कहानी // बगावत // अर्जुन प्रसाद

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सिकन्‍दराबाद के महेंद्र सिंह बहुत उदार और विचारशील व्‍यक्‍ति थे। वह बड़े ही शांत और आदर्शशील थे। उनका स्‍वभाव एकदम विनम्र और विचार बड़े उन्‍...

विवेक जंदियाल की कलाकृति

सिकन्‍दराबाद के महेंद्र सिंह बहुत उदार और विचारशील व्‍यक्‍ति थे। वह बड़े ही शांत और आदर्शशील थे। उनका स्‍वभाव एकदम विनम्र और विचार बड़े उन्‍नत थे। वह उच्‍च शिक्षित होने के साथ-साथ उज्‍ज्‍वल चरित्र के धनी भी थे। उनका मुख मंडल बड़ा तेजस्‍वी था। क्षत्रिय परिवार में पैदा होने पर भी वह सामाजिक कुप्रथाओं और अंधविश्‍वासों के प्रबल विरोधी थे।

उनकी आँखों में शील और चित्‍त में दयालुता झलकती थी। उनका खिला हुआ मुख कमल देखकर लोग उनसे बड़े जल्‍दी प्रभावित हो जाते थे। उनकी विद्वता और कीर्ति चारों ओर फैली हुई थी। उनके बुद्धिबल की प्रखरता का लोग लोहा मानते थे। रंग गेहुँआ होने पर भी वह बड़े सुंदर और होनहार तो थे ही बड़े हँसमुख और प्रतिष्‍ठित भी थे।

एक सरकारी बैंक में ऊँचे ओहदे के अधिकारी थे। आसपास के लोग उनका बड़ा सम्‍मान करते थे। उनके घर के दरवाजे के आगे एक बड़ा बगीचा था। पुश्‍तैनी जमीन-जायदाद के साथ बड़ी तनख्‍वाह वाली सरकारी नौकरी भी थी। उनकी पत्‍नी मानसी देवी भी बड़ी सुशिक्षित, सुंदर और सभ्‍य थीं। वह भी अपने पति के समान बहुत हँसमुख और उच्‍च आदर्श वाली महिला थीं। उनका चेहरा बड़ा मनमोहक और हृदय उदार था। वह भी एक सरकारी नौकर थीं।

उनके पास कुल संतानें थीं एक पुत्र और एक पुत्री। उनकी बेटी कामिनी बड़ी थी और डॉक्‍टरी की पढ़ाई कर रही थी। वह एम.बी.बी.एस. की तीसरे वर्ष की छात्रा थी। लेकिन शिक्षित होने के बावजूद उसके पास बुद्धि और विवेक नाम की कोई चीज न थी। युवावस्‍था में लोग वैसे भी अहंकारी बन जाते हैं कामिनी को भी दुनिया की हवा लग चुकी था। जवानी की दहलीज की ओर कदम बढ़ाते ही उसके संस्‍कार मिटने लगे थे। वह कुमार्ग पर अग्रसर होने लगी थी। वह गुरूर में चूर रहने लगी। महेंद्रसिंह का बेटा प्रभाकर छोटा था और इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा था। वह मेरठ के एक कालेज में बी.टेक. द्वितीय वर्ष का छात्र था। मतलब यह कि उनके दोनों बच्‍चे अध्‍ययनरत थे।

माता-पिता के लिए औलाद सबसे बड़ी दौलत होती है। गरीब हों या अमीर अपनी संतान के जन्‍म लेते ही वे निहाल हो जाते हैं। मारे खुशी के वे फूले नहीं समाते हैं। पुत्र-पुत्री के लिए वे अपना सब कुछ न्‍यौछावर कर देते हैं। कुछ गिनेचुने मामलों को अपवाद स्‍वरूप छोड़ दें तो बेटा हो या बेटी, हर माता-पिता बिना किसी भेदभाव के उनका समान रूप से पालन-पोषण करते हैं।

