रंगीले राजस्थान के कई रंग हैं. कहीं रेगिस्तानी बालू पसरी हुई है तो कही अरावली की पर्वत श्रृंखलायें अपना सर ऊँचा कर के खड़ी हुई है .इस प्रदेश ...
रंगीले राजस्थान के कई रंग हैं. कहीं रेगिस्तानी बालू पसरी हुई है तो कही अरावली की पर्वत श्रृंखलायें अपना सर ऊँचा कर के खड़ी हुई है .इस प्रदेश में शौर्य और बलिदान ही नहीं साहित्य और कला की भी अजस्र धारा बहती है.चित्र कलाओं ने भी मानव की चिंतन शैली को विकसित व् प्रभावित किया है .संस्कृति व् लोक संस्कृति के लिहाज़ से राजस्थान समृद्ध प्रदेश हैं.राजस्थान में साहित्य ,संस्कृति कला की त्रिवेणी बहती हैं, जीवन कठिन होने के कारण इन कलाओं ने मानव को जिन्दगी से लड़ने का हौसला दिया है. यहीं पर महाराणा प्रताप हुए.संत कवयित्री मीरा,कलाप्रेमी कुम्भा, चतरसिंह जी बावजी, भरथरी, बिहारी और अन्य सैकड़ों नाम हैं. पद्मश्री कोमल कोठारी , विजय दान देथा , देवीलाल सामर आदि ने राजस्थानी संस्कृति को सहेजने व् एकत्रित करने में बड़ा योग दान दिया.बोरुन्दा के रूपायन संस्थान , व् उदय पुर के भारतीय लोक कला मंडल में काफी का म किया गया. देवेन्द्र सत्यार्थी ने जो काम उत्तर प्रदेश,बिहार व् अन्य जगहों पर किया वहीँ काम विजय दान देथा ने किया , वाता री फुलवारी में हजारों कथाएं संकलित हैं.
भौगोलिक कारणों से संस्कृति पर प्रभाव पड़ा है.प्राचीन प्रस्तर युग से चल कर सभ्यता संस्कृति आज के दौर में पहुंची है. आयड नदी की सभ्यता भी बहुत प्राचीन है.गणगौर,तीज, होली दशहरा,दिवाली मेले ठेले, कुश्ती दंगल , शौर्य पराक्रम सब इसी धरती पर हैं.यहाँ की रंग बिरंगी पोशाकें आज भी धूम मचा रही है .आभूषण , केश विन्यास ,भोजन , भजन सब अनोखा है.अलग अलग धर्म ,जाती के लोग सभी की संस्कृति को अपनाते हैं.
साहित्य में संसकृत , प्राकृत,राजस्थानी, बागड़ी, मेवाड़ी,ब्रज ,हाडोती ,ढूढाडी, सभी भाषाओँ में विपुल् साहित्य है.
यहाँ की स्थापत्यकला ,मूर्तिकला ,नारी अंकन,मंदिर कला, चित्रकला ,कठपुतली कला , मांडना कला , लोक संस्कृति बहुत अनोखी व् समृद्ध है.यहाँ के किले. मंदिर विश्व प्रसिद्ध हैं.लोक नाट्यों की एक लम्बी परम्परा हैं.रम्मत ,ख्याल ,गवरी,गैर , गरबा ,लोक वाध्य , लोक कथा ,लोक गीत आदि की भी विशाल परम्परा है.लोक नाट्यों में ऐतिहासिक,श्रंगारिक धार्मिक नाटकों के मंचन होते थे. ढोल मारू का नाटक बहुत प्रसिद्ध था.राम लीला,,कृष्ण लीला भी बहु त होती थी.
आइये , इस परम्परा का एक नज़ारा लें.
