प्रतापगढ़ के ठाकुर महेंद्र प्रताप सिंह भारतीय नौसेना में कैप्टन थे। इधर-उधर दो-तीन बार तबादला होने के बाद उनकी ड्यूटी अहमदाबाद में चल रही ...
प्रतापगढ़ के ठाकुर महेंद्र प्रताप सिंह भारतीय नौसेना में कैप्टन थे। इधर-उधर दो-तीन बार तबादला होने के बाद उनकी ड्यूटी अहमदाबाद में चल रही थी। उनके पिता रुद्र प्रताप सिंह इलाके के जानेमाने एक रौबदार जमींदार थे। आस-पास के क्षेत्र में उनकी बड़ी धाक फैली हुई थी। बाबू साहब के दो पुत्र थे और एक पुत्री। उनकी तीनों संतानों में महेन्द्र प्रताप सबसे बड़े थे। ठाकुर साहब की पत्नी सुलोचना देवी एक सुशिक्षित और गृहकार्य में बड़ी निपुण महिला थीं। बाबू साहब को उन पर वाकई बड़ा नाज था। वह हकीकत में उनके बड़े विनीत, पितृभक्त और आज्ञाकारी पुत्र थे।
पति-पत्नी में इतनी मधुरता थी कि मुहल्ले के लोग कभी-कभी उनसे मन-ही-मन द्वेष करने लगते थे। कभी भूलकर भी मिया-बीवी में किसी बात पर रार-तकरार न होती। महेन्द्र बाबू जब नौसेना में साहब बन गए तो ठाकुर साहब ने जायस के ठाकुर देवेन्द्र सिंह की सुशिक्षित, सुशीला और रूपवती मँझली बेटी सोनालिका से उनकी शादी कर दिए। सोनालिका सच में इतनी सुंदर और मानो रूप की रानी थी कि महेन्द्र बाबू उस पर सदा अपनी जान छिड़कते थे। वह बहू बनकर जबसे उनके घर में आई तभी से उनका घर-परिवार दिन दूना रात चौगुना खूब फलने-फूलने लगा। ठाकुर साहब के परिवार को उस पर बड़ा गर्व था। गृहकार्य में भलीभांति निपुण जीवन संगिनी पाकर वह एकदम निहाल हो गए। पूरे परिवार का जीवन धन्य हो गया।
कभी-कभी अवसर पाकर वह अपनी अर्धांगिनी सुलोचना देवी से कहने लगते-सुलोचना, हमारी बहू, सच में बड़ी भाग्यवान है। इस घर में जबसे उसके सौभाग्यशाली कदम पड़े हैं तबसे समझो हमारे अहोभाग्य हैं। घर में मानो साक्षात लक्ष्मी की कृपा हो गई है। हमारा सारा काम दिन-प्रतिदिन दुगुनी रफ्तार से मनोवांछित खूब फल-फूल रहा है। आज हमारे परिवार में कहीं तनिक भी कोई कमी नजर नहीं आ रही है। सब कुछ इतना बढि़या चल रहा है कि आज मुझे सचमुच अपनी पुत्रवधू पर बड़ा नाज हो रहा है। ईश्वर करे सबको मेरी जैसी कुलीन, सदाचारिणी बधू मिले। पति-पत्नी के संबंधों में गजब की मधुरता थी ही आधुनिक सास-बहू में भी खूब पटती थी। कहने का तात्पर्य यह कि उनके घर-परिवार में सब कुछ बिल्कुल ठीक चल रहा था। कहीं कोई गड़बड़ न थी। घर में इतनी खुशियाँ छा गई थीं कि समझिए सोनालिका के आने से सोने पर सुहागा हो गया था।
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लेकिन ठाकुर घराने की यह खुशी बहुत दिन तक कायम न रह सकी। कुछ ही दिनों में उनके हँसते-खेलते घर को न जाने किसकी बहुत बुरी नजर लग गई। यकायक सब कुछ एकदम बर्बाद होने के कगार पर पहुँच गया। हुआ यह कि एक दिन की बात है महेंद्र प्रताप सकुचाते-डरते ठाकुर साहब से विनम्रतापूर्वक बोले-बाबू जी, अगर आपको बुरा न लगे तो आपसे मेरी अर्ज है।
यह सुनकर ठाकुर साहब मुस्कराकर बोले-हाँ-हाँ बेटा, एकदम बेफिक्र कहो, इसमें इतनी झिझकने की कौन सी बात है? बोलो, क्या कहना चाहते हो? बेटा, मैं कोई गैर नहीं बल्कि तुम्हारा बाप हूँ। अपने मन की बात मुझसे कहने में कैसी झिझक?
