(पिछले अंक 4 से जारी...) 3 बंगाल में जैनधर्म किन्हीं विद्वानों की दृष्टि से जैनधर्म का आदि और पवित्र स्थान मगध और पश्चिम बंगाल समझा जाता है...
(पिछले अंक 4 से जारी...)
3 बंगाल में जैनधर्म
किन्हीं विद्वानों की दृष्टि से जैनधर्म का आदि और पवित्र स्थान मगध और पश्चिम बंगाल समझा जाता है। एक समय बंगाल में बौद्धधर्म की अपेक्षा जैनधर्म का विशेष प्रचार बतलाया जाता है। वहाँ के मानभूम, सिंहभूम, वीरभूम और बर्दवान जिलों का नाम- करण भगवान महावीर और उन के वर्धमान नाम के आधार पर ही हुआ है। जब क्रमश: जैनधर्म लुप्त हो गया तो बौद्धधर्म ने उस का स्थान ग्रहण किया। बंगाल के पश्चिम हिस्से में जो सराक जाति पाई जाती वह जन श्रावकों की पूर्वस्मृति कराती है। अब भी बहुत से जैन मन्दिरों के ध्वंसावशेष, जनमूर्तियाँ, शिलालेख वगैरह जैन स्मृति चिह्न बंगाल के भिन्न-भिन्न भागों में पाये जाते हैं। श्रीयुत के. डी. मित्रा की खोज के फलस्वरूप सुन्दरवन के एक भाग से ही दस जैनमूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। बाँकुरा और वीरभूम जिलों में अभी भी प्राय: जैन प्रतिमाओं के मिलने का समाचार पाया जाता है। श्री राखलदास बनर्जी ने इस क्षेत्र को तत्कालीन जैनियों का एक प्रधान केन्द्र बताया था। सन् १९४० में पूर्वी बंगाल के फरीदपुर जिले के एक गाँव में एक जैनमूर्ति निकली थी जो २ फीट ३ इंच की है। बंगाल के कुछ हिस्सों में विराट जैनमूर्तियाँ भैरव के नाम से पूजी जाती हैं। बांकुड़ा मानभूम वगैरह स्थानों में और देहातों में आज- कल भी जैनमन्दिरों के ध्वंसावशेष पाये जाते हैं। मानभूम में पंच कोट के राजा के अधीनस्थ अनेक गांवों ने विशाल जैनमूर्तियों की पूजा हिन्दू पिरोहित या ब्राह्मण करते हैं। वे भैरव के नाम से पुकारी जाती हैं, और नीच या शूद्र जाति के लोग वहाँ पशुबलि भी करते हैं। इन सब मूर्तियों के नीचे अब भी जैनलेख मिल जाते हैं। इस प्रकार की एक लेखयुक्त मूर्ति स्व, राखलदास बनर्जी पंचकोट के महाराजा के यहाँ- से ले गये थे।
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शान्तिनिकेतन के आचार्य क्षितिमोहन सेन' लिखते हैं -
'परीक्षा करने से बंगाल के धर्म में, आचार में और व्रत में जैन- धर्म का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। जैनों के अनेक शब्द बंगाल में प्रचलित हैं। प्राचीन बंगाली लिपि के बहुत से शब्द विशेष तौर से युक्ताक्षर देवनागरी के साथ नहीं मिलते, रपरन्तु प्राचीन जैन-, लिपि से मेल खाते हैं।
४ गुजरात में जैनधर्म
'गुजरात के साथ जैनधर्म का सम्बन्ध बहुत प्राचीन है। २२वें तीर्थङ्कर श्रीनेमिनाथ ने यहीं के गिरनार पर्वत पर जिनदीक्षा लेकर मुक्तिलाभ किया था। यहाँ की ही वल्भी नगरी में वीर निर्वाण सम्वत् ९९३ में एकत्र हुए श्वेताम्बर संघ ने अपने आगमग्रन्थों को व्यवस्थित कर के उन को लिपिबद्ध किया था। जैसे दक्षिण भारत में दिगम्बर जैनों का प्राबल्य रहा है, लगभग वैसे ही गुजरात में श्वेताम्बर जैनों का प्राबल्य रहा है।