उन्‍हें शिक्षा-दीक्षा देकर वे उनके सफल जीवन की कामना करते हैं। उन्‍हें युवावस्‍था की ओर अग्रसर होते हुए देखकर वे बहुत आनंदित होते हैं। वे भाँति-भाँति की कल्‍पना करते हैं। खुद बड़ा से बड़ा कष्‍ट झेलकर भी उन्‍हें प्रसन्‍न और सुखी देखने के लिए लालायित रहते हैं। उनके हृदय में विचार उत्‍पन्‍न होता है कि बच्‍चे बड़े होकर हमारा हाथ बँटाएँगे। वे हमारी मदद करेंगे।

किन्‍तु, यौवन आभा फूटकर बाहर निकलते ही तरुण-तरुणियों को अपनी शक्‍ति का अहसास होने लगता है। इससे वे ज्ञान से अज्ञान की ओर अपना कदम बढ़ाने लगते हैं। उनमें अहंकार की भावना उत्‍पन्‍न हो जाती है। उन्‍हें सत्‍य-असत्‍य का कोई ज्ञान ही नहीं रह जाता है। उनमें अज्ञान का उदय होते ही उनका विवेक नष्‍ट हो जाता है। परिणामस्‍वरूप उनका जीवन धीरे-धीरे अंधकारमय होने लगता है।

महेंद्र सिंह और मानसी अपने पुत्र और पुत्री को आदर्शमय उच्‍च शिक्षा देकर अपना कर्तव्‍य पूरा करने में लगा हुआ था। वे वर्तमान में शिक्षा के गिरते स्‍तर और बढ़ती प्रतियोगिता से बहुत चिंतित थे। उन्‍हें अनुमान था कि इस महँगाई के युग में बढ़ती बेरोजगारी एक विकराल समस्‍या है। शिक्षा के बिना मानव जीवन नर्क बनकर रह जाता है।

अशिक्षित व्‍यक्‍ति का जीवन कष्‍टमय होने से वह स्‍वयं को समाज में अकेला समझकर अपराध और अत्‍याचार के गहरे दलदल में फँस जाता है। इसके विपरीत शिक्षित व्‍यक्‍ति अपनी समस्‍याओं से निपटने में सक्षम होता है। उसे किसी के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ता है। आत्‍मनिर्भता एक बड़ी चीज है। विद्यारूपी धन सभी प्रकार के धन से उत्‍तम है। इसलिए अशिक्षित रहकर दूसरों का मुँह ताकना पाप है। शिक्षित बच्‍चे अपने पैरों पर खड़े होकर राष्‍ट्र निर्माण और उसके विकास में सहायक बनते हैं। महेंद्र सिेह और मानसी देवी को अपने माता-पिता से सदैव यही शिक्षा मिली थी।

उन्‍हें यह भलीभाँति मालूम था कि एक पुत्र को शिक्षित बनाने से माँ-बाप स्‍वयं शिक्षित हो जाते हैं लेकिन एक पुत्री को शिक्षित बनाने से पूरा परिवार ही शिक्षित हो जाता है। यही सोचकर अपने पुत्र प्रभाकर और पुत्री कामिनी दोनों को ही शिक्षित बनाना वे अपने जीवन का मुख्‍य कर्तव्‍य समझते थे। महेंद्र और मानसी अपने कर्तव्‍य के पालन और पारिवारिक दायित्‍वों की पूर्ति में इतने व्‍यस्‍त हुए कि वे समाज विरोधी तत्‍वों से एकदम अनजान होकर छल-कपट और प्रपंच से बहुत दूर थे।

उनकी मान-प्रतिष्‍ठा कुछ लोगों के हृदय में काँटा बनकर चुभने लगी। समाज के दुश्‍मन उनके अरमानों को अकारण ही मिट्टी में मिलाने का जाल बुनने लगे। रुपयों का मित्र किसी का मित्र नहीं होता है। इसलिए वे काफी दिनों से इस अवसर की ताक में थे कि गर्व से सिर ऊँचा करके चलने वाले महेंद्र बाबू की आँखों में धूल झोंककर उन्‍हें मटियामेट कर दिया जाए।

