मानव मस्तिष्क वैज्ञानिकों के लिए हमेशा से जटिल पहेली रहा है और वे लगातार इसे सुलझाने के प्रयास में लगे रहते हैं। अब वैज्ञानिकों ने याददाश्त...
मानव मस्तिष्क वैज्ञानिकों के लिए हमेशा से जटिल पहेली रहा है और वे लगातार इसे सुलझाने के प्रयास में लगे रहते हैं। अब वैज्ञानिकों ने याददाश्त से जुडे 100 से ज्यादा जीन की पहचान की है। इन जीनों की पहचान से याददाश्त से जुड़ी विभिन्न परेशानियों में इनकी भूमिका को जानना संभव होगा। इससे हम यह समझ पाएंगे कि मनुष्य की याददाश्त कैसे काम करती है। भविष्य में यह जानकारी याददाश्त से जुड़ी तमाम बीमारियों के उपचार का रास्ता खोल सकती है। यह अनुसंधान अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ टैक्सास साउथवेस्टर्न के वैज्ञानिकों ने किया है। इसी तरह का एक अन्य शोध योरोपीय मॉलीक्यूलर बायोलॉजी प्रयोगशाला और स्पेन के पाब्लो ओलविडो विश्वविद्यालय लंदन के वैज्ञानिकों ने दिमाग और स्मरण शक्ति पर अनुसंधान करके किया है। इस शोध से प्रमाणित हुआ है कि कुछ समय बाद सूचनाओं, घटनाओं या किताब के पाठों को भूलना मस्तिष्क अथवा बुद्धि से जुड़ी कमजोरी या बीमारी नहीं है, बल्कि यह नई चीजों को याद रखने की दृष्टि से शरीर की एक प्रक्रिया है। गोया, नई चीजों को याद रखने के लिए पुरानी चीजों को भूलना जरूरी है।
इस शोध से स्पष्ट हुआ है कि सीखने के प्रक्रिया के दौरान मस्तिष्क पिछली यादों को भूलने का प्रयास करता है, ताकि नई यादों के लिए जगह खाली हो सके। मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के वैज्ञानिक कार्नोलियस का दावा है कि यह पहला अवसर है, जब मस्तिष्क में पुरानी बातों को भूलने की आंतरिक प्रक्रिया के बारे में पता लगाया गया है। सामान्य तौर पर सीखने के लिए संपर्क या सूचना का आदान-प्रदान जरूरी है। यह सब बाद में यादों का हिस्सा बन जाता है। शोधकर्ताओं ने ‘हिप्पोकैंपस‘, यानी स्मरण शक्ति के लिए जिम्मेदार मस्तिष्क के हिस्से पर लंबे समय तक अध्ययन किया। इस दौरान वैज्ञानिकों ने नई जानकारी को याद रखने और पुरानी यादों को भूलने के बीच संबंध स्थापित किया है।
चूहों पर किए सफल परीक्षण से ज्ञात हुआ है कि विभिन्न माध्यामों से एकत्रित सूचनाएं पहले हिप्पोकैंपस में आकर इकट्ठी होती हैं। इनके आपस में जुड़ने पर न्यूरॉन और स्मरण शक्ति का मुख्य मार्ग मजबूत होता है। मुख्य मार्ग बंद करने की स्थिति में सीखने की क्षमता खत्म होने की बात सामने आई है। किंतु मार्ग खोलने पर नई चीजें सीखने की प्रक्रिया के दौरान पुरानी यादों से संपर्क धुंधला पड़ने की जानकारियां मिलीं। इससे साफ हुआ कि नया याद रखने के लिए भूलना आवश्यक है। गोया, याद रखे बिना तो किसी तरह गुजारा हो सकता है, लेकिन भूले बगैर जिंदगी आगे बढ़ना मुमकिन नहीं है। इसलिए हम कह सकते हैं कि भूलना कोई अभिशाप नहीं, वरण प्रकृति का अद्वितीय वरदान है।
यहां यह भी गौरतलब है कि प्रत्येक इंसान की याद रखने की क्षमता भी भिन्न-भिन्न होती है। इसे निरंतर अभ्यास या कुछ अन्य तरीकों से बढ़ाया जा सकता है। जैसे कि हमारे फिल्म और संगीत से जुड़े कलाकार या खिलाड़ी अपना मुकाम रियाज के जरिए हासिल कर लेते हैं। लेखक और महान वैज्ञानिकों के बारे में भी यही धारणा है। फ्लोरिडा स्टेट विवि के वैज्ञानिक एण्डर्स एरिकसन मानते हैं कि अपनी रूचि के विषय के बारे में जानकारी सहेजने के लिए सशक्त याददाश्त विकसित की जा सकती है। ये लोग अपने विषय से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी को अपने दिमाग में सहेज लेते हैं। इसके बाद प्रसंगानुकूल संग्रहित जानकारी का इस्तेमाल करते हैं। इसीलिए हमारे यहां शताब्दियों से यह लोकोक्ति प्रचलन में है, ‘करत-करत अभ्यास, जन जड़मति होत सुजान।