राजस्थान में चित्रकला -
राजस्थान में चित्रकला का प्रारंभ लगभग चार शताब्दी पहले हुआ। मुगलकाल में चित्र कला उन्नत हुई, लेकिन औरंगजेब ने कलाकारों से राज्याश्रय छीन लिया और कलाकार इधर उधर भगने लगे। ऐसी स्थिति में राजपूतानों के रजवाडों और रावरों में इन कलाकारों को प्रश्रय मिला और चित्रकला राजस्थान में परवान चढ़ने लगी।
राजस्थान में चित्र कला के प्रारंम्भिक काल में जैन शैली बहुत लोकप्रिय थी। गुजरात में भी उन दिनों जैन शैली का प्रभाव था, गुजरात से लगे होने के कारण मेवाड़ में जिस चित्र कला का विकास हुआ, वह जैन शैली से पूर्णतः प्रभावित थी।
अलग अलग भौगोलिक परिस्थितियों, विभिन्न परिवेशों के कारण जैन और मुगल शैली योग से राजस्थान में बिलकुल अलग किस्म की चित्रकला विकसित हुई। ये चित्र शैलियां जैन और मुगल शैली से प्रभावित होते हुए भी बिलकुल अलग ओर अनूठी थी। वास्तव में राजस्थान के चित्रकारों ने एक एसी चित्र धारा बहा दी कि विश्व आश्चर्य चकित रह गया।
प्रसिद्ध इतिहासकार अबुलफजल के अनुसार राजस्थानी चित्रकला वस्तुओें के बारें में हमारे ज्ञान से बहुत आगे हैं। हिन्दू धर्म के त्याग, तपस्या, सन्यास, कोमलता, श्रृंगार, पवित्रता, वियोग, शिकार, क्रोध, हास्य, आदि सभी का प्रतिनिधित्व इन चित्रों में हुआ है। राजस्थानी कलाकारों ने जीवन में धर्म और श्रृंगार दोनों को बराबर महत्व देते हुए चित्र बनाये। अजन्ता के चित्रों में जो आदर्श ह।, वे राजस्थानी चित्र शैलियों में भी है।
राजस्थान की अलग अलग रियासतों में अलग अलग कलाकारों ने पीढ़ी दर पीढ़ी चित्र बनाएं और चित्रकला की नवीन शैलियां विकसित की। बराबर राज्याश्रय मिलने के कारण ये चित्र शैलियां प्रसिद्धि के शिखर तक पहुंची। अति महत्वपूर्ण शैलियों में निम्न चित्र शैलियां प्रमुख है- नाथद्वारा चित्र शैली, जैन चित्र शैली, मारवाड़ चित्र शैली, बूंदी चित्र शैली, जयपुर चित्र शैली, अलवर चित्र शैली, कोटा चित्र शैली, बीकानेर चित्र शैली, जैसलमेर चित्र शैली, मेवाड़ चित्र शैली किशनगढ़ चित्र शैली आदि।
राजस्थान की जैन चित्रकला भी काफी अच्छी रही हैं, जैन उपास् रों व् साधुओं के सान्निध्य मे इसका विकास हुआ. कपड़े पर बनने वाली फडचित्र कारी भी काफी प्रसिद्ध हुई, भीलवाडा के फड़चित्रकार विश्व प्रसिद्ध हुए. श्री नाथजी के कपड़े पर बने चित्र भी बहुत लोकप्रिय है, इसे पिछवाई कला कहते हैं. मोलेला की टेरा कोटा कला ने भी खूब नाम कमाया है.किशन गढ़ की बनी ठनी चित्रों का महत्व भी बहुत है. मारवाड़ी चित्रकला ,बूंदी कला , भी बहुत प्रसिद्ध हैं.
कठपुतली कला
कठपुतलियों की देश और विदेश में लोकप्रियता और प्रसिद्धि दिलाने हेतु स्व.देवीलाल सामर ने बहुत काम किया। उदयपुर का भारतीय लोक कला मण्डल परम्परागत और नवीन कठपुतलियां तथा उनके समाजशास्त्रीय अध्ययन पर काफी काम कर रहा है। पुतलियां चाहे पुरातन हों अथवा नवीन, सैद्धान्तिक दृष्टि से एक ही नियम में बंधी हैं, और किन्हीं वास्तविक प्राणियों की नकल नहीं हो सकती। न्यूनतम अंग भंगिमाओं से अधिकतम भंगिमाओं का भ्रम उत्पन्न करना पारम्परिक एवं आधुनिक पुतलियों का परम धर्म है।
पुतली सिद्धान्त की दृष्टि से पुरातन पुतलियां जितनी आधुनिक हैं, उतनी आधुनिक पुतलियां नहीं। चित्रकला की तरह भारतीय पुतलियां अनुकृति मूलकता से हटकर आभासिक रही है। आन्ध्र, राजस्थान एवं उड़ीसा की पुतलियां इसी क्रम में आती हैं।
