मैंने अपने घर में एक साइन बोर्ड लगवा रखा है जिसमे बड़े हर्फ में लिखा है। "जो घर फूंके ...." शेष छोटे शब्द हैं जो साथ चलने के पर्याय...
मैंने अपने घर में एक साइन बोर्ड लगवा रखा है जिसमे बड़े हर्फ में लिखा है।
"जो घर फूंके ...." शेष छोटे शब्द हैं जो साथ चलने के पर्याय वाले,और घर से जुदा होने के नियम- शर्तों को ताकीद करते हुए हैं।
दर-असल एक दिन आत्मचिंतन करने पर यूँ पाया कि राष्ट्र निर्माण में अपना कतई कोई योगदान नहीं है|
अक्सर ये होता है कि जहाँ हमारा योगदान नहीं होता वहां हम दुखी होने लगाते हैं। पिताजी ने मकान बनवाया ,हम कुछ न कर सके। दो-दो बहनों की शादी करवाई हम दहेज में पायल-बिछिया ,तोले भर सोने से आगे न बढ़ सके।
इस कामचलाऊ योगदान से हमारी अंतरात्मा बोझ तले हरदम हमें दबाती सी रही।
हम आम जरूरत की सहायता और सहयोग को भी अनावश्यक या गैरजरूरी समझने की भूल करते रहे। कभी दोस्त स्कूटर मांग लेते तो इनका र की सूरत तलाशते। इस महंगाई में दो तीन लीटर पेट्रोल को बिना बात के फुक के वापस कर देने वाला मोहल्ला है ,यही आशंका से घिरे रहते। पड़ोसियों को उधार देने के नाम पर कन्नी काटने के अपने ढेरों प्रसंग है| उन मांगने वालों की तरफ तब तक नहीं जाते जब तक किसी खुफिया सूत्र से उनके ठीक ढंग से खाते-पीते होने की खबर न लग जाती।
न जाने क्यों इतने नकारात्मक सोच के बीच हममें कुछ कर गुजरने का जज्बा ठीक सठियाने बाद पैदा हुआ.... ? हमें राष्ट्रीय स्तर पर कुछ न कर गुजरने के नाम पर अंतरात्मा धिक्कारती उसका तोड़ जरूरी सा लगता।
अंतरात्मा की आवाज को बहुत दबाई नहीं जा सकती।
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-लोकल पंडितों से धुमा-फिरा के पूछने पर पता चला कि जो शख्स अपनी अंतरात्मा की नहीं सुनता उसके नरक--गमन को कोई नहीं रोक सकता। परिणामतः परलोक सुधारने की मुहिम के साथ आनन-फानन में देश-हित की आइडियोलॉजी का जन्मोदय हुआ। मेरे ख्याल से कई बड़े आंदोलन की शुरुआत कुछ इसी तर्ज पर हुआ हो ....कह नहीं सकता ?
पहले कोई एन जी ओ बनाने/खोलने का ख्याल आया मगर इन दिनों के हालात जिसमे हरेक एन जी ओ, बदनामी के हिचकोले खा रहे हैं . आइडिया ड्राप कर देना पड़ा।
बैठ कर योजना बनाते समय लगा राह आसान नहीं है। एक-एक आदमी को पकड़ के उनको अपने अभियान की जानकारी देना,किसी मिशन से कम नहीं। करेंट-अफेयर्स के बारे में बताना ,साथ ही , अपने राष्ट्रीय स्तर के अभियान को पास के बीते दिनों की किसी सक्सेसफुल अभियान के समकक्ष रखने की कोशिश करना पड़ेगा ये दिमाग में छप गया ।
मन में ख्याल आया, अपने सारे शुभचिंतकों की एक आम मीटिंग बुला लूँ। ऐसे मौके पर अपने मुल्क में मीटिंग बुलाने का विचार आप ही आप जन्म ले लेता है। परंपरा के तौर पर इसे निभाया भी जाता है। किसी ने सुझाया ,आरंभिक दौर में मीटिंग्स में ,सवाल-जवाब, टांग खिंचाई और आपसी बुराई या कभी-कभी सर फुटौव्वल का नजारा सामने आता है| बहरहाल ,एक-एक से इंडिजुअली मिलने का तय हुआ।
पहले श्रीवास्तव साब को पकड़े,
- लाला जी, विदेश से कब लौटे ...? बच्चे उधर सब मजे में होंगे ? ये मनोविज्ञान कहता है कि विदेश से लौटा हुआ आदमी अपने देश के प्रति ज्यादा संवेदन शील रहता है। उसे देश के प्रति ज़रा सा जगा दो तो रात-रात भर पहरा देने को तैयार मिलता है। हमने उनको देश की कमजोरियां गिनवाईं| उनकी सहमति के बादल बरसने के लिए तैयार होने लगे। तब हमने कहा ,
हमारे पास चार -पांच राष्टीय स्तर में मुद्दे हैं ,गाय के ,किसानों के, ऋण पर मरने वालों के ,राम लला ,आरक्षण-जाति ,और प्रायोजित भ्रष्टाचार किसम के .... समय-समय पर इनमें से किसी एक मुद्दे को तूल देकर बड़ा राजनैतिक बन्द और सत्याग्रह की बात की जायेगी। इसमें आप की सक्रिय भागीदारी की अपेक्षा है। हाँ दिमाग में ये रहे कि, हमारी संस्था का सूत्र वाक्य है " घर फुकने की नौबत आई तो पीछे नहीं हटेंगे ...."