गुजरात में भी अनेक राजवंश जैन धर्मावलम्बी हुए हैं। राष्ट्र- कूटों का राज्य भी गुजरात में रहा है। गुजरात के संजान स्थान से प्राप्त एक शिलालेख में अमोघवर्ष प्रथम की प्रशंसा की गई है तथा अमोघवर्ष के श्रीजिनसेन ने अपनी जयधवला टीका की प्रशस्ति में अमोघवर्ष का उल्लेख गुर्जरनरेन्द्र'' नाम से किया है। इस से स्पष्ट है कि अमोघवर्ष ने गुजरात पर भी शासन किया और उस के राज्य में जैनधर्म खूब फूला फला।
राष्ट्रक्रूटों के हाथ से निकलकर गुजरात पश्चिमी चालुक्यों के अधिकार में चला गया। फिर चावडावंशी वनराज ने इसपर अपना अधिकार कर लिया। इस वनराज का लालनपालन एक जैनसाधु की देखरेख में हुआ था।-जिस के प्रभाव से यह जैनधर्मी हो गया। जब इस राजा ने अणहिलवाड़ा की स्थापना की तब उस में जैनमन्त्रों का ही उपयोग किया गया था तथा इसने एक जैन-मन्दिर भी उस -नगर में बनवाया था। चावडावंश से निकलकर गुजरात पुन: चालुक्यों के अधिकार में चला गया। ये लोग भी जैनधर्म पालते थे। इन के प्रथम राजा मूलराज ने अणहिलचाड्रा में एक जैनमन्दिर का निर्माण कराया। भीम प्रथम के समय में उस के सेनापति विमल ने आबू पर्वतपर प्रसिद्ध जैनमन्दिर बनवाया जिसे विमलवसही' दुहते हैं। सिद्धराज जयसिंह बहुत प्रसिद्ध राजा हुआ है। इसपर जनाचार्य हेमचन्द्र का बड़ा प्रभाव था। इस के नाम पर आचार्य ने अपना सिद्धहेम व्याकरण रचा।। यद्यपि इसने जैनधर्म को अंगीकार नहीं किया, किन्तु आचार्य के कहने से सिद्धपुर में महावीर स्वामी का मन्दिर बनवाया और गिरनार पर्वत की यात्रा भी की।
जयसिह के बाद कुमारपाल गुजरात की राजगद्दीपर .बैठा। इसपर, हेमचन्द्राचार्य का बहुत प्रभाव पड़ा और इसने धीरे-धीरे- जैनधर्म स्वीकार कर लिया। इस के बाद इस राजा ने मांसाहार और शिकार का भी त्याग कर दिया, तथा अपने राज्य में भी पशुहिंसा, मांसाहार और मद्यपान का निषेध कर दिया। कसाइयों को तीनवर्ष की आय पेशगी दे दी गई। ब्राह्मणों को यज्ञ में पशु के बदले अनाज से हवन करने की आज्ञा दी। इसने अनेक जैनतीर्थों की यात्रा की अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया। इस के समय में आचार्य हेमचन्द्र ने अनेक ग्रन्थों की रचना की।
चालुक्यों के अस्त होने पर १३ वीं शताब्दी में बघेलों का राज्य हुआ। इनके समय में वस्तुपाल और तेजपाल नामक जैन मंत्रियों ने आबू के प्रसिद्ध मन्दिर बनवाये तथा शत्रु जय और गिरनार पर भी जैनमन्दिर बनवाये। इस प्रकार गुजरात में भी राजाश्रय मिलने से जैनधर्म की बहुत उन्नति हुई।
इस तरह भगवान महावीर के पश्चात बिहार, उड़ीसा तथा गुजरात वगैरह में लगभग २००० वर्ष तक जैनधर्म का खूब अभुदय हुआ। इस काल में अनेक प्रभावशाली जैनाचार्यों ने अपने उपदेशों और शास्त्रों के द्वारा जैनधर्म का प्रभाव फैलाया। अकेले एक समन्तभद्र ने समस्त भारत में घूम-घूमकर-अनेक राजदरबारों