तब महेंद्र सिंह मारे शर्म के गर्दन नीची करके दबी जबान से बोले-बाबू जी, सोनालिका अपने भाई-बहन और माता-पिता को छोड़कर अब इस घर में बहू बनकर आ गई है। अब वह हमारे परिवार की एक अहम सदस्य है। हो सकता है अपने परिवार से बिछड़कर उसे यहाँ एक जगह पर ही रहते-रहते उसका मन ऊब गया हो इसलिए मैं चाहता हूँ कि उसे दो-चार महीने के लिए अपने साथ अहमदाबाद घुमाफिरा लाऊँ। वह कुछ समय मेरे पास रहकर तनिक वहाँ घूम-फिर लेगी इससे उसके दिल का बोझ कम हो जाएगा। उसका मन कुछ बहल जाने के बाद मैं फिर उसे यहाँ छोड़ जाऊँगा। मन हल्का हो जाने पर वह यहाँ बेखटके रह लेगी। बाद में आप लोगों को कोई तकलीफ न होगी।
अपनी पहली भूख-प्यास के जिगर के टुकड़े की सदय विनती सुनकर रूद्र प्रताप का कलेजा द्रवित हो उठा। वह हँसकर बोले-बेटे महेंद्र, तनिक मेरी बात सुनो। तुम यह बात कहने में इतना हिचकिचा क्यों रहे हो? इसमें ऐसा कौन सा बड़ा काम है? अरे भई, सोनालिका अब तुम्हारी बीवी है। उसके साथ तुम्हारा विवाह हुआ है। हर पति की भांति उसका ख्याल रखना तुम्हारा फर्ज है। वह तुम्हारे पूरे जीवन की सुख-दुःख की साथी है। वह अब एक गाड़ी के दो पहियों में से एक पहिए के समान तुम्हारी जीवनसंगिनी है। बेटा, जरा तुम्हीं सोचो अगर तुम अपनी पत्नी को संग रखने के इच्छुक हो तो हमें भला क्यों रंज होने लगा? हम दोनों अभी खूब जवान हैं। अपना प्रत्येक कार्य हम खुद करने में पूर्णतया सक्षम हैं। हमें फिलहाल तुम्हारे सेवाओं की कोई जरूरत नहीं है। यदि थोड़ी-बहुत जरूरत भी पड़ेगी तो करीब आठ-दस साल बाद बुढ़ापे में ही पड़ सकती है। बेटा, अभी तुम लोगों के खेलने-खाने के दिन हैं। जाओ, जाकर दोनों बेखटके भरपूर मौज-मस्ती करो। अभी से हमारी चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। दरअसल तुम दोनों की खुशी में ही हमारी खुशी है।
ठाकुर साहब का करूणामय स्नेहिल वचन सुनकर महेन्द्र प्रताप गदगद होकर बोले-धन्यवाद बाबू जी, मुझे आपसे यही आशा थी। आप सच में कितने महान हैं? हकीकत में पिता हो तो बिल्कुल आप जैसा। आपने मेरे मन की बात समझ ली। मैं तो सोच रहा था कि मेरा विचार सुनकर आपको सख्त एतराज होगा पर आपने तो मेरे मन की कह दी। दस तारीख को मैं सोनालिका को लेकर अहमदाबाद चला जाऊँगा। इस बीच अगर अम्मा और आपको उसकी कोई जरूरत महसूस हो तो कृपया निःसंकोच फोन कर दीजिएगा और मैं उसे तत्काल यहाँ छोड़़ जाऊँगा। बेटे-बहू के रहते यदि वृद्ध माता-पिता को कोई तकलीफ या कष्ट हो तो यह कदापि ठीक नहीं है। जिस प्रकार मां-बाप अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं उसी प्रकार औलाद को भी उनकी भलीभांति देखभाल करनी चाहिए। यही नैतिकता और इंसानियत का तकाजा है। आजकल के बच्चे अपने जन्मदाता माता-पिता के बारे में कुछ सोचते ही नहीं हैं। हमारी आधुनिक पीढ़ी को न मालूम क्या हो गया है? उनके विचार से बुड्ढे-बुढि़या जाएं भाड़ में, बेटे-बधू अपनी मस्ती में ही मस्त हैं।
