प्रकाश चन्द्र पारख की पुस्तक - Crusader or Conspirator? by P C Parakh का हिन्दी अनुवाद अनुवादक - दिनेश माली भारतीय कोयला जगत में पारदर्शिता ...
प्रकाश चन्द्र पारख की पुस्तक - Crusader or Conspirator? by P C Parakh का हिन्दी अनुवाद
अनुवादक - दिनेश माली
भारतीय कोयला जगत में पारदर्शिता लाने के लिए उठाए गए सार्थक कदमों के लिए भूतपूर्व कोयला सचिव प्रकाश चंद्र पारख का नाम सम्मान के साथ लिया जाता हैं। भारत में कोयले की ई-मार्केटिंग के जनक के रूप में उन्हें जाना जाता है। जिसकी वजह से कोयला बाजार में माफियों की भूमिका पर अंकुश लगा। आपने खुली बोली के माध्यम से कोयला ब्लाकों के आवंटन की पारदर्शी पद्धति का प्रस्ताव दिया। रुड़की विश्वविद्यालय (वर्तमान में आईआईटी रुड़की) से गोल्ड मेडल प्राप्त कर आपने नेशनल मिनरल डेवेलपमेंट कार्पोरेशन तथा हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड में माइनिंग ज्योलोजिस्ट के रूप में कार्य किया।आपने यूनाइटेड किंगडम के बाथ(bath) विश्वविद्यालय से फ़िस्कल(fiscal) स्टडीज़ में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। आंध्रप्रदेश के अपने पैतृक कैडर में पारख साहब ने अपना अधिकांश समय उद्योग मंत्रालय में बिताया तथा आंध्रप्रदेश को निवेश के लिए पसंदीदा राज्य बनाने में महती भूमिका अदा की।आपने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदत्त ईएफ़आईडी(EFID)प्रोग्राम के अंतर्गत हानि उठा रही स्टेट पब्लिक सेक्टर कंपनियों के निजीकरण एवं पुनःसंरचना में विशेष योगदान दिया। सेवानिवृत होने के वाद आप भगवान महावीर विकलांग सहायता समिति के कार्यों की देखभाल कर रहे हैं, जो कि आंध्रप्रदेश में कृत्रिम अंगों (प्रसिद्ध जयपुर पैर) के निशुल्क वितरण करने वाली दुनिया की सबसे बड़ी संस्था है। आप एक दूसरे एनजीओ भगवान महावीर रिलीफ फ़ाउंडेशन ट्रस्ट से भी जुड़े है, जो हैदरबाद में गरीब किडनी रोगियों की डायलिसिस की सुविधाएं उपलब्ध करवाता है।
सन 2012 में निजी कंपनियों को आवंटित किए गए कोल ब्लाकों के विवाद ने समूचे देश को हिला दिया। सरकार के वित्तीय प्रहरी(watchdog) कॉम्पट्रोलर एंड आडिटर जनरल (CAG)ने पाया कि सरकार ने अपनी मन पसंदीदा कंपनियों को खुले एवं प्रतिस्पर्धात्मक बोली को लागू किए बिना कोयला ब्लाक आवंटित किए,जिसकी वजह से देश को राजस्व का भारी नुकसान हुआ। सीएजी ने निष्कर्ष निकाला कि भारत सरकार को 1.86 लाख करोड़(बीस मिलियन डॉलर) से ज्यादा नुकसान हुआ,जो कि भारत के इतिहास में सबसे बड़े घोटाले के रूप में रिकॉर्ड किया गया।
भारत की प्रीमियर जांच एजेंसी सीबीआई ने कोयला मंत्रालय के सबसे बड़े अधिकारी सचिव श्री पी.सी.पारख तथा उद्योगपति कुमार मंगलम बिरला के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की। तीन दशकों से प्रशासनिक अधिकारी के रूप में अपनी सक्षमता एवं सत्यपरायणता के आधार पर आपने देश में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त की।कोल मंत्रालय में सबसे बड़े नौकरशाह के रूप में आपकी नियुक्ति कैरियर के अंतिम पादान पर थी। आपके खिलाफ प्राथमिकी का देश के बुद्धिजीवियों,सिविल सर्विसेस एवं कार्पोरेट इंडिया द्वारा व्यापक तौर पर भर्त्सना की गई।
आपकी पुस्तक “Crusader or Conspirator?” केवल कोयला घोटाले के बारे में नहीं है,बल्कि इस पुस्तक में आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्रियों से शुरू होकर भारत के दिग्गज राजनेताओं के साथ कार्यानुभव का भी वर्णन है। कोल मंत्रालय में ममता बनर्जी,शिबू सोरेन एवं भारत के प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह के जीवन संबन्धित अनुभवों का भी उल्लेख मिलता है। इस पुस्तक में की सूचनाएं पहले कभी प्रकट नहीं की गई।
श्री प्रकाश चंद्र पारख,पूर्व सचिव (कोयला),भारत सरकार की बहुचर्चित पुस्तक "Crusader or Conspirator?" का हिन्दी अनुवाद 'शिखर तक संघर्ष' है,जो अभी तक अप्रकाश्य हैं। इस ब्लॉग में पारख साहब के संस्मरण,भ्रष्टाचार के कारणों,कोलगेट घोटाले के तथ्यों एवं भविष्य में इन घटनाओं से बचने हेतु अपने सुझाव भी दिए हैं। हिन्दी पाठकों को यह अत्यंत ही रुचिकर लगेगा। साथ ही साथ,ईमानदारी से अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए प्रेरित करेगा।
श्री प्रकाश चंद्र पारख,पूर्व सचिव (कोयला),भारत सरकार की बहुचर्चित पुस्तक "Crusader or Conspirator?" का हिन्दी अनुवाद 'शिखर तक संघर्ष' है,जो अभी तक अप्रकाश्य हैं। इसमें पारख साहब के संस्मरण,भ्रष्टाचार के कारणों,कोलगेट घोटाले के तथ्यों एवं भविष्य में इन घटनाओं से बचने हेतु अपने सुझाव भी दिए हैं। हिन्दी पाठकों को यह पुस्तक अत्यंत ही रुचिकर लगेगी ।
साभार
दिनेश माली
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भाग 1
शिखर तक संघर्ष
प्रकाश चन्द्र पारख
पूर्व सचिव,कोयला मंत्रालय,भारत सरकार
अनुवाद :- दिनेश कुमार माली
“एक दक्ष,अनुशासित और संतुष्ट सर्विस, जो अपनी ईमानदारी
और कर्मठता(डेलीजेंट) से किए गए कार्यों के आधार पर अपने
भविष्य के बारे में आश्वस्त हो,उसकी आवश्यकता लोकतन्त्र
में सत्तावादी शासन से भी ज्यादा जरूरी है। यह सर्विस पार्टी
से ऊपर होनी चाहिए और हमें सुनिश्चित करना चाहिए कि
राजनैतिक सोच उनकी नियुक्ति और अनुशासन के मामलों
में कम से कम हो, अगर उसका पूरी तरह से उन्मूलन नहीं
किया जा सकता हैं।”
सरदार वल्लभभाई पटेल
भारत सरकार के प्रथम उपप्रधानमंत्री
एवं प्रथम गृहमंत्री
“An efficient, disciplined and contented service, assured of its prospectus as a result of diligent and honest work, is sine qua non of sound administration under a democratic regime even more than under authoritarian rule. The service must be above party and we should ensure that political considerations, either in its recruitment or in its discipline, are reduced to the minimum, if not eliminated altogether.”
Sardar Vallabhbhai Patel
First Deputy Prime Minister and
First Home Minister of India
अनुक्रमणिका
आमुख
भूमिका
अनुवादक की कलम से
भाग-1 (राज्य सरकार में सेवाएँ)
1. आंध्रप्रदेश कैडर:प्रथम सोपान का श्री गणेश
2. सब कलेक्टर आसिफाबाद : पहली-पहली अनुभूति
3. वाणिज्यिक कर : कामधेनु
4. नागरिक आपूर्ति निगम : तैलीय पदार्थ
5. कलेक्टर तथा डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट : गुटबंदी का अहंकार
6. हैदराबाद नगर निगम : पहला विद्रोह
7. आंध्रप्रदेश डेयरी विकास निगम : भंवर चकरी
8. गोदावरी फर्टिलाइजर्स एवं केमिकल लिमिटेड: एक चतुर सियार
9. उद्योग विभाग : घूस की होम डिलीवरी
10. पब्लिक इंटरप्राइजेज डिपार्टमेन्ट:राजनैतिक दबाव
भाग-2(कोयला मंत्रालय)
11. सुश्री ममता बनर्जी मेरी पहली कोयला-मंत्री : सादगी के दूसरी तरफ
12. मेरे दूसरे कोयला मंत्री श्री शिबू सोरेन: आए राम-गए राम
13. प्रधानमंत्री का पद भार ग्रहण करना -तीन विशिष्ट सुधार।
14. कैप्टिव कोल-ब्लॉकों का आवंटन
15. महालेखा परीक्षक यानि सीएजी सही और प्रधानमंत्री गलत क्यों ?
16. कोयले की ई-मार्केटिंग
17. कोल-इंडिया के सीएमडी का चयन : मंत्रियों द्वारा ब्लैकमेलिंग
18. ॰ सांसदों के खेल
19. श्री शिबू सोरेन
20. सुप्रीम कोर्ट,सीबीआई और कोलगेट
भाग-3 (भविष्य के लिए कोड)
21. सिविल सर्विस,मंत्री और जन-प्रतिनिधि
22. उपसंहार
भाग-4 (साक्षात्कार)
List Of Annexures
1. Annexure 5-I: My letter dated 06-04-1981 addressed to the Chief Secretary, Andhra Pradesh.
2. Annexure 6-I : My letter dated 08-02-1983 addressed to the Chief Secretary, Andhra Pradesh.
3. Annexure 6-II : News headline of Indian Express dated 11-2-1983
4. Annexure 6-III : My letter dated 11-03-1983 addressed to the Dr LM Singhvi.
5. Annexure 6-IV : Letter dated 13.03.1983 from Dr LM Singhvi.
6. Annexure 6-V : Memo. No. 389 dated 23.03.1983 of General Administration (SCD) Department Government of Andhra Pradesh.
7. Annexure 6-VI : My letter dated 13.09.1983 addressed to the Chief Secretary, Andhra Pradesh.
8. Annexure 9-I : My letter dated 22-09-1997 addressed to Mr LN Bangur, Chairman, AP Paper Mills Ltd.
9. Annexure 10-I : Note C.No. 45/PSP/PE/2001 dated 19.05.2001 submitted to the Chief Secretary, Government of Andhra Pradesh seeking transfer from the PE Department.
10. Annexure 10-II : Extracts from the report of the House Committee of the Andhra Pradesh Legislkature that enquired into the Irregularities by the private Management of Nizam Sugars Limited, 31st August 2006.
11. Annexure 14-I : Note dated 17.01.2005 submitted to the PMO requesting intervenation to expedite approval of Cabinet Note for introducing competitive bidding for allocation of coal blocks.
12. Annexure 17-I : Note dated 18.02.2005 of MoS seeking my explanation for referring Mr Shashi Kumar’s appointment to ACC, though the Minister had rejected his name.
13. Annexure 18-I : Letter No. CMD : ES :F-19:04:604 dated 06.12.2004 from the CMD, BCCL about activities of MR C.S Dubey, MP, hampering operations of BCCL.
14. Annexure 18-II : Letter dated 08.11.2004 from Mr CS Dubey, MP addressed to the Prime Minister seeking investigations by CVC or a parliamentary for my misconduct.
15. Annexure 18-III : My letter No Secy@/11019/04 dated : 06.12.2004 addressed to the Cabinet Secretary in response to Mr Dubey’s complained to the Prime Minister.
16. Annexure 18-IV : My Letter No.7192/Secy (Coal) dated 21.06.2005 addressed to the Cabinet Secretary seeking action against Mr. Narendra Kumar Kushwaha, MP for blackmailing Mr V.K Singh, CMD, NCL.
17. Annexure 18-V : Letter No CVC/2005/87/1349 dated 08.07.2005 from Mr P.Shankar, CVC, suggesting course of action to deal with problem of blackmail by MPs.
18. Annexure 18-VI : My Letter No Xecy (Coal)/ 08.08.05 dated 18.08.2005 addressed to the Cabinet Secretary seeking a meeting of the committee of secretaries to discuss problem of blackmails by MPs.