तभी दिल को दहला देने वाली ऐसी घटना घट गई कि सहज ही उस पर यकीन नहीं होता। इस पापमय काम में महेंद्र बाबू के अन्‍य शत्रुओं के साथ-साथ उनका जो सबसे बड़ा शत्रु साबित हुआ वह कोई और नहीं बल्‍कि, उनकी बेटी कामिनी का नवप्रेमी अनुज बना। अनुज अपने माँ-बाप का इकलौता लाडला बेटा था। वह महेंद्र बाबू के लिए बिल्‍कुल आस्‍तीन का साँप निकला। अनुज बहुत ही लालची और क्षुद्र मानसिकता का घटिया महत्‍वाकांक्षी युवक था। अपनी महत्‍वाकांक्षा के आगे वह किसी रिश्‍ते-नाते की कोई कद्र न करता था। उसकी नजर में सिर्फ पैसे का महत्‍व था। पैसों के लिए वह किसी भी रिश्‍ते को दागदार बनाने को उद्यत रहता। वह यदाकदा बाबू महेंदसिंह के यहाँ आया-जाया करता था। उनकी दौलत देखकर अनुज के मन में पाप समा गया। उसकी जीभ लपलपाने लगी। वह भी उनके दुश्‍मनों की कतार में शामिल हो गया।

अनुज उनकी संपत्‍ति और जायदाद हड़पने की खातिर दिन-प्रतिदिन ताने-बाने बुनने लगा। पर, अपने मकसद में वह हर प्रकार से नाकाम ही रहा। यह कैसी विडंबना है कि अच्‍छी संगति का असर काफी देर में होता है पर, कुसंगति का प्रभाव अपरिपक्‍व व्‍यक्‍ति पर बहुत जल्‍दी पड़ता है। जिससे वह सत्‍य और धर्म-मार्ग से भटककर कुमार्ग पर चलने के लिए विवश हो जाता है। अपनी दाल किसी तरह गलती न देखकर अनुज ने एक नया जाल बिछाना शुरू कर दिया। उसने सोचा अगर बाबू महेंद्रसिंह की बेटी कामिनी किसी तरह मेरे चंगुल में फँस जाए तो सारी जायदाद मेरी हो जाएगी। हर तरफ से निराश होकर वह सब कुछ भूलकर कामिनी पर डोरे डालने लगा।

दुनियादारी की हर बात से एकदम अनजान कामिनी उसका नेत्र निमंत्रण पाकर धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगी। वह कड़े मन से उसके निमंत्रण को ठुकरा न सकी। देखते ही देखते वह अनुज पर जान छिड़कने लगी। आखिर वह उसे अपना दिल दे बैठी। बाबू महेंद्र सिंह की इकलौती, लाडली, अल्‍लहड़़ बेटी कामिनी को अपने बुने जाल में फँसाने में अनुज कामयाब हो गया। कभी-कभार अवसर पाकर वह कालेज से ही कामिनी को सिनमा घरों में ले जाकर चुपके-चुपके फिल्‍म आदि भी दिखाने लगा। कभी-कभी होटल और रेस्‍तराँ में खिलाता-पिलाता भी था। इससे कामिनी दिनोंदिन बहकती चली गई। मानो उसके नेत्रों पर मोटा पर्दा पड़ गया। उसने भी अपने जन्‍मदाता के पाक रिश्‍तों को तिलांजलि दे दी।

उसे अपने जाल में फँसते देखते ही अनुज की बांछें खिल गईं। वह सोचने लगा-हर्रै लगे न फिटकिरी और काम भी चोखा हो जाए अब अपना सारा काम बनता चला जाएगा। कामिनी जब पूर्णतया उसके शिकंजे में कस उठी तो उसका जी टटोलने की गरज से एक दिन वह उससे पूछा-कामिनी! यदि हमारे आपसी संबंधों का पता किसी रोज तुम्‍हारे मम्‍मी-पापाजी को चल जाए तो क्‍या होगा? वे इस रिश्‍ते को कदापि मंजूर नहीं करेंगे। यह भी हो सकता है कि वे हम दोनों को गोली मार दें।