को अपनी वक्तृत्व शक्ति और प्रखर तार्किक बुद्धि से प्रभावित किया था। अन्य प्रांतों में भी पाये जाने वाले जैन स्मारकों से जैनधर्म के विस्तार का सबूत मिलता है।
५ राजपूताने में जैनधर्म
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स्व० ओझा जी ने अपने 'राजपूताने के इतिहास में लिखा है कि-'अजमेर जिले के वर्ली नामक गाँव में वीर संवत ८४ (वि० स० ३८६ पूर्व-ई० सं० ४४३ पूर्व) का एक शिलालेख मिला है जो अजमेर के म्यूजियम में सुरक्षित है। उस पर से यह अनुमान होता है कि अशोक से पहले भी राजपूताने में जैनधर्म का प्रसार था। जैन लेखकों का यह मत है कि राजा सम्प्रति ने, जो अशोक का वंशज था, जैनधर्म की खूब उन्नति की और राजपूताना तथा उस के आसपास के प्रदेश में भी उसने अनेक जैन मन्दिर बनवाये। वि.सं० की दूसरी शताब्दी में बने मथुरा के कंकाली टीला के जैन स्तूप से तथा वही के कुछ अन्य स्थानों से प्राप्त प्राचीन शिलालेखों और मूर्तियों से मालूम होता है कि उस समय राजपूताने में भी जैनधर्म का अच्छा प्रचार था।
जैनियों की प्रसिद्ध-प्रसिद्ध जातियों, जैसे ओसवाल, खण्डेलबाल, बघेरवाल, पल्लीवाल आदि का उदय स्थान राजपूताना ही माना जाता है। चित्तौड़ का प्रसिद्ध प्राचीनतम कीर्तिस्तम्भ जैनों का ही निर्माण कराया हुआ है। उदयपुर राज्य में केशरियानाथ जैनों का प्राचीन पवित्र स्थान है जिस की पूजा वन्दना जैनेतर भी करते हैं। 'राजपूताने में जैनों ने राजत्व, मत्रित्व और सेनापतित्व का कार्य जिस चतुराई और कौशल से किया है उससे उन्हें राजपूताने के इतिहास में अमर नाम प्राप्त है। राजपूताने ने ही हुँढारी हिन्दी के कुछ ऐसे धार्मिक जैन विद्वानों को पैदा किया जिन्होंने संस्कृत और' प्राकृत भाषा के ग्रन्थों पर हिन्दी में टीकाएँ लिखकर जनता का भारी उपकार किया। राजपूताने के जैसलमेर, जयपुर, नागौद, आमेर आदि स्थानों में प्राचीन शास्त्र भंडार हैं।
६ मध्यप्रान्त में जैनधर्म
मध्यप्रान्त का सब से बड़ा राजवंश कलचूरि वंश था जिस का प्राबल्य आठवी नौवीं शताब्दी में बहुत बढ़ा।
ये कलचुरि नरेश प्रारम्भ में जैनधर्म के पोषक थे। कुछ शिलालेखों से ऐसा उल्लेख मिलता है कि कलभ्र लोगों ने तमिल देशपर चढ़ाई की थी और वहाँ के राजाओं को परास्त कर के अपना राज्य जमाया था। प्रोफेसर रामस्वामी आयंगर ने सिद्ध किया है कि ये कलभ्रवंशी राजा जैनधर्म के पक्के अनुयायी थे। इन के तमिल देश में पहुंचने से वहाँ जैनधर्म की बड़ी उन्नति हुई । इन कलभ्रों को कलचूरिवंश की शाखा समझा जाता है। इन के वंशज नागपुर के आसपास अब भी मौजूद है जो कलार कहलाते हैं। ये कभी जैन थे। मध्यप्रान्त के कलचुरि नरेश जैनधर्म के पोषक थे। इस का एक प्रमाण यह भी है कि इन का राष्ट्रकूट नरेशो सें घनिष्ठ सम्बन्ध था। दोनों राजवशों में अनेक विवाह-सम्वन्ध हुए थे 1 और राष्ट्रकुट- नरेश जैनधर्म के उपासक थे।