तब ठाकुर रूद्र प्रताप बोले-बेटा, दुःख तो इसी बात का है। हमारी भावी पीढ़ी आज सचमुच न जाने कहाँ जा रही है? हर मां-बाप अपने बेटों और पुत्रवधुओं से परेशान हैं। वे बुढ़ापे में उन्हें भांति-भांति की पीड़ा पहुँचाते हैं। बुड्ढे-बुढि़या भी तंग होकर आशीश देने की जगह उन्हें बद्दुआ देते हैं। लोग मानवता को त्यागकर अब पैसों को ज्यादा महत्व देने लगे हैं। परंतु शुकर है तुम्हारे अंदर अभी तक ऐसी कोई बात नहीं है। इसलिए हमें तुम जैसे पुत्र पर वाकई बड़ा नाज है। मेरा आशीर्वाद है कि तुम दोनों जहाँ भी रहो सदा सुखी रहो।
यह सुनते ही महेन्द्र सिंह मारे गर्व के उछल पड़े। वह खुशी से फूले ही नहीं समा रहे थे। समयचक्र चलता रहा। धीरे-धीरे उनके अहमदाबाद जाने का समय नजदीक आ गया। नौसेना की सरकारी नौकरी थी। छुट्टी खत्म होने के तय वक्त पर उन्हें हर हाल में अपनी ड्यूटी पर हाजिर होना जरूरी था। वह किसी बनिए की गुलामी थोड़े ही करते थे। अपने काम पर जाने का समय निकट आने पर महेन्द्र और सोनालिका हँसी-खुशी अपने सफर की तैयारी करने में जुट गए। गाड़ी का रिजर्वेशन पहले से था ही नियत समय पर पति-पत्नी सज-सॅवरकर ठाकुर साहब और सुलोचना देवी का चरण-स्पर्श करके अपनी यात्रा पर निकल पड़े। गाड़ी हवा की भांति सनसनाती हुई अगली सुबह अहमदाबाद पहुँच गई।
वहाँ पहुँचने के बाद ठाकुर महेंद्र प्रताप रोज की तरह अगले दिन से अपने दफ्तर जाने लगे। घर में सोनालिका दिन भर एकदम अकेली रह जाती। यही दिनचर्या उनकी प्रतिदिन की थी। महेन्द्र बाबू सबेरे नौ बजे अपने अपने घर से निकलने के बाद फिर शाम को ही वापस लौटते थे। सारे दिन सोनालिका मकान के अंदर गुमसुम अकेली पड़ी रहती। उस मासूम से न कोई बोलने-बतलाने वाला था और न उसकी सुनने वाला। उसके लिए वहाँ का आस-पड़ोस भी बिल्कुल नया था। नई-नई जगह पर बगैर किसी से जान-पहचान के वह बेचारी बिना बुलाए ही भला किसके द्वार पर जाने की जुर्रत करती? इससे कुछ ही दिनों में वहाँ उसका जी ऊबने लगा। घर में पड़े-पड़े वह नर्वस होने लगी। उसके चेहरे का रंग आहिस्ता-आहिस्ता फीका पड़ने लगा।
कहने का तात्पर्य यह कि अहमदाबाद में उसका तनिक भी मन न लगा। हार-थककर वह अपने मन में बार-बार यही-सोचती-मेरी तो मति मारी गई थी जो इन महाशय के कहने में आकर बिना विचारे ही सबको छोड़कर फौरन यहाँ चली आई।
अपने माँ-बाप समान सासु और पिता जैसे ससुर से अलग होकर मैंने हरगिज कुछ अच्छा नहीं किया। यदि पहले से ही ऐसा पता होता कि मुझे अहमदाबाद में सारे दिन एकदम अकेले ही रहना पड़ेगा तो मैं यहाँ कदापि न आती। उनके पास रहकर मेरा समय सुबह से लेकर सायंकाल तक ऐसे गुजर जाता कि शाम कब हो गई इसका पता ही न चलने पाता। मानो यहाँ आकर सचमुच मैंने कोई बड़ा गुनाह कर दिया। न कोई अपनी कहने वाला है और न कोई सुनने वाला। सुबह से शाम तक बस घर मे ही सड़ते रहो।
