श्री अवधूत महर्षि दत्तात्रेय कौन थे? किस युग में हुए? क्या वे अवतारी देवता थे? इन सब प्रश्नों के उत्तर को इस आपाधापीयुगीन जीवनकाल में हमें प...
श्री अवधूत महर्षि दत्तात्रेय कौन थे? किस युग में हुए? क्या वे अवतारी देवता थे? इन सब प्रश्नों के उत्तर को इस आपाधापीयुगीन जीवनकाल में हमें प्राप्त करने का समय नहीं है। अतः इसे संक्षिप्त में बताये जाने का प्रयास यहाँ किया गया है।
महर्षि दत्तात्रेय त्रेतायुग में अत्रि ऋषि तथा माता अनुसूया के आश्रम में अवतरित भगवान विष्णु के अंशावतार माने गये हैं। भगवान के अंशावतार होने से आप कामाधारी और त्रिगुणातीतावस्था युक्त स्थिति होने से आप अवधूत कहे जाते हैं। त्रिगुणात्मक होने से भगवान विष्णु, ब्रह्मा और शिव के गुणों को अर्थात् सत्, रज और तम को धारण करने से ‘त्रिमुख’ रूप भी आपका धारण किया हुआ है।
पुराणों में महर्षि दत्तात्रेय का त्रिमुखाकार और बहुभुजाकार रूप में ही प्रायः वर्णन प्राप्त होता है। चारों वेद श्वान का रूप धारण करके और पृथ्वी गौमाता का रूप धारण करके सदा आपके साथ विचरण करते हैं। अपने छः हाथों में गदा(कहीं-कहीं गदा के स्थान पर चक्र भी दिखाया गया है), डमरू, त्रिशूल, कमण्डल, शंख एवं माला धारण करते हैं। कण्ठ में सर्प और मालादि धारण किये, कंधे पर झोली डाले आप यत्र-तत्र-सर्वत्र आनन्द मग्न हो भ्रमण करते हैं तथा अनन्य भक्तों को सू़क्ष्म और स्थूल रूप में दर्शन भी देते हैं।
ऐसे विलक्षण अवतारी रूप में आप अपने विलक्षण अवधूत 24 गुरु की कथा महाराजा यदू को सुनाकर राजा को बताते है, जो अज्ञान-तिमिर को दूर कर अज्ञान मिटाने के लिये अथवा जीवों के हृदय में ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिये ही प्रायः भगवान के अवतार होते हैं। अवतार के अनेक कारण होते है किन्तु अवतार का मुख्य प्रयोजन जीवों का अज्ञानान्धकार निवारण करना होता है। संसार का यही क्रम है। इसी क्रम में भगवान विष्णु ने महर्षि सद्गुरु अवधूत श्री दत्तात्रय के रूप में चौबीस अवतारों में से छठा अवतार श्रीमदभागवत में वर्णित है। इस अवतार की परिसमाप्ति नहीं है इसीलिये इन्हें ‘‘अविनाश’’ भी कहा गया है। ये समस्त सिद्धों के राजा होने के कारण ‘‘सिद्धराजा’’ भी कहलाते हैं। योग विद्या में असाधारण अधिकार रखने के कारण इन्हें ‘‘योगिराज’’ भी कहा गया है। अत्रि पुत्र होने के कारण इन्हें ‘आत्रेय’ कहा गया है। ‘दत्त’ और आत्रेय इन दोनों नामों के संयोग से इनका नाम ‘दत्तात्रेय’ नाम सर्वविदित है।
कलियुग में भी भगवान शंकराचार्य, गोरक्षनाथ, नागार्जुन ये सब भगवान दत्तात्रेय के अनुग्रह से ही धन्य हुए हैं। श्री संत ज्ञानेश्वर महाराज, श्री जनार्दन स्वामी, श्री संत एकनाथ, श्री दासोपंत, श्री संत तुकाराम महाराज इन भक्तों ने दत्तात्रेयजी का प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त किया था। भगवान दत्तात्रेय भक्त का करुण क्रन्दन सुनकर तुरन्त समीप प्रकट हो जाते हैं। इसी कारण इन्हें स्मर्तृगामी (स्मरण करते ही आने वाले) कहा गया है। गिरनार श्री दत्तात्रेयजी का सिद्धपीठ है। इनका उन्मतों की तरह विचित्र वेष और आगे पीछे कुŸो, ऐसा स्वरूप पहचान लेना कठिन कार्य है। ये सिद्धों के परमाचार्य हैं, इन्हें उच्चकोटि के भक्त ही पहचान सकते हैं। इनके 24 प्रमुख गुरुओं से व्यावहारिक जीवन में शिक्षा प्राप्त कर मनुष्य जीवन का सही-सही लाभ प्राप्त कर सकते हैं।