आधुनिक पुतलियां पारम्परिक पुतलियों का ही परिष्कृत रूप है। इन पुतलियों को पारम्परिक पुतली सिद्धान्त से ही जोड़ा जा सकता है। पारम्परिक पुतलियां अपने नियमों से बंधी होने के कारण विकास नहीं पा सकीं। राजस्थान के पारम्परिक पुतलीकार अमरसिंह राठौर या राणा प्रताप के खेल से आगे नहीं बढ़ना चाहते। उड़ीसा के पुतलीकार गोपीकृष्ण के कथानक को नहीं छोड़ते। आन्ध्र के छाया कठपुतलीकार रामायण एवं महाभारत के ही खेल करते है। यही कारण है कि यह परम्परा अब मृतप्रायः सी हो चुकी है। लेकिन पुतली कला के विषय अब प्रमुख रूप से शिक्षा, मनोरंजन, सामाजिक विंसंगतियों आदि से सम्बन्धित होते हैं। वसीला नामक कठपुतली नाटक ने भारत व सोवियत समाज को नजदीक लाने में मदद की।
मूर्ति कला
सफेद और काले हल्के पीले और गुलाबी, रंगीन और सादे, पारदर्शी या इन्द्रधनुषी, अनगिनत रंगों में कलात्मक मूर्तियां पत्थरों की। जयपुर मूर्ति उद्योग विश्व-विख्यात हैं। हजारों लाखों की संख्या में ये मूर्तियां प्रतिवर्ष देश विदेश के हजारों मंदिरों में प्रतिष्ठित होकर श्रद्धा से पूजी जाती है। इनकी अर्चना की जाती है। मन्नतें मानी जाती है।
मूर्ति बनाने के आरंभ से ही मनुष्य के मुख्यतः दो उद्देश्य रहे है। एक तो किसी स्मृति को या अतीत को जीवित बनाये रखना, दूसरे अमूर्त को मूर्त रूप देकर व्यक्त कर अपना भाव प्रकट करना। यदि पूरे संसार की काल प्रतिमाओं का विवेचन करे तो यही तथ्य दृष्टिगोचर होता है। प्रारम्भ में मनुष्य ने जानवरों, वनस्पतियों और उन पर मानव की विजय का अंकन मूर्तियों पर किया फिर देवी देवताओं और प्राकृतिक कोप से बचने के लिए मूर्तियों का पूजन अर्चन प्रारंभ हुआ। मूर्तिकला में ऐतिहासिक मूर्तियां एक सिरे पर है और धार्मिक और कलात्मक मूर्तियां दूसरे सिरे पर है। आध्यात्मिक भावना में उपासना में, पूजा, अर्चना में जो सुख है, वह भौतिकवाद में नहीं है और भारतीय मूर्तिकला ने अपना ध्यान इसी पारलौकिक सुख की ओर केन्द्रित किया हैं। वास्तव में मूर्ति, चित्र, कविता संगीत का और सौन्दर्य का एक ऐसा मिला जुला रूप है कि बरबस वह मानव को आकर्षित कर उसके अवचेतन मस्तिष्क में देवता की या ईश्वर की एक छवि बना देती है। भारतीय मूर्तिकला ने भौतिक रूप का निर्देशन न करके तात्विक रूप निर्देशन किया है और इसी कारण यह सर्वत्र ग्राहय है। पूज्य हैं।
भारत की प्राचीन मूर्तियां सिंध, मोहनजोदड़ों और हड़प्पा में मिली है। बाद में नंदकाल, मौर्यकाल, शुंगकाल, कुषाण-सातवाहनकाल, मथुरा शैली, गुप्तकाल, उत्तर-मध्यकाल, खुजराहो, तंजोर, दक्षिण भारत तथा आधुनिक काल में भी भारतीय मूर्तिकला की परम्परा रही है। वास्तव में कलाकृति में कलाकार की अनुभूति की ही अभिव्यक्ति रहती है। और सृजन का सुख कलाकार को बराबर मिलता रहा है.
राजस्थान में कई प्रसिद्ध मंदिर हैं, श्री नाथजी का मंदिर,गोविन्द देवजी का मंदिर,सावंरा जी का मंदिर महावीरजी का जैन मंदिर,शिला देवी का मंदिर.इन मंदिरों की कला भी लुभावनी है. देलवाडा के जैन मंदिर ,अजमेर की दरगाह, रनक पुर के मंदिर ,कई गुरूद्वारे व् चर्च भी दर्शनीय है. भी खूबसूरत है. मेवाड़ के चार धाम भी प्रसिद्ध है.श्रीनाथजी व् सावरिया जी का मंदिर सरकार के टेम्पल बोर्ड से संचालित होते हैं.अन्य मंदिरों के ट्रस्ट हैं. अजमेर की दरगाह पर भी हर साल लाखों जायरीन आते हैं.