यह सोचकर वह अनायास ही दुःखी हो जाती। हाँ, इतना जरूर है कि रविवार के दिन आफिस का साप्ताहिक अवकाश होने पर वह अपनी धर्मपत्नी सोनालिका को कहीं न कहीं घुमाने-फिराने अवश्य ले जाते। अपने पति के संग सैर करने में सोनालिका को बड़ा आनंद आता। जिस दिन उसके पति-परमेश्वर उसे सैर-तफरीह पर लेकर जाते उस दिन वह वाकई बहुत प्रसन्न रहती। सारे दिन इधर-उधर लगातार घूमने-टहलने से बदन थककर चूर हो जाने पर भी उसके मुरझाए चेहरे पर फिर से निखार आ जाता। कुछ देर के लिए वह अपने मन की थकान को भूल जाती।
समय इसी तरह आहिस्ता-आहिस्ता जैसे-तैसे व्यतीत होता रहा। कुछ भी हो उनकेी गृहस्थी की गाड़ी बिल्कुल ठीक चल रही थी। कहीं किसी तरह की जरा सी भी कोई गड़बड़ न थी किन्तु अफसोस कि समय सदैव एक जैसा नहीं रहता। वह पल-पल तीव्रगति से बदलता रहता है। वक्त दुनिया में वाकई बड़ा बलवान है। इसके आगे बड़े-बड़ों को मात खानी पड़ती है। कोई इंसान कितना भी ताकतवर क्यों न हो उसे विवश होना ही पड़ता है।
जिस कालोनी में बाबू साहब अपनी नई-नवेली पत्नी सोनालिका के संग हँसी-खुशी रहते थे वहाँ इलाके का बहुत कुख्यात एक गुंडा भी रहता था। उसका नाम था जग्गू दादा। उसका नाम सुनकर आसपास के लोग डर के मारे थर्राते थे। क्या मजाल कि कोई आदमी उसकी हरकतों का विरोध जताने की जुर्रत भी कर सके। पूरे मोहल्ले में उसका भरपूर दबदबा था। फलस्वरूप आए दिन वह खुलकर अपनी खूब मनमानी करता था। मनमर्जी चाहे जिसे दिनदहाड़े लूट ले और किसी को मरने-मारने पर उतारू हो जाए। कभी-कभी अवसर मिलने पर वह किसी-किसी की जान भी ले लेता था। मानो यही उसके जीवन का मकसद था। वहाँ उसे न कोई रोकने वाला था और न कोई टोकने वाला।
अगर कभी किसी ने उसे रोकने-टोकने की भूल से भी तनिक जुर्रत की तो समझिए उसे अपने प्राणों से हाथ ही धोना पडा। वह बेमतलब उसकी बखिया उधेड़ने को उधार खाए बैठा रहता था। दरअसल वह इतना दुष्ट था कि लोगों की बोलती ही बंद हो जाती थी। बगैर किसी लाइसेंस के ही कट्टा-पिस्तौल और चाकू रखना उसके लिए बच्चों का खेल था। उसे न जनता-जनार्दन का कोई भय था और न पुलिस का। उसका लंबा कद और गठीली, मजबूत देह देखकर ही लोग भयभीत हो जाते थे। उसकी शक्ल सच में इतनी डरावनी थी कि कोई उसके नजदीक जाने का साहस न जुटा पाता था। जग्गू की आवाज भी एकदम कड़क थी। कोई पुलिस वाला हो या आम आदमी सबके साथ बातचीत वह बड़े रोबीले अंदाज में ही करता था। उसका कड़क मिजाज चेहरा देखकर कोई सोच भी न सकता था कि जग्गू वाकई क्षेत्र का एक छँटा हुआ बदमाश है। मौका मिलते ही वह अपनी कद-काठी और रोबीली आवाज का भरपूर फायदा उठाता था।
