१ बिहार में जैनधर्म बिहार तो भगवान महावीर की जन्मभूमि, तपोभूमि और निर्वाण भूमि होने के साथ-साथ कार्यभूमि भी रहा है। वहाँ के राज- घरानों से म...
१ बिहार में जैनधर्म
बिहार तो भगवान महावीर की जन्मभूमि, तपोभूमि और निर्वाण भूमि होने के साथ-साथ कार्यभूमि भी रहा है। वहाँ के राज- घरानों से महावीर भगवान का कौटुम्बिक सम्बन्ध भी था। फलत: उन के समय में और उन के बाद भी वहाँ जैनधर्म का अच्छा प्रसार हुआ और कई राजाओं और राजघरानों ने उसे अपनाया, जिन में से कुछ का परिचय इस प्रकार है-
राजा चेटक
जैनसाहित्य में वैशाली के राजा चेटक की बड़ी ख्याति पाई जाती है। इस के कई कारण हैं। प्रथम तो यह राजा भगवान महावीर का महान उपासक था, दूसरे भगवान महावीर की माता देवी त्रिशला राजा चेटक की पुत्री थी। राजा चेटक के आठ कन्याएं थीं और उस अजातशत्रु समय के प्रमुख राजघरानों में उनका विवाह हुआ था । देश का राजा उदयन, अवन्तीनरेश प्रद्योत, कौशाम्बी का राजा शतानीक, चम्पा का राजा श्रेणिक (बिम्बसार) ये सब राजा चेटक के जामाता थे । जैन साहित्य में कुणिक और बौद्ध साहित्य में अजातशत्रु के नाम से प्रसिद्ध मगध सम्राट तथा जैन, बौद्ध और ब्राह्मण सम्प्रदाय के कथा साहित्य में प्रसिद्ध वत्सराज उदयन, ये दोनों चेटक राजा के सगे दौहित्र थे । राजा चेटक भारत के तत्कालीन गणसत्ताक राज्यों में से एक प्रधान राज्य के नायक थे । वे जैन श्रावक थे, उन्होंने प्रतिज्ञा ले रखी थी कि वे जैन के सिवा किसी दूसरे से अपनी कन्याओं का विवाह न करेंगे। इससे प्रतीत होता है कि उक्त सब राजघराने जैनधर्म को पालते थे । राजा उदयन को तो जैन साहित्य में स्पष्ट रूप से जैन श्रावक बतलाया है । उदयन की रानी ने अपने महल में एक चैत्यालय बनवाया था और उसमें प्रतिदिन जिन भगवान की पूजा किया करती थी । पहले राजा उदयन तापसधर्मियों का भक्त था पीछे धीरे-धीरे जिन भगवान के ऊपर श्रद्धा करने लगा था ।
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स्व० डॉ० याकोबी लिखते हैं कि चेटक जैनधर्म का महान आश्रयदाता था । उसके कारण वैशाली जैनधर्म का एक संरक्षण स्थान बना हुआ था । इसी से बौद्धों ने उसे पाखण्डियों का मठ बतलाया है ।
राजा श्रेणिक
( ई. पू० ६०१-५५२)
भरत के इतिहास में बहुत प्रसिद्ध मगधाधिपति राजा बिम्बसार जैन साहित्य में श्रेणिक के नाम से अति प्रसिद्ध हैं । यह राजा पहले बौद्ध भगवान का अनुयायी था । एक बार किसी चित्रकार ने उमे एक राजकन्या का चित्र भेंट किया । राजा चित्र देखकर मोहित हो गया । चित्रकार से उसने कन्या के पिता का नाम पूछा तो उसे ज्ञात हुआ कि वह वैशाली के राजा चेटक की सबसे छोटी पुत्री चेलना है । श्रेणिक ने राजा चेटक से उसे माँगा किन्तु चेटक ने यह कहकर अपनी कन्या देने से