कलचुरी राजधानी त्रिपुरी और रतनपुर में अब भी अनेक प्राचीन जन मूर्तियां और खण्डहर विद्यमान हैं।
इस प्रान्त में जैनों के अनेक तीर्थ हैं-बैतूल जिले में मुक्तागिरि, सागरजिले में दमोह के पास कुण्डलपुर और निमाड़ जिले में सिद्धवर क्षेत्र अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के लिये भी प्रसिद्ध है । भेलसा के समीप का वीसनगर' जैनियों का बहुत प्राचीन स्थान है । शीतलनाथ तीर्थंकर की जन्मभूमि होने से वह अतिशय क्षेत्र माना जाता है.। जैनग्रन्यों में इसका नाम भद्दलपुर पाया जाता है।
बुन्देलखण्ड में भी अनेक जैनतीर्थ हैं जिन में सोनागिर, देवगढ' नयनागिर और द्रोणगिरि का नाम उल्लेखनीय है। खजुराहो के प्रसिद्ध जैन मन्दिर आज भी दर्गनार्थियों को आकृष्ट करते हैं। सतरहवीं शताब्दी से यहाँ जैनधर्म का हास होना आरम्भ हुआ। जहाँ किसी समय लाखों जैनी थे वहाँ अब जैनधर्म का पता जन मंदिरों के खण्डहरों और टूटी-फूटी जैनमूर्तियों से चलता है।
७ उत्तरप्रदेश में जैनधर्म
उत्तर प्रदेश में जैनधर्म का केन्द्र होने की दृष्टि से मथुरा का नाम उल्लेखनीय है। यहां के कंकाली टीले में जो लेख प्राप्त हुए हैं वे ई० पू० दूसरी शताब्दी से लेकर ई०स० ५वीं शताब्दी तक के हैं, और इस तरह ये बहुत प्राचीन हैं। इन से पता चलता है कि इतने पुल. काल तक मथुरा नगरी जैनधर्म का प्रधान केन्द्र थी। जैनधर्म के इतिहास पर इन शिलालेखों में स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। इन से पता चलता है कि जैनधर्म के सिद्धान्त और उस की व्यवस्था अति प्राचीन हे। यहाँ के प्राचीनतम शिलालेख से भी यहाँ का स्तूप कई शताब्दी पुराना है इस के सम्बन्ध में फुहरर सा० 'लिखते हैं-
'यह स्तूप इतना प्राचीन है कि इस लेख के लिखे जाने के समय स्तूप का आदि वृत्तान्त लोगों को विस्मृत हो चुका था।'
असल में उत्तर प्रदेश में जैनधर्म का इतिहास अभी तक अन्धकार में है इसलिये उत्तरप्रदेश के राजाओं का जैनधर्म के साथ कैसा सम्बन्ध था यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता। फिर भी उत्तर प्रदेश में सर्वत्र जो जैन पुरातत्व की सामग्री मिलती है उस से यह पता चलता है कि कभी यहाँ भी जैनधर्म का अच्छा अभ्युदय था और अनेक राजाओं ने उसे आश्रय दिया था। उदाहरण के लिये हर्षवद्धन बड़ा प्रतापी राजा था। लगभग समस्त उत्तर प्रदेश में उस का राज्य था। इसने पांच वर्ष तक प्रयाग में धार्मिक महोत्सव कराया। उसमें उसने जैनधर्म के धार्मिक पुरुषों का भी आदर सत्कार किया था। जो राजा जैनधर्म का पालन नहीं करते थे, किन्तु जैनधर्म के मार्ग में बाधा भी नहीं देते थे, ऐसे धर्मसहिष्णु राजाओं के काल में जैनधर्म की खूब उन्नति हुई। समग्र उत्तर और मध्य भारत के सभी प्रदेशों में