एक दिन की बात है सोनालिका अपने बंगले की दालान में कुछ काम कर रही थी। इसे ईश्वर की मर्जी कहिए या कुछ और जग्गू की नजर अचानक उस पर पड़ गई। उससे आँखें चार होते ही मानों वह सनक गया। वह अपनी सारी सुध-बुध खो बैठा। सोनालिका का रूप-रंग देखकर जग्गू उस पर मंत्रमुग्ध सा हो गया। उसकी साँसें बड़ी तेज-तेज चलने लगीं। सचमुच जग्गू एकदम विकल हो उठा। उसके मुख से आह निकलकर रह गई। उसे पाने की खातिर वह पलक झपकते ही बेताब हो उठा। ऐसी गोरी-चिट्टी और कमसिन रूपसी उसने पहले कभी सपने में भी न देखा था। एक बार को तो उसे ऐसा लगा जैसे उसकी धड़कने ही बंद हो जाएंगी। फिर वह बड़ी मुश्किल से सँभल सका। उसे किसी का लेशमात्र भय तो था नहीं इसलिए सोनालिका जैसी एक सीधी-सादी, मासूम ग्रामीण स्त्री को अपने दबदबे का डर दिखाकर उसे मजबूर करके फायदा उठाना जग्गू को बखूबी आता था।
उसके लिए यह काम इतना आसान था कि जैसे किसी चूजे को धर दबोचने में बाज माहिर होता है। उसने आव देखा न ताव फौरन झपटकर दबे पाँव वह सोनालिका के पीछे-पीछे उसके कमरे में दाखिल हो गया।
अपने कक्ष में एक अनजान, पराए पुरूष को प्रविष्ट होते देखकर सोनालिका एकदम सहम उठी। उसके मुँह से चीख निकल गई। वह बचाओ-बचाओ कहकर अपनी आबरू बचाने की दुहाई देने ही वाली थी कि जग्गू उससे बोला-मेम साहिबा, जरा पहले मेरी बात सुनिए। इसके बाद फिर किसी को आवाज दीजिए। अब इस निर्जन स्थान पर आपके इस तरह चीखने-चिल्लाने से कोई लाभ नहीं। दरअसल आप जिस बस्ती में आकर बड़े मजे से रह रही हैं वह सच में पूरी तरह नामर्दों की है। यहाँ मेरे अलावा मर्द नाम का कोई जीव नहीं है। बल्कि यूँ समझिए कि यह मुर्दापरस्तों की बस्ती है। यहॉ केवल मेरा अपना कानून चलता है पुलिस का नहीं। यहाँ मेरे रहते आपको दूसरा कोई बचाने हरगिज न आएगा। यकीन न हो तो शोर मचाकर भी देख लीजिए। इस मुहल्ले में आपकी चीख-पुकार सुनने वाला कोई नहीं है। मेरे डर के मारे लोगों का हाड़ काँपता है। यहाँ आपकी रक्षा सिर्फ मैं कर सकता हूँ। मेरी बात मानोगी तो मौज करोगी। तभी यहाँ चैन से रह भी पाओगी। सच कहता हूँ तुम्हारी सूरत देखकर मैं वाकई पगला गया हूँ।
यह सुनते ही सोनालिका बड़ी उलझन में पड़ गई। उसकी समझ में कतई न आ रहा था कि अब मैं क्या करूँ और क्या न करूँ? वह अंदर ही अंदर मन मसोसकर रह गई। उसका सिर चकराने लगा। खुद को एकदम असहाय और अकेली पाकर वह तड़प उठी। उसका कलेजा कचोट उठा। वह सोचने पर विवश हो गई कि वास्तव में बिना पिता और पति की छाया के स्त्रियाँ अपनी रक्षा करने में सचमुच कितनी बेबस होती हैं। एक चाकूबाज और पिस्तौलधारी बदमाश के सामने अपनी विवशता देखकर सोनालिका छटपटा उठी। अगर उसका वश चलता तो उस समय वह उसकी जान ले लेती वरना अपनी जान दे देती मगर वह कुछ भी करने में बिलकुल असमर्थ थी।
इसके बाद कुछ हिम्मत जुटाकर वह सहमते हुए बोली-और अगर में आपकी बात मानने से इनकार कर दूँ तो इसका मतलब आप मेरे साथ अपनी मनमानी करेंगे यही न?