नाथद्वारा के कीर्तन और कीर्तनकार, मीनाकारी और चित्रकारी, साड़ियां या आभूषण, सभी कुछ अनोखे हैं और आज भी ब्रज के चौरासी कोसों से बहुत दूर वहां द्वापर युग की संस्कृति जीवित है, शायद आपको वह कहानी अवश्य याद होगी, जिसमे भगवान कृष्ण ने इंद्र की पूजा-अर्चना करने से गोपवासियों को मना कर दिया था, क्रोधित इंद्र ने गोपजनों और उनके सर्वस्व को तहस-नहस करने का निर्णय ले लिया काले घनघोर बादलों से बारिश की झड़ी लग गयी, गर्जन-तर्जन और बिजली की फुफकार से भागे-भागे गोपवासी परेशान हो गये. जलप्रलय का दृश्य उपस्थित हो गया था।
ऐसे समय में ग्वाल बाल कृष्ण की शरण में आये. कृष्ण ने अपनी अंगुली पर गिरिराज पर्वत को उठाकर संपूर्ण गोपजनों को इंद्र के क्रोध से बचाया.। आधुनिक संदर्भों में भी यह घटना महत्वपूर्ण है, किसी बलशाली बाह्य शक्ति की पूजा-अर्चना करने के बजाय अपनी ही भूमि की पूजा-अर्चना उचित है, है न एक क्रांतिकारी दर्शन।
पिछवाई-कला -
श्रीनाथ जी के चित्रों के अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण है-वह है पिछवाई। वास्तव में श्रीनाथ जी की प्रतिमा के पीछे दीवारों को सजाने के लिए कपड़े पर मंदिर के आकार के अनुसार चित्र बनाये जाते है। ये पर्दों का काम करते है। यह नाथ द्वारा की अपनी मौलिकता हैं जो अन्य किसी शैली में नजर नहीं आती। पिछवाई का आकार कुछ भी हो सकता है, और मूल्य पांच सौ रू से लगातार 20,000 रू तक। इन पिछवाईयों में अधिकतर विभिन्न उत्सवों से सम्बन्धित होती है।
इन पिछवाईयों पर प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण भी काफी किया जाता है। गिरिराज पर्वत, गोपालन, रासलीलाएं, माखन खाते कृष्ण आदि इस शैली के आम विषय ब्रश बनाते है। प्रधान पर्वों की झाकियों के चित्र कई आकारों में बनते है। मंगला, ग्वाल, श्रृंगार, राज भोग आदि झाकियों के चित्रों की सर्वाधिक मांग रहती है।
1 मीटर गुणा 1.5 मीटर कपड़े पर श्रीनाथ जी का चित्रण काफी होता है। यह स्वरूप कहलाता है। इसके अलावा चितेरे, महत्वपूर्ण अवसरों यथा शादी, ब्याह, जनेऊ आदि अवसरों पर भित्ति चित्र भी बनाते हैं। इस चित्र शैली में सर्वप्रथम कागज या कपडे़ पर कोयले से रेखाकृति अंकित की जाती है। सुनहरे भाग को सोने या मृगान से बनाया जाता है। इसके बाद सफेद काम करके लाल व काला काम करते है। रंग लगाने के बाद कपड़े या कागज को चिकने पत्थरों पर घोंटकर उसका भुरभुरापन दूर किया जाता है। कपड़े की घुटाई ज्यादा महत्वपूर्ण है और कपड़े पर रंग भी ज्यादा पक्के लगाये जाते है।
आभूषण के चित्रण के मामले में कर्णफूल, कुण्डल, दुगदुनी, कन्दोरा कड़े, बंगडी, हथपान, हार, कांटा, लोंग, नथ, बोर, भुजबंद, अंगूठी, डोरा, गुटियां, झोला, आदि प्राथमिकता पाते हैं। हीरे भी बनाये जाते हैं। पुरूषों के मामले में मेवाडी पगडी अंगरखी, धोती, जूते, खडाऊ, आदि प्रमुखता से अंकित किये जाते हैं।
महिलाओं के लिए साड़ी, कांचली, घाघरा, आदि प्रमुखता से अंकित किये जाते हैं। फूलों का श्रृंगार भी लोकप्रिय है। राधा को बनाते समय कुछ लोग नवीन वस्त्र व आभूषण भी प्रयुक्त कर देते है। जानवरों में बैल, तोता, सारस, मछलियां, सर्ज, बगुला आदि का चित्रण होता है। फूलों में कमल, गुलाब, कदम्ब, आम मोलश्री आदि प्रमुखता पाते है।
पिछवाई कला में दो सौ वर्ष पूर्व रामचन्द्र बाबा चित्रकार हुए। बाद में विट्ठलव व चम्पालाल हुए। इस कला में खेमराज जी भी प्रसिद्ध थे।
मरवन मंडे मांडना निरखे चतुर सुजान
राजस्थान हो या गुजरात। मालवा या दक्षिण भारत लगभग हर घर में द्वार, चौखट को पूजने की समृद्ध परंपरा है। त्यौहार हो या कोई शुभ अवसर। घर की स्त्रियां आंगन और मख्य द्वार पर अल्पना अवश्य अंकित करती है। दीपावली तो त्यौहारों का त्यौहार है। मां लक्ष्मी की अनुकम्पा कौन नहीं चाहता। लक्ष्मी आए घर द्वार उसके स्वागत में अल्पना का अंकन आवश्यक है।
लोक संस्कृति की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का एक उज्जवल पक्ष है माण्डणा। वास्तव में माण्डणा कला-कलात्मक सौन्दर्य की सार्थक अभिव्यक्ति है। माण्डणे स्थान की शोभावृद्धि करती है। वे उमंग, उत्साह, उल्लास का सुजन भी करते है और वातावरण को रस से भर देते हैं।
उत्तर प्रदेश में ‘चौक पूरना’ बंगाल में अल्पना, बिहार में ‘एपने’,महाराप्ट में ‘ रंगोली’ कोलम ‘दक्षिण भारत का’ आदि माण्डणों के ही विविध रुप है।
माण्डणों की प्राचीनता स्वयंसिद्ध है। वेदों पुराणों में हवनों और यज्ञों में वेदी और आसपास की भूमि पा हल्दी, कुमकुम आदि से विभिन्न आकृतियां बनाई जाती थी। भगवान राम को अयोध्या आगमन पर अयोध्यावासियों ने अपने घरों को माण्डणों से सजाया था। प्राचीन समय में घर-आंगन सजाने का एकमात्र साधन यही था। ग्रामीण अंचलों में आज भी इस विधा का बहुत महत्व है।
सांझी कला
श्राद्धों के दिनों में घर के बाहर सांझी बनाई जाती है , यह कला उत्तर प्रदेश से आई, अंतिम दिन कोट बनाया जाता है, कुंवारी लड़कियों का यह त्यौहार अब धीरे धीरे ख़तम हो रहा है. मेले ठेले भी समय के साथ बिछड़ने लगे हैं. महिलाओं के वस्त्रों में भी भरी परिवर्तन दिख रहा हैं आभूषणों में भी परिवर्तन आ रहा है.
