मां वीणावादिनी मैं तेरे चरणों में निज सिर धरता हूं। बस दृष्टि कृपा की रखना मां, मैं इतनी विनती. करता हूं।१। मां ...
मां वीणावादिनी मैं तेरे
चरणों में निज सिर धरता हूं।
बस दृष्टि कृपा की रखना मां,
मैं इतनी विनती. करता हूं।१।
मां कितना सुख है तव पद में,
यह जड़ अज्ञानी क्या जाने।
जिस पर कर दे तू कृपा मातु,
वहअदनाभीयहपहचाने।२।
दे भक्ति. प्रेरणा तूने ही,
है कवियों को सम्मान दिया।
जो दर दर मारे फिरते थे,
उन को समुचित स्थान दिया।३।
मैं भी तेरा. आराधक. हूं,
फिर क्यों तुम मुझे भुलाओगी।
चाहे जो कुछ हो अम्बे,
निज चरणों में ही पाओगी।।४।।
मां तेरे अमर. खजाने की,
महिमा जन कोई क्या गाये।
खर्चे जितना उतना. बढ़ता,
बिन खर्चे ही वह घट जाये।।५।।
मां तेरे. अमर खजाने की,
महिमा जन कोई क्या गाये।
खर्चे. जितना उतना बढ़ता,
बिन खर्चे ही वह घट जाये।।६।।
चुन-चुन कुछ शब्द-कुसुम माता,
इच्छा है तुझे चढ़ाने की।
कुछ स्नेह. मातु से पा करके,
नव दीपक एक जलाने की।।७।।
आहुति (खण्डकाव्य)
इस जगती तलमें जिसका,
हर एक. सहारा छूटा हो।
माँ,बाप,सुता,सुत ही क्या
सारा जग जिससे रूठा हो।।१।।
जिससे राजा भी रूठा हो,
बैठा हो लेने को जान जहाँ।
ऐसे नसीब के मारे को,
देता कोई स्थान कहाँ।।२।।
ऐसा ही मुहम्मद शाह रहा,
विपदा का मारा बेचारा।
था हुक्म हुआ फाँसी का जब,
फिरता था वह दर-दर मारा।।३।।
दु:ख -रजनी का था प्रथम प्रहर,
बाकी थी सारी -रात अभी।
जो गुजर रहा थी,ना सोची,
सपने में ऐसा बात कभी।।४।।
जब विपद किसी पर पड़ती है,
वह दर-दर ठोकर खाता है।
मिलता न कहीं भी जब आश्रय,
तब दिल मसोस रह जाता है।।५।।
था शाह मुहम्मद परेशान,
किस्मत ने उसको मारा था।
हर द्वार किया फरियाद मगर,
सबने ही उसे 'नकारा' था।।६।।
जब कई दिवस यूं बीत गये,
और शरण कहीं न मिल पाई।
तब उसके मन का बोझ बढ़ा ,
औ'दोनों आँखें भरआयीं।।७।।
भींगी पलकें और खुले कण्ठ,
"या अल्लाह अब मैं जाऊँ कहाँ?
कोई भी देता शरण नहीं,
यह दुर्दिन हाय ! बिताऊँ कहाँ?"८।।
तबतक आशा की ज्योति एक,
धुँधली-सी सम्मुख चमक गयी।
उसका तो साहस बँधा ,किन्तु,
'थम्भौर' की छाती धमक गयी।।९।।
वह चला तुरत ,पहुँचा सत्वर,
था अमर वीर हम्मीर जहाँ।
अबतक जो बीती थी उस पर,
सब अपने मन की पार कहा।।१०।।
कुछ रोज पूर्व सेनापति था,
बजता था मेरा. नक्कारा,
पर है नसीब का फेर नाथ,
फिर रहा हूँ मैं मारा-मारा।।११।।
खिलजी मेरे घर से गुजरा,
बेटी नज्मा थी नहीं खड़ी।
राजन्! उस नीच कमीने की,
दानवता क्षण में जाग पड़ी।।१२।।
आँखें मेरी मुँद गयीं,देख-
करके, उसकी हालत वैसी।
कुछ कह न सका ,होगयी दशा-
मेरी बिल्कुल पत्थर जैसी।।१३।।
थोड़ा अपने को संयत कर,
मैं ने चाहा कुछ विनय करूँ।
अपनी इज्जत की रक्षा हित,
जा कर के उसके पाँव पड़ूँ।।१४।।
पर हाय! बिताऊँ क्या राजन्!
