ही ,
इसका हमेशा सत्कार यार कीजिये ।
ऐसा व्यवहार जो न भाये 'कुसुमाकर' तुम्हें ,
किसी और से वो, भूल से भी नहीं कीजिये।१६।
प्यार औ' दुलार भरी वाणी हम बोलें सदा ,
मन मतवाला गुरु प्रेम माहि चूर हो।
सद्व्यवहार राखें ,आपस में प्यार राखें,
सेवा - सत्कार राखें , मद में न चूर हों।
जब सन्त मिलें , ईद-होली- सा मनायें हम ,
प्यार से लगायें गले, हरि से न दूर हों।
'कुसुमाकर' अरदास , कृपा राखो दाता खास ,
भूल से न करें भूल , ना ही मगरूर हों ॥ १७॥
जन-जन कहता है जगत पिता है एक ,
एक यही हर एक जन में समाया है।
जब हम सब एक हरि की हैं सन्तान ,
फिर कहो जन कौन यहाँ पे पराया है।
सदा परहित करें ,यह ही है धर्म महा ,
यही हर ग्रन्थ, पन्थ ,सन्तों ने बतायाहै।
गुरु वचन उर धार , आपस में करें प्यार ,
यही प्यार 'कुसुमाकर' प्रभु को सुहाया है। १८ ।'
धरम का मूल करुणा को मानते हैं लोग ,
शपथ लें ,दिल बीच करुणा बसायेंगे ।
आदमी हैं आदमी से रखेंगे हमेशा प्रेम ,
कभी किसीआदमी को नहीं ठुकरायेंगे।
उनसे सदा ही अपनापन बढ़ायें हम ,
बिछड़े हुओं को अब अपना बनायेंगे।
हर इन्सान में निहार के प्रभु का अंश ,
'कुसुमाकर' नित - नित शीश हम झुकायेंगे।। १९।।
व्याप्त चर-अचर में अविगत , अविनाशी ,
अगुन , अखण्ड , निर्गुण , निर्विकार है।
घट-घट वासी, सुखराशी है , त्रिकाल सत्य ,
अलख, निरंजन तूहीं तो निराकार है।
कण-कण में बिराजे तेरा ही अनूप रूप ,
. दीनबन्धु , दयासिन्धु जग का आधार है।
तेरे लिये नाथ 'कुसुमाकर' है खेल सब ,
मेरे लिये भवजल अगम अपार है।' २०॥
परम प्रतापी प्रभु तूही परमेश्वर है ,
अविगत, अलख , अगोचर अपार है।
सर्व निवासी तू ही ,घट-घट वासी तू ही ,
निर्गुण ,निरंजन तू , तेरा ही आधार है।
दीनबन्धु, दीनानाथ सर्वस्व तेरे हाथ ,
. .अखिल जगत का तो तू ही करतार है।
'कुसुमाकर' असमर्थ कैसे तेरा यश गाये ,
जगत पिता तू तेरी माहिमा अपार है।।२१ ॥
ऊपर निहारो प्यारे सूरज, सितारे, चाँद,
इनकी चमक इक दिन मिट जानी है।
जल , जमीं ,आग का है नीचे विस्तार देखो ,
अमर नहीं है यह सब भी तो फानी है।
वायु , जीव औरआसमान है इन्हीं के बीच ,
इनकी भी उन्हीं की सरीखी ही कहानी है।
'कुसुमाकर' ब्रह्म इन सबसे है न्यारा और ,
इनमें समाया निरंकार जो लासानी हैं।၊.२२ ।।
ईर्ष्या ,घृणा को छोड़ , क्रूरता से मुँह मोड़ ,
हृदय में निज इस प्यार को बसाइये।
दूसरों की खुशियों को छीनना तू बन्द करो ,
पीड़ितों के आँसू पोंछ प्रभु को रिझाइये।
छोड़ के कुकर्म ,सत्कर्म में लगाओ मन ,
प्रभु नाम याद कर मन हर्षाइये।
'कुसुमाकर' मिलेगा असीम आनन्द तुझे ,
गिरते हुओं को कभी प्यार से उठाइये |। २३ ।
बिना कर जिसने बनाया ए सकल जग ,
इसकी निगाह से न कोई बच पायेगा।
पल में ये चाहे तो जगत को तबाह करे ,
सोच लो जहान में न कुछ बच पायेगा।
तज अभिमान काहें ,बनता नादान ,अब ,
होगा परेशान शान बचा नहीं पायेगा. ।
अब भी समय है तू चेत जाओ 'कुसुमाकर' ,
प्रभु शरण आजा ,यह बिगड़ी बनायेगा।।२४ ॥
जब मुँह खोलें मीठे बचन ही बोलें सब ,
तन और मन भी पवित्र राखें प्यार से ।
सत्य ही को जाने और सत्य ही को माने सभी,
सत्य हो के जीवें सभी निज व्यवहार से।
सत्य के सहारे रहें ,गुरु के दुलारे रहें ,
कभी नहीं चूकें सत्य, सेवा ,सत्कार से।
'कुसुमाकर' मृदुभाषी ,गुरुदर्शनाभिलाषी ,
रिक्त हस्त गया नहीं कोई इस द्वार से। २५ ।।
सर्वसमर्थ ,सर्व शक्तिमान ,सर्वज्ञ ,
सन्तजनों का एक तू ही तो सहारा है।
शान्त है आकार , तू ही सृष्टि का सृजनहार,
तू ही सर्वाधार संसार यह तुम्हारा है।
तुम में सभी हैं और सबमें समाया तू ही ,
सबको अवलम्ब प्रभु केवल तुम्हारा है ।
श्वाँस-प्रश्वाँस माहि तेरा नाम आता रहे,
'कुसुमाकर' भूले नहीं दास ये तुम्हारा है। २६ ।
परम पवित्र प्रभु प्रेम है प्रकाशमय ,
पालन ए प्राणियों का पल-पल करता।
आये जो भी शरण सहाय होत तत्क्षण,
परम दयालु दोष पाप सब हरता।
सबका सहारा जगदीश, जगन्नाथ तूहीं ,