19. Annexure 18-VII : Letter No 600(AC) / 31/ C/28- (417)/05-es.II dated 02.08.2005 from Ms V Vidyavathi, Director, PMO informing that alligations made by Mr Furkan ansari and Mr. CS Dubey MPs against Mr RP Retolia CMD, CCL were found to be false.
20. Annexure 18-VIII : Letter No. CIL : CONF/ 584 dated 19.11.2005 from Mr Sashi kumar, CMD, CIL informing use of abusive and threatening language by Mr Ananth Kumar, Chairman of the Standing Committee of Parliament.
21. Annexure 18- IX : My note date 30.11.2005 to the MoS informing about misconduct of Mr Ananth Kumar and take such action as he and PM consider appropriate.
22. Annexure 18-X : My letter No. Secy(Coal)/ 8805 dated 08.08.2005 addressed to the Cabinmet Secretary seeking voluantry retirement following use of abusing language by Mr Dharmendra Pradhan at the consultative committee of the Parliament.
23. Annexure 18- XI : My letter No. Secy(Coal)/22.08.05 dated 22.08.2005 addressed to the Cabinet Secretary intimating the resumption of duty following meeting with the Prime Minister.
24. Annexure 18-XII : Letter No MP(LS/DGH/05 dated 28.08.2005 from Mr Dharmendra Pradhan MP addressed to the Prime Minister justifying his misconduct at the Parliamentary Standing Committee meeting.
25. Annexure 18-XIII : Office Memo No. 5401214/2005-CA-II dated 21.10.2005 from the the Ministry of Coal addressed to the PMO (Mr KV Pratap Deputy Seretary) in response to letter of Mr Dharemndra Pradhan.
26. Annexure 19-I : Letter dated 07.02.2004 from Mr Sibu Soren Minister of Coal addressed to the Prime Minister seeking my transfer and action against me for insubordination
27. Annexure 19-II : My letter No. 28/S/Secy(Coal) dated 22.03.2005 addressed to the Cabinet Secretary in esponse to Mr Soren’s complaint.
आमुख
संसदीय-प्रणाली में देश का शासन चलाने के लिए एक्जिक्यूटिव मुख्यतः उत्तरदायी होते हैं। इस प्रणाली में दो भाग होते हैं,पहला पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव, दूसरा परमानेंट एक्जिक्यूटिव। केंद्र और राज्य स्तर पर पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव नीति-निर्माण, गवर्नेंस, विकास के मुख्य मुद्दों पर निर्णय लेने तथा नीतियों के क्रियान्वयन की मॉनिटरिंग व सुपरविजन के प्रति जवाबदेह है। गांव से ब्लॉक और जिले तक हर स्तर पर सरकारी अधिकारी और कर्मचारी नियुक्त होते हैं और केंद्र व राज्य के सचिव तथा वरिष्ठ नौकरशाह व पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव द्वारा सौंपे गए कार्यों के क्रियान्वयन के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार होते हैं। उच्च स्तर पर सिविल सर्विस पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव के सलाहकार का काम करती है तथा नीति–निर्धारण में सहयोग करती है। स्वभावतः पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव तथा परमानेंट एक्जिक्यूटिव के बहुत सारे काम एक-दूसरे पर अध्यारोपित होते हैं , इसलिए उनके बीच मधुर संबंध अच्छे शासन के लिए एक आवश्यक शर्त होती है।
प्रशासन सिक्के के दो पहलू है –नौकरशाह और राजनेता। दोनों के मध्य मधुर संबंध और जनहित के लिए मिलकर काम करना एक अच्छे प्रशासन की कुंजी है । विगत कुछ दशकों में यह देखा गया है कि यह आदर्श ढांचा व्यावहारिक तौर पर गंभीर हद तक चोटिल हुआ है। पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव न केवल चापलूसी पसंद करते हैं बल्कि अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए सरकारी अधिकारियों से सही या गलत किसी भी तरह कार्य साधने के लिए आज्ञापालन की मांग करते हैं। राजनैतिक पटल पर बहुत ज्यादा भ्रष्टाचार आ जाने के बाद मंत्री या राजनैतिक मुखिया नौकरशाहों से व्यक्तिगत लाभ के लिए काम करवाना चाहते हैं , न कि जनहित में। यह मुख्य कारण है,शासन में तेजी से गिरावट आने का।
संक्षेप में, आज के जमाने में राजनीति एक व्यवसाय बन गया है, जैसे कोई युवा उद्योगपति व्यवसाय में अपनी पूंजी लगाकर अपना भविष्य संवारना चाह रहा हो। दुर्भाग्य से कुछ सम्मानजनक अपवादों के अतिरिक्त यह आजकल नियम-सा बन गया है। यह तो राजनेताओं का सौभाग्य है कि कोर्ट सामान्यतया इस तरह की हरकतों को ‘लेजिस्लेटर-प्रिविलेज’ मानकर इसमें हस्तक्षेप नहीं करते हैं ,इसको देखने के लिए सेबी (SEBI) जैसी कोई नई स्वतंत्र संस्था नहीं है। जो राजनेताओं के मेल-प्रेक्टिसों को नियंत्रण में रख सके। कई दशक हो गए, देश हमें लोकपाल का इंतजार कर रहा है। स्वतन्त्रता के बाद पहले दशकों में अधिकतर नीतियाँ उच्च सिविल सर्विस वाले अधिकारियों द्वारा प्रस्तावित, प्रायोजित तथा विकसित की गई और साधारणतया बाद में पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव ने इन नीतियों पर अपनी सहमति जताई।
1970 तक मंत्रियों ने नीति-निर्माण और साधारणत: व्यक्तिगत केसों में भी उच्च अधिकारियों की सलाह का सम्मान किया। मगर उसके बाद मंत्रियों द्वारा व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। इसलिए 1970 और 1980 के दौरान मंत्रियों द्वारा अपने अधीनस्थों को प्रत्यादिष्ट (ओवररुल) किया जाना आम बात बन गई और वे अपने हुक्म(रिट) चलाने लगे । सन 1990 के बाद में न्यायपालिका के विपरीत ध्यानाकर्षण के कारण उच्च अधिकारियों के तर्कसंगत, सही और उचित टिप्पणी को मनमाने (whimsical) तरीके से ओवररुल करना कठिन हो गया, विशेषकर कोर्ट द्वारा विपरीत ध्यानाकर्षण करने के कारण और अच्छी तरह बनाए हुए तर्कसंगत केस को खारिज करने में भी अन्तर्भूत समस्याएँ आने लगीं। इसके बाद असुविधाकारी सचिवों या संयुक्त सचिवों के स्थानांतरण का सिलसिला शुरू हो गया और स्वतंत्र और सही सलाह देने वाले अधिकारियों को हटाकर आज्ञाकारी (pliant) अधिकारी लाए जाने लगे। इस तरह के अधिकारी ऐसी नोटिंग लिखते थे,जिसमें मंत्री की पसंद का विकल्प मौजूद रहें।साफ तौर पर, वह अपने अधिकारियों को इच्छित कार्य की रूपरेखा दिखा देते हैं , जो मंत्री अपने सचिव को मौखिक रूप से बता देते हैं। इसके लिए ऐसे सचिव की आवश्यकता पड़ती है जो मंत्री को सपोर्ट कर सके तथा उसमें सहयोग करने की इच्छा हो। उन अधिकारियों को सह–षड्यंत्रकारी होने की जरूरत नहीं होती है, यह पर्याप्त है कि वे बौद्धिक-तौर पर बेईमान हों, जो वास्तव में सही नोट लिखने के बजाय मंत्री की इच्छा के अनुसार चाहे गए नोट्स लिखे।
सिविल सर्विस में इस तरह का नैतिक पतन होने के बावजूद भी कई ऐसे निर्भीक अधिकारी हर-स्तर पर मौजूद थे,जो सही और जिम्मेदार नोट लिखते थे, भले ही, उनके सीनियर या मंत्री इसे पसंद करें या नहीं करें। सौभाग्यवश आज भी कुछ स्वतंत्र व दमदार अधिकारी हैं, जिनमें कागज पर अपनी धारणा को दृढ़तापूर्वक रखने का साहस है। मगर दुख के साथ कहना पड़ता है, बहुत सारे ऐसे भी अधिकारी हैं,जिन्हें दरकिनार कर दिया जाता हैं ताकि मंत्रियों के रास्ते में रुकावट पैदा न करें।
पारख की पुस्तक केन्द्रीय सरकार के मानकों में हुई तेज गिरावट को दर्शाती है। जिलों में व्याप्त भ्रष्टाचार और नग्न-स्वार्थ (venality) आज सचिवालयों तथा केंद्र तक पहुँच गया है। सड़ांध पूरी तरह से शुरु हो गई है, जो प्रशासनिक प्रक्रिया को खोखली करती जा रही है।पारख ने बहुत सही बात लिखी है, “भ्रष्टाचार के कारण शासन में बहुत सारी कुरीतियाँ पैदा हुई हैं।”
यही मुख्य कारण है कि आजादी के सात-दशकों के बाद भी जनसंख्या का 70% भाग गरीबी,अशिक्षा तथा स्वास्थ्य-संबन्धित समस्याओं से जूझ रहा है और भारत शिष्ट-राष्ट्रों के मण्डल में निम्न श्रेणी में आता है। विश्व के नेतृत्व के परिपेक्ष में चीन और यू॰एस॰ए॰ से भले ही वह आगे न आ सके ,मगर कम से कम प्रतिस्पर्धा करता हुआ तो नजर आना चाहिए। पारख ने हमारे प्रशासन प्रणाली का एक असली रूप दिखाया है ।
पारख ने कुछ जगह पर आत्म-निंदा करते हुए लिखा है, ‘… given my inflexible nature …..’ । हाँ, एक उच्च अधिकारी को विनम्र तथा सहयोगी तो होना चाहिए, मगर इसका मतलब यह नहीं है कि वह बौद्धिक स्तर पर बेईमान हो या राजनेता के व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कोई भी सलाह या विचार व्यक्त करें। वास्तव में, उन्हें सकारात्मक ढंग से ‘inflexible’ होना चाहिए।यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संसदीय लोकतंत्र में अंतिम निर्णय लेने वाले वे नहीं है–बस,वे केवल सलाहकार है।
इस किताब में ‘कोल-स्कैम ‘ के कई रूपों पर प्रकाश डाला गया है जिसका सीधे आम जनता के हितों से ताल्लुक था। अंत में , कोयला एक मिनरल है, जो भारत की जनता का है, इसलिए जनता के हितों का ध्यान रखते हुए इसका उत्खनन और आवंटन उचित तथा पारदर्शी तरीके से किया जाना चाहिए न कि “क्रोनी कैपिटलिज़्म” तरीके से जैसा कि तत्कालीन गवर्नमेंट ने किया। पारख को धन्यवाद देना चाहिए, उन्होंने आक्शन तरीके का साफ-सुथरा प्रस्ताव रखा, जो तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा अनुमोदित भी था। मगर राजनेताओं ने अपनी स्वार्थपूर्ति के खातिर उस ठोस निर्णय को उलट दिया,एक दशक तक उसके क्रियान्वयन में अड़ंगा (filibuster) लगा दिया। इसी कारण सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि ‘कोल-स्कैम’ द्वारा राजकोष लूट लिया गया है। यह विषय उच्चतम न्यायालय में लंबित हैं।
