३ जैनधर्म के अन्य प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव के पश्चात् जैनधर्म के प्रवर्तक २३ तीर्थकर और हुए, जिनमें से दूसरे अजितनाथ, चौथे अभिनन्दननाथ, पाँचवे...
३ जैनधर्म के अन्य प्रवर्तक
भगवान ऋषभदेव के पश्चात् जैनधर्म के प्रवर्तक २३ तीर्थकर और हुए, जिनमें से दूसरे अजितनाथ, चौथे अभिनन्दननाथ, पाँचवे सुमतिनाथ और चौदहवें अनन्तनाथ का जन्म अयोध्या नगरी में हुआ। तीसरे संभवदेव का जन्म श्रावस्ती नगरी में हुआ। छठे पद्मप्रभू का जन्म कौशाम्बी में हुआ। सातवें सुपार्श्वनाथ और तेईसवें पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी नगरी में हुआ। आठवें चन्द्रप्रभू का जन्म चंद्रपुरी में हुआ। नौंवे पुष्पदन्त का जन्म काकन्दी नगरी में हुआ। दसवें शीतलनाथ का जन्म भद्दलपुर में हुआ। ग्यारहवें श्रेयांसनाथ का जन्म सिंहपुरी (सारनाथ) में हुआ। बारहवें वासुपूज्य का जन्म चम्पापुरी में हुआ। तेरहवें विमलनाथ का जन्म कपिला नगरी में हुआ। पन्द्रहवें धर्मनाथ का जन्म रत्नपुर में हुआ। सोलहवें शान्तिनाथ, सतरहवें कुन्थुनाथ और अठारहवें अमरनाथ का जन्म हस्तिनागपुर में हुआ। उन्नीसवें मल्लिनाथ और इक्कीसवें नमिनाथ का जन्म मिथिलापुरी में ' हुआ। बीसवें मुनिसुव्रतनाथ का जन्म राजगृही नगरी में हुआ।
[ads-post]
इनमें से धर्मनाथ, अमरनाथ, और कुन्थुनाथ का जन्म कुरुवंश में हुआ, मुनिसुव्रतनाथ का जन्म हरिवंश में हुआ और शेष का जन्म इक्ष्वाकुवंश में हुआ। सभी ने अन्त में प्रवज्या लेकर भगवान् ऋषभदेव की तरह तपश्चरण किया और केवलज्ञान को प्राप्त करके उन्हीं की तरह धर्मोपदेश किया और अन्त में निर्वाण को प्राप्त किया।
इन में से भगवान् वासुपूज्य का निर्वाण चम्पापुर से हुआ और शेष तीर्थंकरों का निर्वाण सम्मेदशिखर से हुआ। अन्तिम तीन तीर्थंकरों का वर्णन आगे पढिये ।
भगवान नेमिनाथ
भगवान् नेमिनाथ बाईसवें तीर्थंकर थे। ये श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। शौरीपुर नरेश अन्धकवृष्णि के दस पुत्र हुए। सब से बड़े पुत्र का नाम समुद्रविजय और सब से छोटे पुत्र का नाम वसुदेव था। समुद्रविजय के घर नेमिनाथ ने जन्म लिया और वसुदेव के घर श्रीकृष्णने। जरासन्ध के भय से यादवगण शौरीपुर छोड्कर द्वारका नगरी में जाकर रहने लगे। वहाँ जूनागढ़ के राजा की पुत्री राजमती से नेमिनाथ का विवाह निश्चित हुआ। बड़ी धूम-धाम के साथ बारात जूनागढ़ के निकट पहुंची। नेमिनाथ बहुत से राजपुत्रों के साथ रथ में बैठे हुए आसपास की शोभा देखते जाते थे। उन की दृष्टि एक ओर गई तो उन्होंने देखा बहुत से पशु एक बाड़े में बन्द हैं, वे निकलना चाहते हैं किन्तु निकलने का कोई मार्ग नहीं है। भगवान् ने तुरन्त सारथि को रथ रोकने का आदेश दिया और पूछा ये इतने पशु इस तरह क्यों रोके हुए हैं। नेमिनाथ को यह जानकर बड़ा खेद हुआ कि उन की बारात में आये हुए अनेक राजाओं के आतिथ्य सत्कार के लिए इन पशुओं का वध किया जाने वाला, है और इसीलिये वे बाड़े में बन्द हैं। नेमिनाथ के दयालु हृदय को बड़ा कष्ट