प्रकाश चन्द्र पारख की पुस्तक - Crusader or Conspirator? by P C Parakh का हिन्दी अनुवाद अनुवादक - दिनेश माली भाग 1 // भाग 2 // 4 नागरिक आ...
प्रकाश चन्द्र पारख की पुस्तक - Crusader or Conspirator? by P C Parakh का हिन्दी अनुवाद
अनुवादक - दिनेश माली
4
नागरिक आपूर्ति विभाग : तैलीय पदार्थ
मुझे आईएएस की नौकरी करते हुए लगभग एक दशक बीत चुका था। अलग-अलग क्षेत्र में तरह-तरह की अभिज्ञता से मैं परिपक्व होता जा रहा था, मगर मेरे मन में निहित ईमानदारी, कर्तव्य-परायणता और कर्मठता की भावनाएँ मेरे अंतस् को संघर्ष के लिए तैयार करती और शायद मुंशी प्रेमचंद के कहानी ‘नमक का दरोगा’ के नायक के अंदर मैं अपनी प्रतिच्छाया खोजने लगता,जिसने मुझे ऐसा जीवन जीने के लिए प्रेरित किया। मैं बिलकुल भी सहन नहीँ कर पाता था,अनियमितताओं और भ्रष्टाचार से लिप्त आचार-संहिताओं को। जो देश कभी विश्वगुरु हुआ करता था, आज उसकी ऐसी दुर्दशा? भारतेन्दु हरिश्चंद्र की कविता ‘भारत-दुर्दशा’ की कुछ पंक्तियां याद आ जाती थी:-
अंग्रेज़ राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख़्वारी।
सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई।
हा! हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई॥
अंग्रेजों ने देश का शोषण किया, यह बात तो समझ में आती है। मगर हमारे देश के नेता ही हमारी जनता का शोषण करेंगे, यह बात हजम नहीँ हो रही थी।
बीसवीं सदी के आठवें दशक की शुरूआत में देश में ‘आवश्यक सामग्री’ अर्थात् ‘ऐसेन्सियल कॉमोडिटीज’ की कमी थी। सरकार सार्वजनिक वितरण प्रणाली राशन की दुकानों के तहत विदेशों से आयातित पाम ऑयल, पामोलिन और रेपसीड तेल को जनता को आवंटित कर रही थी।
जब मैं आंध्रप्रदेश में नागरिक आपूर्ति विभाग का निदेशक बना, मैंने पाया कि भारत सरकार हमारे राज्य के लिए पामोलीन और रेपसीड ऑयल की बराबर-बराबर मात्रा वितरित कर रही थी। आंध्रप्रदेश के लोग रेपसीड ऑयल (राई का तेल) पसंद नहीँ करते थे, क्योंकि इसकी गंध बहुत तीक्ष्ण होती थी। उत्तर और पूर्व के भारत के हिस्सों में यह पसंद किया जाता था, इसलिए मैंने भारत सरकार को एक पत्र लिखा कि आप आंध्रप्रदेश के लिए रेपसीड तेल का कोटा शून्य कर पामोलिन का कोटा उतना ही बढ़ा दें।
पहला, मेरे अनुरोध के बावजूद भी भारत सरकार ने पाँच हजार टन रेसपीड ऑयल हमारे राज्य के लिए आवंटित कर दिया। पता नहीँ क्यों? खैर, जो भी कारण रहे हो। दूसरा, इस तेल की यहाँ कोई मांग नहीँ थी, मगर मेरे ऑफिस में इस तेल के वितरण हेतु मिल मालिकों की लाइन लग गई। यह बात भी मुझे कुछ समझ में नहीँ आई।