इतना कहना पर्याप्त होगा कि प्रधानमंत्री एक अप्रभावी मूकदर्शक बने रहे। यह बात भी सोचने लायक है कि उसी प्रधानमंत्री ने न्यूक्लियर डील तथा एफ़डीआई में रीटेल जैसे विषयों पर ठोस निर्णय लिया। मगर वह अपने द्वारा लिए गए कोल ब्लॉक आवंटन निर्णय को कार्यान्वित करने अक्षम (विम्प) रहे। अपने चहुं ओर भ्रष्ट ताकतों से घिरे रहने के कारण साफ लगता है कि प्रधानमंत्री परिस्थितियों के गुलाम थे,जो अधिकतर उन्होंने स्वयं पैदा की थी। यह किताब उस थ्योरी का भी असली रूप दिखाती है,जो सीएजी के क्षति-आकलन को दिखावटी ओवर एसेसमेंट मानते है, जबकि यह आकलन बहुत ही कंजरवेटिव लगता हैं।
बहुत सारे भीतरी लोग,जो भारत सरकार और राज्य सरकारों के कामों से परिचित हैं,जानते है कि सरकारी उपक्रमों के डायरेक्टरों तथा सीएमडी की नियुक्ति कैसी होती है और उनमें से कितने केसों में संबंधित मंत्री और अन्य राजनेताओं के सीधे व्यक्तिगत वित्तीय हित छुपे होते हैं। इस किताब ने तो केवल आइसबर्ग के टिप को स्पर्श किया है,मगर यथार्थ तो और ज्यादा भयंकर है। उसी तरह सांसद जिन्हें पॉलिसी-मेकर कहा जाता है, हकीकत की जिंदगी में किस तरह अधिकारियों के कार्यान्वयन के हर क्षेत्र में हस्तक्षेप करते हैं–केवल अपने व्यक्तिगत लाभों की पूर्ति के लिए, जबकि जनता की भलाई कहीं भी दूर-दूर तक नजर नहीं आती है।यथार्थ में प्रशासनिक मापदण्डों में हुई गिरावट इस पुस्तक में जितनी दिखाई गई हैं, इससे कई गुणा अधिक है।
एक मंत्री का यह कहना कि सारे निर्देश हम लिखित में नहीं दे सकते, हमारे सिस्टम के बहुत बड़े रोग का प्रदर्शन करती है।मंत्री लोग चाहते हैं कि उनके अधिकारी मौखिक आदेशों का पालन करें ,बिना उन्हें रिकॉर्ड किए। दूसरे शब्दों में, अधिकारी जिम्मेवारी उठाएँ और लाभ मंत्री पाएँ।
इस संदर्भ में यह बहुत अच्छी बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने अभी-अभी ‘सड़ांध’ को ‘रोकने’ का आवश्यक कदम उठाया है। उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया है कि सारे कार्यालयीन आदेश लिखित में दिए जाए।
पारख, खेमका और दुर्गा नागपाल जैसे अधिकारियों को अपने सिद्धांतों पर अडिग रहने के कारण जनता ने सर-आँखों पर बैठाया है। वास्तविकता यह है कि सिस्टम का तेजी से पतन हो रहा है। पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिव अधिकारियों के तर्क या विरोध को बर्दाश्त नहीं करना चाहते हैं और यह चाहते हैं कि उनकी मांगे तुरंत किसी भी हालत में पूरी की जाए।
पारख की पुस्तक शासन के मानकों की गिरावट को समय रहते याद दिलाने वाला अनूठा दस्तावेज है तथा गंभीर प्रशासनिक सुधारों के लिए अनकही चीत्कार है।
टी॰एस॰आर॰ सुब्रमनियन
सेवानिवृत्त आईएएस
पूर्व कैबिनेट सेक्रेटरी
भारत सरकार
भूमिका
दुनिया के किसी भी देश में सरकार के संचालन की प्रकृति लोकतांत्रिक, पूंजीवादी, तानाशाही या साम्राज्यवादी, कैसे भी क्यों न हो, केवल सिविल सर्विस ही एक ऐसा माध्यम होता है, जिसके द्वारा सरकारी नीतियों को क्रियान्वयन किया जा सकता है। सरकार के प्रशासन की सफलता सिविल सर्विस की दक्षता, प्रतिबद्धता, ईमानदारी तथा अनुशासन पर निर्भर करती है।जब हमारा देश अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ तो हमें उच्चतम स्तर की इंडियन सिविल सर्विस विरासत में प्राप्त हुई।तब ब्रिटिश साम्राज्य का सम्पूर्ण महल इसी इंडियन सिविल सर्विस की मजबूत नींव पर टिका हुआ था।इस सर्विस के मुट्ठी भर अधिकारी अपनी विशिष्ट योग्यता और दक्षता के आधार पर भारत के विस्तृत, भू भाग फैले विशाल ब्रिटिश साम्राज्य का शासन चलाते थे।यह दूसरी बात है कि उन अधिकारियों की नियुक्ति और प्रशिक्षण औपनिवेशिक सरकार ने किया, मगर इस सर्विस के अधिकारियों की ईमानदारी और कर्मनिष्ठा के बारे में रत्तीभर संदेह नहीं था।
देश आजाद होने के बाद राजनैतिक व्यवस्था बदल गई। इंडियन नेशनल कांग्रेस के नेताओं में आजाद भारत कि प्रशासनिक व्यवस्था को लेकर गहरे मतभेद थे। जवाहर लाल नेहरू इंडियन सिविल सर्विस को लेकर पूरी सशंकित थे। वे इसे न तो इंडियन मानते थे और न ही सिविल और सर्विस तो बिलकुल भी नहीँ। इस प्रकार इंडियन सिविल सर्विस में तीनों शब्द (इंडियन, सिविल और सर्विस) से उन्हें पूरी तरह एलर्जी थी। मगर सरदार वल्लभ भाई पटेल ने ईमानदार और निष्पक्ष स्वतंत्र सिविल सर्विस कि महत्ता को समझा और खुले कंठ से यह कहते हुए सराहना की यह सर्विस आगे जाकर राष्ट्र के निर्माण में एक महत्ती भूमिका अदा करेगी। सरदार वल्लभ भाई पटेल स्वतंत्र भारत के पहले गृहमंत्री थे। उन्होंने उस समय राजे रजवाड़े,रियासतों के राष्ट्र में विलयीकरण, भारत-पाक बँटवारे के समय पैदा हुई कानून- व्यवस्था और शरणार्थियों की समस्याओं के समाधान में सिविल सर्विस की योग्यता को नजदीकी से परखा था। उन्हें इस बात का अडिग विश्वास था कि वफादार और योग्य सिविल सर्विस देश के नव-निर्माण के लिए आवश्यक है।इसलिए उन्होंने भारत के संविधान में सिविल सर्विस के अधिकारियों की रक्षा के लिए कई ऐसे प्रावधान रखें, जिससे कि राजनेता अपनी आकांक्षाओं और तुनक-मिजाजी से उन्हें किसी तरह क्षति न पहुंचा सके।
पटेल जैसी दूरदर्शिता तत्कालीन राजनेताओं में बहुत कम थी। यही मुख्य कारण है आज भारत का समूचा राजनैतिक तंत्र भ्रष्टाचार की चपेट में हैं। निडर और निष्पक्ष प्रशासनिक अधिकारी राजनेताओं को बिलकुल नहीँ सुहाते। राजनेताओं की सोच अलग होती है, प्रशासनिक अधिकारियों की अलग। इस वैचारिक मतभेद के कारण खरे तथा सही प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं के बीच संबंध बिगड़ गए हैं। या तो पूरी तरह से प्रतिकूल हो गए है या फिर एकदम साँठ-गाँठ वाले। कई प्रशासनिक अधिकारी तो वर्तमान राजनैतिक प्रणाली के ढाँचे में पूरी तरह से ढल गए हैं, जिसकी वजह से भारत का प्रशासन बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। जिन मूल्यों की अनुरक्षणता के लिए सरदार पटेल ने आजीवन संघर्ष किया, आधुनिक भारत के राजनेताओं और अधिकारियों ने उनके उस संघर्ष पर पूरी तरह पानी फेर दिया। सही बात कहने वाले अधिकारी ‘खराब’ कहलाने लगे। उनका अकारण इधर–उधर ट्रान्सफर किया जाने लगा या फिर उन्हें निरथर्क काम दिये जाने लगे। इससे भी ज्यादा तो और बदतर क्या होता कि अपने निजी स्वार्थों के खातिर कर्तव्यनिष्ठ अधिकारियों का बार-बार स्थानांतरण किया जाने लगा है। छोटे-छोटे तुच्छ कारणों के आधार पर उनके खिलाफ जाँच शुरू की जाती है। इन सारी बातों से आज देश का हर नागरिक परिचित है।
मैं इन मोनोग्राफ के माध्यम से अपने अनुभव आपके सामने रखना चाहता हूँ।ये अनुभव मैंने केंद्र ओर राज्य सरकार में काम करते हुए अर्जित किए। कुछ उदाहरण प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार से संबंधित है तो कुछ उदाहरणों में ऐसी घटनाओं का उल्लेख है जिसमें राजनैतिक ओर प्रशासनिक अधिकारियों के बीच में विस्फोटक टकराव पैदा होता है। टकराव के कारण? प्रशासनिक अधिकारी निष्पक्ष एवं सही निर्णय लेना चाहते हैं। मगर राजनेता उन्हें लेने नहीं देते हैं। तो फिर टकराव पैदा नहीँ नहीँ होगा तो फिर क्या होगा? माहौल पूरी तरह से अशांत और विक्षुब्ध हो गया है और जिसका खामियाजा प्रशासनिक अधिकारी को ही भुगतना पड़ता है। अधिकारियों के लिए तो आचार संहिता बनी हुई है, मगर राजनेताओं के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है।मेरे जीवन में भी कई बार ऐसी परिस्थितियाँ और संकट आए। मैं इसे अपनी ताकत कहूँ या कमजोरी, कह नहीँ सकता, जब मेरी आत्मा कहती है कि मैं सही हूँ तो फिर कभी झुकता नहीँ हूँ। आने वाले सारे खतरों को झेलने के लिए तैयार हो जाता हूँ। इतना कुछ होने के बावजूद मैं उसे अपनी किस्मत ही समझूँगा। न तो मैं कभी दंडित हुआ और न ही अनर्थक कार्यों के लिए निर्वासित।
यह हो सकता है कि आंध्रप्रदेश का राजनैतिक नेतृत्व थोड़ा बेहतर रहा है।मैं अपने आप को भाग्यशाली मानता हूँ कि कोयला मंत्रालय में मुझे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी का पूर्ण सहयोग मिला। उन्होंने मुझे अपना काम करने के लिए पूरी स्वतंत्रता दे रखी थी। मैंने कभी भी उसका अनुचित फायदा नहीँ उठाया वरन कोल इंडिया की गतिविधियों में पारदर्शिता लाने के लिए अथक प्रयास करता रहा।
भारत में प्रशासन क्यों गड़बड़ा रहा है? सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार से ही प्रशासन की अधिकांश बीमारियाँ पैदा हो रही है। नीचे तबके में तो छोटा–मोटा भ्रष्टाचार हमेशा रहा ही है ,राजनेताओं में भ्रष्टाचार स्वतन्त्रता के बाद तीव्र गति से पनपने लगा,फिर धीरे-धीरे यह सिविल सर्विस में पहुँचा।
अब भ्रष्टाचार कैसे रोका जाये? बीमारी पूरी तरह से फैल चुकी थी, सरकार के पास अब उसका निदान कहाँ? अब तो कभी–कभी ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार को रोकना असंभव है, देश के चुनाव और समूचा राजनैतिक तंत्र तो अवैध धन पर निर्भर करता है। ऐसा लगता है चुने गए जन-प्रतिनिधियों के पास भ्रष्टाचार में लिप्त होने के सिवाय और कोई चारा भी है। चुनाव लड़ने हैं, पैसा चाहिए। पैसा आयेगा कहां से? कहीँ से भी आये? तब भ्रष्टाचार को छोड़कर पैसे कमाने का स्रोत क्या बच जाता है? अनेक ऐसे ज्वलंत ज्वलंत उदाहरण है। सरकारी संस्थानो एवं कंपनियों के उच्च अधिकारियों के चयन एवं नियुक्तियाँ पूरी तरह भ्रष्टाचार पर आधारित हैं।कोल-इंडिया के चयन एवं नियुक्ति के दौरान राजनेताओं द्वारा उन्हें ब्लैक मेल किए जाने का मैं स्वयं प्रत्यक्ष साक्षी रहा हूँ। जब उच्च पदों की नियुक्ति रिश्वत के पैसों से होती है तो क्या आप उम्मीद कर सकते है कि ये लोग अपने–अपने आर्गनाइजेशन में भ्रष्टाचार को रोकने का प्रयास करेंगे? जब पैसे देकर नियुक्ति हुई है तो उन पैसों को ब्याज सहित निकालने के लिए भ्रष्टाचार को और बढ़ावा देंगे।
हमारा देश विश्व की तेजी से बढ़ती हुई इकॉनोमी में से एक है। प्रोजेक्शन के कुछ आकड़ों की मानें तो 2050 तक हमारा देश विश्व की एक नंबर की इकॉनोमी बन जायेगा। इस तेज रफ्तार वाली इकॉनोमी की कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ भी तो होगी! ऊर्जा की आवश्यकता भी उतनी ही ज्यादा होगी। आखिर यह ऊर्जा आएगी कहाँ से?