पहुँचा। वे बोले-यदि मेरे विवाह के निमित्त से इतने पशुओं का जीवन संकट में है तो धिक्कार है ऐसे विवाह को। अब मैं विवाह नहीं करूँगा। वे रथ से तुरन्त नीचे उतर पड़े और मुकुट और कंगन को फेंककर वन की ओर चल दिये। बारात में इस समाचार के फैलते ही कोहराम मच गया। जूनागढ़ के अन्तःपुर में जब राजमती को यह समाचार मिला तो वह पछाड़ खाकर गिर पड़ी। बहुत से लोग नेमिनाथ को लौटाने के लिये दौड़े, किन्तु व्यर्थ।
वे पास में ही स्थित गिरनार पहाड़ पर चढ़ गये और सहस्राम्र वन में भगवान् ऋषभदेव की तरह सब परिधान छोड्कर दिगम्बर हो आत्मध्यान में लीन हो गये और केवलज्ञान को प्राप्त कर 'गिरनार से ही निर्वाण लाभ किया।
भगवान पार्श्वनाथ
भगवान् पार्श्वनाथ २३ वे' तीर्थंकर थे। इन का जन्म आज से लगभग तीन हजार वर्ष पहले वाराणसी नगरी में हुआ था। यह भी राजपुत्र थे। इन की चित्तवृति प्रारम्भ से ही वैराग्य की ओर विशेष थी। माता-पिता ने कई बार इन से विवाह का प्रस्ताव किया किन्तु उन्होंने सदा हंसकर टाल दिया। एक बार ये गंगा के किनारे घूम रहे थे। वहाँ पर कुछ तापसी आग जलाकर तपस्या करते थे। ये उन के पास पहुंचे और वोले--'इन लक्कड़ों को जलाकर क्यों जीव हिंसा करते हो। ' कुमार की बात सुनकर तापसी बड़े झल्लाये और बोले-'कहाँ है जीव ?' तब कुमार ने तापसी के पास से कुन्हाड़ी उठाकर ज्यों ही जलती हुई लकड़ी को चीरा तो उस में से नाग और नागिन का जलता हुआ जोड़ा निकला। कुमार ने उन्हें मरणोन्मुख जानकर उन के कान में मूलमन्त्र दिया और दुःखी होकर चले गये। इस घटना से उन के हृदय को बहुत वेदना हुई। जीवन की अनित्यता ने उन के चित्त को और भी उदास कर दिया और वे राजसुख को तिलान्जलि देकर प्रवजित हो गये। एकबार वे अहिच्छेत्र के वन में ध्यानस्थ थे। ऊपर से उन के पूर्वजन्म का वैरी कोई देव कहीं जा रहा था। इन्हें देखते ही उस का पूर्वसंचित वैरभाव भड़क उठा।
वह उन के ऊपर ईंट और पत्थरों की वर्षा करने लगा। जब उसस भी उसने भगवान के ध्यान में विध्न पड़ता न देखा तो मूसलाधार वर्षा करने लगा। आकाश में मेघों ने भयानक रूप धारण कर उन के गर्जन तर्जन से दिल दहलाने लगा। पृथ्वी पर चारों ओर पानी ही पानी उमड़ पड़ा। ऐसे घोर उपसर्ग के समय जो नाग और नागिन मरकर पाताल लोक में धरणेन्द्र और पद्यावती हुए थे, वे अपने उपकारी के ऊपर उत्सर्ग हुआ जानकर तुरन्त आये। धरणेन्द्र ने सहस्रफण वाले सर्प का रूप धारण कर के भगवान के ऊपर अपना फण फैला दिया और इस तरह उपद्रव से उन की रक्षा की। उसी समय पार्श्वनाथ को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, उस वैरी देव ने उन के चरणों में सीस नवाकर उन से क्षमा याचना की। फिर करीब ७० वर्ष तक जगह-जगह विहार कर के धर्मोपदेश करने के बाद १०० वर्ष की उम्र में वे सम्मेदशिखर से निर्वाण को प्राप्त हुए। इन्हीं के नाम से आज सम्मेदशिखर पर्वत पारसनाथहिल' कहलाता है। इन की जो मूर्तियां पाई जाती हैं, उन में उक्त घटना के स्मृतिस्वरूप सिर पर सर्प का फन बना हुआ होता है। जैनेतर जनता में इन की विशेष ख्याति है। कहीं-कहीं तो जैनों का मतलब ही पार्श्वनाथ का पूजक समझा जाता है।