इन्कार कर दिया कि राजा श्रेणिक विधर्मी है और एक विधर्मी को वह अपनी कन्या नहीं दे सकता । तब श्रेणिक के बड़े पुत्र अभयकुमार ने कौशल पूर्वक चेलना का हरण करके उसे अपने पिता को सौंप दिया । दोनों प्रेमपूर्वक रहने लगे । धीरे-धीरे चेलना के प्रयत्न से राजा श्रेणिक जैनधर्म की ओर आकृष्ट हुआ और भगवान महावीर का अनुयायी हो गया । वह महावीर की उपदेश सभा का मुख्य श्रोता था । जैन शास्त्रों के प्रारम्भमें इस बात का उल्लेख रहता है कि राजा श्रेणिक के पूछने पर भगवान ने ऐसा कहा । श्रेणिक के चेलना से कुणिक (अजातशत्रु) नाम का पुत्र हुआ । जब कुणिक मगध के सिंहासन पर बैठा तो उसने अपने पिता श्रेणिक को कैद करके एक पिंजरे में बन्द कर दिया । एक दिन कुणिक अपने पुत्र को प्यार कर रहा था । उसकी माता चेलना उसके पास बैठी हुई थी । उसने अपनी माता से कहा-'माँ । जैसा मैं अपने पुत्र को प्यार करता हूँ, क्या कोई अन्य भी अपने पुत्र को वैसा प्यार कर सकता है । ' यह सुनकर चेलना की आँखों में आंसू आ गये । कुणिक ने इसका कारण पूछा तो चेलना बोली-पुत्र! तुम्हारे पिता तुम्हें बहुत प्यार करते थे । एक बार जब तुम छोटे थे तो तुम्हारे हाथ की अंगुलि में बहुत पीड़ा थी । तुम्हें रात्रि को नींद नहीं आती थी । तब तुम्हारे पिता तुम्हारी रक्त और पीब से भरी हुई अंगुली को अपने मुंहमें रखकर सोते थे क्योंकि इससे तुम्हें शान्ति मिलती थी । यह सुनते. ही कुणिक को अपने कार्य पर खेद हुआ और वह पिंजरा तोड़कर पिता को बाहर निकालने के लिये कुल्हाड़ा लेकर दौड़ा । राजा श्रेणिक ने जो इस तरह आते हुए कुणिक को देखातो समझा कि यह मुझे मारने आ रहा है । अत: कुणिक के पहुँचने के पहले ही पिंजरे में सिर मारकर मर गया । आज से ८२ हजार वर्ष बाद जब पुन: तीर्थंङ्कर होने प्रारम्भ होंगे तो राजा श्रेणिक जैन- धर्म का प्रथम तीर्थंकर होगा ।''
अजात शत्रु
( ५५२-५१८ ई० पू०)
यद्यपि बौद्ध साहित्य में अजातशत्रु के बौद्ध-धर्म अंगीकार करने का उल्लेख मिलता है।, तथापि खोज करने से प्रतीत होता है कि अजातशत्रु जैनधर्म की तरफ अधिक आकर्षित था।
स्व० डॉ० याकोबी जैन-सूत्रों की प्रस्तावना में लिखते हैं-. 'अजातशत्रु ने अपने राज्य के प्रारम्भ काल में बौद्धों की तरफ कोई सहानुभूति नहीं दिखलाई थी। किन्तु बुद्ध के निर्वाण में ८ वर्ष पहले वह बुद्ध का आश्रयदाता बना था। किन्तु उस समय वह सद्भावना पूर्वक बौद्धधर्मानुयायी बना था, यह तो हम नहीं मान सकते। कारण यह है कि जो मनुष्य खुली रीति से अपने पिता का खूनी था तथा अपने नाना के साथ जिसने लडाई लडी थी वह मनुष्य अध्यात्म ज्ञान के लिये बहुत उत्सुक हो यह असंभव है। उस के धर्मपरिवर्तन करने का क्या उद्देश्य था इस का हम सरलता से अनुमान कर सकते हैं। बात यह है कि उसने अपने नाना वैशाली के राजा के साथ युद्ध किया था। यह राजा महावीर का मामा (नाना) था और जैनों का संरक्षक था। इसलिए इस के ऊपर चढाई करने के कारण अजातशत्रु जैनों की सहानुभूति खो बैठा। इस से उसने जैनों के प्रतिस्पर्धी बौद्धों के साथ मिलने का निश्चय किया था।