तूहीं निर्माता, पालनकर्ता , संहरता।
'कुसुमाकर' कैसे तेरी महिमा बखान करे ,
सकल जगत की तू झोली नित भरता। २७ ।।
पाप का है मूल घृणा अभिमान ,मान प्यारे,
छोड़ दे तू इन्हें तत्काल इसी पल में ।
सबको ही अपनाओ, सब में हरी को देख ,
छोटा-बड़ा कोई नहीं सोच तू अकल से।
गन्दगी को गन्दगी से धोता है ,धुलेगी नहीं ,
धुलो सत्य साबुन औ'ज्ञान रूपी जल से I
नर तन पाया 'कुसुमाकर' बिचार कर ,
ब्रह्मज्ञान पा गुरु से , मिल ले अचल से। २८ I
अपने स्वभाव से निकाल भेदभाव सभी ,
सारे संसार को ही अपना बनायेंगे ।
कोशिश करेंगे हिलमिल के रहेंगे सदा ,
गिरते हुओं को दे सहारा हम उठायेंगे ।
दूसरों से सद्गुण नित अपनाते रहें ,
निज कमियों को सदा मन से मिटायेंगे।
एकमात्र ख्वाहिश यही है 'कुसुमाकर' अब ,
तेरे चरणों में शेष जिन्दगी बितायेंगे | २९ ।।
सुख पहुँचा सकें सभी को सब भाँति यहाँ ,
जीवन का लक्ष्य बस एक ही हमारा हो।
जहाँ हो जरूरत सदैव उपलब्ध रहें ,
सबका मनायें मंगल निश्चय हमारा हो।
प्रभु की कृपा से हम उसका सहारा बनें ,
जो कि हो अकिंचन , लाचार , बेसहारा हो।
'कुसुमाकर' सिर पर तेरा प्रभु हाथ रहे ,
साथ रहे सबका औ' प्रेम भाव प्यारा हो। ३० ।
प्रभु तू दयालु है ,कृपालु है , कृपानिधान ,
जहाँ तेरे पाँव वहीं पर मेरा माथ है।
सुख-दुःख पाना , हानि . लाभ का उठाना प्रभु ,
यश-अपयश तेरे पास इक साथ है।
जैसे तू चलाये , वैसे चलता ही जाये स्वामी ,
मन ये हमारा याद करे तेरी गाथ है।
अच्छा हूँ बुरा हूँ 'कुसुमाकर' जो हूँ तेरा ही हूँ ,
बख्शले तू नाथ अब लाज तेरे हाथ है। ३१ ।।
जीर्ण तन -तरणी पे होके असवार चला ,
फँसा भवसागर में बड़ी तेजधार है।
कैसे बचाऊँ अब जीवन की थाती प्रभो ,
पग-पग खड़े बड़े -बड़े ठगहार हैं।
हूँ मैं असहाय नाथ करिये सहाय अब ,
'कुसुमाकर' देता दुहाई तेरे द्वार है।
चाहे तू डुबाओ ,चाहे पार लगाओ प्रभुजी ,
अब तेरे हाथों में ही मेरी पतवार है।। ३२ II
जो भी हो रहा है यहाँ , मान लो वही है सही ,
जन-जन हेतु किया जगहितकारी ने।
दाता सुखधाम के उचित ही हैं सारे काम ,
सिद्ध कर दिया इनकी ही फुलवारी ने ।
तरह-तरह के बनाये वन-उपवन ,
जीव-जन्तु 'कुसुमाकर' गगन बिहारी ने।
जहाँ डगमगाया मेरा पाँव, इस दुनिया में ,
आके मुझे थाम लिया मदन मुरारी ने ।।३३ ॥
सारे ही जहाँ की प्रभु रचना किया है तूने ,
हर एक को तू एक रूप ही बनाया है।
इक दो ही नहीं यहाँ भूला सारा आलम ही ,
आग, पानी ,वायु आदि पूजा औ' पुजाया है।
पांँच तत्व, तीेन गुण ,षट रस जोड़कर ,
सारा ही ए विश्व प्रभु तुमने बनाया है।
सबसे ही न्यारा रह सब में समाया तू ही ,
'कुसुमाकर' गुरु बिन भेद नहीं पाया है। ३ ४ ।।
प्रभु की कृपा से तुझे मानव शरीर मिला ,
इसका तो लक्ष्य परम प्रभु पाना है।
सभी योनियों में श्रेष्ठ इसको ही कहा गया,
सभी पंथ,ग्रंथ,और सन्तों ने माना है।
दुनिया में रहते हुये ही इस जीवन में ,
हर तनधारी को परम प्रभु पाना है।
'कुसुमाकर'जो भी परमात्मा को जान गया ,
उसका ही जीवन सफल यहाँ माना है। ३५ ।।
चन्द्रमा को चाहता चकोर इस भाँति कि वो ,
चन्द्रमा समझ खाय जाता है अंगार को।
कठिन कठोर काठ छेदि के रहनवाराे,
भौंरा फूल बीच बैठ तजता संसार है।
'कुसुमाकर' एक दीप के प्रदीप्त होते ही ,
जलते पतिंगे देखा लाखहूँ हजार को।
ए तो है एकंगी प्रेम,दूसरे को सार नहीं,
'बिना सद्गुरु बेड़ा जाता नहीं पार को।।३६।।
कान बिनु सुनता है सबकी हमेशा यह ,
बिना कर करता है सब कार बार ये I
पग 'बिना चलता है,घूमता ,टहलता है,
कर जाता पग बिन पर्वत पार ये।
नाक बिन सूँघे,बिना आँख सबकुछ देखे,
पेट बिन खाता,जीभ बिन रागदार ये।
बहुरुपिया अरूप रूप बदल आता है,
'कुसुमाकर' सद्गुरु लखाये सरकार ये।।३७।।
तेरे चरणों में दिन रैन कटती है नाथ ,
तेरे ही सहारे सारी जिन्दगी हमारी है।
चाहे दुःख दे दो , चाहे सुखदे दो दाता तुम ,
तूने ही तो सारी यह दुनिया सँवारी है।
दुःख भी तुम्हारा नाथ ,सुख भी तुम्हारा ही है,