मैंने नागरिक आपूर्ति विभाग के तत्कालीन कमिश्नर श्री पी. सीतापथी को एक विस्तृत नोट भेजा, जिसमें यह लिखा था कि यह तेल मिल वालों को उनकी विगत वर्ष की दक्षता या उनकी परिशोधन क्षमता के आधार पर आवंटन कर दिया जाए। कमिश्नर ने उस फाइल पर एक पेज का लंबा नोट लिखा और मेरे पास लौटा दिया।
उस नोट में न तो मेरे प्रस्ताव को स्वीकार किया गया था न ही अस्वीकार। उनकी नोटिंग मेरी समझ से परे थी, इसलिए मैं उनसे सीधे तौर पर बातचीत करने के लिए चला गया। मगर उन्होंने इस विषय पर कुछ भी बातचीत नहीँ की, सिर्फ इतना ही कहा, ‘‘इस फाइल को पेडिंग रहने दो।’’ और फिर टूर पर चले गए। जब कमिश्नर टूर पर थे, मुझे मुख्यमंत्री के सचिव श्री एस. संथानम ने फोन किया,‘‘पारख साहब, तेल आवंटन में इतनी देरी क्यों हो रही है?’’ मैंने प्रत्युत्तर में कहा, ‘‘इस संदर्भ में किसी भी प्रकार का कमिश्नर साहब ने आदेश पारित नहीँ किया है ।’’ सचिव ने फोन पर कहा, ‘‘आप इस फाइल को मेरे पास ले आइए।’’
मैं वह फाइल उनके पास लेकर गया। उन्होंने उस फाइल में लिखा कि तीन मिल मालिकों को यह तेल आवंटित किया जाए, जिनके नाम इस फाइल में लिखे हुए हैं। फाइल लौटाते समय उन्होंने कहा,‘‘मैं चीफ मिनिस्टर का सेक्रेटरी हूँ, न कि सरकार का। जो वह चाहते हैं, वही मैं लिख रहा हूँ। कमिश्नर सरकार के सेक्रेटरी को, अगर उन्हें लगता है कि यह आदेश गलत है तो मुख्यमंत्री से सीधे बातचीत कर सकते है या अपनी सिफारिशें लिखकर इस फाइल को लौटा सकते है।’’
दौरे से जब कमिश्नर साहब लौटे तो मैंने वह फाइल उन्हें पकड़ा दी और उनके सचिव का मौखिक वक्तव्य भी सुना दिया। इसके बाद कमिश्नर ने मुझे अपनी दुविधा बताई ,‘‘मुख्यमंत्री चाहते हैं कि यह तेल केवल तीन मिल मालिकों को मिले, मगर इसके आवंटन के लिए बहुत लोगों ने आवेदन किया है।’’
श्री पी. सीतापथी एक ईमानदार अधिकारी थे और वह अपने हाथ से कोई गलत निर्णय नहीँ लेना चाहते थे। दूसरी तरफ वह मुख्यमंत्री को भी नाराज नहीँ करना चाहते थे। इसलिए मुख्यमंत्री कार्यालय का लिखित अनुदेश पाकर वह अपने आपको कुछ हल्का अनुभव कर रहे थे। इस अनुदेश के अनुसार उन्होंने तेल की समूची मात्रा तीनों मिल मालिकों को आवंटित करने के आदेश जारी कर दिए।
दूसरे दिन क्या हुआ? हाईकोर्ट ने इस आवंटन पर स्टे लगा दिया। जिन मिल मालिकों को तेल नहीँ मिला था, वे हाईकोर्ट जाकर स्टे ले आए। एक महीना ऐसे ही गुजर गया। उसके बाद सारे मिल मालिक एक पत्र के साथ मेरे पास पहुँचे और बोले,‘‘हम प्रो राटा(यथानुपात) बेसिस पर तेल लेने के लिए तैयार है और हाईकोर्ट में दी गई रिट को वापस ले लेंगे।’’
इसी बीच में मैंने पता लगाया कि रेपसीड तेल के आवंटन पर इतनी छीना-झपटी क्यों हो रही है? मुझे पता चला कि जो रेसपीड तेल राशन के जरिए आवंटित किया जा रहा है, उसकी कीमत 6000 प्रति टन है, जबकि कोलकाता बाजार में उसी तेल की कीमत रू. 13000 प्रति टन है। चूँकि आंध्रप्रदेश में इस तेल की डिमांड नहीँ है, इसलिए ब्लैक मार्केट में इस तेल को विशाखापट्टनम बंदरगाह से प.बंगाल में बड़े प्रीमियम पर बेच दिया जाता है।