स्थापत्य कला
राजस्थान के किले मंदिर स्थापत्य की द्रष्टि से बेजोड़ है. चित्तौड़ का किला विश्व में प्रसिद्ध है, कीर्तिस्थम्भ , विजय स्तंभ , जैसलमेर का किला कुम्भलगढ़ का किला व् इसकी दीवार जो चीन की दीवार के बाद सबसे बड़ी है.जयपुर का जन्तर मन्त्र व् हवा महल तो बेजोड़ है ही.किलो के अंदर युद्ध करने , बचने , व् सुरक्षा के लिए सभी व्यवस्थाएं होती थी.नगरों की रचना के लिहाज़ से जयपुर दर्शनीय है.
लोक जीवन में खेल परम्परा
राजस्थान की सभ्यता और संस्कृति ने हमेशा से ही व्यायाम, खेलकूद, कसरत आदि को पूरा महत्व दिया है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आयुर्वेद में व्यायाम तथा खेलों के अलावा योगाभ्यास पर भी बल दिया गया है। वास्तव में प्राचीन भारत में कई ऐसे खेल प्रचलित थे, जिनसे मानव का बौद्धिक एवं शारीरिक विकास होता था, लेकिन देखते-देखते हमारे ये खेल पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध में नष्ट हो गए।
वेदों, उपनिषदों तथा पुराणों में कुछ खेलों का वर्णन किया गया है। राजप्रासादों में राजकुमार तथा गुरूकुलों में सामान्य बालक इन खेलों से शरीर का विकास करते थे। कौटिल्य के अर्थ शास्त्र में व्यायाम, कुश्ती, जलविहार, तैराकी, शस्त्र प्रतियोगिता आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। काम सूत्र की 64 कलाओं में भी विभिन्न प्रकार की कलाओं का वर्णन करते समय खेलों का वर्णन किया गया है।
प्रत्येक राजा के राज्य में रहने वाले नागरिक अपने आमोद-प्रमोद तथा मनोरंजन के लिए इन खेलों में भाग लेते थे या फिर दर्शक के रूप में जाते थे। राजा की ओर से उत्सव की सूचना डोंडी या शंख बजाकर दी जाती थी। प्रत्येक नागरिक दोपहर से पहले अपना व्यवसाय करता था। दोपहर के बाद मनोविनोद करता था। दिल बहलाव के लिए नागरिक पक्षियों से खेलते थे। सायंकाल वाटिका, उद्यान में भ्रमण हेतु जाते थे। झूले झूलते थे या जल क्रीड़ा करते थे। सायंकाल से रात्रि तक नृत्य, थियेटर वाद्यों से अपना मनोरंजन करते थे। इस नित्य कर्म के अलावा नागरिक लम्बी यात्राओं पर जाते थे। मेलों-उत्सवों में भाग लेते थे। कुछ नागरिक वन विहार हेतु घोड़े पर सवार होकर निकल जाते थे। वे बाग में मुर्गे की लड़ाई, जुआ या नाच-गाने का कार्यक्रम देखते थे। सच पूछा जाये तो हमारी खेल परम्परा बहुत ही समृद्ध रही है।
कुछ प्राचीन खेल इस प्रकार है १-कुश्ती २-कबडडी ३-गदा ४-जोड़ी ५-मलखम्भ ५-शतरंज ६-तलवार बाजी ७-धनुर्विद्ध्या ७-गिल्ली डंडा,८-मार दडी आदि .