जो भी दे दिया है तूने , मैंने सिरधारी है।
तेरी इच्छा पूरी होवे, इस जिन्दगानी में भी ,
'कुसुमाकर' बस यही आरजू हमारी है। I३८ ।।
जिसको सहारा इस ईश का हो प्यारे बन्धु ,
काम उसका न कहीं कोई रुक पाता है।
आधि होवे, व्याधि होवे या कोई उपाधि होवे ,
रोग दोष कोई भी ना सामने आ पाता है।
काम उसका हो रास , इसके लिए ये खुद ,
बीच में ही आ के सारा काम बना जाता है।
.'कुसुमाकर' जिसका जगत में न कोई होवे,
मदद के लिये दाता खुद चला आता है। ३९॥
सबसे है ऊँचा तेरा दर मेरे दीनानाथ ,
महिमा जहाँ में तेरी अपरम्पार है।
गुणों का तो तेरे कोई गणना न कर पाया ,
किरपा तुम्हारी दाता सब बेशुमार है।
अंग - संग देख तुझे तेरा गुण गान करें ,
पत्थर भी छू ले पद होता भवपार है।
'कुसुमाकर' कृपा से तुम्हारी पापी पूत बने ,
मूरख भी नाथ बन जाता होशियार है।।४० I।
घट- घट माहि मेरा साँवरा सलोना बसे ,
सबसे ही यार नित प्यार किया कीजिये' I
जो भी मिल जाय , धाय उसको लगायें गले ,
जो भी द्वार आये सेवा ,सत्कार कीजिये।
एक ही को जाने बस एक ही को माने हम ,
आठों याम दिलदार का दीदार कीजिये।
स्वाँस - स्वाँस इस इक का ही सुमिरन करें ,
'आये हैं शरण नाथ भव पार कीजिये।।४१ ॥
माँ को प्यारा लगता है अपना सुवन नित ,
उसके बिना ना क्षण भर रह पाती है।
अगर है प्यासा बस पानी उसे प्यारा लगे ,
भूखे को तो रोटी-रोटी रट लग जाती है।
बालक को दूध की ही याद लगी रहती है,
धन वाले को तो धन की ही याद आती है।
.'कुसुमाकर'ऐसे ही मुरीद को जगत माहि ,
अपने ही पीर की हमेशा सुधि आती है।।४२ I।
नर तन पाया जरा होश में तो आओ बन्धु ,
तेरा इस दुनिया में कोई ना संहाती है।
कहने को मित्र ,माई ,बाप, भाई ,बेटा, बेटी ,
बस तेरी जान पै अकेली चली जाती है।
माता रोये , पत्नी भी तन पीट-पीट रोये ,
उनकी न कोई फरियाद सुनी जाती है।
करम तुम्हारा 'कुसुमाकर' चले है साथ ,
प्रभु याद बिन , व्यर्थ उम्र बीत जाती है। ४३ ।।
बेटा -बेटी सगा सम्बन्धी कोई तेरा नहीं ,
ढलती हुई सी यह प्यारे इक छाया है।
माल धन महल अटारी जो भी दिख रही ,
यह सब और कुछ नहीं , झूठी माया है।
इक दिन सब को प्रयान करना है भाई ,
जो भी इस नाशवान जग माहिआया है।
.'कुसुमाकर' स्वाँस भी जो अपना समझ रहा ,
दरअसल वह भी तो माल पराया है।।४४ ।।
रब तो बसे हैं मेरे अंग - संग आठों याम,
इसमें ही रह कर जिन्दगी बिताता हूँ।
इसमें ही खाता - पीता, रोता और हँसता भी,
इसी में हूंँ जागता औं इसी में सो जाता हूँ।
स्वाँस - स्वाँस सुमिरन इसका ही करता हूँ
इसी सँग प्यार नित करता, निभाता हूँ।
लाख - लाख शुकर है मेरे सद्गुरु जी का ,
रब को बताया , इन्हें शीश झुकाता हूँ।' ४ ५ ॥
सूरज - सा ऊँचा जो बना है अभिमान माहि
वह निस दिन यहाँ तपत रहत है।
पर नीची धरती निहारो मेरे प्यारे भाई ,
हरियाली हर दर छिटकी परत है।
गरमी हो सरदी हो या कि बरसात होवे ,
यहाँ हर दर खुशहाली बगरत है।
धैर्य धारें, नम्रता ,सहनशीलता हॊ साथ ,
. गुरु कृपा .'कुसुमाकर' सन्त बिचरत है। । ४६ ।।
एक ही इशारा तेरा पा के जग सारा बना ,
तेरे ही इशारे से ये फूटी जलधारा है।
हिम्मत कहाँ ये तेरी सोच औ' विचार करूँ,
ताकत नहीं कि कहूँ दिल ये निसारा है।
काम है सुचारु वही , तेरी मरजी जो होय
जिसे तू ने प्रभु इस जग में स्वीकारा है ।
आदि में भी तू ही रहा , अन्त में रहेगा तू ही ,
'कुसुमाकर' निरंकार नाम तेरा प्यारा है। । ४७ ।
कोई - कोई लोग मानते हैं रब सूरज को ,
नहा- धो के नित्य-नित्य जलभी चढ़ाते हैं।
कोई आसमान को तो कोई माने पानी रब ,
कोई इनसान को ही रब बतलाते हैं ।
कोई श्मशान मढ़ी को ही हैं झुकाते शीश ,
कोई बट -पीपल को ही पानी. चढ़ाते हैं
'कुसुमाकर' 'जिसका पसारा ये सकल सृष्टि ,
रूप-रंग , नैन - नख्शहीन कहे जाते हैं। ४८॥
किसने बताओ तुम्हें सुन्दर शरीर दिया
किसने ये सारी सृष्टि सोच ले रचाया है।
किसने बनाये यहाँ सूरज, सितारे ,चाँद,
कैसे आसमान माहि उसको टिकाया है।
छप्पन प्रकार के ये भोजन बनाया कौन?