आगे डॉ. याकोबी लिखते हैं-
अजातशत्रु एक तो वैशाली को जीतने में सफल हुआ था, दूसरे उसने नन्दों और मौर्यों के साम्राज्य का पाया खड़ा किया था। इस प्रकार मगध साम्राज्य की सीमा बढ़ने से जैन और बौद्ध दोनों धर्मों के लिये नया क्षेत्र खुल गया था। इस से वे दोनों तुरन्त उस क्षेत्र में फैल गये। जब दूसरे सम्प्रदाय स्थानीय और स्थायी महत्व प्राप्त कर के ही रह गये तब ये दोनों धर्म इतनी बड़ी सफलता प्राप्त करने में समर्थ हुए थे। इस का मुख्य कारण अन्य कुछ भी नहीं, केवल यह मंगलकारी राजनैतिक संयोग था।
हमारे मत से जैनों और बौद्धों की सफलता का कारण केवल राजनैतिक संयोग नहीं था, किन्तु फिर भी वह एक प्रबल कारण अवश्य था। अस्तु।
नन्दवंश
(ई० पू० ३०५)
उदायी के बाद मगध के सिंहासनपर नदवंश का अधिकार हुआ। महाराजा खारवेल के शिलालेख से पता चला है कि महाराज नंद ने अपने राज्यकाल में कलिंग देश पर चढ़ाई की थी। और वह कलिंग के राजघराने से श्री ऋषभदेव की प्रतिमा उठाकर ले गये थे। इस घटना के ३०० वर्ष बाद कलिंगाधिपति खारवेल ने जब मगधपर चढ़ाई कर के उसे जीत लिया तो मगधाधिपति पुष्यमित्र ने वह प्रतिमा खारवेल को लौटाकर उसे प्रसन्न कर लिया। एक पूज्य वस्तु का इस प्रकार ३०० वर्ष तक एक राजघराने में सुरक्षित रहना इस बात का साक्षी है कि नंदवश में उस की पूजा होती थी। यदि ऐसा न होता और नंदवश जैनधर्म का विरोधी होता तो उक्त मूर्ति इस प्रकार सुरक्षित नहीं रहती। मुद्राराक्षस नाटक में भी यह उल्लेख है कि चाणक्य ने नन्द राजा के मन्त्री राक्षस को विश्वास देकर फांसने के लिये अपने एक चर जीवसिद्धि को क्षपणक बनाकर भेजा था। और क्षपणक का अर्थ कोष ग्रंथों में नग्न जैन साधु पाया जाता है। अत: नन्द का मन्त्री राक्षस जैन था और राजा नन्द भी सम्भवत: जैन था।
मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त
(ई० पू० ३२०)
मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त जैन थे। इन के समय में मगध में १२ वर्ष का भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा था। उस समय ये अपने पुत्र को राज्य सौंपकर अपने धर्मगुरु जैनाचार्य भद्रबाहु के साथ दक्षिण की ओर चले गये थे। और तपस्या करते हुए बारहवर्ष पश्चात् चन्द्रगिरि पर्वतपर मृत्यु को प्राप्त हुए थे। इस घटना के पक्ष में अनेक प्रमाण पाये जाते हैं। अति प्राचीन जैनग्रंथ तिलोयपण्णत्ति में लिखा है- ' 'मुकुटधारी राजाओं में अन्तिम चन्द्रगुप्त ने जिन दीक्षा धारण की। इस के पश्चात् किसी मुकुटधारी राजा ने जिन दीक्षा नहीं ली।