महर्षि दत्तात्रेयजी ने अपनी बुद्धि से 24 गुरुओं का आश्रय लिया है, उनसे शिक्षा ग्रहण करके वे संसार में मुक्तभाव से स्वच्छन्द विचरते हैं। इन गुरु के नाम और शिक्षा इस प्रकार है। महर्षि दत्तात्रेयजी के 24 गुरु इस प्रकार है-
पृथिवी वायुराकाशमापोऽग्निश्चन्द्रमा रविः।
कपोतोऽजगरः सिन्धुः पतङ्गों मधुकृद् गजः।।
मधुहा हरिणो मीनः पिङ्गला कुररोडर्भकः।
कुमारी शरकृत् सर्प ऊर्णनाभिःसुपेशकृत्।।
- श्रीमदभागवत।2.11-33-34
महर्षि दत्तात्रेयजी के 24 गुरु ये हैं -
पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौंरा या मधुमक्खी, हाथी, शहद निकालने वाला, हरिन, मछली, पिङ्गला वैश्या, कुरर पक्षी, बालक, कुँआरी कन्या, बाण बनाने वाला, सर्प, मकड़ी और भृङ्गी कीट।
इनमें से पृथ्वी से धैर्य तथा क्षमा की शिक्षा, वायु से अर्थात प्राणवायु से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह आहार मात्र की इच्छा रखता है और उसकी प्राप्ति से सन्तुष्ट हो जाता है, वैसे ही साधक को चाहिये कि जितने से जीवन निर्वाह हो जाये उतना भोजन कर ले।
आकाश से यह शिक्षा प्राप्त की कि जितने भी घट-मठ आदि पदार्थ हैं, वे चाहे चल हो या अचल उनके कारण भिन्न-भिन्न दिखाई देने पर भी वास्तव में आकाश एक अखण्ड (अपरिछिन्न) ही है।
जिस प्रकार जल का स्वभाव से ही स्वच्छ, चिकना, मधुर और पवित्र करने वाला होता है तथा गंगा आदि तीर्थों के दर्शन-स्पर्श और नामोच्चारण से भी लोग पवित्र हो जाते हैं, वैसे ही साधकों को भी स्वभाव से ही शुद्ध, स्निग्ध, मधुरभाषी होना चाहिये।
अग्नि से यह शिक्षा प्राप्त करना चाहिये कि जैसे वह तेजस्वी और ज्योतिर्मय है तथा उसके तेज को कोई छिन नहीं सकता वैसे ही उसके पास संग्रह-परिग्रह के लिये कोई पात्र नहीं होता है। वह सब कुछ पेट में रख लेती है तथा दोषों से लिप्त नहीं होती है, वैसे ही साधक को तेजस्वी, तपस्या से दैदीप्यमान, इंद्रियों को वश में रखे।
महर्षि दत्तात्रेयजी कहते हैं कि चन्द्रमा से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यद्यपि जिसकी गति नही जानी जा सकती है, उस काल के प्रभाव से चन्द्रमा की कलाएँ घटती-बढ़ती है, फिर भी चन्द्रमा तो चन्द्रमा ही है, वैसे ही जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जितनी भी अवस्थाएँ हैं, सब शरीर की है, आत्मा से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।
सूर्य से यह शिक्षा प्राप्त की है कि वे अपनी प्रखर किरणों से पृथ्वी का जल खींचते हैं और समय आने पर उसे बरसा देते हैं। वैसे ही योगी पुरुष इन्द्रियों के द्वारा समय पर विषयों का ग्रहण करता है और समय आने पर उनका त्याग तथा दान कर देता है।
कहीं किसी के साथ अत्यन्त स्नेह अथवा आसक्ति नहीं करनी चाहिये अन्यथा उसकी बुद्धि अपना स्वातन्त्र्य खोकर दीन हीन अवस्था में पहुँच जाती है। उसे कबूतर की तरह अत्यन्त क्लेश उठाना पड़ता है। इस बात को उन्होंने कबूतर-कबूतरी तथा उनके बच्चों को बहेलियों द्वारा पकड़कर माने जाने के मायामोह के वृत्तान्त से समझाया है।