पर्दे के पीछे का रहस्य खुल गया था। अपनी रिट वापस लेने के बाद उन मिल मालिकों को आनुपातिक आधार पर तेल वितरित कर दिया गया। मगर उन पर नकेल कसने के लिए मैंने एक शर्त अवश्य लगा दी कि जिला वितरण अधिकारी की जांच के बाद ही तेल का फेयर प्राइस शॉप में वितरण के लिए रिलीज किया जाएगा।
पहली बार रेपसीड तेल मिल-परिसरों में पहुँचा। यह हर कोई जानता था कि राशन की दुकानों से रेपसीड तेल खरीदने वाला कोई ग्राहक नहीँ था। कुछ सप्ताह ऐसे ही बीत गए। उसके बाद वे लोग इस तेल को खुले बाजार में बेचने की अनुमति लेने हेतु अभ्यावेदन बनाकर मेरे पास पहुँचे।
मैंने एक नोट कमिश्नर के पास प्रस्तुत किया।यह लिखते हुए कि राशन की दुकानों से रेपसीड तेल नहीँ बिकने की जानकारी मिल मालिकों को पहले से ही थी, फिर भी ये लोग इस तेल का वितरण करना चाहते हैं। चूँकि यह तेल सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत आवंटित किया गया था, अत: इसे खुले बाजार में बेचने की अनुमति नहीँ दी जा सकती। इस नोट पर हस्ताक्षर करने से पूर्व ही श्री पी. सीतापथी का स्थानांतरण हो गया। नए कमिश्नर के ज्वाइन करने के बाद यह सबसे पहली फाइल थी, जिस पर उन्होंने हस्ताक्षर किए।उन्होंने यह लिखते हुए कि यदि खुले बाजार में तेल बेचने के आदेश नहीं दिए गए तो यह खराब हो जाएगा और लोगों के खाने लायक नहीं रहेगा। इसलिए तेल को खुले बाजार में बेचने की अनुमति दी जाए।अब आप समझ सकते हैं कि नोट पर हस्ताक्षर नहीँ करने के कारण स्थानांतरण और नए प्रभारी का पदभार ग्रहण करते ही सबसे पहले उसी नोट पर हस्ताक्षर करना, किस बात की ओर संकेत करता है। नेताओं के मन मुताबिक काम नहीँ करने पर ईमानदार अधिकारियों को रास्ते का काँटा समझकर दूर फेंक दिया जाता है। और उनकी इच्छा के अनुरूप कार्य करने पर दक्ष अधिकारी की ऊर्जा प्राप्त करते हैं। सरकार ही नहीँ, जनता भी तो स्वार्थी है। जब-जब उनके स्वार्थों पर कुठाराघात होता है तब-तब प्रभावित लोग इकट्ठे होकर ऐसा खेल खेलते हैं, जिससे स्वत: उनके रास्ते की अड़चन दूर हो जाती है। ब्यूरोक्रेसी के लिए इससे बड़ी विसंगति क्या होगी? दुधारी तलवार पर चलने से कम नहीँ होता है ऐसा कोई निर्णय लेना।
यह बात सही थी कि ज्यादा संग्रहण के कारण यह तेल खराब हो जाता, मगर मिल मालिकों को बेमतलब फायदा पहुँचाने के लिए उन्हें खुले बाजार में बेचने की अनुमति देना बिलकुल गलत था। बल्कि जन-हित के पक्ष में सही विकल्प यह होता कि इस तेल को आंध्रप्रदेश के नागरिक आपूर्ति निगम को ई-ऑक्शन द्वारा बेचने के लिए सुपुर्द कर दिया जाता।