भारत में बिजली के उत्पादन का दो तिहाई हिस्सा कोयले से होता है। हमारा देश दुनिया में कोल रिजर्व और उत्पादन के हिसाब से शीर्ष राष्ट्रों में आता है। आने वाले कई दशकों तक देश के ऊर्जा का मुख्य स्त्रोत कोयला बना रहेगा। इसलिये भारत के विकास में कोयला नीति और इसका कार्यान्वयन ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।जिस तरीके से कोयले के ब्लॉक प्राइवेट कंपनियों को आबंटित किये गये, वह तरीका सबसे ज्यादा विवादास्पद रहा। मीडिया ने इसे ‘कोलगेट’ का नाम दिया। राष्ट्र की इस प्राकृतिक सम्पदा के आवंटन के खुली बोली वाली पारदर्शी विधि का प्रस्ताव मैंने सन 2004 में दिया था। मगर आज तक क्रियान्वित नहीं हो सका। यह समझने के लिए ज्यादा बुद्धि की जरूरत नहीं थी कि खुली बोली वाली पारदर्शी प्रणाली को क्रियान्वित करने में आठ वर्षों से ज्यादा का समय क्यों लगा? कारण बिलकुल स्पष्ट है कि हमारे देश के समूचे राजनैतिक वर्ग ने इसे कुचलने का प्रयास किया।क्या राजनेता हमारे देश का विकास चाहते हैं? अगर चाहते तो आवंटन के पारदर्शी तरीकों को अपनाने में उन्हें इतनी गुरेज क्यों? अगर पारदर्शी तरीके लागू हो जाये तो उन्हें मिलेगा क्या? यह वर्ग देश के विकास के लिए ज्यादा चिंतित नहीं है। उन्हें अपने और अपने परिवार वालों की ज्यादा चिंता है। हमारे देश का संविधान कहता है कि देश के सारे नागरिक बराबर हैं। नियम कानून सब पर समान रूप से लागू होते है। कानून की दृष्टि में अमीर-गरीब में कोई भेदभाव नहीं है, सभी बराबर है। मगर सरकार की कार्य प्रणाली तो विचित्र है। मनमर्जी से अपने निर्णय लेती है। कई बार तो ऐसा लगता है कि राजनेता बनने का मतलब वे दूसरे नागरिकों से श्रेष्ठ हैं और जब वे अपना निर्णय लेते हैं तो उन निर्णयों में ‘कारण’, ‘सिद्धांत’, और ‘सत्यनिष्ठा’ और ‘सर्विस’ जैसे पुनीत शब्द समान्यतया अनुपस्थित ही रहते हैं। चरित्र और सिद्धांतवाद धरा का धरा रह जाता हैं। प्रशासन के पवित्र सिद्धांतों और नियम–कानून को ताक पर रखकर उन की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। नियम कानून की जब बात चली है तो यह कहते हुए भी दुःख लगता है कि हमारी न्यायपालिका में भी भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया है,, इस वजह से घोंघे की चाल से रेंगती है हमारी न्याय-प्रणाली। ‘विधि का नियम’ हमारे ऊपर लागू होना बंद हो गया है। हमारे देश की तबाही का मुख्य कारण हमारे देश का ‘अंधा-कानून’ भी है। बीच-बीच में गलत को ठीक करने के लिए कई बार प्रयास किये गए। उदाहरण के तौर पर सीबीआई का निर्माण हुआ,, भ्रष्टाचार निरोधक कानून पास किया गया और ज्यादा से ज्यादा शक्तियों के साथ लोकपालों की नियुक्ति किये जाने का प्रस्ताव हैं। मैं मानता हूँ ये सारे कदम महत्त्वपूर्ण है, मगर समस्याओं की जड़ तक नहीँ जा रहे हैं। केवल समस्याओं की ऊपरी सतह को ही स्पर्श कर रहे हैं। सभी का केंद्र बिंदु ‘विधि के नियम’ (रूल ऑफ़ लॉ) की स्थापना करना है। अगर यह केंद्र बिंदु स्थापित नहीँ हो पाता है तो उसके बिना नई संस्थाएँ और कानून बनाना अंधे को दर्पण दिखाने के तुल्य है। यह महज एक दिखावा होगा,जो हमारे देश को अच्छा प्रशासन नहीं दे सकेगा। आखिरकार इन सारी समस्याओं के समाधान के लिए हमारी निगाहें अपलक सिविल सर्विस की ओर देखने लगती है, जिसकी क्रेडिबिलिटी पर पूरी तरह से विश्वास खत्म हो गया है। इस समय हमारे देश को जरूरत है व्यापक सुधारो की। राजनैतिक,प्रशासनिक, न्यायिक और चुनाव संबंधित सुधार। इसके अतिरिक्त,देश की सारी एजेन्सियों पर आचार संहिता लागू होनी चाहिए।
लालच और भ्रष्टाचार ने हमारे देशवासियों में इतना क्रोध भड़काया कि यहाँ चुनाव संबंधित राजनीति पूरी तरह से प्रभावित होती हुई नजर आती है।राजनैतिक पार्टियों पर से विश्वास खत्म हो गया है। आम आदमी पार्टी ने यह साबित कर दिया है कि बिना अवैध धन के चुनाव जीते जा सकते है। अगर ऐसा होता है तो भारत में राजनैतिक नेताओं का नया बीज पैदा होगा, ईमानदारी और स्वतंत्रता पर आधारित सिविल सर्विस को सम्मान की दृष्टि से देखेंगे और हम ऐसे एक नये युग में प्रवेश करेंगे, जहां प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं के बीच स्वस्थ और सौहार्द्रपूर्ण संबंध पैदा होंगे। अच्छे प्रशासन के लिए यही एक अपरिहार्य शर्त है।
-- प्रकाश चन्द्र पारख
अनुवादक की कलम से
दो साल पहले मैंने फ्लिपकार्ट से कोल मंत्रालय के भूतपूर्व सचिव पी॰सी॰ पारख की बहुचर्चित पुस्तक "क्रूसेडर ऑर कान्सपिरेटर ?" मँगवाई और उसे बार-बार पढ़ा । मुझे ऐसा लगा कि इस किताब को हिन्दी में अनुवाद कर आम-जनता तक पहुंचाना चाहिए, देश की संसदीय लोकतन्त्र की रक्षा के लिए । मैंने इस पुस्तक के प्रकाशक "मानस पब्लिकेशन्स" से इस संदर्भ में बात कर हिन्दी में अनुवाद करने की अनुमति प्राप्त कर यह निश्चय किया कि सर्वप्रथम इस किताब की समीक्षा तैयार कर आपके समक्ष प्रस्तुत करूँ ताकि एक कर्तव्यनिष्ठ ईमानदार नौकरशाह की जीवनी को समझने के साथ-साथ हम अपनी कंपनी के सीएमडी या चेयरमैन लोगों के ऊपर आने वाले भीतरी व बाहरी दबाव का निष्पक्ष रूप से आकलन कर सकें ।
समय के सापेक्ष साहित्य बदलता जाता है। कभी परियों की कहानियां, तो कभी राजा-रानी या तिलस्म-कहानियां तो कभी प्रेमचंद की यथार्थवादी सर्वहारा वर्ग की कहानियों का दौर शुरू होता है,समय की मांग के अनुरूप । मगर अब वह समय आ चुका है कि हम भ्रष्टाचार के खिलाफ जीवन भर संघर्ष करते उन विशाल व्यक्तित्वों के भीतर झांकने का प्रयास करें,जो नींव की ईंट बनकर अपने सिद्धांतों से बगैर समझौता किए, आजीवन कष्ट झेलते हुए लोकतन्त्र की इमारत की रक्षा करने में सतत लगे हुए हैं। ऐसे ही एक महान व्यक्तित्व का नाम है प्रकाश चन्द्र पारख। जिनकी जीवन-गाथा सभी नागरिकों के लिए अनुकरणीय है, जो आपकी अंतरात्मा को सचेतन कर एक अच्छा व सच्चा इंसान बनने की प्रेरणा देती है । श्री प्रकाश चन्द्र पारख का जन्म अड़सठ साल पहले जोधपुर में हुआ था । सन 2005 में कोल-सचिव के पद से वे सेवा निवृत हुए । कोल-सेक्टर में पारदर्शिता लाने के लिए पारख साहब ने अथक प्रयास किया। कोयला बाजार में माफ़ियों का दबदबा कम करने के लिए ई-मार्केटिंग की शुरुआत की। कोल-ब्लॉकों के आवंटन में भी पारदर्शिता लाने के लिए ओपनबिडिंग का प्रस्ताव रखा। पारख साहब ने रुड़की से मास्टर इन एप्लाइड जियोलोजी में गोल्डमेडल प्राप्त किया था। फिर उन्होंने नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन और हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड में काम किया । अपने मित्र एच॰एस॰ मदान के सुझाव पर 1969 में आई॰ए॰एस॰ की परीक्षा दी और उन्हें सफलता मिली । बाद में यू॰के॰ के बाथ विश्वविद्यालय से फिस्कल स्टडीज़ में मास्टर डिग्री प्राप्त की । नौकरी का अधिकांश समय अपने पेरेंट केडर -आंध्र-प्रदेश के उद्योग मंत्रालय में व्यतीत हुआ और उन्होंने आंध्रप्रदेश को निवेश के हिसाब से उपयुक्त स्थान बनाने का भरसक प्रयास किया ।
कौन नहीं चाहता है अपने जीवन में आई॰ए॰एस॰ बनना ! हर किसी प्रतिभाशाली विद्यार्थी का एक मनोरम ख्वाब होता है आई॰ए॰एस॰ बनने का। आप अपने बचपन,किशोरावस्था या युवावस्था के दिनों को झांक कर देखें तो कहीं न कहीं सुषुप्तावस्था में आपके अंदर इस सुनहरे ख्वाब को परोक्ष या अपरोक्ष रूप से पल्लवित होते हुए पाओगे। मेरा बचपन राजस्थान के सिरोही जिले में बीता और मेरे पिताजी सिरोही जिला-कोषालय में अपर डिवीजन क्लर्क थे । यह कार्यालय सिरोही के महाराजा स्वरूप सिंहजी के कभी निवास-स्थान रहे ‘सरूपविलास’ में स्थित था और उसी ‘सरूपविलास’ में कलेक्ट्रेट भी था । कभी-कभी किसी काम से मुझे अपने पिताजी को मिलने उनके ऑफिस जाना पड़ता था, तो कलेक्टर का राजशाही ऑफिस को देखकर लगता था कि सिरोही का कलेक्टर किसी भी मायने में सिरोही के राजा से कम नहीं है । पारंपरिक राजस्थानी वेशभूषा व चूँदड़ी का साफा पहने बड़ी-बड़ी मूंछों वाले दरबान को उनके ऑफिस के बाहर खड़ा देखकर उनके राजसी ठाटबाट का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है । यही नहीं,ऑफिस के बरामदे में जैसे ही कलेक्टर की लाल-बत्ती वाली एम्बेसेडर कार पहुंचती,तो वह बड़ी-बड़ी मूंछों वाला वह दरबान सैल्यूट मारकर दौड़कर जाता था उस कार के पास । कार का दरवाजा खोलकर अपने साहब की अटैची उठाता और उन्हें एस्कॉर्ट करते हुए अपने रूम की ओर ले जाता ,यह दृश्य राजपूताना (वर्तमान राजस्थान ) के किसी राज-घराने या किसी राजसी आभिजात्य-वर्ग की याद दिलाता था ।
जब मैंने सन 1987 में जोधपुर की मगनीराम बागंड मेमोरियल आभियांत्रिकी महाविद्यालय में प्रवेश लिया था, तो पास ही बने कलेक्टर के रेजीडेन्स तथा तत्कालीन राजस्थान के हाई-कोर्ट के परिसर में बने कलेक्टर-ऑफिस देखकर मैं अभिभूत हो जाता था और सपनों की दुनिया में खो जाता था कि अगर जीवन में नौकरी करनी है तो आई॰ए॰एस॰ की करनी चाहिए अन्यथा नहीं। एक सम्मोहन-सा लगता था !