कबूतरबाजी, तीतरबाजी, बटेरबाजी, मुर्गे लड़ाना आदि खेलों का मुगल काल में काफी विकास हुआ। महिलाएं भी इस लड़ाई का आनन्द लेती थीं। मुर्गों की लड़ाई का वर्णन कई जगहों पर मिलता है। नवाबों के काल में यह मनोरंजन का एक आम साधन था। मुर्गे उछल उछलकर एक दूसरे पर वार करते थे। अक्सर कमजोर मुर्गा भग जाता था और जीतने वाले मुर्गे के मालिक को सम्मान और ईनाम मिलता था।
पक्षियों की तरह ही पशुओं से सम्बन्धित खेल भी खेले जाते थे। हाथियों की लड़ाई भैसों, बकरों, साड़ों, ऊंटों की लड़ाई भी काफी प्रसिद्ध थी। नाथद्वारा में साण्डों की लड़ाई होती थी। वहां अभी भी दीपावली के दूसरे दिन गायों को खिलाया जाता है, जिसे खेंखरा कहा जाता है। गायों के अलावा ऊंट दौड़, हाथी दौड़, हाथी पोलो, पोलो तथा घुड़दौड़ भी प्राचीन पशु खेल था। पोलो तथा घुड़दौड़ तो आज भी बहुत ज्यादा लोकप्रिय हैं। इसी प्रकार बैलगाड़ी की दौड़ भी काफी प्रसिद्ध खेल था। घुड़दौड़ के अलावा अन्य जानवरों की दौड़ों का इन्तजाम भी नागरिकों के मनोरंजन के लिए किया जाता था। रथदौड़ भी प्रिय थी.
संक्षेप में कहा जा सकता है कि राजस्थान की संस्कृति ,साहित्य ,कला अनोखी है ,इस को सरकारी संरक्षण की जरूरत है.बहुत सारी चीजें नष्ट हो गई है या नष्ट होने के कगार पर है .किले खंडहर हो गए हैं, हवा महल तक की मरम्मत नहीं हो पारही है.कला व साहित्य को बचाने की सख्त जरूरत हैं. आशा है सर् कार व् व्यवस्था ध्यान देंगी.
०००००००००००००००००००००००००००००
संदर्भ :
१-राजस्थान की सांस्कृतिक परम्परा –जय सिह नीरज
२-राजस्थान का सांस्कृतिक इतिहास –गोपीनाथ शर्मा
३-राजस्थान वैभव –त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी
४-कठपुतली कला –देवीलाल सामर
५-वाता री फुलवारी-विजय दान देथा
६-मूर्ति कला –राय कृष्ण दास
७-cultural heritage of shree nathdwara-yashwant kothari
0000000000000000000000000000000000
लोक कथाओं का अनोखा संसार
राजस्थान की लोककथाओं का भंडार भरा हुआ है.विजय दान देथा की वाता री फुलवारी इस का जबरदस्त प्रमाण है.यहाँ पर लोक कथाओं को समय काटने के लिए सुनाया जाता था. एकएक कथा कई घंटो तक चलती है. दस बीस कोस की कथा सुनाने वाले होते थे.फ़ौज में नगाडो ,बात में हुंकारों यह एक सर्व सम्मत शुरुआत थी. हुंकारा भरना जरूरी होता था, आज भी गांवों में किस्से कहने वाले हैं लेकिन अब कौन सुनता है? लोक कथाएं मानव मन के अनुभवों की प्रतीक होती है.लोक कथाएं कई युगों तक सत्य को अपने में समाहित कर के रखती है.लोक कथाओं में कटु यथार्थ होता है.वे जीवन के गूढ़ रहस्यों को खोलती है, उनसे खेलती है और श्रोता को एक स्पष्ट सन्देश देती है यूँ ही कोई कहानी लोक कथा नहीं बन जाती एक पुरे काल खंड तक कथा को परखा जाता हैं जांचा जाता है तब जाकर एक मुक्कमिल लोक कथा बनती है.
दो लोक कथाएं प्रस्तुत है जो बदलते समय को पहचानती है, व्यक्ति,समाज व् सत्ता में आने वाले परिवर्तनों को रेखांकित करती है .
खेत का धन
पुराने समय में एक राजा था । बहुत ही उदार, न्यायप्रिय और प्रजा का ध्यान रखनेवाला । उसके राज्य में लोग सुखी थे । कोई भी अपराधी बिना सजा पाए नहीं रह सकता था । कुछ समय बाद राजा के मन में घमंड आ गया । वह सोचने लगा-‘मैं कितना बुद्धिमान हूँ । प्रजा का कितनी अच्छी तरह से पालन कर रहा हूँ । दूर-दूर तक मेरी ख्याति है ।’ कुछ दिनों तक तो राजा ने यह बात किसी से नहीं कहीं, लेकिन एक दिन राजा के मन में अपने दरबारियों के मुँह से अपनी प्रशंसा सुनने की लालसा जागी । राजा ने अपने दरबारियों से पूछा-‘‘ मेरा राजकाज कैसा चल रहा है ? पड़ोसी राजा मेरे बारे में क्या सोचते हैं ?’’
प्रधानमंत्री ने जवाब दिया-‘‘महाराज, आपके राज्य में सर्वत्र अमन-चैन है । सारी प्रजा आपकी जय-जयकार कर रही है ।’’
यह सुनकर राजा खुश हो गया । उसने दूसरा प्रश्न पूछा-‘‘मेरे पितामह और मेरे पिताजी के जमाने में राज्य कैसा था ?’’