पाये जाने वाले जैनधर्म के चिह्न इस के साक्षी हैं। उत्तर प्रदेश के जिन जिलों में आज नाममात्र को जैनी रह गये हैं उनमें भी प्राचीन जैन चिह्न पाये जाते हैं। उदाहरण के लिये गोरखपुर जिले- में तहसील देवरिया में कुहाऊँ, व खुखुन्दों के नाम उल्लेखनीय हैं। इलाहाबाद के दक्षिण पश्चिम ११ मील पर देवरिया और भीता में बहुत् से पुरातन खण्डित स्थान हैं। कनिंग्घम सा० का कहना है कि यहाँ जादो वंश के उदयन राजा रहते थे, जो जैनधर्म पालते थे। उन्होंने श्रीमहावीर स्वामी की एक प्रसिद्ध मूर्ति का निर्माण कराया था, जिसे लेने के लिए उज्जैन के राजा और उदयन से एक बड़ा युद्ध हुआ था।
बलरामपुर अवध से पश्चिम 12 मील पर सहेठ-महेठ नाम का स्थान है। यहाँ खुदाई की गई थी। यह स्थान ही श्रावस्ती नगरी है। इस के सम्बन्ध में डॉ० फुहरर ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि १ १वीं शताब्दी में श्रावस्ती में जैनधर्म की बहुत उन्नति थी क्योंकि खुदाई में तीर्थंकरों की कई मूतियाँ जिनपर संवत् ११ १२ से ११३३ तक खुदा है यहाँ प्राप्त हुई हैं । सुहृद्ध्वज श्रावस्ती के जैन राजाओं में अन्तिम राजा था। यह महमूद गजनी के समय में हुआ था।
बरेली जिले में अहिच्छत्र नाम का एक जैन तीर्थस्थान है। इस पर राज्य करने वाला एक मोरध्वज नाम का राजा हो गया है जो जैन बतलाया जाता है । यहाँ किसी समय जैन धर्म की बहुत उन्नति थी। यहाँ अनेक खेड़े हैं जिन से जैन मूर्तियां मिली हैं ।
इसी तरह इटावा से उत्तर दक्षिण २७ मीलपर परवा नाम का एक स्थान है जहाँ जैन मंदिर के ध्वंस पाये जाते हैं । डॉ. फुहरर का कहना है किसी समय यहाँ जैनियों का प्रसिद्ध नगर आलमी बसा था। ग्वालियर के किले में विशाल जैनमूतियों को बहुतायत वहाँ के प्राचीन राजघरानों का जैनधर्म से सम्बन्ध सूचित करती है। इस प्रकार उत्तर भारत में जैनराजाओं का उल्लेखनीय पता न चलने पर भी अनेक राजाओं का जैनधर्म से सहयोग सूचित होता है और पता चलता है कि महावीर के पश्चात् उत्तर भारत में भी जैनधर्म खूब फूला फना।
८ दक्षिण भारत में जैनधर्म
उत्तर भारत में जैनधर्म की स्थिति का दर्शन कराने के पश्चात दक्षिण भारत में आते हैं। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में उत्तर भारत में १२ वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ने पर जैनाचार्य भद्रबाहु ने अपने विशाल जैनसंघ के साथ दक्षिण भारत की ओर प्रयाण किया था। इस से स्पष्ट है कि दक्षिण भारत में उस समय भी जैनधर्म का अच्छा प्रचार था और भद्रबाहु को पूर्ण विश्वास था कि वहाँ उन के संघ को किसी प्रकार का कष्ट न होगा। यदि ऐसा न होता तो वे इतने बड़े संघ को दक्षिण भारत की ओर ले जाने का साहस न करते। जैन संघ की इस यात्रा से दक्षिण भारत में जैनधर्म को और भी अधिक फलने और फूलने का अवसर मिला।