यह सुनकर कामिनी उसे तसल्‍ली देती हुई मुस्‍कराकर बोली-कुछ नहीं होगा। सपने में भी कभी यह नौबत न आएगी। मैं उनकी इकलौती बेटी हूँ। मेरे मम्‍मी-पापा मुझे बहुत चाहते हैं। वे मुझे रोकने-टोने की जुर्रत नहीं कर सकते।

इसी तरह समय आहिस्‍ता- आहिस्‍ता गुजरने लगा। इंसान की अच्‍छी बात तो एक बार दब जाती है लेकिन उसकी बुराई शीघ्र ही उजागर हो जाती है। अनुज और कामिनी का दिखावटी प्रेमसंबंध भी ज्‍यादा दिनों तक छिपा न रह सका। बहुत जल्‍दी ही उनका सारा राज खुल गया। महेंद्र बाबू पति-पत्‍नी उनके मन के भावों को ताड़ गए। माता-पिता के विरोध करने पर कामिनी उनके खिलाफ खुली बगावत पर उतर आई।

उन्‍होंने इस बात की शिकायत अनुज के पिता रूद्रप्रताप से भी की। अनुज की शिकायत सुनते ही वह आग बबूला हो उठे। उन्‍होंने अनुज को खूब डाँटा-फटकारा। वह उससे गरजकर बोले अरे दुष्‍ट! जाकर चुल्‍लूभर पानी में कहीं डूब मरो। एक कमअक्‍ल, नादान लड़की के साथ आँख-मिचौली का खेल खेलते हुए तुम्‍हें तनिक भी लज्‍जा न आई। अगर मुझे पता होता कि बड़े होकर तुम इस तरह मेरे माथे पर कलंक का टीका लगाओगे तो सच कहता हूँ गला दबाकर तुम्‍हें बचपन में ही मार देता।

इतना सुनना था कि अनुज का खून खौल उठा। परंतु वह अपने पिता रूद्रप्रताप का बाल भी बाँका न कर सकता था। वह उस समय अपमान का घूँट पीकर रह गया। वह वहाँ से चुपचाप उठा और मोटर साइकिल पर बैठकर कामिनी के कालेज की ओर चला गया। वहाँ जाकर वह मोबाइल पर फोन करके कामिनी को अपने पास बुलाकर कहा-कामिनी! लगता है अब पानी सिर से गुजरने लगा है। अब अपना पर्दा फाँस हो चुका है। तुम खुलकर मेरा साथ दो वरना मैं कहीं का न रहूँगा। यदि मेरा साथ नहीं दिया तो समझो तुम्‍हारी खैरियत नहीं।

यह सुनते ही कामिनी बोली-तो इसके लिए मुझे क्‍या करना होगा? आखिरकार तुम मुझसे क्‍या चाहते हो?

तब अनुज बोला-अब हम दोनों भीलीभाँति बदनाम तो हो ही चुके हैं इसलिए अपने माँ-बाप से अपने हिस्‍से की दौलत ले लो और कहीं चलकर ऐश करते हैं।

यह सुनकर कामिनी बोली-मगर, विवाह से पहले मम्‍मी-पापा मुझे ऐसे एक पाई भी न देंगे।

तब अनुज बोला-अगर ऐसी बात है तो उनका खून कर दो। जिस दौलत पर तुम्‍हारा कोई हक नहीं वह किस काम की?

इतना सुनना था कि कामिनी बोली-मुझसे ऐसा हरगिज न होगा। मैं उनकी बेटी हूँ कातिल नहीं। यह पाप मैं नहीं कर सकती। यह बताओ, तुम मेरे रक्षक हो या भक्षक?