तब जग्गू गरजकर बोला-देवी जी, आप बिल्कुल ठीक कह रही हैं। दरअसल कुछ ऐसा ही समझ लीजिए। जो वस्तु मुझे पसंद आ जाती है उसे हासिल करना भी मुझे खूब आता है।
जग्गू की धृष्टता देखकर सोनालिका नागिन की भांति फुफकारते हुए बोली-अगर ऐसी ही बात है तो महाशय, तनिक कान खोलकर आप भी मेरी एक बात सुन लीजिए। मेरे पतिदेव इस वक्त घर पर मौजूद नहीं हैं। वह अपने आफिस में हैं। ऐसे में मेरी जैसी किसी बेबस महिला के घर में आना आप जैसे मर्द को शोभा नहीं देती है। मेरी मानिए जितनी जल्दी हो सके कृपया आप यहाँ से चले जाइए। इसी में मेरी और आपकी भलाई है नहीं तो अभी मैं आत्महत्या कर लूँगी। आपको यह मालूम ही नहीं कि आपके यहाँ आने से नाहक ही मेरी कितनी बदनामी होगी? अनायास ही मेरी जग हँसाई कराकर आपको भला क्या मिलेगा? भारतीय नारी इतनी कमजोर नहीं होती है जितना आप समझते हैं। वह जरूरत पड़ने पर अपनी जान दे भी सकती है और किसी की जान ले भी सकती है। आप मेरी बात को तनिक ठंडे दिमाग से समझने की कोशिश कीजिए। मैं एक असहाय अबला हूँ। मुझ जैसी अबला को घर में अकेली पाकर बेमतलब सताएंगे तो परमात्मा आपको कभी माफ नहीं करेगा। मैं हाथ जोड़कर आपसे विनती करती हूँ जरा ईश्वर से डरिए मेरी जिंदगी तबाह और बर्बाद मत कीजिए। अपने कर्मों का फल मनुष्य को एक न एक दिन भुगतना ही पड़ता है। आपको भी भुगतना पड़ेगा। औरत की बद्दुआ कभी खाली नहीं जाती है। मैं एकदम सच कहती हूँ आपके चलते यदि मेरे जीवन में कोई तूफान आता है तो उससे आप भी हरगिज न बच पाएंगे। मेरा सतीत्व आपको जलाकर राख कर देगा।
सोनालिका की कठोर वाणी सुनकर जग्गू बोला-अपना यह भाषण किसी और को जाकर सुनाइगा। मैं कोई दूध पीता बच्चा नहीं हूँ। ऐसी बातें मैं अक्सर आए दिन रोज ही सुनता हूँ। आज यहाँ मैं आपका भाषण सुनने नहीं बल्कि आपको अपने दिल की रानी बनाने आया हूँ। सीधे-सीधे मान गईं तो ठीक है वरन मुझे जबरदस्ती करनी भी आती है। आज तक ऐसा हुआ ही नहीं कि जग्गू जिस चीज को पाना चाहे वह उसे न मिले। मेरे विचार से इतनी मामूली सी बात के लिए खून-खराबा करना जायज न रहेगा। यहाँ आकर भला कौन कमबख्त खाली हाथ वापस जाना चाहेगा? इसके लिए में आपका और ठाकुर साहब का खून भी कर सकता हूँ। यहाँ रहना है तो मुझे खुश रखना ही होगा। मैडम, एक बात और अब मैं कुछ करूँ या न करूँ आपकी बदनामी तो हो ही चुकी है। आपके माथे पर अब कलंक का टीका लग चुका है। आस-पड़ोस के लोग कल से आपको एक सती नहीं बल्कि चरित्रहीन ही समझेंगे। वे ताने मार-मारकर आपको घायल कर देंगे। लगता है इस दुनिया को अभी आप भलीभांति नहीं जानती हैं। आप सचमुच बहुत भोली हैं। आजकल के लोग इतने विचित्र हैं कि वे आपको सुकून से कतई जीने न देंगे।
इधर सोनालिका और जग्गू को आपस में वाद-विवाद करते-करते घंटों गुजर गए। उधर महेंद्र प्रताप के पड़ोसी मिलकर बेचारी सोनालिका को अपने स्वाभिमान से बिल्कुल गिरी हुई दागी चरित्र की साबित करने में जुटे हुए थे पर किसी माई के लाल में इतना दम न था कि उस दुष्ट का कान पकड़कर उसे मजबूर सोनालिका के घर से बाहर कर सके और पूछ सके कि आखिर वह उसे इस प्रकार परेशान क्यों कर रहा है? क्या यह भी कोई भलमंसी है।
एक कुलीन स्त्री के आगे अपना कोई वश न चलते देखकर जग्गू नेत्र लाल-पीले करके बोला-अब अपनी यह बकवास बंद भी करो वरना तुम्हें अभी काटकर फेंक दूँगा। इतना ही नहीं तुम्हारे पति परमेश्वर को भी रास्ते में ही गोली मारकर खत्म कर दूँगा। कोई मेरा बाल भी बाँका न कर पाएगा। तुम अभी बिल्कुल अनाड़ी हो। तुम्हारी इस नादानी पर मुझे रोना आ रहा है। मेरे बारे में कुछ भी नहीं जानती हो। मारकाट करना मेरा शौक भी है और पेशा भी। तरूणाई से लेकर अब तक रात-दिन मैं यही करता आ रहा हूँ। सच बात तो यह है कि मैं न तो स्वयं मरने से डरता हूँ और न किसी को मारने से। विश्वास न हो तो तुम एक बार इनकार करके भी देख लों। जब अपने परर्मेश्वर पर तुम्हें इतना ही भरोसा है तो उसकी दुहाई क्यों दे रही हो? हमारी करनी का फल वह हमें देगा ही। तुम नाहक ही इतनी फिक्र क्यों करती हो?