बहुत सालों वाद इस रहस्य पर्दाफाश हुआ। उस समय मैं सरकार के सेल्स टैक्स डिपार्टमेंट में था, आंध्रप्रदेश ऑयल मिलर्स एसोसिएशन के सचिव श्री राजगोपाल ने मुझे बताया कि मिल मालिकों ने तेल आवंटन का आदेश पाने के लिए लाखों रुपये खर्च किए थे और उसे खुले बाजार में बेचने की अनुमति पाने के लिए और भी लाखों रुपये।मुख्यमंत्री बदल चुके थे, असुविधा पैदा करने वाले अधिकारियों के तबादले की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई थी।
5 . कलेक्टर एंड डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट : गुटबंदी का अहंकार
मई 1980 में, मैं करनूल का जिला कलेक्टर बना। उस समय आंध्रप्रदेश में कोई मजबूत विरोधी पार्टी नहीँ थी और करनूल के सारे विधायक इंडियन नेशनल कांग्रेस पार्टी के ही थे। मगर फिर भी उनमें आतंरिक मतभेद बहुत थे, और तीन-चार खेमों में बंटे हुए थे। इसलिए मेरे लिए यह जरूरी था कि सभी खेमों से बराबर दूरी बनाए रखूँ।
कुछ महीने ही बीते थे कि सरकार की संरचना में परिवर्तन हुआ। तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. एम. चैन्ना रेड्डी ने अपने पद से त्याग पत्र दे दिया और उनके स्थान पर श्री टी अंजईया नए मुख्यमंत्री बने। श्री अंजईया का कैबिनेट बहुत बड़ा था, करनूल से ही तीन कैबिनेट मंत्री थे और वे तीनों कांग्रेस के अलग-अलग गुटों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। श्री रामभूपाल रेड्डी राजस्व मंत्री, श्री ई . अयप्पा रेड्डी कानून मंत्री और श्री के. कृष्णामूर्ति लघु सिंचाई मंत्री।
एक बार जिले में दुर्भिक्ष पड़ा और जिले के अकालग्रस्त इलाकों में राजस्व मंत्री का तीन दिनों का दौरा हुआ। प्रोटोकॉल के अनुसार कलेक्टर को मुख्यमंत्री और राजस्व मंत्री के जिले में दौरे के समय उनके साथ रहना होता है, इसलिए मैं राजस्व मंत्री के साथ रहा। कुछ दिनों के बाद कानून मंत्री भी अकालग्रस्त इलाकों का दौरा करने आए और उस दौरे के दौरान वह भी मुझे अपने साथ रखना चाहते थे। मैं मंत्रीजी को सर्किट हाऊस में मिला और अपनी समस्या बताते हुए उनसे कहा, ‘‘मैं विगत तीन दिनों से राजस्व मंत्री के साथ में था, आपके दौरे में ज्वांइट कलेक्टर को आपके साथ भेज रहा हूँ।" उनको यह प्रस्ताव पसंद नहीं आया,मगर न चाहते हुए भी मेरी बात पर वह सहमत हो गए। लंबे समय से आंध्रप्रदेश में स्थानीय निकायों में भी निर्वाचन नहीँ हुए थे। अत: सरकार ने तय किया कि हर जिले में विकास गतिविधियों का जायजा लेने के लिए एक मंत्री को प्रभारी बनाया जाए। करनूल का प्रभारी सबसे वरिष्ठ नेता श्री अयप्पू रेड्डी को बनाया गया। उनके प्रभारी बनने के बाद मैंने करनूल में उनके प्रथम दौरे के समय सर्किट हाउस में उनकी खातिरदारी करने के लिए मंडलीय राजस्व अधिकारी (डिप्टी कलेक्टर) को नियुक्त किया।