‘ इसीलिए एरिकसन जैसे वैज्ञानिकों का मानना है कि न तो बौद्धिक पैदा किए जा सकते हैं और न ही उनमें कोई विशेष जींस होते हैं। गोया, जो लोग जिन क्षेत्रों में अपनी छाप छोड़ते हैं, उनके पीछे उनकी कड़ी मेहनत और लगन अहम् होती है। इसे हम कंप्यूटर की बुद्धि मसलन सॉफ्टवेयर के जनक बिल गेट्स की मिसाल से समझ सकते हैं। बिल गेट्स की अकादमिक शिक्षा में रूचि नहीं थी, लेकिन वे कोरे कागजों और कंप्यूटर स्कीन पर आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचने में लगे रहते थे। यही रेखाएं एक दिन सॉफ्टवेयर तकनीक के विकास का मंत्र बन गईं। हम सभी जानते है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभावग्रस्त जीवन जिया। रेलों में चाय बेची। उनकी शिक्षा भी अंग्रेजी माध्यम के कथित उच्च गुणवत्ता के स्कूल-कॉलेज में नहीं हुई। बावजूद वे निरंतर कुछ न कुछ नया सीखते रहे, राजनीति में पैर जमाने के लिए कड़ी मेहनत करते रहे। उनके इस निष्काम कर्म का प्रतिफल आज दुनिया के सामने है।
बावजूद यह बहस निरंतर बनी हुई है कि बुद्धि वंशानुगत है अथवा सीखने-सिखाने से विकसित होती है। बुद्धि में आनुवंशिकता और परवरिश के योगदान को लेकर यह बहस सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्योंकि समय-समय पर किसी व्यक्ति ही नहीं, बल्कि पूरे के पूरे समुदायों को मूर्ख घोषित कर दिया जाता है। हमारे यहां घुमंतू और वन्य जीवों को पालकर उन्हें करतब सिखाकर प्रदर्शन करने योग्य बनाने वाली जातियों के साथ यही मजाक हुआ है। कच्चे लोहे से घरेलू व खेती-किसानी में उपयोग में लाए जाने वाले औजार बनाने वाले गाड़िया लुहारों का भी यही हश्र हुआ। इस लिहाज से अब वैज्ञानिक धीरे-धीरे इस राय पर सहमत हो रहे हैं कि बुद्धि पर आनुवांशिकता और परवरिश दोनों का मिला-जुला असर होता है। लिहाजा अवसर मिले तो किसी में भी अद्वितीय बौद्धिक विकास संभव है।
दरअसल मानव जीनोम श्रृंखला का पता लगने के बाद इस बात की होड़ मची है कि हर चीज का जीन खोज निकाला जाए। इसीलिए अक्ल यानी बुद्धि के जीन का पता लगाने की कोशिशें भी हो रही हैं। लंदन के इंस्टीट्यूट ऑफ सायकिएट्री के वैज्ञानिक रॉर्बट प्लोमिन के नेतृत्व में इस तथ्य की तलाश की गई। शोध का मकसद उन जींस को पहचानना था, जो व्यक्ति को बुद्धिमान बनाते हैं। इस हेतु सात हजार, सात वर्षीय बालकों की बुद्धि के परीक्षण किए गए। साथ ही उनके खून के नमूने भी लिए गए। इसके बाद परीक्षणों के परिणामों के आधार पर बच्चों को बुद्धि के क्रम में बैठाया गया। सर्वाधिक और सबसे कम अंक पाने वाले बच्चों के डीएनए में फर्क का हिसाब लगाया गया। इससे शोधार्थियों को यह परखने में मदद मिली कि उच्च प्राप्तांक और निम्न प्राप्तांक वाले बच्चों के डीएनएन में कहां-कहां अंतर है और इन अंतरों की कोई निश्चित पद्धति है। इस तुलना के परिणामों को देखकर वैज्ञानिक किसी एक निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाए। क्योंकि ये निष्कर्ष हमारी प्रचलित मान्यताओं के अनुरूप ही थे।