इतना कहकर जग्गू ने एक पिचास की भांति जोर-जबरदस्ती सोनालिका की नारी मर्यादा को दिनदहाड़े ही तार-तार कर दिया। वह
अभागन सिसकती ही रह गई। उसने अपनी इज्जत बचाने का भरसक प्रयास किया परंतु हर हाल में विफल ही रही। उसकी दर्दनाक करूण चीख-पुकार सुनकर भी कोई मदद को आगे न आया। सब लोग दूर से ही एक नारी का सतीत्व लुटने का तमाशा देखते रहे। सोनालिका के खूबसूरत अंगों के साथ मनमर्जी खेलकर जग्गू झटपट घर से बाहर निकल गया।
अपना सब कुछ गँवाने के बाद उसकी हरकत से दुःखी होकर सोनालिका ने सोचा-इस तरह विवशता से भरी जिंदगी घुट-घुटकर जीने से बेहतर है कि लाओ जहर खोकर मर जाऊँ मगर फिर यह सोचकर कि आत्महत्या करना सबसे बड़ी बेवकूफी है वह सँभल गई। लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे? सोनालिका लज्जा के मारे सारे दिन बिस्तर में मॅुंह छिपाए पड़ी रही। रह-रहकर उसे यही महसूस होता कि अब मेरा जीना व्यर्थ है। क्या मेरे भाग्य में यही बदा था कि यहाँ आकर मेरे अरमानों की बलि ही चढ़ जाएगी और मैं किसी को अपना मुँह दिखाने के काबिल भी न रह पाऊँगी। वह अपने मन में बोली-हे ईश्वर, मैंने किसी का क्या बिगाड़ा था कि आज मुझे यह दुर्दिन देखना पड़ा। यह धरती फट क्यों नहीं जाती कि मैं उसमें समा जाऊँ।
उस पाजी की हरकत के चलते वाकई मैं स्त्री जाति के नाम पर एक कलंकिनी बनकर रह गई हूँ। इसी उधेड़बुन में सारा दिन किसी तरह जैसे-तैसे व्यतीत हो गया। दिन ढल गया और धीरे-धीरे शाम हो गई। ठाकुर महेंद्र प्रताप रोज की तरह अपने दफ्तर छूटने के बाद खरामे-खरामे सीधे अपने बंगले पर पहुंच गए। उन्हें देखकर सोनालिका ने पहले सोचा-लाओ उस दुष्ट जग्गू की सारी कारस्थानी पति को बताकर अपने हृदय पर लदे गमों के बोझ को मैं कुछ कम कर लूँ लेकिन फिर यह सोचकर रूक गई कि यह सब सुनकर मेरे स्वामी उसे बर्दाश्त भी कर सकेंगे या नहीं। कहीं ऐसा न हो कि मेरी आपबीती सुनकर वह बिना मतलब बिगड़ खड़े हों और देखते ही देखते बात का बतंगड़ बन जाए। मर्द जाति का क्या ठिकाना कि अपने जीवनसंगिनी की हृदयविदारक कष्टमय दास्तान सुनकर सहन कर सके। इससे वह अंदर से टूटकर बिखर सकते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि अपनी गृह-मर्यादा की खातिर वह हमेशा के लिए मेरा परित्याग भी कर सकते हैं। सच वाकई बहुत कड़वा होता है। उसे सुनना जितना सरल है सहन करना उतना ही कठिन। सच्चाई बताने के फेर में कहीं मुझे लेने के देने न पड़ जाएं। इनके मुँह फेरते ही मझ पर सचमुच मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ेगा। मेरा बसा-बसाया घर नाहक ही उजड़ जाएगा।