मेरी हिकमत नी चल पायी।
बेटी नज्मा को ले भागा,
अबतक न मुझे वह मिल पायी।।१५।।
हर जुल्मोसितम सहते-सहते,
खिलजी से मैं आजिज आया।
तो फिर मेरे दिल के भीतर
इक विद्रोही. तूफाँ छाया।।१६।।
उसके ही कारण अब मुझको,
हे नाथ!सजा-ए-मौ त मिली।
मैं नाथ चाहता हूँ पनाह ,
अंतिम विनती है महाबली ।।१७।।
हे राजन्! मैं हूँ परेशान ,
देता कोई भी शरण नहीं।
अब करें अगर इनकार आप,
तो होगा मेरा मरण यहीं।।१८।।
मत घबराओ हे यवनमित्र!
चिन्तायें सारी दूर. करो।
तुम रहे यहाँ निर्द्वन्द्व और,
दुश्मन के मद को चूर करो।।१९।।
यद्यपि देने से शरण तुम्हें,
होगा संग्राम महान मगर,
मैं राजपूत हूँ सुनो मीर!
है इस की मुझको नहीं फिकर।।२०।।
है विपदग्रस्त इन्सानों की,
रक्षा करना ही धर्म महा।
दण्डित करना दुष्कर्मी को,
बेशक पुनीत सत्कर्म महा।।२१।।
इतनी बातें सुन हमीर का,
खुश कितना उस क्षण मीर हुआ।
पाकर आश्रय उस दर,उसका,
रोमाञ्चित सकल शरीर हुआ।।२२।।
एहसान आपका ऐ राजन्!
ताजीस्त नहीं मैं भूलूँगा।
जिस जगह मिलेंगे पाक कदम
बा-अदब उन्हें मैं चूमूँगा।।२३।।
कुसुमाकर ने राज्य तजा उसका,
यह समाचार खिलजी पाया।
तो उसका सोया क्रोध तुरत
उसके मुखमंडल पर छाया।।२४
बोला-'सुनलो ऐ गुप्तचरो!
तुम उसकी दर्द खबर लाओ।
मिलजाय कहीं बेहया अगर,
उसको घसीटकर लेआओ।।२५।।
आदेश मिला, चल पड़े वीर,
अब उसका पता लगाने को।
सब की ही आँखें आतुर थीं,
दातार मीर का पावे को।।२६।।
पर पता न हफ्तों कर उसका,
जब किसी तरह भी चल पाया।
तब क्रोधित होखिलजी बोला-
तुम सबने व्यर्थ नमक खाया।।२७।।
तबतक वो दुष्ट नहीं मिलता,
फिर विवस कहाँऔरशाम कहाँ?