निष्कर्ष से पता चला कि बुद्धि के विकास में यदि जींस का योगदान है, तो ऐसे सैकड़ों जींस हैं। दूसरी बात यह भी पता चली कि बुद्धि के विकास में प्रत्येक जींस का योगदान इतना कम होता है कि उसका स्पष्ट आकलन ही संभव नहीं है। शोधकर्ताओं ने ऐसे 6 जींस पहचाने जो उच्च या निम्न बुद्धिमत्ता से बहुत निकटता से जुड़े लगते थे। इनमें से सबसे सशक्त जींस का भी बुद्धि पर इतना असर होता है कि वह 0.4 प्रतिशत का अंतर पैदा कर सकता है। सभी 6 जींस मिलकर भी महज बमुश्किल एक प्रतिशत का असर ही पैदा कर सकते हैं। वैज्ञानिकों को इन नतीजों से आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि वे जानते हैं कि बुद्धि जैसा पेचीदा गुणधर्म एक या दो जींस पर निर्भर नहीं हो सकता है। इसीलिए यह धारणा बनी हुई है कि दिमाग में चेतना या बुद्धि का कोई एक निर्धारित स्थान नहीं है, बल्कि वह पूरे दिमाग की समन्वित क्रिया का नतीजा है। इस लिहाज से दिमाग मेें नई यादें बनाए रखने के लिए भूलने का सिलसिला जारी रहता है।
इन अध्ययनों से यह भी पता चला है कि बुद्धि या स्मरण शक्ति को दवाओं के सेवन से बढ़ाया नहीं जा सकता है। इसके विपरीत दवाओं के गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। बावजूद भारत समेत पूरी दुनिया में बौद्धिक क्षमता बढ़ाने वाली दवाओं की खोज मानव सभ्यता के विकसित होने के शुरूआती चरणों में ही शुरू हो गई थी। हमारी प्राचीन चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में ऐसी अनेक वनस्पतियों का उल्लेख है, जिनके सेवन से बुद्धि बढ़ने का दावा किया गया है। दिमागी दवा के रूप में ‘ब्राह्मनी‘ का चलन सदियों पुराना है। इस बूटी का वैज्ञानिक नाम ‘बैकोपा मोनीरा‘ है। दरअसल आधुनिक वैज्ञानिक शोधों में जड़ी-बूटियों के प्रभावी रसायनों को पहचानकर अलग कर लिया जाता है। ब्राह्मनी के साथ भी यही किया गया है। इसके दो रसायन अलग करके दवा बनाई गई है। ये रसायन बैकोसाइड-ए और बी नामों से जाने जाते हैं। परीक्षणों से पता चला कि इनमें दिमाग में याददाश्त बढ़ाने वाले रसायन आरएनए यानी रिबो न्यूक्लिएसिड और डीएनए की मात्रा बढ़ जाती है। बुढ़ापे के कारण दिमाग में होने वाले बदलाव भी कम हो गए। इसके सेवन के बाद हानिकारक प्रभाव भी शरीर में देखने को नहीं मिले। बावजूद बुद्धिमत्ता कितनी बढ़ी यह स्पष्ट नहीं हुआ। तैत्तरेय उपनिशद में यह दावा किया गया है कि ‘मेघा सूक्तम‘ छंदों का सही उच्चारण किया जाए तो दिमाग की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। ये उदाहरण केवल इसलिए दिए गए हैं कि बुद्धि के विकास में आधुनिक वैज्ञानिक ही नहीं प्राचीन मनीषी भी लगे रहे हैं।
बहरहाल भूलना कोई बीमारी नहीं है, जिसका उपचार किया जाए। प्रत्येक इंसान की स्मरण शक्ति एक कुदरती क्षमता है, जो अनेक कारकों से सक्रिय रहती है। हां, उम्र के साथ जिस तरह हमारी अन्य शारीरिक व मानसिक क्षमताओं का क्षरण होता है, उसी क्रम में बुद्धि का क्षरण भी मुमकिन है। अब स्मृति से जुड़े जीन 100 जीन की पहचान की गई है, उनसे याद को प्रभावित करने वाली बीमारी अल्जाइमर को ठीक करने का दावा किया जा रहा है। यह बीमारी उम्र बढ़ने के साथ शरीर में घर कर जाती है। बहरहाल ताजा शोध ज्यादा कुछ नया देने की बजाय सिर्फ इतना तय कर पाए हैं कि एक तो नया याद करने के लिए पुराना भूलना कोई बुरी बात है और न ही किसी दिमागी रोग का पर्याय है। दूसरे, अल्जाइमर जैसी कोई बीमारी उत्पन्न हो रही है तो उसका इलाज जीन-थैरेपी से संभव हो जाएगा।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
मो. 09425488224
फोन 07492 232007
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं.