कामिनी का विचार सुनकर अनुज बोला-इसके लिए तुम्‍हें परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है। वे प्रतिदिन सुबह एक साथ नौकरी पर जाते ही हैं तुम्‍हें तो बस इतना भर करना है कि सुबह आफिस जाते समय तुम मोबाइल पर मुझे इशारा भर कर देना कि अब वे गाँव से बाहर बाग में पहुँचने वाले हैं। बाकी काम मेरे दोस्‍त खुद कर देंगे। उनके मरते ही सारी दौलत तुम्‍हारी हो जाएगी। हाँ इतना जरूर है कि तुम किसी के आगे यह रहस्‍य मत खोलना वरना वे बदमाश तुम्‍हारी भी जान ले लेंगे।

यह सुनते ही कामिनी ने अनुज की हाँ में हाँ मिला दी। वह बोली-ठीक है कल सुबह मैं सब कुछ तुम्‍हें बता दूँगी।

इसके बाद अनुज ने अपने बदमाश साथियों से बात की और अपने मामा-मामी को मौत के घाट उतारने के लिए उन्‍हें राजी कर लिया। रात तो जैसे-तैसे गुजर गई मगर, सुबह होने पर बाबू महेंद्रसिंह और मानसी तैयार होकर जैसे ही अपने-अपने दफ्‍तर के लिए बाइक पर सवार होकर एक साथ निकले। कामिनी ने फौरन अनुज को बता दिया। उनके गाँव के बाहर स्‍थित बाग में सावधानी पूर्वक इधर-उधर छिपे पति-पत्‍नी के खून के प्‍यासे मौत के सौदागर अपनी-अपनी बंदूकों का निशाना बाँधे एकदम तैयार बैठे थे। महेंद्र बाबू और उनकी पत्‍नी मानसी देवी को बाग में पहुँचते ही कामिनी ने फिर अनुज को मोबाइल पर बताया-मम्‍मी-पापा दोनों 30 सेकेन्‍ड में बाग में पहुँचने वाले हैं। तत्‍पश्‍चात मोबाइल बंद हो गया।

इतने में धॅांय-धाँय गोलियाँ चलने की आवाज आई और पलक झपकते ही पति-पत्‍नी धरती पकड़ लिए। गोलियों की आवाज सुनकर ग्रामीण जब वहाँ पहुँचे तो सबने देखा कि बाबू महेंद्रसिंह और उनकी पत्‍नी मानसी खून से लथपथ जमीन पर मृतवत पड़े हुए हैं। देखते ही देखते वे असमय ही काल के गाल में समा गए। उनके शरीर का साथ छोड़कर प्राण पखेरू उड़ गए। इस वारदात की भनक जब अनुज के पिता बाबू रूद्रप्रताप को लगी तो वे सन्‍न रह गए। उनका मन आशंका से काँप उठा। वह आनन-फानन में उनके पास जा पहुँचे। वहाँ जाकर उन्‍होंने सबसे पहले पुलिस को खबर दी। तदंतर कामिनी के भाई प्रभाकर की सुरक्षा को लेकर वह चिंतित हो उठे। उन्‍होंने आव देखा न ताव तुरंत मेरठ की ओर चल पड़े।

उधर महेंद्र बाबू और उनकी पत्‍नी मानसी को गोलियों से भूनकर भी जब अनुज और उसके साथियों का जी नहीं भरा तो वे उनके इकलौते पुत्र प्रभाकर को मारने के लिए मेरठ उसके कालेज की ओर रवाना हो गए ताकि उसके हिस्‍से की जायदाद भी बेखटके अनुज को मिल जाए। वहाँ जाने पर अनुज के साथी कार में ही उसका शीशा बंद करके अंदर ही बैठे रहे और अनुज कालेज के गेट पर जाकर चौकीदार से बोला-मैं प्रभाकर का फुफेरा भाई हूँ। तनिक उससे मिलवा दीजिए। उससे कुछ जरूरी बात करनी है।