जब तक कुछ खबर नहीं पता,
आता है मुझको चैन कहाँ? २८।।
सब निकल पड़े खोजने उसे,
लेकिन अति डरते-डरते।
बर्बर खिलजी की बर्बर का,
को सभी याद करते-करते।।२९।।
अब सारी रातें वह जगता,
अब उसको थी चिन्ता भारी।
अपनी इन्सानों पकड़ने में,
देखा अपनी जो लाचारी।।३०।।
परचम सारे हिन्दुस्तान के,
काँपे हैं थर-थर डर से।
मेरे सम्मुख आया न कभी,
कोई भी शीश उठा कर के।।४३।।
मेरा सुनकर के नाम सभी,
बन जाते थाली के पारा।
मेरे रिपु को देवे पनाह,
यह हो कैसे मुझे गवारा।।४४।।
झटपट कागज पर लिख करके,
उसने अपनी फरमान दिया।
द्रुतगामी. दूत उसे लेकर,
थम्भौर हेतु. प्रस्थान -क्या।।४५।।
वह पहुँचा रण थम्भौर और,
जा बैठा शीश झुका करके।
लगा देखने दृश्य वहाँ का,
कागज तुरत थमा करके।।४६।।
खत पढ़कर बरबस हमीर के,
मुख पर मुस्कान बिखर आयी।
जिसकी उसको आशंका थी,
अब वही बात सम्मुख आयी।।४७।।
बोला हमीर-'ऐ दूत सुनो,
जा कर खिलजी से कह देना।
मुझको डर रञ्चक मात्र नहीं,
मैं चाहे रहा लोहा लेना।।४८।।
वह एक अलाउद्दीन नहीं ,
'गर सारी दुनिया आजाये।
तो भी यह संभव नहीं कि वो,
उस शरणागत को पा जाये।।४९।।
अब शाह मुहम्मद की रक्षा-
का, मैं ने भार उठाया है।
सौगंध एक शरणागत की,
रक्षा करने की खाया है।।५०।।
दिल्ली पति जैसा भी चाहे,
वैसा ही करें करायें वो।
मैं हूँ कोई डरपोंक नहीं,
अब व्यर्थ नहीं धमकायें वो।।५१।।
पा करके अनुमति राजा से,
वह दूत पुन: वापस आया।
जो कुछ उसके संदेश मिला,
दिल्ली पति को सब बतलाया।।५२।।
सुनते-सुनते उस क्षण खिलजी,
बिल्कुल गुस्से से लाल हुआ।
विकृत उसका मुखमण्डल औ',
स्वेदसिक्त सब भाल हुआ।।५३।।
सेवा को तुरत आदेश क्या,
इक वृहद् फौज सजकर आयी
चारों ओर दुर्ग के वह फिर,
कालीघटा सदृश छायी।।५४।।
संख्या कितना बतलायें,वह,
सेना तो थी अत्यन्त बड़ी।
थी शिविर क्षेत्र की बात कहाँ,
सेना मीलों तक रही पड़ी।।५५।।
सोची था खिलजी ने-हमीर,
यह सेना लख डर जायेगा।
औ' खामखाह मेरे दुश्मन को,
वह. मुझ. तक पहुँचायेगा।।५६।।
लेकिन अपनी सोची भी तो,
होता है नहीं हमेशा ही।
इस बार साथ खिलजी के भी,
कुछ हुआ वाकिया ऐसा ही।।५७।।
उसकी सोची बातों न हुईं,
और वीर हमीर न घबराया।
तो दिल्ली पति ने एक बार,
फिर वही संदेशा भिजवाया।।५८।।
"क्यों जिद करके हो खामखाह,
उसको वापस करना होगा।