यही शिष्टाचार संवाद, जब हमने रिटायर्ड बाबू गणपत साहू से किया तो, वे हैं हे ,,,, करने लगे ,देखिये यादव जी, आपको मालूम है कितने संघर्ष के दिन देखे हैं हमने ....। आज सस्पेंड कल बहाल,वाली नौबत में नौकरी की नइय्या को ले-दे के रिटायर मेन्ट तक खींच के लाये हैं। किसी तरह से , टू बी एच के वाले मकान मकान में सुख लेने के दिन आये तो, आप हमारे सामने बखेड़ों का पहाड़ फिर से खड़ा करने पर तुले हैं।
हमें तो आप तोलिये मत , अंतुले जानिये। किसी लफड़े में नइ पड़ना। घर फूंकने की न हमारी हैसियत है और न हिम्मत। जय जोहार .... वे बढ़ गए।
एक तीसरे को, बनने वाली संस्था का जिक्र किया तो भाषण नुमा हश्र सूना गए देखिये ,
आप किसी आदमी को चलते-फिरते घर फूंकने की सलाह नहीं दे सकते ... ?
आज की सरकार के खिलाफत में मुंह खोलने वालों का अंजाम पता भी है आपको ....?
छापे -छापे और छापे ....| नामी बेनामी कुछ नहीं देखेगी .....। आप जस्टिफाई नहीं कर सकोगे, वो इतनी जांच के गहरे में ले जायेगी कि आपकी नाक तक पानी कब आ गया पता नहीं चलेगा।
सो .... भाई साब ! मेहनत की इस कमाई के हिफाजत की पूरी जिम्मेदारी परिवार में अकेले मुझी पर है। मुझे माफ करें .....
स्साला .... वो दिन भूल गया ,दफ्तर में किसी बात पर अफसर बिगड़ते थे तो घिघियाते हुए अपने पास ही आता था। यादव जी बचा लो .... बच्चे छोटे-छोटे हैं। अपना दिल तो पसीजने वाले मशीन से बना है न ..... ? उनके बच्चे छोटे न भी होते तो बचाने की जुगत में कोई कोर कसर नहीं रह छोड़ते। अब क्या कहे जो राष्ट्र के सही निर्माण में अपनी हिस्सेदारी नहीं पहचानता , उससे बड़ा अभागा किसे कहें ..... ?
दूर कहीं ‘नत्थू नजरिया’ आते दिखा ... हमने हाथ से छूटे बाल को बाउंडरी तरफ जाने से न रोकते हुए ,नत्थू को रोकना फायदे का समझा ....| उनसे कुशल क्षेम की जानकारी बाद अपनी योजना की भूमिका सूनाई। वे गदगद हुए। शायराना अंदाज में इंकलाबी शेर सुनाकर दाद पाने की गरज से देखे ....| हमारी दाद पर पीछे से, उनने कहा चलिये कहाँ सर कटाना है .....?
हमने कहा ,नत्थू जी सर -वर अभी नहीं नहीं कटाना ,समय पे बताएँगे ,बस आज के बाद इस संस्था से जुड़ जाइये। आपको कोई इनाम वगैरह मिला हो तो देश हित में त्याग दीजिये| ये आजकल फैशन में हैं। हमारे आंदोलन से,फायदा पूछने वालों से कहिये , जैसा हमने पिछले आंदोलन की बदौलत सी एम और पच्चासों विधायक हमने बनते देखा है, कहीं आप भी उन भाग्यशाली में से एक न हों| किसी इलाके से विधायकी वाला आई डी प्रूफ आपके गले लटकते कल मिल जाए .....? वे फिर गदगद हुए ,शेर कहने लगे ....
मेरे आंदोलन की चिंगारी को ‘नत्थू-नुमा’ लोग हवा देने में लगे हैं। मैं तमाम घर-फूंक के तमाशा देख सकने वाले, जांबाज बहादुरों की प्रतीक्षा में हूँ। मुझे प्रतीकात्मक रूप से लगता है देश की प्रगति वहीं-कहीं रुकी है।
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सुशील यादव
न्यू आदर्श नगर दुर्ग (छ.ग.)
susyadav7@gmail.com ०९४०८८०७४२०
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