पहले इतिहासज्ञ इस कथन की सत्यता में विश्वास करने को तैयार नहीं थे। किन्तु जब मैसूर राज्य में श्रवणबेलगुल नामक स्थान के चन्द्रगिरि पर्वतपर के लेख प्रकाश में आये तो इतिहासज्ञों को उसे स्वीकार करना पड़ा। लेविस राइसने सर्व प्रथम इन शिला- लेखों की खोज की और उन का अनुवाद कर के विद्वानों के लिए उन्हें सुलभ बना दिया। उन के इस मत का कि चन्द्रगुप्त जैन था और वह दक्षिण आया था, मि० थॉमस जैसे प्रमुख विद्वानों ने जोर से समर्थन किया। 'जैनधर्म अथवा अशोक का पूर्वधर्म' शीर्षक अपने लेख में वह कहते हैं-चन्द्रगुप्त जैन था' इस बात को लेखकों ने स्वाभाविक घटना के रूप में लिया है और उसेइस रूप में माना है जैसे वह एक ऐसी सत्य घटना है, जिस के लिये न तो किसी प्रमाण की आवश्यकता है और न प्रदर्शन की। इस घटना के लेख्य प्रमाण अपेक्षाकृत प्राचीन हैं और स्पष्ट रूप से सदेह रहित हैं। क्योंकि उन की सूची में अशोक का नाम नहीं है। अशोक अपने दादा चन्द्र- गुप्त से बहुत अधिक शक्तिशाली था और जैन लोग उस के सम्बन्ध में संयुक्तिक ढंग से यह दावा कर सकते थे कि वह जैनधर्म का प्रबल समर्थक था। कहीं अशोक ने अपना धर्म परिवर्तन तो नहीं कर लिया था। मेगास्थिनीज की साक्षी भी यह सूचित करती है कि चन्द्रगुप्त ने श्रमणों की धार्मिक शिक्षा को स्वीकार किया था और ब्राह्मणों के सिद्धान्तों को वह नहीं मानता था। इस प्रकार साधारणतया विद्वान् इस विषय एकमत हैं कि चन्द्रगुप्त जैन था।
चन्द्रगुप्त ने राज्य त्याग दिया था और वह श्रवााावेलगोला में जैन साधु होकर मरा, इस बात का समर्थन स्व० डॉ० वी० ए० स्मिथ ने अपने 'भारत का प्राचीन इतिहास' नामक ग्रन्थ के प्रथम संस्करण में किया था। चन्द्रगुप्त की मृत्यु का उल्लेख करते हुए मि० स्मिथ कहते हैं कि- चन्द्रगप्त छोटी अवस्था में राजसिंहासन पर बैठ गया था और चूँकि उसने केवल चौबीस वर्ष राज्य किया। अत: ५० वर्ष की अवस्था से पूर्व अवश्य ही उस का मरण हो जाना चाहिये। इस प्रकार उस की मृत्यु के समय के विषय में अनिश्चितता का वातावरण है। इतिहासज्ञ हमें यह नहीं बतलाते कि वह मरा। यदि वह युद्ध-स्थल में मरा होता या अपने जीवन के सुदिनों में मरा होता तो इस घटना का उल्लेख होता। लेविस राइस के द्वारा खोज निकाले गये श्रवागवेलगोला के शिलालेखों को अविश्वसनीय मानना जैनों की समस्त परम्परा और उल्लेखों को अविश्वसनीय मानना है। एक इतिहासज्ञ के लिये इतनी दूर जाना बहुत अधिक आपत्तिजनक है। ऐसी स्थिति में लेविल राईस के साथ यदि हम यह विश्वास करें कि चन्द्रगुप्त जैन व्रतों को धारण कर के महान भद्रबाहु के साथ चन्द्र- गिरि पर्वत पर चला गया था-तो क्या हम गल्ती पर हैं ?'