भगवान महावीर
भगवान महावीर अन्तिम तीर्थंकर थे। लगभग ६०० ई० पू० बिहार प्रान्त के कुण्डलपुर नगर के राजा सिद्धार्थ के घर में उन का जन्म हुआ। उन की माता' त्रिशला वैशालीनरेश राजा चेटक की पुत्री थी। महावीर का जन्म चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के दिन हुआ था। इस दिन भारतवर्ष में महावीर की जयन्ती बड़ी धूम से मनाई जाती है। महावीर सचमुच में महावीर थे। एक बार बचपन में ये अन्य बालकों के साथ खेल रहे थे। इतने में अचानक एक सर्प कहीं से आ गया और इनकी ओर झपटा। अन्य बालक तो डरकर भाग गये किन्तु महावीर ने उसे निर्मद कर दिया। महावीर जन्म से ही विशेष ज्ञानी थे। एक बार एक मुनि उनको देखने के लिये आये और उनके देखते ही मुनि के चित्त में जो शास्त्रीय शंकाए थीं वे दूर हो गई। जब महावीर बड़े हुए तो उनके विवाह का प्रश्न उपस्थित हुआ, किन्तु महावीर का चित्त तो किसी अन्य ओर ही लगा हुआ था। उस समय यज्ञादिक का बहुत जोर था और यज्ञों में पशु बलिदान बहुतायत से होता था। बेचारे मूक पशु धर्म के नाम पर बलिदान कर दिये जाते थे और 'वैदि की हिंसा-हिंसा न भवति' की व्यवस्था दे दी जाती थी। करुणासागर महावीर के कानों तक भी उन मूक पशुओं की चीत्कार पहुंची और राजपुत्र महावीर का हृदय उन की रक्षा के लिये तड़प उठा। धर्म के नाम पर किये जाने वाले किसी भी कृत्य का विरोध कितना दुष्कर है यह बतलाने की आवश्यकता नहीं। किन्तु महावीर तो महावीर थे। ३० वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड्कर वन का मार्ग लिया और भगवान ऋषभ- देव की ही तरह प्रवज्या लेकर ध्यानस्थ हो गये।
महावीर के जन्म आदि का वर्णन करने वाली कुछ प्राचीन गाथाएँ ' मिलती हैं जिन का भाव इस प्रकार है-
'जो देवों के द्वारा पूजा जाता था, जिसने अच्युतकल्प नामक स्वर्ग में दिव्य भोगों को भोगा, ऐसे महावीर जिनेन्द्र का जीव कुछ कम बहत्तर वर्ष की आयु पाकर, पुष्पोत्तर नामक विमान से च्युत होकर, आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन, कुण्डपुर नगर के स्वामी सिद्धार्थ क्षत्रिय के घर, नाथवंश में, सैकडों देवियों से सेवित त्रिशला देवी के गर्भ में आया। और वहां नौ माह आठ दिन रहकर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के रहते हुए महावीर का जन्म हुआ।'
'अट्ठाईस वर्ष सात माह और बारह दिन तक देवों के द्वारा किये गये अमानुषिक अनुपम सुख को भोगकर जो आभिनिबोधित ज्ञान से प्रतिबुद्ध हुए, ऐसे देवपूजित महावीर भगवाने ने षष्ठोपवास के साथ मार्गशीर्ष कृष्ण दशमी के दिन जिनदीक्षा ली।
'बारह वर्ष पाँच माह और पन्द्रह दिन पर्यन्त छद्मस्थ अवस्था को बिताकर (तपस्या करके) रत्नत्रय से शुद्ध महावीर भगवान ने जृम्भिक ग्राम के बाहर कठकेला नदी के किनारे सिलापट्ट के ऊपर षष्ठोपवास के साथ आतापन योग करते हुए, अपराह्न कालमें , जब छाया पादप्रमाण थी, वैशाख शुक्ला दशमी के दिन क्षपक श्रेणिपर आरोहण किया और चार घातिया कर्मों का नाश कर के केवल ज्ञान प्राप्त किया।