कहो' कुसुमाकर' तुम्हें याद कभी आया है ?
किसने दिया है अक्ल, चतुराई सोचो भला ,
मर के जाओगे कहाँ? यहाँ काहे आया है ? ४९ ।।
वृक्ष इस दुनिया में फल निज खाता नहीं ,
बस वह फलता है इस. संसार हित।.
नदियां भी अपना न जल कभी पीतीं प्यारे ,
बहतीं हमेशा वह. पर उपकार हित ।
लाखहूँ. करोड़ों प्रेमी दुःख यहाँ सहते हैं ,
अपने नहीं वो बस प्रीतम के प्यार हित।
'कुसुमाकर' सन्त सद्गुरुआते दुनिया में ,
अपने लिये ना ,बस जग उद्धार हित ॥ ५० ॥
कभी तूने बन्दे यह सोचा या बिचारा भी है ,
किसने है तुमको ए सुन्दर जवानी दी ।
जल ,अन्न ,रस , भोजन प्रदान किया ,
किसने ऐ बन्दे तुम्हें चाल मस्तानी दी ।
कभी तू ने सोचा भी है , है वो कौन मेहरबान ,
जिसने तुम्हें ये भरी पूरी धनवानी दी।
ऐश, मौज-मस्ती माहि , जनम गँवाओ नहीं ,
'कुसुमाकर' सँभालो गुरु ने ये निशानी दी ॥५१ ॥
बसुन्धरा थर-थर काँपने है लगती औ' ,
छम -छम करके ये आसमान रोता है।
धरती के ऊपर जब पाप और पापियों का ,
यहाँ बहुतायत से जो बसेरा होता है।
प्यार और नम्रता यहाँ से उड़ जाती जब ,
घृणा ,नफरत ,अभिमान ही सँजोता है।
हाहाकार जगत का सुन 'कुसुमाकर' रब ,
रूप बदल यहाँ अवतरित होता है।।५२ ।।
किसी को है मान यहाँ अपने शरीर का ही ,
सोचो वह कौन , हम सब का जो बाप है ?
जिसने रचाई यह दुनिया ही सारी प्यारे ,
यह तो बताओ कहाँ बैठा खुद आप है ?
जिसके हजारों लाखों नाम वह नामी कहाँ?
कभी सोचा रहता कहाँ ये स्वामी आप है?
कहते हैं वेद शास्त्र नाम रूप सहित है ,
सद्गुरू भेद बता मेटता सन्ताप है।।५३ ।।
परम दयालु विश्व पालक तू विश्वनाथ ,
तेरी ही बनाई सृष्टि तू ही करतार है।
सूरज ,सितारे ,चाँद निस दिन आयें - जायें ,
अग्नि, पानी, धरती का चक्र बार-बार है।
वायु,जीव , नभ भी न अचल ,अडोल कभी ,
इनसे अलग अनुपम ,निराकार है।
'कुसुमाकर' जिसका न रूप, रंग ,रेख कछु ,
बिना सद्गुरू नहीं देता जो दीदार है। ५४ ।
तेरी ये दयालुता, विशालता , कृपालुता भी ,
दीनानाथ ,दीनबन्धु नाम मशहूर है।
कपटी ,कुचाली ,क्रूर ,अधम, कुजाती भी हूँ ,
इसीलिये नाज है कि तुमसे न दूर हूँ।
आप अपना ही प्रण नाथ ये निभाये जाओ ,
शरण हूँ तेरी ,तेरा आसरा जरूर है l
सच्चा गुरु मिला तब 'कुसुमाकर' जान पाया ,
होता है वही हे नाथ! जो तुम्हें मंजूर है। I ५५ ।
गुरु का वचन दिल माहि बस गया और ,
बसते ही दिल माहि हो गया उजाला है।
दुविधायें दूर हुईं मन सन्तोष आया,
जीवन सुखद कठिनाई मिटा डाला है।
एक मान छोड़ते हजारों सम्मान मिला ,
नम्र हो चला तो बड़े ऊँचे बिठा डाला है।
'कुसुमाकर' नाम तेरा प्रभु इक याद रहे,
बाकी रहे ना रहे ये तुझ पर डाला है।।५६।।
अन्तकाल दुनिया से करेगा प्रयाण जब ,
धन- दौलत ये ना संग तेरे जायेगी।
कुटुम्ब ,कबीला, बीबी ,बेटी ,बेटा ,भाई-बन्धु,
छोड़ेंगे सभी न प्यार प्रीति काम आयेगी।
छूटे माल औ' खजाना , साथ दमड़ी न जाना ,
राज - ए - हुकूमत धरी ही रह जायेगी ।
बख्शिश वाले को न भूल 'कुसुमाकर' तू ,
वर्ना ए रूह रानी अन्त पछतायेगी।।५७॥
एक प्रभु का ही नाम लिये जा तू रात - दिन ,
पल - पल याद या की दिल में बसाये जा ।
यही है पवित्र , यही दुनिया का मित्र , मित्र ,
हो के प्रसन्न गुण इसके ही गाये जा I
एक यही पाक है ,आदि है ,बेअन्त भी है ,
इसके सहारे जीवन- नैया चलाये जा ।
'कुसुमाकर' एक के ही रंग में रंगे हों सभी ,
एक का ही ले आनन्द, एक में समाये जा ।।५८॥
रंग - बिरंगी प्रभु माया भरमाये सदा,
तेरा यश गाने ना दे , पल-पल डिगाये है।
सारा जग ढूँढ़ थके , मिला नाहि ठौर कहीं ,
तेरे दर आज नाथ , शीश ये झुकाये हैं।
तेरे द्वार आके कोई , लौटा नहीं खाली हाथ ,
. यही तेरी रीति जान तेरे दर आये हैं।
'कुसुमाकर' दीनानाथ अन्तर्यामी तुम ,
तेरे दर आके स्वामी झोली फैलाये हैं। ५९॥
सुन्दर हो रूप पाया , उस पे जवानी भी हो,
धन और दौलत भी मिली बेशुमार है ।
मिलता सलाम जिस ओर भी निकल जाये ,
हर ओर होता भी भले ही सत्कार हो।
नौकर चाकर होवें, सेज भी सुहानी होवे ,
सोता भी हो 'कुसुमाकर'पाँव पसार हो।
पुण्य दान करता हो, यश भी अपार होवे,
रब यदि जाना नहीं तो उसे धिक्कार है।६०।।
धर्म-कर्म माहि फँस वृथा ही गँवाता जन्म,
चौरासी के फन्दे में क्यूँ बार-बार जाता है।
मुक्ति की ये युक्ति कैसी?आत्मा क्या मुक्त होगी?