श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृति से सदा उदार रही है, उस में भाषा और अधिकार का वैसा बन्धन नहीं रहा जैसा वैदिक संस्कृति में पाया जाता है। जैन तीर्थंकरों ने सदा लोकभाषा को अपने उप- देश का माध्यम बनाया। जैन साधु जैनधर्म के चलते-फिरते प्रचारक होते हैं। वे जनता से अपनी शरीर यात्रा के लिये दिन में एक बार जो रूखा-सूखा किन्तु २उद्ध भोजन लेते हैं उस का कई गुना मूल्य वे सत्शिक्षा और सदुपदेश के रूप में जनता को चु का देते हैं और शेष समय में साहित्य का सृजन कर के उसे भावी संतान के लिये छोड़ जाते हैं। ऐसे कर्मठ और जनहितनिरत साधुओं का समागम जिस देश में हो उस देश में उन के प्रचार का कुछ प्रभाव न हो यह सम्भव नहीं। फलत: उत्तर भारत के जैनसंघ की दक्षिण यात्रा ने दक्षिण' भारत के जीवन में एक क्रांति पैदा कर दी। उस का साहित्य खूब समृद्ध हुआ और वह जैनाचार्यों की खनि तथा जैन संस्कृति का संरक्षक और संवर्धक बन गया।
जैनधर्म के प्रसार की दृष्टि से दक्षिण भारत को दो भागों में बाँटा जा सकता है-तमिल तथा कर्नाटक। तमिल प्रान्त में चोल और पाड्य नरेशों नें जैनधर्म को अच्छा आश्रय दिया। खारवेल के शिला- लेख से पता चलता है कि सम्राट खारवेल के राज्याभिषेक के अवसर पर पांड्य नरेश ने कई जहाज उपहार भरकर भेजे थे। सम्राट खारवेल जैन था और पांड्य नरेश भी जैन थे। पांड्य वंश ने जैन- धर्म को न केवल आश्रय ही दिया किन्तु उस के आचार और विचारों को भी अपनाया। इस से उन की राजधानी मदुरा दक्षिण भारत में जैनों का प्रमुख स्थान बन गई थी। तमिल ग्रन्थ नालिदियर' के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उत्तर भारत में दुष्काल पड़ने पर आठ हजार जैन साधु पाँडयदेश में आये थे। जब वे वहाँ से वापिस जाने लगे तो पांड्य नरेश ने उन्हें वहीं रखना चाहा। तब उन्होंने एक दिन रात्रि के समय पांड्य नरेश की राजधानी को छोड़ दिया किन्तु चलते समय प्रत्येक साधु ने एक-एक ताड़ पत्र पर एक-एक पद्य लिख कर रख दिया। इन्हीं के समुदाय से नालिदियर ग्रन्थ बना। जैनाचार्य पूज्यपाद के शिष्य बज्रनन्दि ने पांड्यों की राजधानी मदुरा में एक जनसंघ की स्थापना की थी। तमिल साहित्य में 'कुरल' नाम का नीतिग्रंथ सब से बढ्कर समझा जाता है। यह तमिलवेद कहलाता है। इस के रचयिता भी एक जैनाचार्य कहे जाते हैं, जिन का एक नाम कुन्दकुन्द भी था। पल्लववंशी शिवस्कन्दवर्मा महाराज इन के शिष्य थे। ईसा की दसवीं शताब्दी तक राज्य करने वाले महाप्रतापी पल्लव राजा भी जैनों पर कृपादृष्टि रखते थे। इन की राजधानी कांची सभी धर्मों का स्थान थी । चीनी यात्री हुएनत्सांग सातवीं शताब्दी में कांची आया था। इसने इस नगरी में फलते-फूलते हुए जिन धर्मों को देखा उन में वह जैनों का भी नाम लेता है। इसमें भी यह बात प्रमाणित होती है कि उस समय कांची जैनों का मुख्य स्थान था। यहाँ जैन राजवंशों ने बहुत वर्षों तक राज्य किया। इस तरह तमिल देश के प्रत्येक अंग में जैनों ने महत्वपूर्ण भाग लिया। 'सर वान्टर इलियट के मतानुसार दक्षिण की कला और कारीगरी पर जैनों का बड़ा प्रभाव है, परन्तु उस से भी अधिक प्रभाव तो उन का तमिल साहित्य के ऊपर पड़ा है। विशप काल्डवेल का कहना है कि जैनों की उन्नति का युग ही तमिल साहित्य का महायुग है।