तब चौकीदार बोला-ऐसा कतई नहीं हो सकता। देखिए, अब शाम हो चुकी है। ऐसे में मैं किसी अनजान व्‍यक्‍ति को कालेज के हास्‍टल में जाने की अनुमति नहीं दे सकता। आपको मिलना ही था तो दिन में आते।

यह सुनना था कि अनुज बोला-तब ऐसा कीजिए प्रभाकर को ही यहाँ बुला दीजिए। हम दो मिनट उससे बात करके यहाँ से चले जाएँगे। यह सुनकर चौकीदार ने प्रभाकर को बुला दिया। जिसे बचाने वाला ईश्‍वर हो कोई उसका बाल भी बाँका नहीं कर सकता है। रात होने की वजह से अनुज को देखकर प्रभाकर के मन में न जाने क्‍यों विचार आया कि इस वक्‍त गेट के बाहर निकलना खतरे से खाली नहीं है। यह सोचकर वह गेट के अंदर ही रुक गया और अनुज से बोला-भइया! क्‍या बात है। आप लोग कौन हैं? मुझसे क्‍या काम है। मैं आप सबको पहचानता नहीं हूँ। अतएव मैं इस वक्‍त किसी से मिलना नहीं चाहता।

तब अनुज बोला-अरे यार! पहचानो या मत पहचानो लेकिन सच मानो तो हम सब तुम्‍हारे दोस्‍त ही हैं कोई दुश्‍मन नहीं। पिछले काफी दिनों से तुमसे मिलने को जी कर रहा था तो सोचा लाओ आज तुमसे मिल लें। इसलिए चला आया। अब तुम हमसे नहीं मिलना चाहते तो कोई बात नहीं। इतना कहकर अनुज अपने दोस्‍तों के साथ कार में बैठ गया और फिर कार वहाँ से अंधेरे में गायब हो गई। प्रभाकर बाल-बाल बँच गया। इसके कुछ देर बाद ही अनुज के पिता ठाकुर रूद्रप्रताप भी वहाँ पहुँच गए। उन्‍होंने सारी रामकहानी चौकीदार को बताकर प्रभाकर को बुलाने को कहा। चौकीदार फिर उसे बुलाकर लाया।

रात्रि के समय रूद्रप्रताप को देखकर प्रभाकर आश्‍चर्य में पड़कर बोला-क्‍या बात है चाचाजी! अभी-अभी अनुज भइया भी अपने कुछ मित्रों के साथ यहाँ आए थे किन्‍तु रात का समय होने के कारण मेरा मन बाहर आने को नहीं हुआ। मैं गेट के भीतर से ही उनका हालचाल पूछा और दो-चार मिनट बाद ही वे सब यहाँ से वापस चले गए।

यह सुनकर रूद्रप्रताप सजल नेत्रों के साथ बोले-बेटा! तुमने बहुत अच्‍छा किया जो बाहर नहीं निकले। आखिर मुझे जिस बात का अंदेशा था वही हुआ। वे कमीने यहाँ तक भी आ पहुँचे। मैं इस वक्‍त तुम्‍हें सजग करने आया हूँ। देर-सबेर गेट से बाहर अपनी जान को जोखिम में डालना है। उन्‍होंने तुम्‍हारे मम्‍मी-पापा का आज सबेरे आफिस जाते समय गाँव के बाहर वाली बाग गोली मारकर दिनदहाड़े हत्‍या कर दी। इस साजिश में तुम्‍हारी बहन कामिनी भी शामिल है। इसलिए अब बहुत सँभलकर रहना। यह सुनते ही प्रभाकर की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। वह सोच में डूब गया।

फिर रूद्रपताप एक लंबी आह भरकर बोले-बेटा! मैं तुम्‍हारी खोज-खबर लेने आता रहूँगा। तुम बिल्‍कुल बेफिक्र होकर अपनी पढ़ाई करो। अभी मैं जीवित हूँ। मेरे रहते तुम्‍हें किसी बात की चिंता करने की जरूरत नहीं है। मैं उन सबको जेल भिजवाकर ही दम लूँगा। इतना कहकर बाबू रूद्रप्रताप वहाँ से वापस लौट गए। उन्‍होंने पाप के गर्त में डूबे अपने पुत्र के स्‍नेह को एक झटके में ही त्‍याग दिया। सच में उन्‍होंने अक्‍लमंदी और बड़े साहस का परिचय दिया।