केवलज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद भगवान महावीर ने ६६ दिन तक मौनपूर्वक विहार किया, क्योंकि तबतक उन्हें कोई गणधर गणका-संघ का धारक, जो कि भगवान के उपदेशों को स्मृति में रखकर उन का संकलन कर सकता, नहीं मिला था। विहार करते करते महावीर मगध देश की राजधानी राजगृही में पधारे और उस के बाहर विपुलाचल पर्वतपर ठहरे। उस समय राजगृही में राजा श्रेणिक रानी चेलना के साथ राज्य करते थे।
वही पर आसाढ़ शुक्ल पूर्णिमा, जिसे गुरुपूर्णिमा भी कहते हैं, के दिन इन्द्रप्रभूति नाम का गौतमगोत्रीय वेद-वेदांग में पारंगत एक शीलवान ब्राह्मण विद्वान जीव अजीव विषयक सन्देह को दूर करने के लिये महावीर के पास आया। और सन्देह दूर होते ही उसने महावीर के पादमूल में जिनदीक्षा ले ली और उन का प्रधान गणधर बन गया उस के बाद ही प्रात: कालमें भगवान महावीर की प्रथम देशना हुई। जैसा कि प्राचीन गाथाओं में लिखा है--
पंचशैलपुर में (पाँच पर्वतों से शोभायमान होने के कारण राजगृही को पंचशैलपुर या पंचपहाड़ी कहते हैं) रमणीक, नाना- प्रकार के वृक्षों से व्याप्त और देव-दानव से वन्दित विपुल नामक पर्वत पर महावीर ने भव्यजीवों को उपदेश दिया।
' वर्ष के ' 'प्रथम मास अर्थात श्रावणमास में, प्रथम पक्ष अर्थात कृष्णपक्ष में प्रतिपदा के दिन, प्रातकाल के समय अभिजित नक्षत्र के उदय रहते हुए धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई।'
'इस प्रकार जिन श्रेष्ठ महावीर ने लगभग ४२ वर्ष की अवस्था में राग, द्वेष और भय से रहित होकर अपने धर्म का उपदेश दिया। भगवान महावीर ने तीस वर्ष तक अनेक देश देशान्तर में विहार कर के धर्मोपदेश दिया। जहाँ वह पहुंचते थे वहीं उन की उपदेश सभा लग जाती थी, और उस में हिंस्र पशु तक पहुंचते थे और जातिगत क्रूरता को छोड्कर शान्ति से भगवान का उपदेश सुनते थे। इस तरह भगवान काशी, कोशल, पंचाल, कलिंग कुरुजांगल कम्बोज, वाल्हीक, सिन्धु, गांधार आदि देशों में विहार करते हुए अन्त में पावा' नगरी (विहार) में पधारे। और वहाँ से कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रिमें अर्थात् अमावस्या के प्रातःकाल में सूर्योदय- से पहले मुक्तिलाभ किया। जैसा कि लिखा है-
'उनतीस वर्ष, पाँच मास और बीस दिन तक ऋषि, मुनि, यति और अनगार इन चार प्रकार के मुनिओं और बारह गणों अर्थात् सभाओं के साथ विहार करने के पश्चात भगवान महावीर ने पावानगर में कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन स्वाति नक्षत्र के रहते हुए, रात्रि के समय शेष अघाति कर्मरूपी रज को छेदकर निर्वाण को प्राप्त किया।
वर्तमान में जो वीर निर्वाण सम्वत् जैनों में प्रचलित है, उस के अनुसार ५२७ ई० पू० में वीर का निर्वाण हुआ माना जाता है। कुछ प्राचीन जैन-ग्रन्थों में शकराजा से ६०५ वर्ष ५ मास पहले वीर- के निर्वाण होने का उल्लेख मिलता है' । उससे भी इसी काल की पुष्टि होती है ।
४ भगवान महावीर के पश्चात
जैनधर्म की स्थिति