इस शोध से स्पष्ट हुआ है कि सीखने के प्रक्रिया के दौरान मस्तिष्क पिछली यादों को भूलने का प्रयास करता है, ताकि नई यादों के लिए जगह खाली हो सके। मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के वैज्ञानिक कार्नोलियस का दावा है कि यह पहला अवसर है, जब मस्तिष्क में पुरानी बातों को भूलने की आंतरिक प्रक्रिया के बारे में पता लगाया गया है। सामान्य तौर पर सीखने के लिए संपर्क या सूचना का आदान-प्रदान जरूरी है। यह सब बाद में यादों का हिस्सा बन जाता है। शोधकर्ताओं ने ‘हिप्पोकैंपस‘, यानी स्मरण शक्ति के लिए जिम्मेदार मस्तिष्क के हिस्से पर लंबे समय तक अध्ययन किया। इस दौरान वैज्ञानिकों ने नई जानकारी को याद रखने और पुरानी यादों को भूलने के बीच संबंध स्थापित किया है।
चूहों पर किए सफल परीक्षण से ज्ञात हुआ है कि विभिन्न माध्यामों से एकत्रित सूचनाएं पहले हिप्पोकैंपस में आकर इकट्ठी होती हैं। इनके आपस में जुड़ने पर न्यूरॉन और स्मरण शक्ति का मुख्य मार्ग मजबूत होता है। मुख्य मार्ग बंद करने की स्थिति में सीखने की क्षमता खत्म होने की बात सामने आई है। किंतु मार्ग खोलने पर नई चीजें सीखने की प्रक्रिया के दौरान पुरानी यादों से संपर्क धुंधला पड़ने की जानकारियां मिलीं। इससे साफ हुआ कि नया याद रखने के लिए भूलना आवश्यक है। गोया, याद रखे बिना तो किसी तरह गुजारा हो सकता है, लेकिन भूले बगैर जिंदगी आगे बढ़ना मुमकिन नहीं है। इसलिए हम कह सकते हैं कि भूलना कोई अभिशाप नहीं, वरण प्रकृति का अद्वितीय वरदान है।
यहां यह भी गौरतलब है कि प्रत्येक इंसान की याद रखने की क्षमता भी भिन्न-भिन्न होती है। इसे निरंतर अभ्यास या कुछ अन्य तरीकों से बढ़ाया जा सकता है। जैसे कि हमारे फिल्म और संगीत से जुड़े कलाकार या खिलाड़ी अपना मुकाम रियाज के जरिए हासिल कर लेते हैं। लेखक और महान वैज्ञानिकों के बारे में भी यही धारणा है। फ्लोरिडा स्टेट विवि के वैज्ञानिक एण्डर्स एरिकसन मानते हैं कि अपनी रूचि के विषय के बारे में जानकारी सहेजने के लिए सशक्त याददाश्त विकसित की जा सकती है। ये लोग अपने विषय से संबंधित महत्वपूर्ण जानकारी को अपने दिमाग में सहेज लेते हैं। इसके बाद प्रसंगानुकूल संग्रहित जानकारी का इस्तेमाल करते हैं। इसीलिए हमारे यहां शताब्दियों से यह लोकोक्ति प्रचलन में है, ‘करत-करत अभ्यास, जन जड़मति होत सुजान।‘ इसीलिए एरिकसन जैसे वैज्ञानिकों का मानना है कि न तो बौद्धिक पैदा किए जा सकते हैं और न ही उनमें कोई विशेष जींस होते हैं। गोया, जो लोग जिन क्षेत्रों में अपनी छाप छोड़ते हैं, उनके पीछे उनकी कड़ी मेहनत और लगन अहम् होती है। इसे हम कंप्यूटर की बुद्धि मसलन सॉफ्टवेयर के जनक बिल गेट्स की मिसाल से समझ सकते हैं। बिल गेट्स की अकादमिक शिक्षा में रूचि नहीं थी, लेकिन वे कोरे कागजों और कंप्यूटर स्कीन पर आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचने में लगे रहते थे। यही रेखाएं एक दिन सॉफ्टवेयर तकनीक के विकास का मंत्र बन गईं। हम सभी जानते है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभावग्रस्त जीवन जिया। रेलों में चाय बेची। उनकी शिक्षा भी अंग्रेजी माध्यम के कथित उच्च गुणवत्ता के स्कूल-कॉलेज में नहीं हुई। बावजूद वे निरंतर कुछ न कुछ नया सीखते रहे, राजनीति में पैर जमाने के लिए कड़ी मेहनत करते रहे। उनके इस निष्काम कर्म का प्रतिफल आज दुनिया के सामने है।