बेड़ी लोहे या सोने की दोनों से बँध जाता है।
व्यर्थ प्रयास साँकल -साँकल से न कटती ,
कागज के फूलों से न ऋतुराज आता है।
ज्योति अमर ज्योति मिलि बनती अमर ज्योति ,
'कुसुमाकर'सद्गुरु भेद ये बताता है। ६१ ॥
कच्ची झोपड़पट्टी है जिसका निवास सदा ,
रूखी - सूखी रोटी जो बना के नित खाता है।
सारा दिन यहाँ वहाँ मजदूरी करता है ,
जीर्ण - शीर्ण कपड़े ही वो पहन पाता है।
धन रूप हीन वह किसी को न भाता कभी ,
जहाँ -जहाँ जाता वह दुत्कारा जाता है।
प्रभु दर आके कहे 'कुसुमाकर' ऐसा जन ,
प्रभु प्यार पाके जगदीश बन जाता है ॥६२ ॥
सिकता के नींव वाले महल में रहता है,
एक बूँद का है खेल कहता जो काया है।
इस पर नर काहें अभिमान करता तू ,
सुन्दर स्वरूप सलोना गर पाया है।
रूप औ' जवानी जो है तेरी, यह माया प्यारे,
हो न मगरूर ये ढलती हुई छाया है।
जो भी गुरु कृपा से मिटाया 'कुसुमाकर' मान ,
रब का है नूर, सब के ही मन भाया है। ६३ ॥
परम पवित्र प्रभु प्रेम है प्रकाश-पुञ्ज ,
देखभाल प्राणियों का पल-पल करता।
दीन ,हीन, असहाय जन की सहाय करे ,
दुःख - दर्द, रोग -दोष, भय - भ्रान्ति हरता I
भूलेहुँ जो तेरा नाम एक बार लिया नाथ ,
उसका तो जीवन निहाल तू है करता।
सद्बुद्धि दे के सद्मार्ग पे लगाता उसे ,
'कुसुमाकर' उसको बनाता संस्करता।। ६४ ॥
जहाँ मौत की ए राह कठिन कराल लगे ,
चारों ओर धुन्ध है , गुबार है ,अँधेरा है।
ज्ञान की जो ज्योति तेरे पास है परम प्रिय ,
मारग सुगम और रौशन तेरा है।
कारूँ औ' सिकन्दर खाली हाथ इस राह गये,
सद्गुरु बिना कोई साथी नहीं तेरा है।
माटी की ए काया 'कुसुमाकर' माटी मिल जाये ,
ब्रह्मज्ञान पाया , होना फिर नहीं फेरा है।।६५।।
आखिरी समय जब दुनिया से जायेगा तू ,
यमराज दुनिया के नाते-रिश्ते तोड़ेगा I
धन- यौवन, हुस्न - जवानी साथ जानी नहीं ,
साथी -संहाती भी तो मुँह तुझसे मोड़ेगा।
बुद्धि , बल, चतुराई , काम नहीं आनी भाई ,
रेत का महल तेरा इक झोंका तोड़ेगा।
नाम - सरोवर 'कुसुमाकर'डूबकर देखो ,
मिलेगा आनन्द फिर कभी नहीं छोड़ेगा।।६६ I |
खाने, पीने, पहनावे पर किसी के ऐ बन्धु ,
नफरत करता क्यूँ , जिद निज छोड़ दे।
फूलता - फलता किसी को देखकर के तू,
मन - मन जलना ऐ मित्र , जल्द छोड़ दे।
जात-पाँत तो सिर्फ कीचड़ जहाँ में मित्र !