भगवान महावीर के सम्बन्ध में जैन और बौद्ध साहित्य से जो कुछ जानकारी प्राप्त होती है, उस पर से यह स्पष्ट पता चलता है कि महावीर एक महापुरुष थे, और उस समय के पुरुषों पर उनका मानसिक और आध्यात्मिक प्रभाव बड़ा गहरा था । उनके प्रभाव; दीर्घदृष्टि और निस्पृहता का ही यह परिणाम है जो आज भी जैन धर्म अपने जन्मस्थान भारत देश में बना हुआ है जब बौद्ध धर्म शताब्दियों पूर्व यहाँ से लुप्त-सा हो गया था ।
भगवान महावीर का अनेक राजघरानों पर भी गहरा प्रभाव था । भगवान महावीर ज्ञातृवंशी थे और उनकी माता लिच्छवि गणतंत्र के प्रधान चेटक की पुत्री थी । ईसा से पूर्व छठी शताब्दी में पूर्वीय भारत में लिच्छवि राजवंश महान और शक्तिशाली था । डाँ० याकोवी ने लिखा है कि जब चम्पा के राजा कुणिक ने एक बड़ी सेना के साथ राजा चेटक पर आक्रमण करने की तैयारी की तो चेटक ने काशी और कौशल के अट्ठारह राजाओं को तथा लिच्छवि और मल्लों को बुलाया और उनको पूछा कि आप लोग कुणिक की माँग पूरा करना चाहते हैं अथवा उससे लड़ना चाहते हैं महावीर का निर्वाण होने पर उनकी स्मृति में उक्त अट्ठारह राजाओं ने मिलकर एक महोत्सव भी मनाया था ।
इससे स्पष्ट है कि उस समय के प्रमुख राजवंश प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से महावीर से प्रभावित थे ।
भगवान महावीर के ग्यारह प्रधान शिष्य थे, जिनमें मुख्य गौतम गणधर थे । भगवान महावीर के पश्चात उनके शिष्यों में से तीन केवलज्ञानी हुए-- गौतम गणधर, सुधर्मास्वामी और जम्बू स्वामी । तथा इनके पश्चात् पांच श्रुत-केवली हुए-विष्णु, नन्दि- मित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु । अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु मगध में दुर्भिक्ष पड़नेपर एक बड़े जैन संघ के साथ दक्षिण देश को चले गये, जिसके कारण तमिल और कर्नाटक प्रदेश में जैन- धर्म का खूब प्रसार हुआ ।
- अत: भगवान महावीर के पश्चात् जैनधर्म की स्थिति का परिचय कराने के लिये उसे दो भागों में बाँट देना अनुचित न होगा-एक उत्तर भारत में जैनधर्म की स्थिति और दूसरा दक्षिण भारत में जैन- धर्म की स्थिति ।
उत्तर भारत में जैनधर्म
उत्तर भारत के विभिन्न प्रान्तों में जैनधर्म की स्थिति तथा राज- घरानों पर उनके प्रभाव का परिचय कराने से पूर्व पूरी स्थिति का विहंगावलोकन करना अनुचित न होगा ।
विभिन्न बौद्ध इतिहासज्ञों के कथन से पता चलता है कि बुद्ध निर्वाण के पश्चात् प्रथम शती में उत्तर भारत के विभिन्न स्थानों में जैन लोग प्रमुख थे । चीनी यात्री हुएनत्सांग ईस्वी सन् की सातवीं शती में भारत आया था । वह अपने यात्रा विवरण में नालन्दा के विहार का वर्णन करते हुए लिखता है कि निर्ग्रन्थ (जैन) साधु ने जो ज्योतिष विद्या का जानकार था, नयेभवन की सफलता की भविष्य- वाणी की थी । इससे प्रकट है कि उस समय मगध राज्य में जैनधर्म फैला हुआ था । जैनधर्म की उन्नति का सूचक दूसरा मुख्य प्रमाण अशोक की प्रसिद्ध घोषणा है, जिसमें निर्ग्रन्थों को दान देने की आज्ञा है । जो बतलाती है कि अशोक के समय में जैन-जो पहले निर्ग्रन्थ के नाम से विख्यात थे योग्य माने जाते थे तथा इतने प्रभावशाली थे कि अशोक की राज्यघोषणा में उन का मुख्य रूप से निर्देश करना आवश्यक समझा गया था।