बिना माँगे, बिना इच्छा किये स्वयं ही अनायास जो कुछ मिल जाय, चाहे वह रूखा-सूखा क्यों न हो मधुर-स्वादिष्ट हो या न हो, बुद्धिमान पुरुष अजगर के समान उसे ही खाकर जीवननिर्वाह करे और उदासीन रहे। भोजन प्राप्त होने पर प्रारब्ध योग समझे।
पतंगे से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह रूप पर मोहित होकर आग में कूद पड़ता है और जल मरता है, वैसे ही अपनी इन्द्रियों को वश में न रखनेवाला पुरुष जब स्त्री को देखता है तो उस पर मोहित हो जाता है तथा घोर अन्धकार नरक में गिरकर अपना सर्वनाश कर लेता है।
सन्यासी को चाहिये कि गृहस्थों को किसी भी प्रकार का कष्ट न देकर भौंरे की तरह अपना जीवन-निर्वाह करें। वह अपने शरीर के लिये उपयोगी रोटी के टुकड़े कई घरों से माँग ले।
हाथी से यह सीखा कि संन्यासी को कभी पैर से काठ की बनी हुई स्त्री का भी स्पर्ष न करें। यदि वह ऐसा करेगा तो जैसे हथिनी को तिनकों पर खड़ा कर देते हैं तथा वहाँ हाथी उसे देखकर आता है और गड्ढे में गिरकर फँस जाता है।
महर्षि दत्तात्रेयजी ने मधु (शहद) निकालने वाले पुरुष से यह शिक्षा ग्रहण की है कि संसार के लोभी पुरुष बड़ी कठिनाई से धन का संचय तो करते हैं किन्तु वह संचित धन न किसी को दान करते हैं और न स्वयं उसका उपभोग ही करते हैं। बस जैसे मधु निकालने वाला मधुमक्खियों द्वारा संचित रस निकालकर ले जाता है, वैसे ही उसके संचित धन को भी उसकी टोह रखने वाला कोई दूसरा पुरुष ही भोगता है।
हरिन से यह सीखा है कि वनवासी सन्यासी को कभी विषय सम्बन्धी गीत नहीं सुनने चाहिये। वह इस बात की शिक्षा उस हिरन से ग्रहण करे, जो व्याघ्र के गीत से मोहित होकर बंध जाता है।
पिङ्गला नाम की एक लालची वेश्या विदेहनगरी में रहती थी। वह रात-दिन सजधज धनी पुरुष की प्रतीक्षा करती रहती थी। उसे कोई योग्य धनी व्यक्ति नहीं मिला तो थक कर इस वृत्ति से वैराग्य ले लिया। इस प्रकार वैराग्य से प्रभु प्राप्त होता है।
महर्षि दत्तात्रेयजी कहते हैं कि मनुष्यों को जो वस्तु प्रिय लगती है वह उन्हें इकट्ठा करने लगता है तथा बाद में वे वस्तुएँ ही उसके दुःख का कारण बन जाती है। जैसे एक कुरर पक्षी अपनी चोंच में माँस का टुकड़ा लिये हुए था। उस समय दूसरे बलवान पक्षी जिसके पास माँस नहीं था, उससे छीनने के लिये उसे घेरकर चोंच मारने लगे। जब कुरर पक्षी ने अपनी चोंच से माँस का टुकड़ा फेंक दिया तभी उसे सुख मिला।
श्री दत्तात्रेयजी ने बताया कि बालक को घरवालों की मान-अपमान की कोई भी चिन्ता नहीं होती है तथा वह क्रीड़ा करता ही रहता है, वैसे ही पुरुष भोला होने पर परमानंद प्राप्त कर सकता है।
अवधूत श्री दत्तात्रेयजी कुँवारी कन्या के बारे में बताते हैं कि एक बार किसी एक कुमारी कन्या के घर उसे वरण करने के लिए कई लोग आये थे। उस दिन उसके घर के लोग कहीं बाहर गये हुए थे। इसलिये उसने स्वयं ही उनका आदर सत्कार किया। अतिथियों को भोजन कराने के लिए वह घर के भीतर एकान्त में धान कूटने लगी। उस समय उसकी कलाई में पड़ी शंख की चूडि़याँ जोर-जोर से बजने लगी। उन चूडि़यों की आवाज को निन्दनीय समझकर कुमारी कन्या को बड़ी लज्जा अनुभव हुई और उसने एक-एक करके सब चूडि़याँ तोड़ डाली और दोनों हाथों में