प्रधानमंत्री ने जवाब दिया-‘‘महाराज, शायद ही कोई व्यक्ति जीवित हो, जो आपके पिता या पितामह के राजकाज के बारे में कुछ बता सके । पास के जंगल में एक महात्मा रहते हैं, उनकी आयु काफी है; शायद वे कुछ बता सकें ।’’
राजा ने कहा-‘‘उन्हें बुलाया जाए ।’’
राजा के आदेश पर प्रधानमंत्री ने महात्मा को दरबार में बुलवाया । राजा ने उनसे वही प्रश्न किया ।
महात्मा ने कहा-‘‘आपको एक घटना सुनाता हूँ । इसका संबंध आपके पिता तथा पितामह के राज से है । आप सब समझ जाएँगे कि किसका राज कितना अच्छा था?’’ इतना कह, महात्मा बताने लगे-
‘‘राजन्, आपके दादा के राज्य में एक किसान के पास कुछ जमीन थी । उसके घर में खेती में मदद करनेवाला दूसरा कोई आदमी नहीं था । इसीलिए किसान ने अपनी जमीन दूसरे किसान को बिना किसी लिखा-पढ़ी के खेती करने के लिए दे रखी थी । फिर भी जमीन जोतने वाला किसान ईमानदारी से उसका हिस्सा बिना कहे दे देता था ।
एक दिन की बात है, दूसरा किसान जमीन जोत रहा था । तभी हल की नोक किसी सख्त चीज से टकराई । बैल रोक कर उसने जमीन का थोड़ा-सा खोदा, तो अशर्फियों से भरा हुआ एक कलश निकला । उस कलश को लेकर वह जमीन के मालिक के पास गया और बोला-‘तुम्हारी जमीन में से यह कलश निकला है । मैं इसे तुम्हें सौंपने आया हूँ।’
पहले किसान ने कहा-‘तुम भी कैसी भेली-भाली बातें करते हो । मैं जमीन तुम्हें दे चुका हूँ । जमीन में जो कुछ निकले, वह तुम्हारा है-चाहे अनाज हो, चाहे अशर्फी । मुझे तो सिर्फ फसल का ही हिस्सा चाहिए ।’
इस बात को लेकर दोनों में काफी देर तक बहस हुई पर कोई भी उस कलश को लेने के लिए तैयार नहीं हुआ । आखिरकार उन्होंने फैसला किया कि राजा के पास चलकर यह कलश उन्हें सौंप देना चाहिए ।
दोनों किसान आपके पितामह के पास आए और बोले-‘महाराज, यह कलश राज्य की भूमि से निकला है । राज्य आपका है, इसीलिए इसे आप रखें ।’
राजा ने कहा-‘तुम दोनों नासमझ हों । जमीन हम तुम्हें दे चुके हैं । अब उसमें से जो कुछ निकले, वह किसान का । राज्य का उसपर कोई हक नहीं । तुम दोनों में से जिसका भी हक हो, वह उसे रख ले ।’
दोनों किसान निराश होकर लौट आए । आखिर तय हुआ कि जिस जगह यह निकला है, वहीं वापस गाड़ दिया जाए । दोनों किसानों ने ऐसा ही किया ।
महात्मा से बीती घटना सुनकर राजा बोला-’’महात्मन् ऐसा क्यों किया गया ? धन का सदुपयोग हो सकता था । पाठशाला खुलवाई जा सकती थी । अस्पताल बनवाए जा सकते थे । गरीब लोगों को जीवन निर्वाह के लिए मदद दी जा सकती थी ।’’
महात्मा मुसकराए । बोले-‘‘राजन्, उन दिनों विद्या या चिकित्सा मोल नहीं मिलती थी । दान लेना भी बुरा समझा जाता था । सभी अपने-अपने परिश्रम की कमाई खाते थे ।’’
सुनकर राजा चुप हो गया ।
महात्मा ने कथा फिर आगे बढ़ाई-‘‘समय की गति को कौन रोक सकता है । एक दिन आपके पितामह का देहांत हो गया । आपके पिता गद्दी पर बैठे । साथ ही वे दोनों किसान भी स्वर्ग सिधार गए ।’’ दोनों किसानों के लड़के बड़े हुए । इस बीच आदमी में भी थोड़ा-थोड़ा अंतर आ गया । जो किसान जमीन का मालिक था, उसके लड़के ने मन में सोचा-‘पिताजी को जो कलश देने के लिए किसान आया था, वह ठीक ही आया था । जमीन उसे खेती करने के लिए दी गई थी । जमीन के भीतर का धन तो पिताजी का ही था । पिताजी ने वह धन लेने से इनकार करके बड़ी भूल की । ’
यह सोचकर वह खेती करनेवाले किसान के पुत्र के पास गया । बोला-‘‘भैया, जो कलश तुम्हारे पिताजी, मेरे पिताजी को देने आए थे, वह बात ठीक ही थी । जमीन तो तुम्हें खेती करने के लिए दी गई थी । अतः मेरे पिताजी ने बेकार ही उस धन को लेने से इनकार कर भूल की । आज मैं उस भूल को सुधारने आया हूँ ।’