उत्तर भारत में जैनधर्म को उन्नति की दृष्टि से कलिंग का नाम उल्लेखनीय है। ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दी का प्रसिद्ध खारवेल शिलालेख कलिंग में जैनधर्म की प्रगति को प्रमाणित करता है। श्री रंगास्वामी आयंगर के मतानुसार बौद्धधर्म के प्रचार के प्रति अशोक ने जो उत्साह दिखलाया उस के फलस्वरूप जैनधर्म का केन्द्र मगध से उठकर कलिंग चला गया जहाँ हुएनत्सांग के समय तक जैनधर्म फैला हुआ था।
खारवेल शिलालेख की तरह ही प्रसिद्ध मथुरा के शिलालेख प्रकट करते हैं कि ईसा की प्रथम शताब्दी से बहुत पहले से मथुरा जैनधर्म- का एक मुख्य केन्द्र था।
इस प्रकार भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग पाँच शताब्दियों तक जैनधर्म उत्तर भारत के विभिन्न प्रदेशों में बड़ी तेजी के साथ उन्नति करता रहा। किन्तु सातवीं शताब्दी के पश्चात् उस का पतन प्रारम्भ हो गया।
आगे उत्तर भारत के प्रत्येक प्रान्त में भगवान महावीर के बाद की जैनधर्म की स्थिति का परिचय कराते हुए ऐसे राजवंशों और प्रमुख राजाओं का परिचय कराया जाता है, जिन्होंने जैनधर्म को अपनाया था। या जिन के साहाय्य से जैनधर्म फूला और फला। उस से पहले उत्तर भारत के प्रारंभिक इतिहास का विंहगावलोकन कराना अनुचित न होगा।
भगवान महावीर के समय में मगध के सिंहासन पर शिशुनागवंशी राजा बिम्बसार उपनाम श्रेणिक विराजमान थे। उन का उत्तराधिकारी उन का पुत्र अजातशत्रु (कुणिक) हुआ। अजातशत्रु ने अपने नाना चेटक के राज्य पर आक्रमण कर के वैशाली तथा लिच्छविदेशों को मगध के साम्राज्यों में मिला लिया और राजगृही के स्थान पर वैशाली को राजधानी बनाया। अजात शत्रु के पुत्र उदयन ने पाटलीपुत्र को मगध की राजधानी बनाया। इस वंश के राजच्युत होनेपर नन्दवंश का राज्य हुआ और चन्द्रगुप्त मौर्य ने नन्दों का सिंहासन छीन लिया।
चन्द्रगुप्त के बाद उस का पुत्र बिन्दुसार गद्दी पर बैठा। और बिन्दुसार के बाद उस का पुत्र अशोक पदासीन हुआ। अशोक के बाद उस के चार उत्तराधिकारी और हुए। अन्तिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ को उस के सेनापति पुष्पमित्र ने मारकर सिंहासन पर कब्जा कर लिया और इस तरह शुंगवंश का राज्य हुआ।
अभी पुष्पमित्र मगध के सिंहासन पर जम भी न पाया था कि उसे दो प्रबल शत्रुओं का सामना करना पड़ा- उत्तर पश्चिमीय सीमा प्रान्त से मनीन्द्र ने उस के राज्य पर आक्रमण कर दिया और दक्षिण में कलिंगराज खारवेल ने। तीसरी पीढ़ी के बाद शुगवंश भी समाप्त हो गया। उस के बाद आन्ध्रों का राज्य हुआ जो दक्षिणी थे। ईसा की चौथी शताब्दी के प्रारम्भ में आन्ध्रों के एक अधिकारी ने ही जिस का नाम या उपाधि गुप्त्त थी, गुप्तवंश की नींव डाली। अस्तु, अब प्रकृत विषय पर आइये।
--
(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
COMMENTS