मैंने डिप्टी कलेक्टर से कहा, ‘‘जैसे ही मंत्रीजी आएँ, मुझे सूचित करें ताकि मैं उनसे मिल सकूँ।’’ जब मंत्रीजी वहाँ पहुँचे तो उनके स्वागत के लिए कलेक्टर और एस.पी. (पुलिस अधीक्षक) को आया न देखकर वह तमतमा उठे। जब मैं उनसे मिलने सर्किट हाउस आया तो उनके चेहरे पर नाराजगी के भाव साफ झलक रहे थे, मानो किसी ने उनकी तौहीन कर दी हो। मैंने मंत्रीजी को प्रोटोकॉल के बारे में समझाते हुए कहा, ‘‘कलेक्टर और एस.पी. केवल राज्यपाल,मुख्यमंत्री और भू-राजस्व मंत्री की अगवानी के लिए सर्किट हाउस में उपस्थित होना होता है। बाकी मंत्री, चाहे तो, किसी खास मुद्दे पर बातचीत करने के लिए उन्हें बुला सकते है।’’ मगर मंत्रीजी अभी भी नाखुश थे, साधारणतया मंत्री के आवभगत की ज़िम्मेदारी संबंधित डिस्ट्रिक्ट अधिकारी की होती है। क्योंकि श्री अयप्पू रेड्डी कानून मंत्री थे और जिले में कोई डिस्ट्रिक्ट लॉ ऑफिसर नहीँ होता है। इसलिए मैंने सारी बातें समझाते हुए उनसे कहा, ‘‘आगे से करनूल जिले के सदर तहसीलदार आपकी आवाभगत करने के लिए सर्किट हाऊस में रहेंगे।“ मंत्रीजी को मेरी यह सलाह नागवार गुजरी। उन्हें ऐसा लगा, जैसे मैंने तहसीदार का नाम लेकर उनके अहम को चोट पहुंचाई है यहीं से हमारे सम्बन्धों में कड़वाहट आने लगी।
आंतरिक मतभेदों के कारण राजनेताओं द्वारा अपने-अपने चेहतों का इच्छानुसार ट्रांसफर व पोस्टिंग करवाना आम बात हो गई थी। श्री अयप्पू रेड्डी की भी कुछ माँगें ऐसी ही थी, जिसे मैं पूरा नहीँ कर सकता था। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (जिसे दूसरे शब्दों में ‘काम के बदले भोजन योजना’ भी कहते थे) के अंतर्गत गाँवों में संरचनात्मक सुविधाएँ उपलब्ध करवाना मुख्य उद्देश्य था। बहुत सारे ठेकेदार सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर इस योजना का चावल खुले बाजार में बेच रहे थे। श्री अयप्पू रेड्डी का कोई रिश्तेदार अधिकारी भी ठेकेदारों के साथ मिलकर चावल बेचते हुए पकड़ा गया था। उस अधिकारी को मैं निलंबित करना चाहता था, मगर मंत्रीजी चाहते थे कि मैं केवल उसे वार्निंग देकर छोड़ दूँ। मैंने सरकार से उसे निलंबित करने की गुजारिश की, मगर मंत्री ने उसका निलंबन रुकवाने के लिए अपने पूरे प्रभाव का प्रयोग किया। अंततः उसका दूर दराज जिले श्रीकाकुलम में स्थानांतरण कर दिया गया।
इस घटना के उपरांत दो तिमाही बैठकें बिना किसी शिकायत-शिकवे के मंत्रीजी की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। इन समीक्षा बैठकों में कभी भी हमने एक दूसरे से बातचीत नहीँ की। मगर मंत्रीजी का चेहरा हर समय तमतमाया रहता था मुझे देखकर। उनकी भाव-भंगिमा और चेहरे की लकीरों में मेरे प्रति घृणा के भाव साफ झलकते हुए प्रतीत होते थे।