खेती करनेवाले किसान के लड़के के मन में भी लोभ आ चुका था । बोला-‘मेरे पिता कितने नासमझ थे । खेत में निकला हुआ धन दूसरे को देने गए थे । जब जमीन को वह जोतते थे, तो उसमें चाहे जो निकले वह उनका ही हुआ । अगर कलश की जगह साँप निकलता और मेरे पिता को काट लेता तो मृत्यु उनकी ही होती । भूल तुम्हारे पिता ने नहीं, मेरे पिता ने की ।’
दूसरे किसान का लड़का अशर्फियों का वह कलश चुपचाप जमीन में से निकाल लाया । कुछ धन उसने गाँव के बड़े लोगों को बाँटकर अपनी ओर मिला लिया । फिर सुख से रहने लगा ।
कुछ देर रुककर महात्मा ने कहा-‘‘राजन्, वह तो हुई दो किसानों की बात । इधर आपके पिता के मन में भी लोभ समाया । सोचने लगे कि जमीन के भीतर का धन तो राज्य का ही होता है, वह किसान का कैसे हुआ ? यह सोचकर आपके पिताजी ने सिपाही भेजकर किसान के पुत्र से कलश मँगवाया । किसान ने साफ मना कर दिया । कहा-‘राजा तो जमीन दे चुका है । उसमें जो कुछ निकले, वह जमीन जोतनेवाले का है । राजाजी चाहें, तो मैं दस-बीस आदमियों को लेकर हाजिर हो सकता हूँ । वे मेरी बात का समर्थन कर देंगे ।’ ये आदमी वे ही थे, जिन्हें वह धन देकर अपने पक्ष में कर चुका था । सिपाही ने वापस आकर राजा को सारी बात कही, तो वह भी चुप हो गए ।
समय बीतता गया । समय आने पर आपके पिताजी स्वर्गवासी हो गए और उन दोनों किसान के बेटे भी ।
अब आया आपका राज्य । हर बात के कायदे-कानून बन गए । अदालतें और पुलिस थाने खड़े हो गए । मुकदमा लड़ने के लिए वकील -बैरिस्टर भी पढ़-लिखकर तैयार हो गए । उन दानों किसानों के बेटों में भी उस स्वर्ण-कलश को लेकर वाद-विवाद खड़ा हो गया । अदालत में मामला गया, तो दोनों किसानों को सजा हो गई । कलश राज्य की (यानी आपकी) संपत्ति बन गया । पिछले वर्ष ही यह फैसला किया है, आपकी अदालत ने ।
अब राजन् ! हालत यह है कि वह अशर्फियोंवाला कलश तो आपके खजाने में है और वे दोनों किसान आपकी जेल में । क्योंकि आप जैसे न्यायप्रिय राजा के राज्य में कोई अपराध करके सजा से कैसे बच सकता है ? घटना मैंने सुना दी । अब आप स्वयं फैसला कर लें, राज किसका अच्छा था ।’’
सुनकर राजा का सिर नीचा हो गया।
--------------
कोई नीं देखे पण राम देखे
एक बार एक साधु के पास दो युवक शिष्य बनने के लिए आये. साधु ने शिष्य बनाने के पूर्व उनकी परीक्षा लेनी चाही .महात्मा ने दोनों को एक –एक कबूतर देकर कहा ,-इस कबूतर को ऐसे स्थान पर ले जाकर मारो, जहाँ पर कोई न देखे.
दोनों अलग अलग दिशाओं में अपना अपना कबूतर लेकर चल पड़े. पहले युवक ने एक सुनसान निर्जन स्थान देख कर कबूतर को मार डाला, लेकिन दूसरा युवक जीवित कबूतर लेकर पुन: साधू के आश्रम में पहुंचा.
पहले युवक ने साधु से कहा-एक निर्जन स्थल देख कर मैंने कबूतर को मार डाला है. मुझे शिष्य बनाइये .
दूसरे ने कहा –महाराज मुझे क्षमा करें. मुझे लगा कि कोई स्थान निर्जन नहीं है. कोई नहीं देख रहा है पर राम सब जगह देख रहा है . इसलिए मैं कबूतर को नहीं मार सका.
ये बातें सुनकर साधु ने पहले युवक से कहा- तुम शिष्य बनाने के योग्य हो. जाओ,अपने घर जाओ .
फिर दुसरे युवक से कहा –तुम तो स्वयम ज्ञानी हो ; तुम्हें किसी का शिष्य बनने की आवश्यकता नहीं है.
तभी से कहा जाने लगा –कोई नीं देखे पण राम देखे .
००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००
यशवंत कोठारी
८६, लक्ष्मी नगर ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर -३०२००२
म०-०९४१४४६१२०७
shandar chhapa hai
जवाब देंहटाएं