और संयोग ही देखिए,हमारी इंजीनियरिंग कॉलेज के 1992 बैच के इलेक्ट्रानिक संकाय में टॉपर रहे अश्विनी वैष्णव ने पूरे भारत में आई॰ए॰एस॰ परीक्षा में 32 वी रैंक प्राप्त कर ओड़िशा कैडर में नौकरी ज्वाइन की। और मेरे जैसे खनन संकाय वालों के लिए तो आई॰ए॰एस॰ के बारे में सोचना भी बड़ी बात होती थी।माइनिंग में इंजीनियरिंग करने के बाद मैंने सन 1993 में महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड की ब्रजराजनगर स्थित ओड़िशा की सबसे पुरानी भूमिगत कोयला खदान हिंगर रामपुर कोलियरी में प्रबंध-प्रशिक्षु के रूप में अपना व्यवसायिक कैरियर शुरू किया । मुझे पता नहीं था कि अश्विनी के कैरियर का शुभारंभ सुंदरगढ़ के सब-कलेक्टर के रूप में हुआ। सुंदरगढ़ ब्रजराजनगर से महज साठ-सत्तर किलोमीटर दूर था, मगर मुझे अश्विनी को खोजने में सात साल लगे । कॉलेज छोड़ने के बाद सब अपने-अपने कार्यों में व्यस्त, अपने-अपने नए जीवन का शुरुआती दौर, शादी-ब्याह और तो और उस जमाने में इन्टरनेट,फेसबुक और मोबाइल भी नहीं थे। आज तो पालक झपकते ही,“गूगल” जैसे सर्च इंजिन से किसी भी भूले-बिसरे दोस्तों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है । यह भी एक विचित्र संयोग था,जब में पारादीप में आयोजित ‘बालि-यात्रा’ हमारी कंपनी की ओर लगाई जाने वाली एक स्टॉल का प्रभारी बनकर गया हुआ था । वहाँ खाने-पीने की एक स्टॉल पर नाश्ता करते समय मेरा ध्यान ओड़िया अखबार के पहले पेज पर छपे एक फोटो की तरफ गया। उस समय मुझे ओड़िया-लिपि पढ़ना नहीं आता था , मगर वह फोटो मुझे बरबस आकर्षित कर रहा था। ऐसा लग रहा था, अवश्य किसी न किसी दोस्त का होगा । मगर मन मानने से इंकार कर रहा था, राजस्थान से बाईस सौ किलोमीटर दूर यहाँ मेरा कोई दोस्त क्यों आएगा । फिर भी मैंने वह अखबार लेकर अपने एक ओड़िया दोस्त से पढ़ने का आग्रह किया तो जानकर आश्चर्य-चकित रह गया – वह फोटो कटक के कलेक्टर अश्विनी वैष्णव का था । कॉलेज के फर्स्ट ईयर मेँ जब इंजीनियरिंग के सारे संकाय के स्टूडेंट एक साथ बैठते थे, एल्फाबेट के अनुसार अश्विनी हमारे ग्रुप में आता था,आगे-पीछे बेंच पर बैठने के बाद भी आज ऐसा लग रहा था कि यह फोटो किसी दूसरे अश्विनी का तो नहीं है । मैंने फिर से ध्यान-पूर्वक उस खबर को पढ़ने के लिए कहा । उसने विस्तार से बता दिया कि वकीलों के 'छालघर' तुड़वाने का आदेश देने के कारण अश्विनी के खिलाफ वे कटक मेँ नारेबाजी व आंदोलन कर रहे हैं। बाद मेँ, इधर-उधर से जानकारी मिली कि अश्विनी अत्यंत ही ईमानदार व कुशल प्रशासक है । यहां तक कि वह किसी भी भवन मेँ उदघाटन या शिलान्यास के दौरान कभी भी अपना नाम लिखवाना तक पसंद नहीं करता था। मेरे कटक के कई दोस्तों ने भी अश्विनी की बहुत तारीफ की। अंत में,मैंने अश्विनी से मिलने का तय किया। पूछ-ताछ करने पर पता चला कि कटक के भीड़-भाड़ वाले इलाके बक्सी बाजार के अंतिम छोर पर उसका रेजीडेन्स ऑफिस है। जब मैं मिलने उनके घर गया और कागज की एक चिट पर अपना व एम॰बी॰एम॰ इंजीनियरिंग कॉलेज का नाम लिख कर भेजा तो तुरंत ही अश्विनी ने मुझे भीतर बुला दिया। सात-आठ साल के दीर्घ अंतराल मेँ चेहरे काफी बदल जाते हैं,किन्तु अश्विनी के चेहरे पर कोई खास बदलाव नहीं था। वही भोला-भाला मासूम चेहरा,दोनों कनपटियों के पास गहरे बालों मेँ कुछ-कुछ सफ़ेद बाल नजर आने लगे थे,जो उनके चेहरे की गंभीरता को और ज्यादा मुखर कर रहा था। वह फर्राटेदार ओड़िया भाषा मेँ अपने सामने बैठे अधिकारियों को निर्देश दे रहे थे।
मुझे पहचाने मेँ उन्हें थोड़ा वक्त जरूर लगा,लेकिन जैसे ही पता चला तो अपनी कुर्सी से उठकर वह गले मिले। उसके बाद चाय-पानी,नाश्ता और कॉलेज के जमाने की इधर-उधर की बातें । मुझे याद हैं कि वह रेसर सायकिल पर बैठकर रिक्तिया भैरुजी चौराहा के नजदीक बने मैदान मेँ बेडमिंटन खेलने जाता था। ब्रजराजनगर लौटने के कुछ महीनों के बाद फोन पर बातचीत के दौरान अश्विनी ने बताया कि वह प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) ज्वाइन करने जल्दी ही दिल्ली जा रहा है। दिल्ली जाने के बाद भी एकाध साल तक मैं उनके संपर्क मेँ रहा,उसके बाद पारख साहब की किताब ने फिर से उनकी स्मृतियों को तरोताजा कर दिया।अश्विनी का इस भूमिका में जिक्र करने का तात्पर्य था, पारख साहब के जीवन में अश्विनी को तलाश करना।दोनों जोधपुर के थे और दोनों ही गोल्ड-मेडलिस्ट थे । बातचीत के दौरान एक बार अश्विनी ने कहा था, “ध्यान से काम करना । दुश्मनी किसी से मत लेना । तुम्हारे कोल इंडिया मेँ माफिया लोग मारकर कन्वेयर बेल्ट मेँ फेंक देते हैं।” शायद उन्होंने ऐसी कोई बात सुन रखी हो, जब वह सुन्दरगढ़ में उप-जिलापाल थे। मैंने उत्तर दिया था “ऐसी डरने की कोई बात नहीं है।आपस में ठेकेदारों में अनबन होने पर कभी-कभी गोलीबाजी की छुटपुट घटनाएँ अवश्य होती है और वे भी ठेके पाने की प्रतिस्पर्धा में।अन्यथा ओड़िशा बहुत ही शांत जगह है।”
पारख साहब की यह पुस्तक पढ़ने के बाद, पता नहीं क्यों लगने लगा कि जिस तरह से ईमानदारी,सत्यनिष्ठा और कर्तव्यपरायणता के कारण पारख साहब को आजीवन अपने पॉलिटिकल एक्जिक्यूटिवों से विचार-मतभेदों के कारण तनाव व दबाव झेलना पड़ा,उसी तरह क्या अश्विनी वैष्णव लोकतंत्र के बदलते परिवेश मेँ किसी गुत्थी का शिकार तो नहीं हुआ होगा । पारख साहब की यह पुस्तक न केवल वर्तमान भारतीय लोकतंत्र के मुखौटे को आईने मेँ दिखा रही है,वरन आने वाली पीढ़ी को समय रहते सचेत होने की प्रेरणा भी प्रदान करती है ।
इस पुस्तक मेँ तीन भाग है तथा इक्कीस अध्याय। पहला आन्ध्रप्रदेश सरकार मेँ पारख साहब के अनुभव, दूसरा– केंद्र सरकार के कोल–मंत्रालय मेँ उनके अनुभव और तीसरे भाग मेँ भारतीय सिविल सर्विस को विश्व-स्तर पर उत्कृष्ट बनाने के लिए दिए अमूल्य सुझाव । इसके अतिरिक्त इस पुस्तक में बहुत-सारी परिशिष्ट भी जोड़ी गई है,जो इन सारी घटनाओं की विश्वसनीयता की पुष्टि करने के साथ-साथ उस समय के वातावरण का संकेत करती हैं,जिसमें वे निर्णय लिए जा सके ।
पहले अध्याय मेँ पारख साहब ने सन 1969 मेँ आई॰ए॰एस॰ परीक्षा पास करने के उपरांत एन॰एम॰डी॰सी॰की जियोलोजिस्ट की नौकरी छोड़कर राजस्थान से बिलकुल पृथक सांस्कृतिक,भाषायी व राजनैतिक परिवेश वाले राज्य आंध्रप्रदेश में अपने प्रशासनिक जीवन की शुरुआत का उल्लेख करते हुए लिखा है कि प्रोटोकॉल के अनुसार जब उनकी मुलाक़ात मुख्यमंत्री से होती है और उस पहली मुलाक़ात मेँ मुख्यमंत्री का यह वक्तव्य - मेरे घर के दरवाजे आप लोगों के लिए चौबीस घंटे खुले हैं, जब भी किसी भी प्रकार की तकलीफ हो,बेहिचक आप मेरे पास आ सकते है । उनका यह आश्वासन नए आई॰ए॰एस॰ प्रशिक्षुओं के लिए उत्साहवर्धक था । मगर उन्हें क्या पता था कि कोई जरूरी नहीं है कि दूसरा मुख्यमंत्री उनके कष्टों को सुनने या निवारण करने के लिए अपने घर के दरवाजे खोलेगा ।
दूसरे अध्याय मेँ आसिफाबाद मेँ सब-कलेक्टर के रूप मेँ ज्वाइन करने के बाद उनके भ्रष्टाचार की छोटी-मोटी घटनाओं से आमना-सामना होने का उल्लेख है । उदाहरण के तौर पर, उनकी तहसील मेँ कलेक्टर के भ्रमण के दौरान उनके मना करने के बावजूद खाने-पीने मेँ तरह-तरह के व्यंजन व मांसाहार परोस कर किया गया ज्यादा खर्च । कलेक्टर ने तो यह सब करने के लिए मना किया था, मगर फिर ऐसा क्यों किया गया ? पैसा आया कहां से ? यह सोचकर पारख साहब का संस्कारित मन विद्रोह कर बैठता है, पूछ-ताछ करने पर उन्हें जवाब मिलता है – अभी आप नए–नए है, इन चीजों का आपको आइडिया नहीं है, सब-कुछ कलेक्टर को पूछ कर ही भोजन तैयार किया गया है । यहीं से आरंभ होता है – एक कलेक्टर के दो मुखौटे वाले जीवन को जानने का प्रयास । एक चेहरा उन्हें मना करता है, उसी चेहरे पर लगा दूसरा मुखौटा इस कार्य की इजाजत देता है। एक अंतर्द्वंद्व । ऐसा ही एक दूसरा उदाहरण श्री आर॰के॰आर॰गोनेला जैसे ईमानदार कलेक्टर के न चाहने पर भी रेवेन्यू बोर्ड के मेम्बर के दौरे के दौरान खाने-पीने का वैसा ही तहसीलदार द्वारा वी॰आई॰पी॰ ट्रीटमेंट करना । इस बार पूछताछ मेँ उत्तर मिलता है, कलेक्टर साहब नए है। उन्हें पता नहीं है कि अगर ऐसा प्रबंध नहीं किया जाता तो रेवन्यू बोर्ड की यह बैठक देर रात तक चलती और तो और, उस मीटिंग मेँ तरह-तरह की खामियाँ निकाली जाती। बेहतर यही है कि इस झंझट से मुक्ति पाने के लिए बड़े अधिकारियों के मन–मुताबिक खाने- पीने की व्यवस्था कर दी जाए। यह व्यवस्था कोई आज से शुरू हुई हो,ऐसी बात नहीं है। इस संबंध में पारख साहब लिखते है :-
“देश आजाद होने से पहले से यह चला आ रहा है।हर कोई जानता है और इतने साल बीतने के बाद भी इसमें कोई बदलाव नहीं आया है।किसी भी अधिकारी ने इस सिस्टम के बारे में कोई सवाल नहीं उठाए और सभी अधिकारी इस प्रथा को नजरअंदाज करते रहे हैं।”
इस संबंध में मुझे पहले की एक बात याद हो आई । जब मुझे सिरोही के सेवानिवृत्त जिला वन अधिकारी स्व॰ प्रताप सिंह जी राठौड़ से उनके घर पर मुलाक़ात करने का एक अवसर प्राप्त हुआ था । बातचीत के दौरान बढ़ते भ्रष्टाचार के कारणों के बारे में उन्होंने उस समय एक उदाहरण दिया था, वह आज भी मेरे मानस-पटल पर तरोताजा है ।