उनकी नजर में अब उनका बेटा मात्र एक गुनहगार था। उसका अपराध एकदम अक्षम्‍य था। अपने इकलौते पुत्र को बचाने की उन्‍होंने तनिक भी परवाह न की। अब वह दो-दो जिंदगियों का कातिल था। वहाँ जाकर उन्‍होंने अपने बेटे अनुज और कामिनी की सारी हरकत थानेदार को बता दी। साथ ही उन्‍होंने दरोगा शक्‍तिसिंह से कहा-दरोगाजी! इन दोनों की अच्‍छी तरह खबर लीजिए दोनों जल्‍दी ही टूट जाएँगे। अभी क्षण भर में सारे रहस्‍य से पर्दा उठ जाएगा।

यह सुनना था कि शक्‍तिसिंह के कान खड़े हो गए। रूद्रप्रताप की बात पर उन्‍हें लेशमात्र भी यकीन न आ रहा था। यह बात उनके गले से नीचे कदापि न उतर रही थी कि कोई बाप अपने बेटे के विरुद्ध ऐसी दिलेरी भी दिखा सकता है। वह आग बबूला हो उठे। मारे क्रोध के नेत्र लाल-पीले करके वह बोले-छिः क्‍या जमाना आ गया है। आजकल की औलाद उल्‍टे-सीधे चक्‍करों में पड़कर अपने पालनहार को भी बख्‍शने को तैयार नहीं है। वह बड़ी बेरहमी से उनका कत्‍ल करा रही है।

दरोगा शक्‍तिसिंह ने भी बहुत ही ईमानदारी का परिचय दिया और अपने दलबल के साथ अनुज और कामिनी के छिपने के ठिकानों की टोह लेने लगे। उन्‍हें बहुत जल्‍दी ही सफलता मिल गई। मुखबिरों ने उनका काम काफी आसान कर दिया। तत्‍पश्‍चात उन्‍होंने अनुज और कामिनी को हिरासत में लेकर कड़ाई से पूछताछ आरंभ कर दिया। उनके हड़काते ही अनुज और कामिनी टूट गए। उन्‍होंने सरेआम अपना जुर्म कबूल लिया। अपराध स्‍वीकार करते ही उन्‍होंने अनुज के दूसरे साथियों को भी धर दबोचा।

इसके बाद अदालत में पेश करके उन्‍होंने उन्‍हें काल कोठरी में भेज दिया। इसे ही कहते हैं लालच में दोनों गए माया मिली न राम। अनुज और कामिनी के हाथ कुछ भी न लगा। जेल की हवा अलग से खानी पड़ी। दोनों के मुँह पर कालिख पुत गई। सबके सामने वे पानी-पानी हो गए। मारे शर्म के वे जमीन में गड़ गए।

अंत में अपना सब कुछ खोकर उन्‍हें अपनी करनी पर बहुत पश्‍चाताप हुआ। धोबी के कुत्‍ते की भाँति अब वे कहीं के भी न रहे। उनका सब कुछ तबाह और बर्बाद हो गया। दो-दो निर्दोष जिंदगियों को एक ही साथ मटियामेट करने वाले स्‍वयं मटियामेट हो गए। कामिनी को अपने जन्‍मदाता के साथ बगावत करना सचमुच बहुत महँगा साबित हुआ। गेहूँ के साथ घुन पिसता ही है उसके साथ सारा षड़यंत्र रचने वाले अनुज का जीवन भी चौपट हो गया।

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जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: कहानी // बगावत // अर्जुन प्रसाद
कहानी // बगावत // अर्जुन प्रसाद
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