अपनी पुस्तक के दूसरे संस्करण में स्मिथ ने अपने उक्त मत में परिवर्तन कर दिया था किन्तु तीसरे संस्करण में उन्होंने अपनी भूल स्वीकार करते हुए लिखा---
मुझे अब विश्वास हो चला है कि जैनों का यह कथन प्राय: मुख्य-मुख्य बातों में यथार्थ है और चन्द्रगुप्त सचमुच राज्य त्यागकर जैन मुनि हुए थे।'
स्व० के ० पी० जायसवाल ने 'लिखा है'
'कोई कारण नहीं है कि हम जैनियों के इस कथन को कि चन्द्रगुप्त अपने राज्य के अन्तिम दिनों में जैन हो गया था और पीछे राज्य छोड्कर जिन दीक्षा ले मुनिवृत्ति से मरण को प्राप्त हुआ, न मानें। मैं पहला ही व्यक्ति यह मानने वाला नहीं हूँ। मित्र- राईस ने जिन्होंने श्रवणवेलगोला के शिलालेखों का अध्ययन किया है, पूर्ण रूप से अपनी सम्मति इसी पक्ष में दी है। और मि० विं० स्मिथ भी अन्त में इसी मत की ओर झुके हैं।
सम्राट अशोक
(ई० पू० २७७)
सम्राट अशोक चन्द्रगुप्त मौर्य का पौत्र था। जैन ग्रन्थों में इस के जैन होने के प्रमाण मिलते हैं। कुछ विद्वानों का मत यह है कि अशोक पहले जैनधर्म का उपासक था, पीछे बौद्ध हो गया। इस में एक प्रमाण यह दिया जाता है कि अशोक के उन लेखों में जिन में उस के स्पष्टत: बौद्ध होने के कोई संकेत नहीं पाये जाते, बल्कि जैन सिद्धान्तों के ही भावों का आधिक्य है, राजा का उपनाम देवानांपिय पियदसी' पाया जाता है। देवनांपिय' विशेषत: जैनग्रन्थों में ही राजा की उपाधि पाई जाती है। पर अशोक के 22 वें वर्ष की भावरा- की प्रशस्तिमें, जिस में उस के बौद्ध होने के स्पष्ट प्रमाण हैं; उस की पदवी केवल पियदसि' पाई जाती है, 'देवाना पिय' नहीं। इसी बीच में वह जैन से बौद्ध हुआ होगा।। विद्वानों का यह भी मत 'है कि अशोक ने अहिंसा के विषय में जो नियम प्रचारित किये थे वे बौद्ध की अपेक्षा जैनों से अधिक मिलते हैं। जैसे, बहुत से पक्षियों और चौपायों का, जो कि न भोग में आते हैं न खाये जाते हैं, मारना वर्जित करना, केवल अनर्थ और विहिंसा के लिए जंगलों को जलाने का निषेध करना और कुछ खास तिथियों और पर्वों पर जीव हिंसा को बन्द कर देना आदि। प्रो० कर्नल ने, जो बौद्ध शास्त्रों के बहुत बडे अधिकारी विद्वान् माने जाते रहे हैं यह स्वीकार किया है कि अशोक की राज्यनीति में बौद्ध प्रभाव खोजने पर भी नहीं मिलता।
उस की घोषणाएँ, जो मितव्ययी जीवन से सम्बद्ध है-. बौद्धों की अपेक्षा जैन विचारों से अत्यधिक मेल खाती हैं।
सम्राट सम्प्रति
(ई० पू ० 22०
' 'सम्प्रति अशोक का पौत्र था। इसे जैनाचार्य सुहुस्ती ने उज्जैन में जैनधर्म की दीक्षा दी थी। उस के बाद सम्प्रति ने जैनधर्म के लिए वही काम किया जो अशोक ने बौद्ध धर्म के लिए किया। उत्तर पश्चिम के अनार्यदेशों में भी सम्प्रति ने जैनधर्म के पचारक भेजे और वहाँ जैन साधुओं के लिए अनेक विहार स्थापित किये। अशोक की तरह उसने भी अनेक इमारतें बनवाई। राजपूताना की कई जैन रचनाएँ उसी के समय की कही जाती हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि जो शिलालेख अब अशोक के नाम से प्रसिद्ध हैं, सम्भवत: वे सम्प्रति ने लिखवाये थे।