समुद्र में रहकर मगरमच्छ से वैर करना कहाँ उचित है, सोचकर एक बार जब मैं हैदराबाद गया था, तो अपने और मंत्रीजी के बीच पैदा हुए कटु संबंधों के बारे में मुख्य सचिव श्री एस.आर. राममूर्ति को बताते हुए उनसे कहा,‘‘सर, करनूल में मेरा रहना अब ठीक नहीँ है। श्री अयप्पू के साथ मेरे संबंध ठीक नहीँ हैं। बेहतर यही होगा कि आप मेरा वहाँ से ट्रांसफर कर दें।’’ मंत्रीजी के साथ कलेक्टर के संबंध अच्छे नहीँ हैं, तो उनका दूसरी जगह ट्रांसफर कर दिया जाए, यह वजह मुख्यसचिव को उचित नहीँ लगी। करनूल से मेरा और स्थानांतरण नहीँ हुआ।
इसी दौरान करनूल की सबसे बड़ी औद्योगिक ईकाई का निर्माण कार्य संपन्न हुआ,- ‘‘नांदियाल कॉऑपरेटिव शुगर मिल’’। इस ईकाई की महत्ता को देखकर प्रबंधन समिति के चेयरमैन की हैसियत से मैंने मिल के उद्घाटन हेतु मुख्यमंत्री को आमंत्रित करने का निश्चय किया। इस कार्य हेतु मैं मुख्यमंत्री श्री टी.अंजईया से मिला और उन्हें शुगर मिल के उद्घाटन करने का अनुरोध किया। वह इसके लिए तुरंत सहमत हो गए और अगले महीने की एक तारीख मुकर्रर कर दी। मुख्यमंत्री की सहमति के बाद मैं श्री अयप्पू रेड्डी के कैम्प ऑफिस गया, उन्हें इस आयोजन की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित करने हेतु। यह खबर सुनते ही वह पूरी तरह आग बबूला हो उठे। उनकी अप्रत्याशित प्रतिक्रिया देखकर मैं स्तब्ध रह गया। अपनी त्यौरियाँ चढ़ाते हुए उन्होंने मुझे कहा,‘‘आप अपने आप को समझते क्या हैं? मेरी आज्ञा के बिना आपने मुख्यमंत्री को आमंत्रित करने की जुर्रत कैसे की?’’
मैंने उनको शांत करने के लहजे में समझाते हुए कहा, ‘‘मैंने ऐसी कोई गलती नहीँ की है मुख्यमंत्री को आमंत्रित कर। इसमें आपकी इजाजत की जरूरत नहीँ थी। जब मुख्यमंत्री इस मिल के उद्घाटन के लिए राजी है तो इस जिले के प्रभारी मंत्री होने के नाते आपको उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता करना शोभा देता है।’’ मंत्रीजी का गुस्सा अभी शांत नहीँ हुआ था। गुस्से से आँखें तरेरते हुए वह कहने लगे, ‘‘उस समारोह में मेरे आने का कोई मतलब नहीँ है, जब तुम मुझसे पूछे बिना किसी राजा की तरह जिले प्रशासन संभाल रहे हो।’’
गुस्से से वह अपना आपा खो बैठे थे। क्या कह रहे है, क्या नहीँ कह रहे हैं, उन्हें पता नहीँ चल रहा था। चिल्लाते-चिल्लाते वह मेरे ऊपर भी भ्रष्टाचार का आरोप लगाने लगे, ‘‘तुम एक भ्रष्ट अधिकारी हो। मुझे मालूम है कि एक बीडीओ(ब्लॉक डेवलपमेंट ऑफिसर) ने हैदराबाद में तुम्हारे मकान के लिए सीमेंट सप्लाई की है।’’ एक मंत्री के मुख से ऐसे निराधार और झूठे आरोप सुनकर मैं अवाक् रह गया। शरीर पूरी तरह शून्य! मानो काटो तो खून नहीँ। मेरा जमीर मुझे झकझोरने लगा और मैंने सीधे उनके मुँह पर उत्तर दिया, ‘‘आप इस तरह निराधार आरोप क्यों लगा रहे हो। अगर आपको लगता है कि मैंने किसी भी प्रकार की चोरी की है तो आप सीधे मुख्य सचिव या विजिलेन्स कमिश्नर को मेरे बारे में शिकायत कर सकते हैं। दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा।’’