केवल दो-दो चूडि़याँ रहने दी। अब वह फिर धान कूटने लगी किन्तु वे दो-दो चूडि़याँ भी बजने लगी, तब उसने एक-एक चूड़ी और तोड़ दी। जब दोनों कलाइयों में केवल एक-एक चूड़ी रह गई तब किसी प्रकार की आवाज नहीं हुई। इस समय लोगों का आचार-विचार निरखने-परखने के लिए इधर-उधर दत्तात्रेयजी भी पहुँच गये। उन्होंने उससे यह शिक्षा ग्रहण की कि जब बहुत लोग एक साथ रहते हैं तब कलह होता है और दो आदमी साथ-साथ रहते हैं तब भी बातचीत तो होती ही है, इसलिये कुमारी कन्या की चूड़ी के समान अकेले विचरना चाहिये।
महर्षि दत्तात्रेयजी कहते हैं कि बाण बनानेवाले से यह सीखा है कि आसन और श्वास को जीतकर वैराग्य और अभ्यास के द्वारा अपने मन को वश में कर ले और फिर बड़ी सावधानी के साथ उसे एक लक्ष्य में लगावें। दत्तात्रेयजी कहते हैं कि एक बाण बनानेवाला कारीगर बाण बनाने में इतना तन्मय हो रहा था कि उसके पास से ही दलबल के साथ राजा की शाही सवारी निकल गई किन्तु उसे उसका आभास या पता भी न चला।
साँप से यह शिक्षा ग्रहण करना चाहिये कि सन्यासी सर्प की भाँति अकेले ही इस संसार में विचरण करे। उसे मण्डली नहीं बनाना चाहिये। मठ भी नहीं बनाना चाहिये। वह एक स्थान पर स्थायी न रहे, प्रमाद न करें, गुहा आदि में रहे, बाहरी लोगों द्वारा पहचाना भी जाना नहीं चाहिये। मितभाषी तथा किसी से सहायता न लें। इस अनित्य शरीर के लिये घर बनाने के बखेड़े में व्यर्थ न पड़े। साँप दूसरों के बनाये घर में घुसकर बड़े आराम व सुख से जीवन काटता है।
मकड़ी अपने मुँह के द्वारा जाला तानती व फैलाती है तथा उसमें ही विहार करती रहती है। समय आने पर उस जाल को निगल भी लेती है। वैसे ही ईश्वर भी इस जगत को अपने में उत्पन्न करता है उसमें नित्य विहार करता है फिर उसे अपने में लीन कर लेता है। यह सूत्ररूप ही तीनों गुणों की पहली अभिव्यक्ति है, वही सब प्रकार की सृष्टि का मूल कारण है। उसी में यह सारा विश्व सूत ताने-बाने की तरह ओतप्रोत है और इसी के कारण जीव को जन्म मरण के चक्कर में पड़ना पड़ता है।
अन्त में भृङ्गी (बिलनी) कीड़े से यह शिक्षा दत्तात्रेयजी ने ग्रहण की कि यदि प्राणी स्नेह से, द्वेष से अथवा भय से भी जानबूझ कर एकाग्ररूप से मन किसी में लगा दे तो उसे उसी वस्तु का स्वरूप प्राप्त हो जाता है। उदाहरणार्थ भृङ्गी एक कीड़े को ले जाकर दीवार पर अपने रहने की जगह बंद कर देता है और वह कीड़ा भय से उसी का चिन्तन करते-करते अपने पहले शरीर का त्याग किये बिना उसी शरीर से तद्रूप हो जाता है। इसीलिये मनुष्य को अन्य वस्तु का चिन्तन न करके केवल परमात्मा का ही नित्य चिन्तन करना चाहिये।
गुरु के बिना भवसागर पार करना अत्यन्त कठिन है। अतः महात्मा गाँधीजी ने तीन बन्दर, चन्द्रगुप्त ने चाणक्य, शिवाजी ने रामदास समर्थ, श्रीराम ने वशिष्ट, राक्षसों ने शुक्राचार्य और देवताओं ने बृहस्पति को गुरु बनाये थे। महर्षि दत्तात्रेय के 24 गुरु इसी तरह के गुरु हैं। आज भी हम यदि एक ही गुरु ढूँढ कर बना ले तो निश्चित ही हमारा जीवन सार्थक बन सकता है।
डॉ. नरेन्द्र कुमार मेहता
Sr. MIG-103 व्यास नगर, ऋषिनगर विस्तार
उज्जैन (म.प्र.)
Email:drnarendrakmehta@gmail.com
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