इस प्रकार महावीर स्वामी से लेकर चार सौ वर्ष तक जैनधर्मी राजा श्रेणिक और महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य तथा उन की सन्तानों के समय में भारत और उस के बाहर भी जैनधर्म का खूब प्रचार रहा। इस के बाद मौर्य साम्राज्य का हास होना प्रारम्भ हुआ और उस के अन्तिम सम्राट बृहद्रथ को उस के ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने मार कर राजदण्ड अपने हाथ में ले लिया। इसने श्रमणों पर बड़ा अत्याचार किया। उन के विहार और स्तूप नष्ट कर दिये।
२ उड़ीसा में जैनधर्म
कलिंग चक्रवर्ती खारवेल
( ई० पू० १७४)
कलिंग में बहुत प्राचीन काल से जैनधर्म की प्रवृत्ति थी। ई० पू० ४२३ के लगभग मगध सम्राट नन्द कलिंग को जीतकर वहाँ से प्रथम जिन की मूर्ति मगध ले गया था। सम्राट सम्प्रति के समय वहाँ चेदिवंश का पुन: राज्य हुआ, इसी वंश का प्रसिद्ध सम्राट खारवेल था। कलिंग चक्रवर्ती महाराजा खारवेल को उस युग की राजनीति में सब से अधिक महत्व का व्यक्ति माना' जाता है। इन के हाथी- गुम्फा में पाये गये शिलालेख का उल्लेख पहले किया गया है। उस लेख के अनुसार खारवेल जैन था। बल्कि उडीसा का सारा राष्ट्र उस समय जैन ही था। स्व० के. पी० जायसवाल लिखते हैं?- 'जैनधर्म का प्रवेश उड़ीसा में शिशुनागवंशी राजा नदवर्धन के समय में हो गया था। खारवेल के समय से पूर्व भी उदयगिरि पर्वत पर अर्हन्तों के मन्दिर थे, क्योंकि उन का उल्लेख खारवेल के लेख में आया है। ऐसा प्रतीत होता है कि खारवेल के समय में जैनधर्म कई शताब्दियों तक उड़ीसा का राष्ट्रीय धर्म रह चुका था। '
महाराजा खारवेलने १५ वर्ष की अवस्था से युवराज पद प्राप्त किया और २४ वर्ष की अवस्था में इन का महा-राज्याभिषेक हुआ। उस के बाद दूसरे ही वर्ष उसने सातकर्णि की परवाह न कर के पश्चिम देश को अपनी सेना भेजी और उस सेना ने मूषिक नगर को परास्त किया। चौथे वर्ष खारवेल ने फिर पश्चिम पर चढ़ाई की और रठिकों के भोजक अपने मुकुट और छत्र-श्रृंगार छोड्कर उस के चरणों पर झुकने को बाध्य हुए। वाख्त्री का यवनराजा एक भारी सेना ले मध्यप्रदेश पर चढ़ आया। खारवेल ने आगे बढकर दिमित को निकाल भगाया। मध्यदेश से यवनों को पूरी तरह खदेड़ने का श्रेय खारवेल को ही है। बारहवें वर्ष में उसने पन्जाब पर चढ़ाई की। सातकर्णी के राज्य पर दो चढ़ाइयाँ करने और यवनराज दमिति को मध्यदेश से निकाल भगाने के बाद खारवेल अपने समय के सब भारतीय राजाओं में प्रमुख माना जाने लगा। अभी तक उसने अपने देश कलिंग के पश्चिमी पड़ोसी राज्य मूषिक और महाराष्ट्र पर तथा उत्तर पड़ोसी राज्य मगध पर चढ़ाइयाँ की थीं। अब उसने उत्तर और दक्षिण में दूर-दूर तक दिग्विजय