मंत्रीजी की इस तरह की प्रतिक्रिया के बाद मैंने सोचा बेहतर यही रहेगा कि करनूल से ट्रांसफर ले लिया जाए। कम से कम जनता के सामने हमारे खराब संबंध उजागर नहीं होंगे और सरकार को भी किसी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ेगा। हैदराबाद से करनूल लौटकर मैंने मुख्य सचिव को एक पत्र लिखा, जो इस पुस्तक की परिशिष्ट (5.1) में संलग्न है। ये सारी बातें उस पत्र में समाहित है।
कोई नेता क्या उद्घाटन समारोह का अवसर छोड़ता है? श्री रेड्डी मुख्यमंत्री के साथ नांदियाल कोऑपरेटिव शुगर मिल के उद्घाटन समारोह में भाग लेने के लिए हेलिकॉप्टर में बैठकर आए। उद्घाटन समारोह संपन्न होने के बाद हैदराबाद जाने से पूर्व मुख्यमंत्री ने मुझे अपने कमरे में बुलाया और शालीनता-पूर्वक पूछा, ‘‘मैं एक बात नहीँ समझ पा रहा हूँ, जब जिले के सारे नेता तुम्हारे काम से खुश हैं तो प्रभारी मंत्री अयप्पू रेड्डी नाखुश क्यों हैं?’’
मैंने शुरू से लेकर अंत तक उनको सारी कहानी सुना दी और श्री रेड्डी नाराजगी के कारण स्पष्ट करते हुए कहने लगा, ‘‘मेरे और मंत्रीजी के असौहार्द्र संबंधों के कारण मेरे लिए यही बेहतर रहेगा कि मैं करनूल जिला छोड़कर अन्यत्र चला जाऊँ।’’ मुख्यमंत्री को मेरा सुझाव पसंद आया और मेरे मनपसंद दूसरे जिले में पोस्टिंग का ऑफर दिया।
मैंने विनम्रतापूर्वक उनसे कहा,‘‘सर,मेरे लिए यही ठीक रहेगा कि आप फिर से मेरी पोस्टिंग हैदराबाद कर दें।’’
उन्होंने मेरा आग्रह स्वीकार किया। मेरी नियुक्ति हैदराबाद में कामर्शियल टैक्स के सह आयुक्त के रूप में कर दी गई। भले ही, श्री अंजईया ज्यादा पढ़े-लिखे इंसान नहीँ थे। एक सामान्य मजदूर से उठकर मुख्यमंत्री बने थे, मगर करनूल से मेरा ट्रांसफर करने के उनके तरीके से मैं बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ। उससे पहले डॉ. चेन्ना रेड्डी अपने टेलीग्राफिक संदेशों के माध्यम से ट्रांसफर करने के लिए खूब मशहूर थे। आज भी श्री अंजईया को मैं तहे दिल से धन्यवाद देना चाहूँगा कि कम से कम उन्होंने मेरी बातें सुनी, मेरी राय मांगी और उसके बाद मेरा ट्रांसफर किया।अगर वह चाहते तो बिना कुछ पूछे ही वह मेरा ट्रांसफर कर सकते थे। मगर उन्होंने ऐसा नहीँ किया। अगर ऐसा करते तो मुझे ऐसा लगता कि श्री अयप्पू रेड्डी की बातें नहीँ मानने के कारण सजा के तौर पर मेरा ट्रांसफर किया गया है।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
COMMENTS