“....जिस तरह किसी स्प्रिंग को पूरी तरह से दबाकर छोड़ दिया जाता है तो वह एक ही झटके में अपनी प्रत्यास्थता के कारण दोनों हथेलियों को झटकते-छिटकते दूर फेंकी जाती है । हमारे देश की भी वर्तमान अवस्था यही है। पाँच सौ साल से विदेशी आंक्राताओं की गुलामी झेलते-झेलते पूरी तरह से दब चुका था।जिसको जहां अवसर मिला, वह उसे लूटने–खसोटने में लग गया।.... ”
इस उदाहरण के माध्यम से स्वर्गीय प्रताप सिंहजी राठौड़ ने सरकारी विभागों में व्याप्त हो रहे भ्रष्टाचार पर अपनी चिंता व्यक्त की थी कि देश का भविष्य क्या होगा ? एक ईमानदार अधिकारी इससे ज्यादा कर भी क्या सकता था ।सिवाय चिंता के ? पारख साहब ने लिखा कि तहसीलदारों द्वारा अवैध ढंग से अर्जित की गई धन-राशि के आधार पर कलेक्टर और दूसरे वी॰आई॰पी॰ नेताओं तथा उनके समर्थकों के खाने-पीने के इंतजाम करने से शुरू हो जाती है भ्रष्टाचार की नेट-वर्किंग। अगर यह भोजन व्यवस्था ऑफिसियल कर दी जाए तो कुछ हद तक भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता है।
एक अन्य उदाहरण देते हुए पारख साहब लिखते है कि उनके ऑफिस में भी खुचरा-भ्रष्टाचार चल रहा था, जिससे वे अनभिज्ञ थे।‘दिया तले अंधरे’ वाली उक्ति चरितार्थ हो रही थी। किसी आदमी के बंदूक रखने के लिए सरकारी लाइसेंस को उनके द्वारा अनुमोदित होने के बावजूद उसे ऑफिस के एक टाइपिस्ट ने पन्द्रह दिन तक दबा दिया। दबाने के कारण था , उस लाइसेंस के एवज में मिलने वाली सौ रूपए के रिश्वत की बंदर–बाँट में असमानता। हेड-क्लर्क, डीलिंग-क्लर्क, टाइपिस्ट और चपरासी में समान रूप से बँटवारे के लिए पारस्परिक सहमति नहीं बन पा रही थी। जिसकी वजह से आगे जाकर भ्रष्टाचार उजागर हुआ। यह था एक नमूना, संस्थागत भ्रष्टाचार का। जब तक इस शृंखला में जुड़े लोग एक दूसरे से स्वार्थवश पृथक नहीं होंगे, यह शृंखला अनवरत बिना किसी रोक–टोक के ‘रिंगा-रिंगा-रोजेज़’ की तरह चलती रहेगी ।
अपने यायावरी जिंदगी में तरह–तरह के खट्टे–मीठे अनुभव मिलते रहें पारख साहब को । ऐसा ही एक अनुभव- सन 1975 में उनके डिप्टी कमिशनर ( कॉमर्शियल टैक्सेज़ ) के पीरियड के दौरान। “कॉमर्शियल टैक्सेज़ : कामधेनु” वाले अध्याय में उन्होंने आंध्रप्रदेश व तमिलनाडु की सीमाओं पर चित्तूर की चेक–पोस्टों से संबन्धित अपने अनुभवों को दर्शाया है । दोनों राज्यों के टेक्स में भारी अंतर होने के कारण पांडिचेरी की शराब की आंध्रप्रदेश में स्मगलिंग होती थी।जब पारख साहब ने चित्तुर के चेक–पोस्ट के रिकॉर्ड के आधार पर पांडिचेरी के अवैध शराब विक्रेताओं पर कार्रवाई करना शुरू किया तो वे लोग मद्रास उच्च न्यायालय से स्टे ले आए।पारख साहब के अथक प्रयासों के बाद वह स्टे उठा लिया गया तो फिर से उन विक्रेताओं ने डबल-बेंच से स्टे ले लिया। कई सालों बाद पारख साहब वहां उच्च पद पर वापस आए तब तक वह स्टे नहीं हटाया जा सका। कहने का अर्थ यह है कि किसी भी अवैध काम को रोकना आजकल के जमाने में इतना सहज नहीं रह गया है।
इसी अध्याय में वे एक दूसरा उदाहरण “टैक्स-चोरी”का देते हैं, दाल–दलहनों तथा परचूनी सामान के विक्रेता जिसे विशेषकर करते है।गहरी छान-बीन के बाद जब वे इस बारे में कुछ व्यापारियों को नोटिस जारी करते हैं तो ‘किमती’ नामक एक बुजुर्ग व्यापारी उनके पास आकर तर्कसंगत तरीके से समझाने लगते हैं कि आज के जमाने में अनाज का व्यापार ईमानदारी पूर्वक करना असंभव है । उनके तर्क इस तरह थे:-
“ वह एक थोक-विक्रेता है और प्रति बैग दो रुपये का मुनाफा कमाते हैं जबकि प्रत्येक बैग पर बीस रुपये का सेल टैक्स लगता है । जब तक हर आदमी कानून के हिसाब से व्यापार नहीं करता है तो किसी अकेले व्यक्ति विशेष के लिए पूरा टैक्स अदा कर व्यापार में रहना संभव नहीं है ।
उन्होंने और आगे कहा ,सरकार को जो टैक्स अदा नहीं किया जाता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह अपने आप व्यापारी के लिए मुनाफे में बदल जाएगा।अधिकतर ग्राहक बिना बिल के सामान खरीदना चाहते हैं ताकि टैक्स नहीं भर्ना पड़े।टैक्स चोरी का काफी हिस्सा सेल-टैक्स, इन्कम-टैक्स,सिविल सप्लाई,म्यूनसिपल कार्पोरेशन,पुलिस आदि के अधिकारियों को रिश्वत देने में खर्च हो जाता है ,अगर उनकी मांग पूरी नहीं की जाती है तो वे लोग सामान्य गलती को भी बढ़ा-चढ़ाकर जटिल बना देते हैं। इसके अतिरिक्त,कुछ गुंडा लोग और राजनेताओं को भी खुश रखना पड़ता है। सरकार के पास ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे वे व्यापारियों को इन परेशानियों से बचा सके । एक व्यापारी लागातार इन तत्वों से लड़ाई करते हुए व्यापार में अपना अस्तित्व बचाए रख सकता है ? इसका आसान और शायद एक ही विकल्प है सिस्टम के साथ व्यापारी का समझौता करना और अपने फायदे के लिए इसका उपयोग करना।”
ये तर्क पारख साहब के मन में झंझावात पैदा करते हैं और वे उस व्यापारी पर पेनल्टी लगाने के बजाए सामान्य टैक्स भुगतान करने के लिए आदेश देते हैं। पारख साहब के हृदय का यह दया भाव मुझे ज्ञानपीठ पुरस्कार से पुरस्कृत ओड़िया लेखक स्व॰ गोपीनाथ मोहंती की कालजयी कहानी “चींटी” के कथानक की ओर आकृष्ट करने लगता है । जिसमें ओड़िशा राज्य का एक युवा प्रशासनिक अधिकारी ओड़िशा के सीमावर्ती कोरापुट जिले से आंध्रप्रदेश में हो रही चावलों की तस्करी को रोकने का दृढ़-संकल्प लेता है, मगर जब वह कोरापुट की पहाड़ियों पर चींटियों के तरह पंक्तिबद्ध आदिवासियों को चावलों के बोरे ढोते देखता है और पीछा करते हुए जब वह उनके घर–बाड़ी की ओर जाता है तो वहां की बीमार लोगों को देखकर उसका हृदय द्रवित हो जाता है और किसी को भी गिरफ्तार किए बिना घर लौट आता है ।
कहानी के मुख्य–पात्र की तरह पारख साहब के व्यक्तित्व में ईमानदारी व निडरता के अतिरिक्त दीन-दुखी व कमजोर वर्ग के प्रति दया की भावना भी कूट–कूट कर भरी हुई है, सेवानिवृति के बाद आजकल वे भगवान महावीर विकलांग सेवा समिति से जुडे हुए है, जो आंध्रप्रदेश में प्रसिद्ध जयपुर पाँव जैसे कृत्रिम अंग वितरित करती है । और उसके अलावा दूसरी गैर सरकारी संस्थान भगवान महावीर रिलीफ़ फाउंडेशन ट्रस्ट से भी जुडे है, जो गरीब किडनी रोगियों को डायलाइसिस की सुविधा उपलब्ध करवाती है । अगर चाहते तो, वे किसी अच्छी कंपनी के एड्वाइजर या सी॰ई॰ओ॰ आसानी से बन सकते थे, मगर उन्होंने दीन-दुखियों की सेवा करने का बीड़ा सपरिवार उठाया । इतना ही नहीं, अपनी इस बहुचर्चित किताब से मिलने वाली रॉयल्टी तक को हाथ न लगाकर इस संस्थान तथा ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल को समर्पित कर उदारता का एक और परिचय दिया ।
चौथे अध्याय “सिविल सप्लाइज़:- तैलीय पदार्थ” में आंध्रप्रदेश में रेपसीड तेल के तस्करी का वर्णन है। इस तेल की आंध्रप्रदेश में कोई खपत नहीं थी,फिर भी कुछ तेल मिलों के मालिक मिलकर भारत सरकार पर दबाव डालकर इस तेल का आवंटन आन्ध्रप्रदेश के लिए करवाया।उस समय के चीफ मिनिस्टर डॉ चेन्ना रेड्डी इस तेल का बिना कोई पारदर्शी तरीका अपनाने हुए आवंटन गिने-चुने मिल-मालिकों को करना चाहते थे। इसी दौरान चीफ-मिनिस्टर के सेक्रेटरी का तेल आवंटन में देरी होने का कारण जानने के लिए पारख साहब के पास फोन आता है और उससे संबन्धित वह फाइल मंगवाई जाती है । उस फाइल में चीफ मिनिस्टर के तीन चहेते मिल–मालिकों का नाम लिखकर वह कहते हैं,”मैं सिर्फ चीफ मिनिस्टर का सेक्रेटरी हूँ, न कि सरकार का। कमिश्नर सरकार के सेक्रेटरी है और अगर आप मुख्यमंत्री के आदेश से सहमत नहीं है तो अपनी सलाह के साथ फाइल पुनः प्रस्तुत कर सकते है” ।
एक टॉप ब्यूरोक्रेट की मानसिक गुलामी को प्रदर्शित करने वाला यह कथन एक सच्चे लोकतंत्र के लिए घातक है।तत्कालीन कमिश्नर श्री पी॰ सीतापथी कोई गलत तरीका नहीं अपनाना चाहते थे,परंतु उनमें मुख्यमंत्री के मौखिक आदेश को अस्वीकार करने की हिम्मत नहीं थी। इसलिए वह उस फाइल पर घुमावदार नोट लिखकर बार-बार टूर पर चले जाते थे। कमिश्नर ईमानदार आदमी थे, मगर एक मुख्यमंत्री से टकराना उनके बस की बात नहीं थी। उन्होंने तुरंत ही उस आदेश को पारित कर दिया, मगर दूसरे आवेदक हाईकोर्ट से स्टे ले आए। उस अवस्था में सारे मिल–मालिक प्रो राटा बेसिस पर तेल लेने के लिए तैयार हो गए। उसका कारण बाद में पता चला कि पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम के तहत आंध्र-प्रदेश में उस तेल की कीमत 6000 रुपए प्रति टन थी, मगर कोलकाता में वही तेल 13000 रुपए प्रति टन के हिसाब से बिकता था। आंध्रप्रदेश में इस तेल की खपत नहीं होने के कारण विशाखापट्टनम बंदरगाह से प॰ बंगाल के लिए इस तेल की ब्लैक–मार्केटिंग की जाती थी जब इस घटना का पर्दाफाश होता है तो पता चलता है कि आवंटन पाने और खुले बाजार में बेचने की दोनों क्रियाओं में लाखों रुपए की रिश्वत चली ।
