सरकारी शालाओं में पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के नाम से प्राथमिक व उच्च प्राथमिक स्तर पर शिक्षा-गुणवत्ता बढ़ाये जाने हेतु सामाजिक अंकेक्षण ...
सरकारी शालाओं में पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम के नाम से प्राथमिक व उच्च प्राथमिक स्तर पर शिक्षा-गुणवत्ता बढ़ाये जाने हेतु सामाजिक अंकेक्षण का कार्य पिछले दिनों प्रदेश के सभी शालाओं में बड़े जोर-शोर से चला| निश्चित ही यह योजना बड़ा ही सराहनीय है, क्योंकि बच्चों के सीखने के स्तर का आकलन स्थानीय समाज के लोगों व पालकों की उपस्थिति में किया गया, किंतु जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है, ज्यादातर जगहों में सिर्फ कागजी घोड़ा ही दौड़ाया गया है, अत: अधिकांश शालाओं का ग्रेड ए या बी आयेगा, सी व डी ग्रेड वाले स्कूल बहुत ही कम होंगे, इसका इशारा पिछले वर्षों के अंकेक्षणों के परिणामों से मिलता है, क्योंकि ऐसे कई ऊंचे ग्रेड वाली शालाएं है जहां पढ़नें वाले बच्चे अंग्रेजी के वाक्यों को तो छोड़ ही दें , हिन्दी के वाक्यों को भी ठीक से पढ़ नहीं पाते|इस प्रकार का अंकेक्षण केवल खानापूर्ति है, ऐसा इसलिए भी किया जाता है, कि यदि किन्हीं शाला का ग्रेड सी या डी रहा तो वहां के शिक्षकों को गुणवत्ता उठाने हेतु अतिरिक्त मेहनत करनी होंगी, अधिकारियों व नेताओं को भी उन शालाओं की शिक्षा-गुणवत्ता बढ़ाने हेतु देखरेख की जिम्मेदारी दी जायेगी, जो हमेशा शिक्षकों के सिर पर सवार रहेंगे, इसीलिए अधिकांश अंकेक्षक व शिक्षक इन सबसे बचने-बचाने में लगे रहते हैं | जिसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि प्राथमिक-शिक्षा का स्तर दिन प्रति दिन गिरा है|
इस प्रकार हमें यह लगता है कि प्राथमिक-शिक्षा की इस दशा के लिए केवल और केवल शिक्षक जिम्मेदार है ? लेकिन क्या यह सही है ? उत्तर है- नहीं | इस सबका जो वास्तविक दोषी है वह है - जनरल प्रमोशन, और शासन की कुछ नीतियां |
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कैसे ? आइये इस पर विचार करें -
जनरल प्रमोशन के कारण बच्चों को यह मालूम है कि वे अब पहिली से आठवीं तक फेल नहीं होंगे, इसलिए ज्यादातर बच्चे पढ़ाई लिखाई में रूचि ही नहीं लेते, उन्हें यह भी मालूम है कि जो भी परीक्षाएं ली जाती है, उसके रिजल्ट से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला| कई बच्चे तो परीक्षा तक नहीं देते | क्योंकि वे यह भी समझ चूके हैं कि उम्र के आधार पर उनकी कक्षोन्नति होना निश्चित है| ऐसी स्थिति में बच्चों की शिक्षा-गुणवत्ता किस स्तर की होगी, यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है| ऐसा नहीं है कि प्रशासन बच्चों में पढ़ाई के प्रति रूचि जागृत करने का प्रयास नहीं करती, करती है , जैसे- शिक्षकों का नवाचार हेतु ट्रेनिंग की व्यवस्था, टी एल एम उपलब्ध कराना, परियोजना कार्य और प्रदत्त कार्य को शिक्षकीय गतिविधियों में शामिल करना, खेल खेल में शिक्षा देना आदि, किंतु ये सब केवल कागजों पर ही सिमटकर रह गया है | कहीं कहीं ही इन सबका पालन होते दिखता है | आखिर यह स्थिति क्यों है?
