बं टवारे की एक और लोक कथा। इस लोक कथा में देखने वाली बात यह है कि इथियोपिया का एक शेर हयीनाओं के पकड़े शिकार का कितने इन्साफ से बंटवारा करता ...
बंटवारे की एक और लोक कथा। इस लोक कथा में देखने वाली बात यह है कि इथियोपिया का एक शेर हयीनाओं के पकड़े शिकार का कितने इन्साफ से बंटवारा करता है।
एक समय की बात है कि एक पहाड़ की तलहटी में एक बूढ़ा हयीना अपने नौ बेटों के साथ रहता था। हालाँकि पिता हयीना की तन्दुरुस्ती ठीक थी पर फिर भी वह दिन रात अपनी गुफा में ही रहना ज़्यादा पसन्द करता था।
उसके बेटे खाना ढूंढने के लिये बाहर जाते रहते थे और उसके लिये खाना लाते रहते थे फिर भी वह अपने पिता होने के कर्त्तव्य को पूरी तरह निबाहता था क्योंकि वह अपने बेटों को सदा अपनी ताकत की और अपने साहस की कहानियाँ सुनाया करता था।
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उसने अपने बेटों को यह भी साफ तरीके से बता दिया था कि वह अपने बेटों से भी ऐसी ही आशा करता था कि वे उसके कदमों पर चलें।
एक शाम वे नौ हयीना भाई अपने लिये खाने की तलाश में निकले। वे लोग अभी बहुत दूर नहीं जा पाये थे कि रास्ते में उनको एक शेर मिल गया। वह शेर उनके पड़ोस में ही रहता था। वे उस शेर से बच कर निकल जाना चाहते थे परन्तु शेर ने उनको बीच रास्ते ही में रोक लिया।
शेर बोला - "दोस्तों, क्यों न हम लोग आज साथ साथ शिकार पर चलें। मैं दो घन्टे से इधर उधर घूम रहा हूं पर आज मुझे कुछ मिला ही नहीं। तुम्हारी सूंघने की ताकत और मेरी शारीरिक ताकत दोनों मिल कर शायद कुछ पा सकें। फिर हम लोग उसे बाँट लेंगे।"
हालाँकि हयीना लोग अपना शिकार खुद ही करना पसन्द करते थे परन्तु यह बात शेर से कहे कौन? आज तो वे फंस चुके थे सो वे सब शेर के साथ चल दिये।
पर शायद किस्मत उनके साथ थी इसलिये हयीनाओं की सूंघने की ताकत जल्दी ही उन सबको एक पेड़ के पीछे ले गयी जहाँ एक शिकारी ने अपनी शिकार की गई मुर्गियाँ एक थैले में रखी हुई थीं। शेर ने तुरन्त ही वह थैला फाड़ डाला और उसमें से सारी मुर्गियों को बाहर निकाल लिया। वे पूरी दस थीं।
शेर बोला "देखो न हयीना, हम लोगों का साथ साथ शिकार पर निकलना कितना अच्छा रहा। हम लोगों को तुरन्त ही खाना मिल गया। आओ अब इसे बाँट लेते हैं।"
ऐसा कह कर उसने नौ सबसे अच्छी मोटी मोटी मुर्गियाँ अपने लिये चुन लीं और एक पतली सी छोटी सी मुर्गी उसने हयीनाओं की तरफ उछाल दी।
हालाँकि सब हयीनाओं ने धीरे से गुर्रा कर इस बंटवारे पर अपना गुस्सा जाहिर किया परन्तु शेर की एक हल्की सी गुर्राहट पर ही सारे हयीना शान्त भी हो गये।
शेर ने हयीनाओं से पूछा - "क्या बात है? आप लोग मेरे इस बंटवारे से कुछ अनमने से क्यों हैं? क्या मैंने बंटवारा ठीक से नहीं किया?"
हयीना डर के मारे कोई जवाब नहीं दे पा रहे थे। कुछ देर तो शेर ने उनके जवाब का इन्तजार किया फिर जब उसको उनसे कोई जवाब नहीं मिला तो उसने अपनी नौ मुर्गियाँ उठायीं और अपने घर की तरफ चल दिया।
उधर वे दुखी उदास हयीना भी अपनी पतली सी छोटी सी मुर्गी उठा कर इसलिये जल्दी जल्दी अपने घर चल दिये ताकि उनके पिता को उनके देर से घर आने की चिन्ता न हो। घर आ कर उन्होंने अपने पिता को अपने शिकार की कहानी सुनायी।
पिता हयीना ने जब अपने बेटों की कहानी सुनी तो उसने अपने बेटों को उनकी सुस्ती और डरपोक होने पर आधे घंटे का एक भाषण दिया और फिर आखीर में कहा "यह तो एक हयीना का एक कौर भी नहीं है। हम सब इसमें से कैसे खायेंगे?"