पांचवे अध्याय में पारख साहब के सन 1980 में करनूल के ‘कलेक्टर एवं डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट’ के पोस्टिंग के समय की घटनाओं का उल्लेख है । उस समय कांग्रेस के श्री टी॰अंजईया मुख्यमंत्री हुआ करते थे । करनूल जिले से तीन राजस्व,कानून और लघु सिंचाई विभाग के कांग्रेस पार्टी के तीन कैबिनेट मंत्री थे । करनूल में एक बार अकाल पड़ने के दौरान पारख साहब ने कलेक्टर की हैसियत से प्रोटोकोल के अनुरूप राजस्व मंत्री की अगुआई करते हैं। कुछ दिनों बाद फिर से करनूल में कानून-मंत्री का दौरा होता है तो पारख साहब खुद नहीं जाकर उनके साथ दौरे में जाने के लिए अपने ज्वाइंट कलेक्टर को भेज देते है। इस वजह से मंत्रीजी का ‘ईगो’ हर्ट हो जाता है। यहीं से शुरू हो जाती है उनके खिलाफ मंत्रीजी के मन में प्रतिशोध लेने की भावना। एक बार जब मंत्रीजी का कोई रिश्तेदार अधिकारी राशन के चावलों का दुरुपयोग में पकड़ा जाता है तो पारख साहब उस पर एक्शन लेने के लिए सरकार के पास रिपोर्ट भेज देते है । मंत्रीजी उसे बचाने के लिए एडी-चोटी का ज़ोर लगा देते है। इस वजह से उस अधिकारी के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं की जाती है, केवल ट्रांसफर किया जाता है। इस घटना के बाद से संबंध और ज्यादा बिगड़ने लगे। जिसका असर दिखाई देता है, जब पारख साहब ने जिले की नौन्दियाल शुगर मिल के उदघाटन के लिए मुख्यमंत्री को विशिष्ट अतिथि के रूप में आमंत्रित किया । मंत्रीजी बुरी तरह से पारख साहब पर बिफर पड़े और कहने लगे , “मुझे पूछे बिना आपने यह निर्णय कैसे ले लिया?” बात यही खत्म नहीं होती है । मंत्रीजी पारख साहब पर भ्रष्टाचार के निराधार आरोप लगाना शुरू कर देते हैं।कुछ समय बाद मुख्यमंत्री शुगर मिल के उदघाटन के उपलक्ष में करनूल आए। उदघाटन समारोह के बाद उन्होंने मंत्री जी की नाराजगी का कारण पूछा तो पारख साहब ने स्पष्ट शब्दों में सारी बातें मुख्यमंत्री को समझाई और उन्हें यह सलाह दी कि सरकार को किसी भी तरह की परेशानी न हो इसलिए अच्छा होगा उनका स्थानांतरण कर दिया जाए। कुछ समय बाद पारख साहब का स्थानांतरण हैदराबाद हो गया।पारख साहब को इस बात की तसल्ली रही कि मुख्यमंत्री ने उनसे सलाह करने के बाद ही उनका स्थानांतरण किया। आजकल तो रातोरात अधिकारियों के पक्ष को सुने बिना उनका स्थानांतरण या निलंबन कर दिया जाता है,मामूली-सी बातों पर भी। खेमका, दुर्गानागपाल इसके उदाहरण है। किस तरह एक मंत्री का ‘ईगो’ किसी ईमानदार प्रशासनिक अधिकारी को त्रस्त करने में सक्षम होता है ।
छठवें अध्याय “म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन ऑफ हैदराबाद(एमसीएच)” में पारख साहब लिखते हैं कि वह उनके जीवन का सबसे दुखद व हताशा-प्रद समय था । जब एम॰सी॰एच॰ में रात-दिन मेहनत करने के बाद अकारण स्थानांतरण कर दिया जाता है तो उस अवस्था में उनका अवसादग्रस्त होना स्वाभाविक है। सुबह छ बजे से लेकर रात को दस बजे तक लगातार ड्यूटी करने के बाद यहाँ तक कि अपनी छोटी बेटी का चेहरा देखे कई महीने बीत जाते है और उस अवस्था में जब पारख साहब का स्थानांतरण कर दिया जाता है तो उन्हें यह समझ में नहीं आता है कि वह हुआ क्यों ? और जब इस स्थानांतरण का कारण जानने के लिए चीफ सेक्रेटरी का दरवाजा खटखटाते है तो उन्हें उत्तर मिलता है, स्थानांतरण करना सरकार का अधिकार है । इस उत्तर से खिन्न होकर तत्कालीन मुख्यमंत्री एन॰टी॰रामाराव से मिलना चाहते हैं तो मुख्यमंत्री के दरवाजे उनके लिए बंद मिलते हैं । वह सरकार जो भ्रष्टाचार उन्मूलन का नारा देकर चुनाव जीती थी ,वही सरकार एम॰सी॰एच॰ में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ कदम उठा रहे एक ईमानदार छबि वाले अधिकारी की आवाज तक सुनने को तैयार नहीं। चारों तरफ से हताश होकर जब उन्होंने स्थानांतरण पॉलिसी की खामियों को उजागर करने वाली खबर प्रेस में रिलीज की तो उन्हें सरकार की ओर से ‘कारण बताओ’ नोटिस जारी किया गया । एक बार तो उन्होंने हिम्मत हारकर नौकरी छोड़ना चाहा, मगर उनके आंतरिक साहस ने ऐसा करने नहीं दिया वरन राज्य सरकार के खिलाफ विद्रोह का बिगुल बजाने के लिए प्रेरित किया। इस संदर्भ में कानून विशेषज्ञ श्री एल॰एम॰सिंघवी को भी पत्र लिखा । और जब उन्होंने यह सलाह दी कि भारत में “लॉ ऑफ टोर्ट” बहुत कमजोर है, इसलिए सरकार के खिलाफ आवाज उठाने से कोई खास फायदा होने की उम्मीद कम है। अंत में, उन्होंने अपनी रणनीति बादल दी । राज्य–सरकार छोड़कर सेंट्रल में जाना ज्यादा उचित समझा।
सातवाँ अध्याय “आंध्रप्रदेश डेयरी डेवलपमेंट कार्पोरेशन” से संबंधित है । पारख साहब ने पांच साल (1983 से 88 ) तक पेट्रोलियम मंत्रालय में डेपुटेशन पर रहने के बाद फिर से आंध्रप्रदेश
सरकार में वापस आते हैं तो उनकी पोस्टिंग एक प्रबंध-निदेशक के तौर पर आंध्रप्रदेश डेयरी डेवलपमेंट कार्पोरेशन में होती है। वहाँ ज्वाइन करने के कुछ समय बाद ही मुख्यमंत्री कार्यालय से इनडोर फॉडर मशीन को खरीदने के लिए एक आदमी की मांग आई।यह प्रस्ताव कॉर्पोरेशन के हित में नहीं था, इसलिए पारख साहब ने नामंज़ूर कर दिया। इसी कारण शायद चार महीने के भीतर-भीतर उनका वहाँ से स्थानांतरण कर दिया गया। अक्सर सरकार ईमानदार और निर्भीक सिविल सर्वेन्ट पसंद नहीं करती है। उन्हें ऐसे ऑफिसर चाहिए, जो उनकी आज्ञा का आँख बंद कर पालन करें। मगर स्वाभिमानी पारख के लिए यह संभव नहीं हो पा रहा था। जो उन्हे सही लग रहा था तो उसके लिए अडिग रहते थे। जैसे सोना आग में तपकर और ज्यादा शुद्ध होता है, वैसे ही पारख साहब कटु अनुभवों की ज्वाला में झुलसकर और ज्यादा शुद्ध और संघर्षशील होते जा रहे थे।
आठवें अध्याय “गोदावरी फर्टिलाइजर्स एंड केमिकल लिमिटेड(जीएफ़सीएल) ” में पारख साहब ने क्राइसिस से गुजर रही जीएफ़सीएल को उभारने में अपने किए सार्थक प्रयासों में चीफ मार्केटिंग मैनेजर किस तरह अपनी भ्रष्ट-बुद्धि का इस्तेमाल कर सारे सिस्टम को प्रदूषित करता है, उन तरीकों का खुलासा किया है । पारख साहब ने यहां लिखा है :–
“… यह आत्म-अवलोकन का पल था । एक सीनियर रेंक का भ्रष्ट अधिकारी बहुत ही कम समय में किसी ओर्गेनाइजेशन की सारी सोपानिकी (हियरार्की) को गलत कार्यों के लिए प्रेरित कर किस तरह भ्रष्टाचार के सेसपूल की ओर खींच लाता है।इस शृंखला में एक भी ईमानदार आदमी हो तो इस डिजाइन को तोड़ देता है।”
जब चीफ मार्केटिंग मैनेजर के रैकेट का पर्दाफाश हो जाता है और वह उन पर कार्रवाई करने की तैयारी कर रहे होते हैं कि अखबार में वहां के दो विधायकों द्वारा पारख साहब और महाप्रबंधक (मानव संसाधन विकास) श्री पी॰बालासुब्रमण्यम के खिलाफ करोड़ों की धांधली व भ्रष्टाचार के आरोप प्रकाशित होते है, यहां तक कि सी॰बी॰आई॰ से जांच करवाने की अनुशंसा भी की जाती है । पारख साहब की जगह अगर कोई और अधिकारी होता तो हिम्मत हार जाता, मगर सारे झंझावातों को झेलने के लिए वह अटल रहते हैं। वह दोनों विधायकों के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज करना चाहते हैं। इस हेतु उन्हें मुख्य सचिव मि॰नटराजन से अनुमति लेनी होती है। अनुमति देना तो दूर की बात, सरकार की ओर से बोर्ड के एक नामित सदस्य विलयम को भेजकर उनके खिलाफ ठोस सबूत खोजकर स्वतंत्र जांच करने के वह निर्देश देते हैं। मगर पारख साहब तो एक खरा सोना थे, विलियम के हाथ में कुछ भी नहीं लगता है । कुछ ही समय बाद नटराजन साहब सेवा-निवृत्त हो जाते हैं, तब पारख साहब को उन दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करने का सुअवसर प्राप्त हो जाता है। बिना पूर्व नोटिस दिए तीन महीने का वेतन देकर नौकरी से टर्मिनेट करने का वह निर्णय लेते है, तो वे अधिकारी उनके पास आकर स्वेच्छा से त्यागपत्र देने की इच्छा जाहिर करते हैं। उसी दौरान एक विधायक अपनी गलती स्वीकार कर लेता है और दूसरे विधायक के खिलाफ स्पेशियल सोशियल प्रोसेक्यूटर रखकर कार्रवाई करने की अनुमति सरकार दे देती है । जब पारख साहब उस विधायक के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कुछ कदम आगे बढ़ाते है तो मुख्य सचिव मना कर देते हैं। यह कहते हुए कि पहला कारण, इस मसले में व्यर्थ अपनी ऊर्जा और समय बर्बाद करना है, और दूसरा कारण कि ऊँट किस करवट बैठेगा,यह भी पता नहीं । उनके जीवन का यह अनुभव इस बात को दर्शाता है कि किस तरह एक तेज-तर्रार अधिकारी नेताओं के साथ मिलजुल कर झूठ को सच में और सच को झूठ में बदलने का काम करते हैं। और रही बात नेताओं की,जो अपने अधिकारों व शक्तियों का दुरुपयोग कर ईमानदार अधिकारियों की स्वच्छ छबि को धूमिल करने का प्रयास करते हैं।