इसके पीछे मुख्य कारण है - जनरल प्रमोशन |
बच्चों के बाद अब शिक्षकों की स्थिति पर आते हैं, प्राथमिक व उच्च प्राथमिक शालाओं के ज्यादातर शिक्षक जनरल प्रमोशन के कारण अब पढ़ानें में रूचि कम ही लेते हैं क्योंकि अब उनके शिक्षकीय कार्य का मूल्यांकन हेतु फेल-पास वाली परीक्षा प्रणाली नहीं है, न ही अच्छे रिजल्ट हेतु किसी प्रकार का प्रशासनिक दबाव रहता है, ग्रेडिंग प्रणाली लागू है, जो कि असलियत से कोसो दूर केवल कागजों पर ही सीमित है| कामचोर शिक्षकों के लिए जनरल प्रमोशन तो एक प्रकार से मुंहमांगा वरदान है| वे केवल शाला पहुंचने बस का ड्यूटी निभाते हैं, और कागजों में ही अपनी ड्यूटी पूरा कर लेते हैं, प्रशासन भी इस दिशा में सुस्त है, उसे भी कागजों से ही मतलब है| साथ ही ऐसे शिक्षक जो निष्ठापूर्वक पढ़ाने में रूचि रखते है, वे भी छात्रों की पढ़ाई के प्रति नकारात्मक रवैये को देखते हुए हतोत्साहित होते जा रहे हैं, वे करें भी तो क्या करें, अनुशासन मुक्त शिक्षा व्यवस्था है, बिना डर भय के बच्चों को शिक्षा देनी है, अत: बच्चे उच्छृंखल हो गये हैं, वे शिक्षकों का कहा नहीं मानते, गृह कार्य पूरा करके नहीं लाते, कक्षा कार्य में भी अरूचि दिखाते हैं, इन सब कारणों से अब अच्छे शिक्षकों में भी पढ़ाने के प्रति निष्क्रियता बढ़ती जा रही हैं | ऐसे में शिक्षा-गुणवत्ता का स्तर गिरना निश्चित है| यह बड़ी विकट स्थिति है, प्रशासन को इस दिशा में गंभीरतापूर्वक ध्यान देना चाहिए| इसके अलावा शासन शिक्षकों से बहुत सारा गैर शिक्षकीय कार्य भी बीच बीच में कराते रहता हैं जिसके कारण भी शिक्षा-गुणवत्ता प्रभावित होती है |
अब आते हैं पालकों पर, आज सरकारी शालाओं में पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चों के पालक अपने बच्चों की शिक्षा-स्तर के प्रति जागरूक नहीं है, शिक्षा के अधिकार लागू होने से पहले वे अपने बच्चों के पढ़ाई के पीछे जरूर सचेत रहते थे, क्योंकि तब उन्हें बच्चों की फीस, किताब-कापी, भोजन, यूनिफार्म आदि हेतु अपनी मेहनत से कमाये हुए पैसे खर्च करने पड़ते थे, तब यदि बच्चा फेल हो जाता था, तो उन्हें हुई आर्थिक क्षति बहुत अखरती थी, इसलिए वे अपने बच्चों को डांट डपटकर घर में भी पढ़ने के लिए बैठाते थे, साथ ही शाला में क्या पढ़ाई हुई, इस बात का भी ध्यान रखते थे, जो कि अब के पालकों में देखने में नहीं आता | साथ ही वे शाला में शिक्षकों की उपस्थिति, पढ़ाई व उनकी अन्य गतिविधियों पर भी नजर रखते थे | किंतु अब शिक्षा के अधिकार कानून आने के बाद पालकों पर आर्थिक बोझ बिलकुल भी नहीं है, अत: वे अपने बच्चों के शिक्षा के प्रति भी लापरवाह हो गये हैं , ज्यादातर पालकों के लिए शाला एक सराय की भांति हो गई है, जहां शिक्षक उनके बच्चों की दिनभर देखभाल करते हैं, खिलाते पिलाते हैं, और शाम को सहीं सलामत उनके घर भेज देते हैं | पालकों की इस प्रकार के रवैयों ने शिक्षकों को भी बच्चों की शिक्षा-गुणवत्ता उठाने के प्रति लापरवाह बना दिया है| पालकों को तो अपने बच्चों की वास्तविक स्थिति का पता तब चलता है, जब उनके बच्चे नवमी या दसवीं में जाकर फेल हो जाते हैं, या फिर पढ़ाई ही छोड़ देते हैं|
जनरल प्रमोशन के साथ साथ शासन की कुछ नीतियां भी शिक्षा के गिरते स्तर के लिए जिम्मेदार है, सर्व शिक्षा अभियान के तहत छोटे छोटे पारा टोला में शाला खोल दिया गया है, जहां बच्चों की दर्ज संख्या बहुत ही कम है | कक्षायें ज्यादा है, जिनके संचालन के लिए शिक्षक पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं है| अब शिक्षक के स्थान पर शिक्षक पंचायत नियुक्त है, जिन्हें नियमित व संतोषप्रद वेतन नहीं मिलता है , परिणामतः ये शिक्षक पंचायत आये दिन हड़ताल पर जाते रहते हैं, यह भी एक प्रकार से शिक्षा के गिरते स्तर का कारण है|
यदि वाकई में शिक्षा - गुणवत्ता के लिए सरकार गंभीर है, तो सबसे पहले शिक्षा के अधिकार कानून में संशोधन करके जनरल प्रमोशन को तुरंत हटाया जाना चाहिए, एवं शिक्षक पंचायतों को नियमित कर उन्हें शिक्षक बना देना चाहिए तथा उन्हें शिक्षकीय कार्य के अतिरिक्त अन्य कार्यों से मुक्त रखा जाना चाहिए, तभी शालाओं की शिक्षा-गुणवत्ता बढ़ पायेगी, एवं माननीय पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय अब्दुल कलाम जी के नाम से चल रही शिक्षा-गुणवत्ता कार्यक्रम सफल हो पायेगी, और यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी |
ललित वर्मा, " अंतर्जश्न ", छुरा
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