बावजूद यह बहस निरंतर बनी हुई है कि बुद्धि वंशानुगत है अथवा सीखने-सिखाने से विकसित होती है। बुद्धि में आनुवंशिकता और परवरिश के योगदान को लेकर यह बहस सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्योंकि समय-समय पर किसी व्यक्ति ही नहीं, बल्कि पूरे के पूरे समुदायों को मूर्ख घोषित कर दिया जाता है। हमारे यहां घुमंतू और वन्य जीवों को पालकर उन्हें करतब सिखाकर प्रदर्शन करने योग्य बनाने वाली जातियों के साथ यही मजाक हुआ है। कच्चे लोहे से घरेलू व खेती-किसानी में उपयोग में लाए जाने वाले औजार बनाने वाले गाड़िया लुहारों का भी यही हश्र हुआ। इस लिहाज से अब वैज्ञानिक धीरे-धीरे इस राय पर सहमत हो रहे हैं कि बुद्धि पर आनुवांशिकता और परवरिश दोनों का मिला-जुला असर होता है। लिहाजा अवसर मिले तो किसी में भी अद्वितीय बौद्धिक विकास संभव है।
दरअसल मानव जीनोम श्रृंखला का पता लगने के बाद इस बात की होड़ मची है कि हर चीज का जीन खोज निकाला जाए। इसीलिए अक्ल यानी बुद्धि के जीन का पता लगाने की कोशिशें भी हो रही हैं। लंदन के इंस्टीट्यूट ऑफ सायकिएट्री के वैज्ञानिक रॉर्बट प्लोमिन के नेतृत्व में इस तथ्य की तलाश की गई। शोध का मकसद उन जींस को पहचानना था, जो व्यक्ति को बुद्धिमान बनाते हैं। इस हेतु सात हजार, सात वर्षीय बालकों की बुद्धि के परीक्षण किए गए। साथ ही उनके खून के नमूने भी लिए गए। इसके बाद परीक्षणों के परिणामों के आधार पर बच्चों को बुद्धि के क्रम में बैठाया गया। सर्वाधिक और सबसे कम अंक पाने वाले बच्चों के डीएनए में फर्क का हिसाब लगाया गया। इससे शोधार्थियों को यह परखने में मदद मिली कि उच्च प्राप्तांक और निम्न प्राप्तांक वाले बच्चों के डीएनएन में कहां-कहां अंतर है और इन अंतरों की कोई निश्चित पद्धति है। इस तुलना के परिणामों को देखकर वैज्ञानिक किसी एक निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाए। क्योंकि ये निष्कर्ष हमारी प्रचलित मान्यताओं के अनुरूप ही थे।
निष्कर्ष से पता चला कि बुद्धि के विकास में यदि जींस का योगदान है, तो ऐसे सैकड़ों जींस हैं। दूसरी बात यह भी पता चली कि बुद्धि के विकास में प्रत्येक जींस का योगदान इतना कम होता है कि उसका स्पष्ट आकलन ही संभव नहीं है। शोधकर्ताओं ने ऐसे 6 जींस पहचाने जो उच्च या निम्न बुद्धिमत्ता से बहुत निकटता से जुड़े लगते थे। इनमें से सबसे सशक्त जींस का भी बुद्धि पर इतना असर होता है कि वह 0.4 प्रतिशत का अंतर पैदा कर सकता है। सभी 6 जींस मिलकर भी महज बमुश्किल एक प्रतिशत का असर ही पैदा कर सकते हैं। वैज्ञानिकों को इन नतीजों से आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि वे जानते हैं कि बुद्धि जैसा पेचीदा गुणधर्म एक या दो जींस पर निर्भर नहीं हो सकता है। इसीलिए यह धारणा बनी हुई है कि दिमाग में चेतना या बुद्धि का कोई एक निर्धारित स्थान नहीं है, बल्कि वह पूरे दिमाग की समन्वित क्रिया का नतीजा है। इस लिहाज से दिमाग मेें नई यादें बनाए रखने के लिए भूलने का सिलसिला जारी रहता है।