सन 1993 में पारख साहब आंध्रप्रदेश सरकार के उद्योग विभाग ज्वाइन करते हैं। उस समय एक औद्योगिक इकाई का जांच-प्रतिवेदन इंडस्ट्रियल प्रमोशन अधिकारी चंद पैसों के लोभ में अपने विभाग में जमा नहीं करवाता है, बल्कि उसका ट्रांसफर होने पर वह फाइल अपने साथ ले जाता हैं। औपचारिक शिकायत के अभाव में उस पर लगने वाला भ्रष्टाचार का आरोप सिद्ध नहीं हो सका,उसे सिर्फ छोटी सजा ‘काम की उपेक्षा’ में तब्दील हो जाता है । इसी प्रकार मेडक जिले का कलेक्टर एक इंडस्ट्रीज को पेट्रोलियम प्रोडक्ट रखने के लिए दिए जाने वाले अनापत्ति–पत्र में जानबूझकर बिलंब करता है,जब तक कि उसे अपना हिस्सा नहीं मिल जाता है। हरासमेंट से बचने के लिए अक्सर बिजनेसमेन प्रतिरोध करने के बजाए मजबूरी में रिश्वत देने का रास्ता चुनते हैं। रिश्वतख़ोरी की उपरोक्त घटनाओं को कम करने तथा औद्योगिक क्लियरेंस देने में तीव्रता लाने के लिए आंध्रप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री चन्द्रबाबू नायडू ने एक नोडल ऑफिस बनाया और मुख्य सचिव की अध्यक्षता में इनवेस्टमेंट प्रोमोशन कमेटी और मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में इनवेस्टमेंट प्रोमोशन बोर्ड बनाया। इन सब सुधारों के कारण ही बड़े-बड़े प्रोजेक्ट जैसे हाइटेक सिटी, हैदराबाद इन्टरनेशनल एअरपोर्ट,प्राइवेट पोर्ट, आऊटर रिंग-रोड व इंडियन बिजनेस स्कूल का निर्माण संभव हो गया। इनमें पारख साहब की अहम भूमिका रही।पारख साहब के लंबे समय तक श्री चंद्रबाबू नायडू के साथ उदद्योग विभाग में काम किया और दोनों के मध्य बहुत सौहार्द्रपूर्ण संबंध रहे, मगर एक बार आंध्रप्रदेश मिनरल डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन में बेराइट के निर्यात में मुख्यमंत्री श्री नायडू के अपने मनपसंद ठेकेदार को सपोर्ट नहीं करने के कारण थोड़ा नाखुश जरूर रहे,उन्होंने पारख साहब के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं किया। इस अध्याय में प्राइवेट कंपनी आंध्रप्रदेश पेपर मिल के वाइस प्रेसिडेंट ( वित्त ) द्वारा उनके घर तिरुपति जी के प्रसाद वाले थैले में पैसों के बंडल छोड़कर जाने की घटना का भी जिक्र है, जिसे वे उसे तत्काल बुलाकर उठवा देते हैं और साथ ही साथ, उसे नौकरी से हटवाने के लिए कंपनी के चेयरमैन श्री एम॰एल॰बांगड को एक पत्र लिखते हैं।
दसवें अध्याय में पारख साहब ने पब्लिक इंटरप्राइजेस डिपार्टमेन्ट की गतिविधियों का वर्णन किया है, जिसमें हैदराबाद की सबसे पुरानी कंपनी निजाम शुगर लिमिटेड के निजीकरण के बाद हुई विज्ञापन प्रक्रिया में एक अनचाहे ऑफर को मुख्यमंत्री नायडू द्वारा नवनिर्मित तेलंगाना पार्टी के नेता चन्द्रशेखर राव के दबाव तथा आगामी पंचायत चुनाव के डर से समर्थन करना है,मगर यह मसला आगे जाकर कानूनी दावपेचों में फंस जाता है ।
इस पुस्तक का दूसरा भाग ‘कोयला-मंत्रालय’ से संबन्धित है, जिसमें दस अध्याय (11 से 20) है । अध्याय ग्यारह में सन 2004 के कोयला–मंत्री ममता बनर्जी के सादगी के पीछे छुपे एक असली रुप को दिखाया गया है, जिसमें ममता बनर्जी के द्वारा अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस के पचास कार्यकर्ताओं को नर्दन ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड में नौकरी देने, कोलकता में सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल का निर्माण करने तथा कुछ गैर सरकारी संस्थाओं को अवांछित अनुदान देने के साथ–साथ नेवेली लिग्नाइट कार्पोरेशन में अपने कार्यकर्ता को इंडिपेंडेंट डायरेक्टर बनाने के निर्देशों का खुलासा हुआ है। बारहवें अध्याय में शिबू सोरेन के मई 2004 में कोल मंत्रालय में कैबिनेट मंत्री बनने तथा जुलाई 2004 में मंत्री पद से इस्तीफा देने की तीन महीनों की घटना-क्रम का उल्लेख है, जबकि अगले अध्याय में प्रधानमंत्री द्वारा कोल-मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार संभालने के बाद तीन बड़े नीतिगत मुद्दों जैसे कॉमर्शियल माइनिंग के लिए कोल सेक्टर को खोलना, कंपीटिटिव बिडिंग के जरिए कोल–ब्लॉकों का आवंटन तथा नॉन कोर ग्राहकों के ई–आक्शन के जरिए कोयले की बिक्री को प्रधानमंत्री के समक्ष रखना पारख साहब की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि हैं। भारत के कोयला जगत में इस युग को ‘पारख युग’ के नाम से जाना जाएगा। उन्होंने कैप्टिव कोल–ब्लॉकों के आवंटन के लिए डिस्कशन पेपर बनाया और सभी स्टेक होल्डरों के समक्ष प्रस्तुत किया। इसके बाद ओपन–बिडिंग का प्रस्ताव उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री(उस समय कोयला मंत्रालय के प्रभारी भी थे) के समक्ष प्रस्तुत किया। प्रधानमंत्री के अनुमोदन के बाद इस विषय में एक कैबिनेट नोट बनाया और कानून मंत्रालय की सलाह से एमेंडमेंट के लिए जरूरी दस्तावेज़ भी तैयार किए। किन्तु प्रधानमंत्री के अनुमोदन के बावजूद राज्यमंत्री श्री दसारी नारायण राव तथा कोयला मंत्री श्री शिबू सोरेन ने प्रस्ताव को आगे बढ्ने नहीं दिया। और अंत में यही ‘कोलगेट’ का कारण बना।
पंद्रहवें अध्याय में पारख साहब सी॰ए॰जी॰का समर्थन करते हैं और प्रधानमंत्री को गलत मानते हैं । इसके अलावा,स्क्रीनिंग कमेटी,ऑडिट की भूमिका, नीति–कार्यान्वयन में असामान्य विलंब के साथ-साथ अनुचित लाभ के आकलन पर तर्क सम्मत ध्यान आकृष्ट करते है ।
सोलहवें अध्याय में कोयले की ई–मार्केटिंग की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है। जो कि कोयले की काला-बाजारी एवं माफिया डॉन की भूमिका को खत्म करने के लिए एक उचित कदम था। पारख साहब के फॉर्मल नोट पर प्रधानमंत्री ने टेस्ट–मार्केटिंग पर अपनी सहमति जताई थी। मगर इसकी सफलता देखकर राज्य-मंत्री और कोल-मंत्री ने आदेश दिया कि और ई–आक्शन नहीं होगा। फूल खिलने से पहले ही मुरझा गया। जब पारख साहब ने कोल इंडिया के चेयरमैन को नॉर्दन ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड का सारा कोयला ई–मार्केटिंग से बेचने की सलाह दी , तो मंत्री जी ने इसे अपवाद स्वरूप लिया।
बाकी अध्यायों में कोल–इंडिया के सी॰एम॰डी॰ के चयन में मंत्रियों द्वारा की जाने वाली ब्लैकमेलिंग, सांसदों तथा जन-प्रतिनिधियों द्वारा कोल कंपनी के शीर्ष अधिकारियों और यहाँ तक कि पारख साहब के साथ किए जाने वाले दुर्व्यवहार,व्यक्तिगत स्तर पर शिबू सोरेन का प्रतिशोधात्मक रवैया और अंत में कोलगेट पर सी॰बी॰आई॰ और सुप्रीम-कोर्ट की भूमिका का वर्णन है ।
गीता के अध्याय 3 के श्लोक 21 कहा गया है:-
“यद-यद आचरित श्रेष्ठ तत-तत इव इतरो जन, स यत्प्रमाणम कुरुते लोकस्तदनुवर्तते”
अर्थात श्रेष्ठ मनुष्य जैसा आचरण करता है, बाकी लोग उनका अनुसरण करते हैं।जब किसी मंत्रालय का एक सेक्रेटरी पारदर्शिता व ईमानदारी का आचरण करता है, तो उसके अधीन विभागों के सारे मुखिया और दूसरे अधीनस्थ कर्मचारी भी उस व्यवहार का अनुकरण करने लगते हैं। सीआईएल के चेयरमैन के चयन वाले अध्याय में उन्होने लिखा है कि जब कंपनी के सी॰ई॰ओ॰ का चयन भ्रष्टाचार की नींव पर आधारित हो तो उस कंपनी में भ्रष्टाचार–निवारण के बारे में सोचना भी व्यर्थ है ।एक बात और मुझे याद हो आई कि पारख साहब ने अपनी किताब का समर्पण-पृष्ठ अपनी माताजी स्व॰चांद कुंवर, अपनी धर्मपत्नी उषा तथा अपनी बेटी सुष्मिता का नाम उल्लेख किया है। सर्वप्रथम नत-मस्तक होना चाहूँगा उनकी स्व॰माताजी के चरणों में, जिन्होंने ऐसे सपूत को जन्म दिया, जो जीवन भर सच्चाई के रास्ते अनुसरण करता रहा, भले ही, वे रास्ते कितने भी कंटीले व विपथगामी क्यों न रहे हो हो। दूसरा शत-शत नमन भाभीजी को,जिन्होने आजीवन अपने पति के सुख-दुख में पूरा-पूरा सहयोग दिया । इस संदर्भ में मुझे बुरला विश्वविद्यालय, सम्बलपुर के प्रबंधन-संकाय के भूतपूर्व विभागाध्यक्ष व मैनेजमेंट गुरु श्री ए॰के॰महापात्र की एक कहानी याद आ जाती है ।कहानी इस प्रकार है:-
“...... एक बार अखिल विश्व-स्तरीय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सी॰ई॰ओ॰ के ‘फ्रस्टेशन-लेवल’ की जांच करने के लिए बैठक का आयोजन किया गया,जिसमें दुनिया भर के बड़े-बड़े लोगों ने भाग लिया । इस प्रयोग में पता चला कि भारतीय सी॰ई॰ओ॰ का ‘फ्रस्टेशन लेवल’’सबसे ज्यादा था । उसका कारण जानने के लिए एक टीम ने फिर से ‘व्यवहार तथा सोच’ संबंधित और कुछ प्रयोग किए । जिसमें यह पाया गया कि उनकी धर्मपत्नी बात–बात में उनके ऊपर कटाक्ष करती थी, यह कहते हुए, “आपने क्या कमाया है ? मेरे भाई को देखो। आपके एक गाड़ी है तो उसके पास चार गाड़ी है। आपके पास एक बंगला है तो उसके पास पाँच बंगले हैं। आप साल में एक बार विदेश की यात्रा करते हो तो वह हर महीने विदेश की यात्रा करता है। अब समझ में आया आपमें और उसमें फर्क ?”
ऐसे कटाक्ष सुन-सुनकर बहुराष्ट्रीय कंपनी के अट्ठाईस वर्षीय युवा सी॰ई॰ओ॰ इतना कुछ कमाने के बाद भी असंतुष्ट व भीतर ही भीतर एक खालीपन अनुभव करने लगा । पैसा, पद व प्रतिष्ठा की अमिट चाह उनके ‘फ्रस्टेशन-लेवल’ को बढ़ाते जा रही थी ।
इसी बात को अपने उत्सर्ग में पारख साहब ने लिखा की सिविल सर्विस में मोडरेट वेतन मिलने के बाद भी मेरी सारी घटनाओं की साक्षी रही मेरी धर्मपत्नी ने ऐसा कभी मौका नहीं दिया, जो मेरे निर्धारित मापदंडों का उल्लंघन करने पर मुहे बाध्य करता। पारख साहब अत्यंत ही भाग्यशाली थे कि उन्हें अपने स्वभाव, गुण व आचरण के अनुरूप जीवन–संगिनी मिली। मैं बहिन सुष्मिता को भी धन्यवाद देना चाहूँगा कि अपने निस्पृह पिता के पथ में कभी भी किसी तरह का अवरोध खड़ा नहीं किया, बल्कि एक निर्लिप्तता से उनका हौसला बढ़ाते हुए उन्हें अपने पथ को विचलित नहीं होने दिया । यह है यथार्थ वैराग्य का अनुकरणीय उदाहरण ।
अंत में, इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद करते हुए अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रहा हूँ,कि कम से कम गिलहरी की तरह कुछ रेत के कण राम-सेतु बनाने वाले महारथियों हनुमान,नल-नील,अंगद, जामवंत आदि के द्वारा फेंके जा रहे रामनाम लिखे झांवा पत्थरों के बीच डाल संकू । और मेरा श्रम तब सार्थक होगा, जब आप इसे पढ़कर इस बात का अहसास कर सकें कि ‘न वित्तेण तर्पणीयाम’ तथा ‘योग कर्मसु कौशलम’ अर्थात कुशलता से ईमानदारी पूर्वक किया गया कर्म ही योग कहलाता है ।
-दिनेश कुमार माली,तालचेर
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