अपना सुवस्त्र इसमें भिंगोना छोड़ दे।
'कुसुमाकर' तज चतुराई गुरु शरण आ ,
नाता निज निर्लेप प्रभु सँग जोड़ दे।।६ ७॥
इस संसार में लड़ाई और झगड़े हैं ,
दंगे औ' फसादों की तादात बढ़ी जाती है I
बैर- विरोधों से भरी हुई ए दुनिया है,
हर ओर चीख फरियाद बढ़ी जाती है |
आपस में बाँस - सा रगड़ सड़ जाते लोग ,
लड़ने व मरने की धुन चढ़ी जाती है।
'कुसुमाकर' एक ही पिता है गर बोध होवे,
गुरु की कृपा से सारी बात बन जाती है। । ६८॥
कई गुरु बैठे यहाँ गद्दियाँ सँभाले हुये ,
आने वाले चेलों से ये माथा टिकवाते हैं၊
यदि कोई ईश्वर की बात पूछता है तो वे ,
बातों ही बातों माहि उनको टरकाते हैं।
भेष बना कर नित नये - नये चेले फाँसें,
माल पराया बैठे-बैठे गटकाते हैं।
खुद भी वो डूबे और चेलों को डुबायें साथ ,
फँस जन्म- मरण में बार - बार आते हैं। I६९॥
सारी दुनिया ही यह एक वश तेरे नाथ-
पर तू तो भक्तों के वश करतार है।
जिसका करे तू पक्ष , उसका सभी दें साथ ,
उस बन्दे की तो बस मौज बहार है।
जिस पे प्रसन्न हो तू , काम सब बन जाये ,
उसको तू बख्श देता नाम भण्डार है।
अपना किया तू आप जानो मेरे करतार ,
'कुसुमाकर' करता प्रणाम बारम्बार है। ७०॥
जर्रे - जर्रे बीच तेरी सूरत दिखायी देत ,
पत्ते - पत्ते पर तेरा लिखा हुआ नाम है।
इधर -उधर चारों ओर तू नजर आये ,
हाथ जोड़ 'कुसुमाकर' करता प्रणाम है।
गंगा में पवित्रता तू , खुशबू है चन्दन में ,
रवि में समाया बन तेज, तप ,घाम है।
सौन्दर्य फूलों में है , कला ,कौशल, मति तू ही,
कलियों में नाजुकता ललित ललाम है। ७१ ॥
रंग, रूप ,रेख से हो न्यारे, मन, बुद्धि, अक्ल,
तेरे पास तक कभी पहुँच न पाती है।
शाहों के हो शाह तुम , अनन्त अथाह प्रभु ,
जुग-जुग तारे पापी , बड़ा करामाती है।
आदि ,अनादि ,सर्वव्यापी , घट -घट वासी ,
तू ही नाम , नामी , जान दुनिया न पाती है ।
जीव- जन्तु पालनहार , 'कुसुमाकर' प्राणाधार,
लाखहूँ प्रणाम प्रभु दिन और राती है। । ७२ ॥
यदि सच पूछो तो ये सारी दुनिया ही बन्धु ,
इसके ही बलबूते पर यहाँ चलती ।
सृष्टि सारी दुनिया की एक साथ इसके ही ,
दर पर रह कर ही है सदा पलती।
पातालों में बसे हुओं को भी यही देता रोजी ,
इसकी जिम्मेदारी में है होती नहीं गलती।
आज्ञा बिन राई शैल तिल भर सरके ना ,
'कुसुमाकर' गुरु बिनु, समस्या न टलती। ७३ ॥.
तेरे इक इशारे पर आलम ये सारे बने ,
तेरे ही इशारे फूटे जल के ये धारे हैं।
बीज से निकाले अंकुर , हरी - हरी पत्तियाँ भी,
लताओं के ऊपर करीने से सँवारे हैं।
कलियों में सुगन्ध , भाँति - भाँति के भरे ये रंग ,
कली से बने ए फूल तेरे ही इशारे हैं।
फूल से बनाये फल जीव जन्तुओं के हित ,
दयानिधि 'कुसुमाकर' तेरे ही सहारे हैं।।७४ ॥
लाखों लोग तप करें , लाखों करें पूजा तेरी ,
लाखों इबादत ,मुहब्बत और प्यार हैं।
लाखों वेद ग्रन्थों का करते हैं पाठ नित ,
लाखों जोगी हो उदासी छोड़े घर बार हैं।
लाखों चुपचाप हैं लगा समाधि ध्यान करें ,
धन वाले लाखों करें दान हर बार है।
'कुसुमाकर'तेरे सिवा कुछ भी न रहना है ,
आदि अन्त तक इक तू ही निरंकार है ॥७५ ॥
अगणित नाम तेरे , अगणित स्थान प्रभु ,
सोच भी सकें न जहाँ, ऐसे भी जहान हैं।
दास तुच्छ बुद्धि यह , कहाँ लौं प्रकाश करे ,
इसीलिये शान्त बैठा बन अनजान है।
सर्वसमर्थ प्रभु , इतनी तो कृपा करो ,
मेट दो ये व्यर्थ मान और अभिमान है।
मन ,बच, कर्म से हमेशा सन्त सेवा करें ,
साँस - साँस करें प्रभु , नित तेरा ध्यान है।।७६॥
सत्य ,धैर्य धार कर तेरे ही सहारे नाथ ,
साधु रह दुनिया में कमल से न्यारे हों।
तेरे बीच खायें- पीयें , बीच ही निवास करें ,
निर्मल गंगा जल- सा हों , और तेरे प्यारे हों।
हिन्दू ,सिख, ईसाई औ' न , मुस्लिम भेद मानें ,
ऊँचा हो के नीचा समझें हरीच्छा सहारे हों।
सर्व निवासी सन्त सद्गुरु शरण रहें ,
'कुसुमाकर' हर साँस तुझको पुकारे हों॥७७॥
त्रिलोकी का मालिक है , स्वामी यही करतार,
युग-युग आप यह भरता भण्डार है।
दया जो दयालु करे , जग माहि आके खुद ,
लाख हूँ करोड़ों पापी कर देता पार है।