जैनों ने तमिल, कनडी और दूसरी लोकभाषाओं का उपयोग किया इस से जनता के सम्पर्क में वे अधिक आये और जैनधर्म के सिद्धान्तों का भी जन साधारण में खूब प्रचार हुआ।
एक समय कनडी और तेलतु प्रदेशों से लेकर उड़ीसा तक जैन- धर्म का बड़ा प्रभाव था। शेषगिरि रावने अपने आंध्र कनड़ जैनिज्म में जो काव्य-संग्रह किया है उस से पता चलता है कि आज के विजगापट्टम कृष्ण, नेलोर वगैरह प्रदेशों में प्राचीनकाल में जैनधर्म फैला हुआ था और उस के मन्दिर बने हुए थे।
किन्तु जैनधर्म का सब से महत्वपूर्ण स्थान तो कर्नाटक प्रान्त के इतिहास में मिलता है। यह प्रान्त प्राचीनकाल से ही दिगम्बर जैन सम्प्रदाय का मुख्यस्थान रहा है। इस प्रान्त में मौर्य साम्राज्य के बाद आन्ध्र वंश का राज्य हुआ, आन्ध्र राजा भी जैनधर्म के उन्नायक थे। आन्ध्रवंश के पश्चात् उत्तर पश्चिम में कदम्बों ने और उत्तरपूर्व में पल्लवों ने राज्य किया। कदम्बवंश के अनेक शिलालेख मिले हैं, जिन में से बहुत से लेखों में जैनों को दान देने का उल्लेख मिलता है। इस राजवंश का धर्म जैन था। सन् १९२२-२३ की एपिग्राफी रिपोर्ट में वर्णित है कि' वनवासी के प्राचीन कदम्ब और चालुक्य, जिन्होंने पल्लवों के पश्चात् तुलुब देश में राज्य किया, निस्सन्देह जैन थे। तथा यह भी बहुत संभव है कि प्राचीन पल्लव भी जैन थे; क्योंकि संस्कृत में मत्तविलासनाम का एकप्र हसन है जो पल्लवराजा महेन्द्र- देववर्मा का बनाया हुआ कहा जाता है। इस ग्रन्थ में उस समय के प्रचलित सम्प्रदायों की हंसी उड़ाई गई है, जिन में पाशुपात, कापालिक और एक बौद्ध भिक्षु को हंसी का पात्र बनाया गया है। इनमें जैनों को सम्मिलित नहीं किया गया है। इस से पता चलता है कि जिस समय महेन्द्र वर्मा ने इस ग्रन्थ को रचा उस समय वह जैन था तथा पीछे से शैव हो गया क्योंकि शैव परम्परा में ऐसी ख्याति है कि शैव साधु अप्पर ने महेन्द्रवर्मा को शैव बनाया' था। अत: कदम्बों की तरह चालुक्य भी जैनधर्म के प्रमुख' आश्रयदाता थे। चालुक्यों ने अनेक जैनमन्दिर बनवाये, उन का जीर्णोद्धार कराया, उन्हें दान दिया और कनडी के प्रसिद्ध जैन कवि आदि पम्प जैसे कवियों का सम्मान किया।
इस के सिवा इतिहास से यह भी पता चलता है कि कर्नाटक में महिलाओं ने- भी जैनधर्म के प्रचार में भाग लिया। इन महिलाओं में जहाँ राजघराने की महिलाएं स्मरणीय हैं वहाँ साधारण घराने की स्त्रियों की सेवाएँ भी उल्लेखनीय हैं।