इन अध्ययनों से यह भी पता चला है कि बुद्धि या स्मरण शक्ति को दवाओं के सेवन से बढ़ाया नहीं जा सकता है। इसके विपरीत दवाओं के गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। बावजूद भारत समेत पूरी दुनिया में बौद्धिक क्षमता बढ़ाने वाली दवाओं की खोज मानव सभ्यता के विकसित होने के शुरूआती चरणों में ही शुरू हो गई थी। हमारी प्राचीन चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद में ऐसी अनेक वनस्पतियों का उल्लेख है, जिनके सेवन से बुद्धि बढ़ने का दावा किया गया है। दिमागी दवा के रूप में ‘ब्राह्मनी‘ का चलन सदियों पुराना है। इस बूटी का वैज्ञानिक नाम ‘बैकोपा मोनीरा‘ है। दरअसल आधुनिक वैज्ञानिक शोधों में जड़ी-बूटियों के प्रभावी रसायनों को पहचानकर अलग कर लिया जाता है। ब्राह्मनी के साथ भी यही किया गया है। इसके दो रसायन अलग करके दवा बनाई गई है। ये रसायन बैकोसाइड-ए और बी नामों से जाने जाते हैं। परीक्षणों से पता चला कि इनमें दिमाग में याददाश्त बढ़ाने वाले रसायन आरएनए यानी रिबो न्यूक्लिएसिड और डीएनए की मात्रा बढ़ जाती है। बुढ़ापे के कारण दिमाग में होने वाले बदलाव भी कम हो गए। इसके सेवन के बाद हानिकारक प्रभाव भी शरीर में देखने को नहीं मिले। बावजूद बुद्धिमत्ता कितनी बढ़ी यह स्पष्ट नहीं हुआ। तैत्तरेय उपनिशद में यह दावा किया गया है कि ‘मेघा सूक्तम‘ छंदों का सही उच्चारण किया जाए तो दिमाग की क्रियाशीलता बढ़ जाती है। ये उदाहरण केवल इसलिए दिए गए हैं कि बुद्धि के विकास में आधुनिक वैज्ञानिक ही नहीं प्राचीन मनीषी भी लगे रहे हैं।
बहरहाल भूलना कोई बीमारी नहीं है, जिसका उपचार किया जाए। प्रत्येक इंसान की स्मरण शक्ति एक कुदरती क्षमता है, जो अनेक कारकों से सक्रिय रहती है। हां, उम्र के साथ जिस तरह हमारी अन्य शारीरिक व मानसिक क्षमताओं का क्षरण होता है, उसी क्रम में बुद्धि का क्षरण भी मुमकिन है। अब स्मृति से जुड़े जीन 100 जीन की पहचान की गई है, उनसे याद को प्रभावित करने वाली बीमारी अल्जाइमर को ठीक करने का दावा किया जा रहा है। यह बीमारी उम्र बढ़ने के साथ शरीर में घर कर जाती है। बहरहाल ताजा शोध ज्यादा कुछ नया देने की बजाय सिर्फ इतना तय कर पाए हैं कि एक तो नया याद करने के लिए पुराना भूलना कोई बुरी बात है और न ही किसी दिमागी रोग का पर्याय है। दूसरे, अल्जाइमर जैसी कोई बीमारी उत्पन्न हो रही है तो उसका इलाज जीन-थैरेपी से संभव हो जाएगा।
प्रमोद भार्गव
शब्दार्थ 49,श्रीराम कॉलोनी
शिवपुरी म.प्र.
मो. 09425488224
फोन 07492 232007
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं.
COMMENTS