आप ही बनाये इसे , और आप देखे खुद,
सारे जहान का तो यही सृजनहार है।
इसी को प्रणाम करूँ ,'कुसुमाकर' नमन भी ,
एक खला का राजा है सच्ची सरकार है।।७ ८॥
निर्धन का है धन एक तूहीं दाता यहाँ ,
माल खजाना उसका इक तेरा नाम है।
जिस बेघर का नहीं कोई घर यहाँ पर,
उसका तो - ठौर ठिकाना तेरा नाम है।
सारी दुनिया का दाता , देता यहाँ दान नित ,
सब के दिलों की जाने अन्तर्यामी नाम है।
तेरी प्रशंसा करूँ मेरे बस की बात नहीं
गुरू की है बख्शिश और तेरा काम है। I७९॥
दुःखों का ये मारा बन्दा फिरता है दर-दर ,
यहाँ चिल्लाता और करता फरियाद है।
याद नहीं करता है मालिक को जिसने कि
किया पल-पल रक्षा और इमदाद है।
नश्वर से प्रीति लगा इसमें ही उलझा है ,
बाकी और क्या है यह कुछ भी न याद है ।
'कुसुमाकर' यूँही बन्दा , झेल रहा कई जन्म ,
कर दो कृपालु कृपा , ये तो बर्बाद है।' ८०॥
तुम्हीं हो हमारे नाथ , मालिक भी, खालिक भी,
तुझ आगे दास कर रहा अरदास है।
तन, मन, धन सब तेरी दी हुई है दात,
अर्पण तुझको ही यह सारी रास है।
तूहीं सबका है माई -बाप इस दुनिया में ,
बाल-बच्चे तेरे हम, तेरी ही तो आस है।
तू है ऊँचा सबसे ऊँचा , तेरा ही सहारा है ,
स्वामी 'कुसुमाकर'तेरे दासों का भी दास है | ८१ ॥
ऊँचा सबसे है दर तेरा मेरे मालिक तू ,
सबसे दयालु कृपा सागर अपार है ।
गुण तेरे गिनती से बाहर हैं दीनानाथ ,
तेरी महिमा का प्रभु कोई ना शुमार है।
निस दिन गाये गुण , अंग - संग देख तुझे ,
पापी भी पुनीत बने , मूर्ख होशियार है।
दासों का भी दास हो रहे जो इस जग माहि,
'कुसुमाकर' बलिहारी जाता बार- बार है।।८२ ॥
पतितों को परम पुनीत करे नाम तेरा ,
परम पवित्र परमात्मा हमारे तुम ।
जिसका हो बैरी सारा जग ही परम प्रभु ,
उसके तो यहाँ एक मात्र रखवारे तुम ।
दीन- दुखियारों और किस्मत के मारों के हो,
'कुसुमाकर' धरती पे एक ही सहारे तुम ।
कृपा दृष्टि जिस पर कर दे कृपालु नाथ ,
कर देते उसके जहाँ में वारे-न्यारे तुम।।८३ ॥
गुरुकी कृपा से गुरुसिखों को आराम मिले ,
मेहर गुरु की काम बिगड़े बनाती है।
गुरु सिख निहाल करे , उसे मालामाल करे,
सारे ही भुलेखे और भरम मिटाती है।
भय मुक्त करती है , सारे दुःख हरती है ,
मेहर गुरू की रसना पे बस जाती है।
किस्मत वाला 'कुसुमाकर' गुरु कृपा पात्र ,
खुद गुण गाती तू ही 'तू ही बुलवाती है। । ८४॥
नाम के समान दुनिया में कुछ और नहीं ,
नाम के ही कारण तो नामी की बड़ाई है ।
तुम हो अनन्त प्रभु रचना तुम्हारी खूब ,
नाम कण-कण में न नाम बिना राई है।
सूरज, सितारे, चाँद नाम से चमक पाये,
तेरी ही प्रभु ए लीला नाम की रचाई है।
गोचर. - अगोचर प्रकट -गुप्त जो भी जग ,
'. कुसुमाकर' लीला तेरी नाम में समाई है। ८५ ॥
जिसकी दी दातों को बरत रहा हरदम ,
दाता को भी 'गर पहचान नहीं पायेगा।
मालिक से ओझल हो जो भी कर्म करेगा तू ,
सब है हराम ,इसका तू दण्ड पायेगा।
साधु की शरण 'कुसुमाकर' न आया 'गर ,
ज्ञान बिना बन्दे तू चौरासी माहि जायेगा।।८६॥
सब जनआपस में प्यार से रहें जो मित्र ,
. यह निज धरती ही स्वर्ग बन जायेगी।
साँझे के पिता की सन्तान सब भाई-भाई ,
'बसुधैव कुटुम्बकम्' यहीं दिख जायेगी ।
अन्तर्मन जो पवित्र होवें सब ही के ,
तब तो सुमति सहमति बन जायेगी।
दिल में आनन्द 'कुसुमाकर' भर जायेगा ही -
परहित हेतु जो जवानी काम आयेगी।।८७॥
जगत पिता तो सारे जग का पिता है एक,
इस एक ने ही जीव जगत बनाया है।
करके कृपा कृपालु नर तन तुझे दिया,
. बिना जाने हुये इसे पशु -सा बिताया है।
पूरे गुरु से जो मिल , पिता पहचान जाये ,
फिर तो हरेक में पिता का रूप पाया है।
'कुसुमाकर' उसी का जनम है सफल यहाँ,
जिसे गुरु आज्ञा में - रहना ही भाया है । । ८८॥
घट - घट माहि मेरा साँवरा सलोना बसा ,
इसे देख हर एक से ही प्यार कीजिए।
हर एक माहि इस एक को निहार प्यारे,
हर एक का ही सत्कार किया कीजिए।
गुण नित प्रति इस एक के ही गायें हम ,
नित इसी एक का दीदार किया कीजिए।
'कुसुमाकर' इसी एक सँग जोड़ नाता निज ,
जगत का बेड़ा यह पार कर लीजिये।' ८ ९॥
परम दयालु परमात्मा ए निरंकार,