हयीना का एक बेटा बोला - "पिता जी, हमने तो आपके लिये बहुत ही बढ़िया खाना चुना था पर शेर का हिस्सा हमारी उम्मीद से कहीं ज़्यादा निकला। हम क्या करते।"
इसके बाद उसने अपने पिता को सारी कहानी विस्तार से सुना दी कि किस प्रकार रास्ते में उनको शेर मिल गया था और फिर किस प्रकार मुर्गियों का बंटवारा हुआ।
पिता हयीना सारी कहानी सुनने के बाद तो और भी ज़्यादा गुस्सा हुआ और इतना ज़्यादा गुस्सा हुआ कि उसके बेटों को लगा कि उनके पिता को दौरा पड़ गया है। उसका गुस्सा बढ़ता ही जा रहा था।
गुस्से में उसने वह दुबली सी पतली सी मुर्गी उठायी और अपने बेटों से बोला - "आओ चलो, मेरे साथ चलो। मैं इस चिड़िया के बदले में अपनी मुर्गियों का हिस्सा शेर से ले कर आता हूं। न्याय तो होना ही चाहिये न।
तुमको तो खुश होना चाहिए कि तुम्हारा पिता अभी भी इतना बहादुर और हिम्मत वाला है कि वह शेर का सामना कर सकता है।"
कह कर हयीना ने अपने सब बेटों को अपने साथ लिया और वे सब शेर की माँद के पास पहुंचे। पिता हयीना ने शेर को आवाज लगायी - "ए शेर, तुम जरा अपनी माँद से बाहर तो निकलो, मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूं।"
एक पल की खामोशी के बाद शेर सोता हुआ सा अपनी माँद में से बाहर आया और बाहर आ कर ज़ोर की एक गरज की। फिर बड़ी नम्रता से पिता हयीना से बोला - "दोस्त, तुम्हें कुछ चाहिये क्या?"
पिता हयीना ने अपने गले का थूक सटका, फिर अपना गला साफ किया और वह दुबली सी और पतली सी मुर्गी उसकी ओर बढ़ाता हुआ बोला - "मेरे दोस्त शेर, मेरे बच्चों ने मुझे बताया कि किस उदारता के साथ तुमने खाने का बंटवारा किया। उस उदारता के लिये धन्यवाद के तौर पर मैं तुम्हें यह दुबली सी और पतली सी मुर्गी भेंट करने आया हूं।"
कह कर उसने वह दुबली सी और पतली सी मुर्गी वहीं छोड़ी और अपने घर वापस आ गया।
इस कहानी से भी हमको यही शिक्षा मिलती है कि अपने से ताकतवर दुश्मन के साथ लड़ने झगड़ने और बहस करने से कोई फायदा नहीं।
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सुषमा गुप्ता ने देश विदेश की 1200 से अधिक लोक-कथाओं का संकलन कर उनका हिंदी में अनुवाद प्रस्तुत किया है. कुछ देशों की कथाओं के संकलन का विवरण यहाँ पर दर्ज है. सुषमा गुप्ता की लोक कथाओं की एक अन्य पुस्तक - रैवन की लोक कथाएँ में से एक लोक कथा यहाँ पढ़ सकते हैं.
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सुषमा गुप्ता का जन्म उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ शहर में सन् 1943 में हुआ था। इन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से समाज शास्त्र और अर्थ शास्त्र में ऐम ए किया और फिर मेरठ विश्वविद्यालय से बी ऐड किया। 1976 में ये नाइजीरिया चली गयीं। वहॉ इन्होंने यूनिवर्सिटी औफ़ इबादान से लाइब्रेरी साइन्स में ऐम ऐल ऐस किया और एक थियोलोजीकल कौलिज में 10 वर्षों तक लाइब्रेरियन का कार्य किया।
वहॉ से फिर ये इथियोपिया चली गयीं और वहॉ एडिस अबाबा यूनिवर्सिटी के इन्स्टीट्यूट औफ़ इथियोपियन स्टडीज़ की लाइब्रेरी में 3 साल कार्य किया। तत्पश्चात इनको दक्षिणी अफ्रीका के एक देश़ लिसोठो के विश्वविद्यालय में इन्स्टीट्यूट औफ़ सदर्न अफ्रीकन स्टडीज़ में 1 साल कार्य करने का अवसर मिला। वहॉ से 1993 में ये यू ऐस ए आगयीं जहॉ इन्होंने फिर से मास्टर औफ़ लाइब्रेरी ऐंड इनफौर्मेशन साइन्स किया। फिर 4 साल ओटोमोटिव इन्डस्ट्री एक्शन ग्रुप के पुस्तकालय में कार्य किया।
1998 में इन्होंने सेवा निवृत्ति ले ली और अपनी एक वेब साइट बनायी- www.sushmajee.com <http://www.sushmajee.com>। तब से ये उसी वेब साइट पर काम कर रहीं हैं। उस वेब साइट में हिन्दू धर्म के साथ साथ बच्चों के लिये भी काफी सामग्री है।
भिन्न भिन्न देशों में रहने से इनको अपने कार्यकाल में वहॉ की बहुत सारी लोक कथाओं को जानने का अवसर मिला- कुछ पढ़ने से, कुछ लोगों से सुनने से और कुछ ऐसे साधनों से जो केवल इन्हीं को उपलब्ध थे। उन सबको देखकर इनको ऐसा लगा कि ये लोक कथाएँ हिन्दी जानने वाले बच्चों और हिन्दी में रिसर्च करने वालों को तो कभी उपलब्ध ही नहीं हो पायेंगी- हिन्दी की तो बात ही अलग है अंग्रेजी में भी नहीं मिल पायेंगीं.
इसलिये इन्होंने न्यूनतम हिन्दी पढ़ने वालों को ध्यान में रखते हुए उन लोक कथाओं को हिन्दी में लिखना पा्ररम्भ किया। इन लोक कथाओं में अफ्रीका, एशिया और दक्षिणी अमेरिका के देशों की लोक कथाओं पर अधिक ध्यान दिया गया है पर उत्तरी अमेरिका और यूरोप के देशों की भी कुछ लोक कथाएँ सम्मिलित कर ली गयी हैं।
अभी तक 1200 से अधिक लोक कथाएँ हिन्दी में लिखी जा चुकी है। इनको "देश विदेश की लोक कथाएँ" क्रम में प्रकाशित करने का प्रयास किया जा रहा है। आशा है कि इस प्रकाशन के माध्यम से हम इन लोक कथाओं को जन जन तक पहॅुचा सकेंगे.
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