सब से प्रथम परमल की पत्नी कंदाच्छि का नाम उल्लेखनीय है। उसने श्रीपुर नामक स्थान के उत्तरी भाग में एक जैन-मन्दिर बनवाया था। परममूल की प्रार्थना पर गंग-प्रति श्रीपुरुष ने इस मन्दिर को एक ग्राम तथा कुछ अन्य भू-भाग प्रदान किये थे। इस महिला का गंगराज परिवार पर काफी प्रभाव था। दूसरी उल्लेखनीय महिला जक्कियब्वे है। यह सत्तरस नागार्जुन की पत्नी थी जोनागर खण्ड का शासक था। पति के मरने पर राजा ने 'उस की जगह उस की पत्नी को नियुक्त किया पत्नी ने अपूर्व साहस और वीरता का परिचय दिया और संल्लेखना पूर्वक प्राणों का त्याग किया।
ईसा की दसवीं शती में पश्चिमी चालुक्य राजा तैलप का सेना- पति मल्लप था। उस की पुत्री अत्तिमव्वे आदर्श धर्मचारिणी थी। उसने अपने व्यय से सोने और कीमती पत्थरों की डेढ़ हजार मूर्तियां बनवाई थी। राजेन्द्र कोंगाल्व की माता पोचव्वरासिने ई० १०५० में एक वसदि बनवाई थी।
कदम्बराजा कीर्तिदेव की प्रथम पत्नी माउलदेवी का स्थान भी धर्मप्रेमी महिलाओं में अत्यन्त ऊँचा है। इसने १०७७ ई० में पद्मनन्दि सिद्धान्तदेव द्वारा पार्श्वनाथ चैत्यालय बनवाया और प्रमुख ब्राह्मणों को आमंत्रित कर के उन्हीं के द्वारा उस-जिनालय का नाम- करण ब्रह्मजिनालय' करवाया।
नागर खण्ड के धार्मिक इतिहास में चट्टल देवी का खास स्थान है यह सान्तर परिवार की थी। सान्तर परिवार जैन मतावलम्बी था और उस का धर्मप्रेम विख्यात है। इस महिला ने सान्तरों की राजधानी पोम्बूच्चपुर में जिनालयों का निर्माण कराया और अनेक परोपकार सम्बन्धी-कार्य किये।
यहाँ दक्षिण भारत के राजनैतिक इतिहास के सम्बन्ध में थोड़ा प्रकाश डालना उचित होगा। गंग राजाओं ने मैसूर के एक बहुत बड़े भाग पर ईसा की दूसरी शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक राज्य किया। उस के पश्चात् वे चोलों के द्वारा पराजित हुए। किन्तु चोल लम्बे समय तक राज नहीं कर सके और शीघ्र ही होयसलों के द्वारा निकाल बाहर किये गये। होयसलों ने एक पृथक राजवंश स्थापित किया जो ११ वीं शती तक कायम रहा।
प्राचीन चालुक्यों ने छठी शती के लगभग अपनाराज्य स्थापित किया और प्रबल. शासन के पश्चात् दो भागो में बँट गये-पूर्वीय चालुक्य और दूसरा पश्चिमीय चालुक्य। पूर्वीय चालुक्यों ने ७५० ई० से १ १वीं शती तक राज्य किया। उस के पश्चात् उन के राज्य चोलों के द्वारा मिला लिये गये। पश्चिमीय चालुक्य ७५० ई० के लगभग राष्ट्रकुटों से पराजित हुए।
राष्ट्रकुटों ने ९७३ ई० तक अपनी स्वतन्त्रता कायम रखी। उस के पश्चात् वे पश्चिमीय चालुक्यों से पराजित हुए। चालुक्यों ने लगभग दो सौ वर्ष तक राज्य-किया। उस के पश्चात् कालचूरियों से वे पराजित हुए। चूरियो ने तीस वर्ष राज्य किया '। अब प्रत्येक राजवंश के समय में जैनधर्म की स्थिति का दिग्दर्शन कराया जाता है।
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(क्रमश- अगले अंकों में जारी...)
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