क्या नारा सही था ” जय जवान जय किसान “ पाठकों को मेरी बात शायद अप्रिय लगे लेकिन मुझे लगता है कि वर्षों पहले देश के उत्थान के लिए दिया गय...
क्या नारा सही था
” जय जवान जय किसान “ पाठकों को मेरी बात शायद अप्रिय लगे लेकिन मुझे लगता है कि वर्षों पहले देश के उत्थान के लिए दिया गया यह नारा ही गलत था. नारे शब्दों के मिश्रण हैं और शब्द स्वयंभू शक्तिवर्धक व पारदर्शी अभिव्यक्ति का दर्पण जो अपने आप में तोप के गोलों और बमों के धमाकों से भी आगे निकल जानेवाले नायक का प्रतिबिम्ब होता है.
शब्दों का प्रत्यक्ष जुड़ाव मनुष्य की संवेदना, भावना, अनुभूति और जैविक व रासायनिक प्रतिक्रिया के रूप में प्रायः तात्कालिक अवस्था मे रूपान्तरित होकर परिलक्षित होने की प्रबल संभावना होती है. तभी तो कहा गया कि न तीर निकालो, न तलवार निकालो, गर तोप मोकाबिल हो तो अखबार निकालो. अब मूल विषय पर आते हैं. जय जवान जय किसान के बदले जय किसान जय जवान होना चाहिए था.
मेरे कहने अर्थ यह है कि नारे के रचियता और अनुसरणकर्ताओं की नियति में खोट भले न हो मगर भूलवश ही सही इसकी अंतर्निहित सार्थकता की छवि को कम करने का काम अवश्य किया गया और शायद इसीलिए कई दशकों बाद भी यह नारा केवल पोस्टरों और दीवारों तक ही सीमित हो कर रह गया. प्रायोगिक छेत्र में यह विफल ही साबित हुआ है. तभी तो आज आजादी के सत्तर सालोँ के बाद भी देश के वास्तविक रचयिता अर्थात किसान लगभग हर प्रांत में न सिर्फ बद से बदतर स्थिति में हैं बल्कि आत्महत्या करने को मजबूर हैं. यह कहीं न कहीं शुरू से किसानों के प्रति लापरवाही और सरकारी भेदभाव को दर्शाता है.
यदि जय जवान जय किसान के उलट जय किसान जय जवान का नारा दिया जाता तो आज ऐसी दयनीय स्थिति देश के किसानों की नहीं होती. क्योंकि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में औद्योगीकरण और यांत्रिक व तकनीकी सफलताओं के बावजूद आज भी देश का बड़ा हिस्सा विशेषकर गाँवों की एक बड़ी आबादी खेतों पर ही निर्भर है और देश की आर्थिक समृद्धि में उनका एक महत्वपूर्ण योगदान है. किसान जिसे कुछ लोग अन्नदाता भी कहते हैं एक वास्तविक नायक होता है. किसान अपनेआप में एक ऐसा योद्धा है जो जीवन भर अप्रत्यक्ष रूप में खुद से अधिक दूसरों की खातिर प्रकृति से संघर्ष करता है. जवान (सैनिक) तो मुख्यतः युद्ध मे मानवीय आतंक से जूझता है पर किसान प्राकृतिक आपदाओं
(जो मानव शक्ति से कहीं अधिक शक्तिशाली है) को दिन रात भूखा प्यासा रहकर भी झेलता है. इसका अर्थ यह नही है कि इससे एक सैनिक की सार्थकता और उसका महत्व कम हो जाता है मगर बड़े फलक पर देखने से हमें पता चलता है कि एक सैनिक और एक किसान में माँ और बच्चे जैसा संबंध है. सैनिक देश की रक्षा करनेवाला एक जवान है तो किसान उसे दूध पिलाकर, पौष्टिक आहार खिलाकर बांका जवान बनानेवाली माँ की भूमिका में है.
यदि खेत में अनाज पैदा करनेवाले किसान ही नहीं रहेंगे तो करोड़ों लोगों को अनाज कहाँ से मिलेगा और क्या बिना अनाज के भूखे पेट भी कोई सैनिक किसी के लिए लड़ सकता है या किसी की सेवा कर सकता है? सैनिक सीमा पर अकेले लड़ता है. उसकी लड़ाई या सेवा एकल है जिसके बदले में उसे सरकार से अनेक सुविधाएं प्राप्त होती हैं. और फिर उपलब्धि के लिए कितने सारे सम्मान, उपाधियाँ, लोगों की प्रशंसाएं, और यदि युद्ध में मृत्यु हो गई तो शहीदी दर्जे के साथ राष्ट्रीय ध्वज में लपेटकर नारों के बीच स्वागत और फिर मरणोपरांत परमवीर चक्र तक के साथ साथ परिवार को अन्य सुविधाएं. और ये सारी चीजें एक सैनिक के लिए अत्यंत आवश्यक हैं और ये उनका अधिकारी भी है और योग्य भी. पर इसके ठीक उलट एक किसान जो सपरिवार प्रकृति से जीवन भर संघर्ष करता है उसे क्या मिलता है? एक किसान दोहरी लड़ाई लड़ता है एक ओर तो प्रकृति की मार को झेलता है और दूसरी ओर सरकार से अपने अस्तित्व एवं हक की लड़ाई उसे लड़नी पड़ती है पर बदले में उसे मिलता क्या है? दुनिया को अन्न मुहैया कराने वाले नायक को स्वयं भूखा रहना पड़ता है. परिवार चलाना उसके लिए एक बड़ी सज़ा के रूप में सामने आता है. दुख, आक्रोश और नैराश्य के सागर में वह डूबता उबरता रहता है.
सरकारें चाहे किसी भी दल की हों किसान हमेशा से ही उपेक्षित रहा है. हरित क्रांति के नारों के बीच भी किसान का चेहरा चिंता से लाल रहा है और वर्तमान समय मे भी राजस्थान, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, झारखंड, बिहार हर प्रांत में वह बेचारा बना हुआ है. बैंक के कर्जों, साहूकारों एवं बिचौलियों के मकड़जाल से निकलने, कष्ट और मानसिक पीड़ा के कारण वह आत्महत्या करने को विवश है. दिल्ली के जंतर मंतर में अपनी जायज मांगों को मनवाने के लिए उसे मृत किसानों की खोपड़ियों के साथ, महिला किसानों के साथ, यहां तक कि किसानों के अनाथ बच्चों के साथ सर मुंडवाकर प्रदर्शन करना पड़ रहा है. पर अफसोस कि सरकार की कुंभकर्णी नींद नहीं खुल रही है. हाँ ये और बात है कि सरकारें सांसदों, विधायकों के वेतन और पेंशन बढ़ाने में हमेशा सजग रही हैं. गौर करनेवाली बात यह भी है कि भारत की भूमि तो वैसे भी अहिंसा और शांति को प्रश्रय देनेवाली रही है. ऐसे में जवान के पहले किसान को संरक्षण देना अधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण है. अपनी रक्षा के लिए जवान को तैयार करने में कोई बुराई नहीं है परंतु किसान के मूल्य पर यह कदापि उचित नहीं हो सकता. तो क्या हमें इस नारे पर गंभीरतापूर्वक पुनर्विचार करने की आवश्यकता नहीं है?
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