वर्ना इन जंगी ज्वानों की,
चल वीरों से मरना होगा।।५९।।
"क्या धमकायें हो दिल्ली पति,
मैं दिल का पति हूँ मानो तुम।
जो कहता उसे निभाता हूँ,
मुझको कायर मत जानो तुम।।६०।।
"जो वचन निकलता इस मुख से,
पत्थर की अमिट लकीर है वो।
ऐसा यवनराज समरांगन में,
जो लड़ता मरता. वीर है वो"।।६१।।
तुम दुर्ग तोड़ सकता हो यह,
कर सकता मटियामेट इसे।
मिट्टी में रण थम्भौर मिला,
सकते हो अपने भुजबल से।।६२।।
शरणागत शाह मुहम्मद को,
अब सरल नहीं है पा जाना।
अपमान भरे विषघूँट सदृश,
खिलजी ने था उस को माना।।६३।।
फिर क्या था वह समरांगन तो,
तलवारों से चमचमा उठा।
बर्छी-भाले बरसने लगे
यवनों का दिल धकधका उठा।।६४।।
थे राजपूत इक तरफ वहाँ,
अन्यत्र पठानों की सेना।
दोनो ने ही तो सीखा था,
लड़ते-लड़ते जीवन देना।।६५।।
फिर राजपुतीने की भूपर,
लाशों के ढेर लगे लगने।
जो कायर यवन सिपाही थे,
कह कर'अल्लाह'लगे भगने।।६६।।
यद्यपि हमीर की सेना में,
थोड़े-से वीर जवान रहे।
पर वे थे पूर्व लौहपुरुष,
या यूँ कहिये चट्टान रहे।।६७।।
उसने ही लड़ने हेतु चली,
दिल्ली से वृहद् यवन सेना।
थे राजपूत भी चाहे रहे,
यवनों को सब सिखा देना।।६८।।
पर भारी टिड्डी दल सम्मुख,
वे चन्द वीर कब तक लड़ते।
फिर भी वे कर कर के साहस,
आगे ही सदा रहे बढ़ते।।६९।।
वह दृश्य युद्धकादेख,मीर-
की आँखें फिर से भरआयीं
सोचा-'यह मेरे ही कारण,
है इन सब पर आफत आयी।।७०।।
जब देखा गया नहीं उससे,
यह तोड़फोड़ मारामारी।
लाशों के ढेरों के अन्दर से,
निकल रही हलचल भारी।।७१।।
थे कुछ कर पदसे हीन मगर,
चख स्फुलिंग बरसाते थे।
प्रतिशोध हेतु कर कर साहस,
आगे ही बढ़ते जाते थे।।७२।।
कहीं श्वान खींचते हाथ चलो,
तो गिद्ध कहीं हो क्रुद्ध रहा।
कहता मानो-'ऐ श्वान दुष्ट!
इसको ले जाता दूर कहाँ?७३।।
यह वीर भुजा है वीर सदृश,
समरस्थल में ही पहने दे
कुछ देर के लिये मरुस्थली,
शोणित सरिता में बहने दे।।७४।।
कौवों के दल का क्या करना
वे थे कुमन्त्र उच्चार रहे।
दिन रैन शृगाल विहरते थे,
लगे गीधों के अम्बार रहे।।७५।।
बोला कासिम तब हमीर से-
"यह दशा न देखी जाती है।
मुझ तुच्छ यवन के हेतु धरा,
योद्धाविहीन हो जाती है"।।७६।।
यह रक्तपात भीषण. राजन्,
मैं हरगिज ना यह पाऊँगा।
इतने वीरों का नाश करा,
मैं यह मुँह कहाँ दिखाऊँगा।।७७।।
"क्या कहते हो,हे यवनमित्र!