करना शुरू किया। उस की शक्ति भारत के अन्तिम छोरों तक पहुंच गई। बारहवें वर्ष उसने उत्तरापथ के राजाओं को त्रस्त किया। मगध पर चढ़ाई कर के मगध के राजा पुष्यमित्र को पैरों गिरवाया। राजा नन्द द्वारा ले जायी गई हुई कलिंग जिनमूर्ति को स्थापित किया। इस महाविजय के बाद, जबकि शुंग और सातवाहन तथा उत्तरापथ के यवन सब दब गये, खारवेल ने जैनधर्म का महा अनुष्ठान किया। उन्होंने भारतवर्ष भर के जैन यतियों, जैन तपस्वियों, जैन ऋषियों और पंडितों को बुलाकर एक धर्म-सम्मेलन किया। जैनसंघ ने खारवेल को 'महा- विजयों' की पदवी के साथ खेमराजा', भिरबुराजा', और धर्मराजा की पदवी दी। इस के समय में जैनधर्म का बड़ा उत्कर्ष हुआ।
इस शिलालेख में स० १६५ दिया है, जिसे स्व० जायसवाल ने मौर्य सम्वत् सिद्ध 'किया है, जो कि महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहणकाल (ई० पू० ३२१) से चला होगा। एक स्वतन्त्र राजा ने दूसरे राजा के चलाये हुए सम्वत् का उपयोग क्यों किया? इस के उत्तर में जायसवाल जी का कहना है कि चन्द्रगुप्त मौर्य का जैन होना जैनग्रन्थों व शिलालेखों से सिद्ध है। अत: एक जैन राजा के चलाये हुए सम्वत् का दूसरा जैन राजा उपयोग करे तो इस में आश्चर्य क्या है?
इस प्रकार बिहार व उडीसा में महावीर के पश्चात् भी जैनधर्म का खूब उत्कर्ष हुआ। ईस्वी ३०८ में पाटलिपुत्र नगर के पास एक गाँव के छोटे से राजा चन्द्रगुप्त को लिच्छविवंश की कन्या कुमारदेवी ब्याही थी। यह लिच्छविवंश वैशाली के राजा उसी चेटक का वंश है जिन की कन्याओं से महावीर स्वामी के पिता राजा सिद्धार्थ और मगध के राजा श्रेणिक वगैरह का विवाह हुआ था चन्द्रगुप्त ने ऐसे महान वंश की कन्या से विवाह होने को अपना बहुत भारी गौरव माना। वास्तव में इस सम्बन्ध के प्रताप से ही वह महाराज हो गया। उसने अपने सिक्कों पर लिच्छवियों की बेटी के नाम से अपनी स्त्री की भी मूर्ति बनवाई। उस की सन्तान बड़े गर्व से अपने को लिच्छवियों का दौहित्र कहा करती थी। किन्तु चन्द्रगुप्त ने एक बौद्ध साधु के उपदेश से बौद्धधर्म ग्रहण कर लिया, और उस के पुत्र समुद्रगुप्त ने ब्राह्मण धर्म स्वीकार कर लिया। फिर भी ई० सं० ६२९ में आये चीनी यात्री हुएनत्साग ने वैशाली, राजगृह, नालंदा और पुण्यवर्द्धन में अनेक निर्ग्रन्थ साधुओं को देखा था। वह कलिंग देश को जैनों का मुख्य स्थान कहता है। इस से स्पष्ट है कि खारवेल के बाद भी इतने सुदीर्ध काल तक जैनधर्म कलिंग में बना रहा। सम्राट खारवेल के बाद ऐसा प्रतापशाली जैन राजा अन्य नहीं हुआ। यद्यपि जैनधर्म प्राय: सभी राजवंशों के समय में फलाफूला, और अनेक अन्य राजाओं ने उसे साहाय्य भी दिया किन्तु जिन्हें हम पूरी तरह में जैन कह सकें ऐसे राजा कम ही हुए।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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