गुणों से परे है पर हर गुण वाला है।
रहने को तो यह हर शै माहि रहता है,
रहता ए हर शै से परन्तु बाला है।
अपनी ही मरजी से होता है प्रकट यह ,
अपनी ही मरजी से ये छुपने वाला है।
रंग-बिरंगी कुदरत इस लीलाधारी की है,
'कुसुमाकर' समझे जो इसे , भागों वाला है।।९०॥
अन्तकाल दुनिया से करेगा प्रयाण जब ,
धन दौलत ये तेरे सँग नहीं जायेगी।
जिस दुनिया से तू ने प्रीति है लगायी प्यारे ,
अन्त समय ये तेरे काम नहि आयेगी।
कुटुम्ब कबीला, यह बीवी, बच्चे संगी साथी,
मालिक बना है मालिकी ये चली जायेगी।
'कुसुमाकर' क्षमाशील दाता बिसरायेगा जो ,
उसकी तो बेड़ी चौरासी में ही जायेगी।।९१॥
फूल कभी परवाह करता नहीं है बन्धु ,
साथ में खड़े हुये नुकीले तेज खारों की।
ऐसे ही ये भक्तजन , जग में स्वतन्त्र रहें,
तनिक न परवा करें , दुनिया दारों की।
चन्दन न खुशबू त्यागे बस बँसवारी में ,
मुरगावी परवा करे न जलधारों की।
'कुसुमाकर' आती- जाती साँसों में है हरिनाम ,
अब तो न परवा मायाबी अत्याचारों की। । ९ २॥
कण - कण माहि तेरा रूप है सलोना प्रभु,
हर डाली, फूल, पात पर तेरा नाम है।
आगे -पीछे, ऊँचे - नीचे तू ही तू दिखायी देता,
तैरी मनसा बिना ना होता कोई काम है ।
चन्दन में, फूलों में हैं बन के सुगन्ध बसा,
चन्द्रमा में शैत्य, रवि में तू तेज ,घाम है।
'कुसुमाकर' कलियों में कोमलता बन बसा,
सारे जग माहि तेरा रूप अभिराम है।।९३ ।।
दाता खुद जाने इसे जानना सुगम नहीं ,
देता रहता ये सारे जग को ही दात है।
बात यह निज मुख कहता है कोई - कोई ,
वैसे तो ये लेती दात सकल जमात है।
मिलता वही है सबको जो यह चाहता है,
मिलता जो कहता , कहे सो मिल जात है।
'कुसुमाकर' हस्ती पाक ,सर्वव्यापी निरंकार ,
प्रभु जो भी चाहे सो हो, मेरी क्या बिसात है । ९४॥
घट-घट अन्दर है एक यही करतार,
यह जानकर प्यार सबसे ही कीजिये।
यही एक हर घट माहि है विराजमान ,
यही जान सबका ही सत्कार कीजिये।
गुण गायें नित इसी एक का ही जग माहि,
हर क्षण इसका दीदार यार कीजिये ।
श्वाँस-श्वाँस इसी एक का ही होवे सुमिरन ,
'कुसुमाकर' इस को बिसार मत दीजिये। । ९५॥
परम दयालु प्रभु जगत हितैषी तू ही,
तूहीं ने ये देह दे के जग प्रकटाया है।
साँस हेतु वायु औ' पियास हेतु पानी बना ,
अन्न ,फल ,फूल दे के भूख भी मिटाया है।
धरा पे निवास , चाँद -सूर्य का प्रकाश दिया,
रात- दिन बना सब सुख पहुँचाया है।
ऐसे सुख खान की न करे पहचान जो भी ,
'कुसुमाकर' उसका दुर्भाग्य ही कहाया है। I९६॥
रस बन जल में, प्रकाश शशिभानु में तू,
बसुधा में गन्ध बन करके समाया है।
तेज अगिनी में तू ही ,शीतलता चन्द्रमा में ,
वायु में प्रकोप ,शब्द नभ में गुँजाया है।
कोमलता पुष्प में , पवित्रता तू गंगा में है ,
सब प्राणियों में मकां तुमने बनाया है।
'कुसुमाकर' जीव -जन्तु की है क्या बिसात नाथ,
तूने ब्रह्मा बिष्णु महेश को नचाया है। I९७॥
जिस ज्योति का है अंश तू तो उसको जान ले ,
जिसकी दी दातें बरते उसे पहचान ले।
मालिक से ओझल हो कर्म जो करेगा बन्दे ,
सब है हराम , दण्ड भरेगा ये जानले।
साधु की शरण न आया नित्य धक्के खायेगा ,
बचना अगर तुझे गुरु से ये ज्ञान ले ।
'कुसुमाकर' काम कोई भी नहीं है मुश्किल ,
मिट जाये आना-जाना मन में जो ठानले। ९८॥
जब जागूँ तब तेरा नाम ही जुबाँ पे होवे,
जब सोऊँ तब तेरा ध्यान कर पाऊँ मैं,
जन - जन तेरे ही बनाये हुये जग में हैं ,
उन सब को गले से नित लगा पाऊँ मैं ।
तेरी बख्शिश दाता , सिर पर हाथ तेरा ,
सन्त हर दर मिलें जहाँ - जहाँ जाऊँ मैं ।
तेरे चरणों में 'कुसुमाकर' गुजर होवे ,
सद्गुरु नाम लूँ, तेरा ही यश गाऊँ मैं । । ९९॥
सिर को झुकाया , अभिमान को गँवाया नाथ,
तेरे चरणों में जन जो भी यहाँ आ गया।
बिगड़ी बनाया उसे रब से मिलाया तूने,
जो भी दीन हीन रहा मन तेरे भा गया।
सोतों को जगाया तूने , रोतों को हँसाया और,
जिसको उठाया वह जग माहि छा गया।
'कुसुमाकर' हारा , तेरे सिवा ना सहारा कोई,
सब कुछ छोड़ तेरी शरण में आ गया।।१००॥
(उद्गार)
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