मैं तुझको खिलजी को दे दूँ।
वीरों की रक्षा की खातिर,
सारा अपयश निज सिर लेलूँ।।७८।।
नामुमकिन मेरे जीते जी,
दुष्टों के ढिग तेरा जाना।
थम्भौर राज्य के कण कण ने,
है तुझको अब अपना माना।।७९,।।
आखिर जब उसकी नहीं चली,
तो वह ले सेना पुन: बढ़ा।
भूखे नाहर -सादे यवनों की,
सेना पर तत्क्षण टूट पड़ा।।८०।।
पहुँचा. हाथी के हौदे तक,
पर खिलजी उस पर मिल न सका।
उसकी टक्कर भी हो न सकी,
औ' उसका दिल भी खिल न सका।।८१।।
यद्यपि हमीर लड़ते-लड़ते,
था थक कर बिल्कुल चूर हुआ।
पर अभी परीक्षा बाकी थी,
था फर्ज अभी ना पूर हुआ।।८२।।
था अभी चमकता सूर्य मगर,
संध्या भी होने वाली थी।
जब उसने मुड़ कर देखा तो,
पीछे अजीब सी लाली थी।।८३।।
देखा केसरिया वस्त्र पहन,
पीछे से. सेना आती है।
उसका अब फिर से जोश बढ़ा,
हो गर्वित फूली छाती है।।८४।।
पर कौन जानता था दीपक,
अब जल्दी बुझने वाली है।
इस शुभ प्रकाश के बाद ,
गहनअन्धेरा होने वाला है।।८५।।
सब इधर लड़ रहे थे बाहर,
भीतर सज रही चितायें थीं।
मानो अँधियार मिटाये को,
वे जलती दूर शिॉखायें थीं।।।८६।।
जब बचे खुचे वे वीर पुरुष,
रणभूमि से ना वापस आये।
तब दुर्ग बीच सुन्दरियों के-
दल करने जौहर -व्रत धाये।।८७।।
बाहर मरुथल की सरिता पर,
बलि पा प्रसन्न थी रणकाली।
सुन्दरियों ने जौहर ज्वाला में,
निज तन की"आहुति" डाली।।८८।।
देखते देखते कुछ क्षण में,
सारा भविष्य ही भूत हुआ।
वो स्वर्णिम सदृश सुन्दरियों का,
तन जल कर भस्मीभूत हुआ।।८९।।
जलता दीपक इक बार भभक-
कर, जलाऔर फिर शान्त हुआ।
यह दृश्य देखकर,सूरज का,
अति कठिन हृदय भी क्लान्त हुआ।।९०।।
जब रुक न सकी सूरज की,
आँखें का बहता. पानी।
तो उसको मुख क्या. पूरी,
क्या ही. पड़ी छिपानी।।९१।।
पर सूरज के छिपने से,
वह दृश्य नहीं छिप पाया।
अन्धी रज नी के मनमें,
वह पीड़ा बन कर आया।।९२।।
बहबह अन्धी रज नी के,
आँखों से उस क्षण पानी।
मानो कह रहा समर की,
वह करुणा भरी कहानी।।९३।।
जब सुबह पुन: सूरज के,
सन्तोष न मन में आया।
तो चला देखने फिर वो,
जो कल था उसे रुलाया।।९४।।
दिल्ली पति ने भी लेकर,
मन में इच्छायें भारी।
उस दुर्ग बीच चलने की,
करली पूरी तैयारी।।९५।।
जिस क्षण वह भीतर पहुँचा,
था शर्मिन्दा अति भारी।
बस सिवा खाक उस दर पर,
ना नर था,. ना. थी नारी।।९६।।
तब सजल नेत्र हो खिलजी,
यूँ अनायास ही बोला।।
मानो उनकी. भस्मी पर,
अमृत रस उसने घोला।।९७।।
तुम धन्य धन्य हो वीरों!
कर्तव्य. तुम्हारे न्यारे।
अपने कर्मों से ही हो-
तुम तीन लोक को प्यारे।।९८।।
तेरी ललनायें. भी बढ़ ,
जौहर ज्वाला में आगे।
कर देतीं सब कुछ अर्पण,
पर हम हैं अधिकारी अभागे ।।९९।।
तुम धन्य ,धन्य हैं तेरी,
ललनायें वीर जवानो।
नर कर भी सदा अमर हो,
इस में संशय ना. मानो।।१००।।
ये पिञ्जर. हड्डी वाले,
ये ढेर राख के. सारे।
बा-अदब याद को तेरी,
रक्खेंगे रक्तपात तुम्हारे।।१०१।।
है धन्य धन्य वह जननी,
जिसने तुमको था जाया।
तू ने. वीरोचित. पदवी,
है निज कर्मों से पा या।।१०२।।
हैं सूरज चाँद सितारे,
जब तक दरिया में पीनी।
तबतक इतिहास कहेगा,
वीरों की शौर्य कहानी।।१०३।।
डॉ० ' कुसुमाकर'शास्त्री
कानपुर (उ०प)
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