यह विचार करके अपनी पीड़ा के विषय में सोनाली ने ठाकुर साहब से कुछ भी कहना उचित न समझा। वह अपनी असहनीय पीड़ा अपने मन में लेकर अंदर ही अंदर घुटकर रह गई। प्रतिदिन की भांति वह भयावह रात भी शांतिमय ढंग से बीत गई। नई सुबह हुई और बाबू साहब नहा-धोकर चाय-नाश्ता करके अपने आफिस चले गए। उनके चले जाने के बाद सोनालिका सोचने लगी-परमात्मा का लाख-लाख शुकर है कि रात्रि बड़े आराम से गुजर गई वरना आज मैं कहीं की न रहती। शनैः-शनैः दिन के करीब दस बज गए। पति के घर से बाहर जाते ही सोनानी अपना दैनिक गृह-कार्य निपटाकर अपने कक्ष में विश्राम करने की गरज से द्वार बंद करने ही जा रही थी कि जग्गू न जाने कहाँ से फिर आ धमका।
उसे दुबारा अपने दरवाजे पर देखकर सोलिका एकाएक घबरा उठी। किसी की दासता स्वीकारते ही आधे गुण नष्ट हो जाते हैं। सोनाली भी एक बार जग्गू के चंगुल में फँस जाने से कमजोर पड़ गई। बहुत यत्न करने पर भी वह कपाट बंद करने में सफल न हो सकी। इतने में जग्गू उसे धकियाकर अंदर घुस गया। अपनी मनमानी करके वह फिर धड़ल्ले से बाहर निकल गया। इस प्रकार सोनाली आए दिन किसी न किसी बहाने हर रोज उसकी हवश का शिकार बनने लगी। इससे उसकी स्थिति बिल्कुल आगे कुआँ और पीछे खाई वाली हो गई। वह एक ऐसे दोराहे पर खड़ी हो गई जहाँ सत्य को छिपाने पर उसकी आबरूदिन-प्रतिदिन मिटती जा रही थी और दूसरी ओर सच का बयान करते ही घर,जीवन तबाह होने का जाखिम था। उसकी दशा सचमुच कितनी दयनीय थी? इसका अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है। आखिरकार यह क्रम चलते-चलते एक पखवाड़ा बीत गया।
इस संसार में सभी लोग एक जैसे नहीं होते। जग में एक ओर जहाँ ताकतवर होकर भी कुछ लोग किसी बेबश की मदद करने से कतराते हैं। जानबूझकर बुराई के सामने अपने चक्षुओं को बंद कर लेते हैं वही कुछ लोग ऐसे भी हैं जो शरीर से दुबले-पतले और कमजोर होने पर भी अपने जान की बाजी लगाकर दूसरों कें लिए लड़-मरते हैं। बाबू महेंद्र सिंह के एक गुजराती मारवाड़ी पड़ोसी थे सेठ गुलजारी लाल। वह बहुत ही सज्जन और उदार स्वभाव के बुजुर्ग पुरूष थै। सोनाली की व्यथा उनसे सहन न हुई। दिलों को दहला देने वाली उसकी मर्मान्तक पीड़ा देखकर वह बड़े विकल हो उठे। उसकी खौफनाक पीड़ा से उनका कलेजा कचोट उठा। अंततः उन्होंने अपने मन में फैसला कर लिया कि अब चाहे जो कुछ भी परिणाम हो जग्गू की दरिंदगी के बारे में ठाकुर साहब को हर हाल में बताना ही पड़ेगा। यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं बल्कि उनकी गृहस्थी से जुड़ा मामला है। वह सोचने लगे-जग्गू अब मेरे प्राण ही क्यों न ले ले। मैं बाबू साहब को आज सब कुछ साफ-साफ बताकर ही दम लूँगा। क्या कोई स्वाभिमानी और शरीफ व्यक्ति जीते जी मक्खी निगल सकता है? हरगिज नहीं। सेठ गुलजारी लाल घाट-घाट का पानी पी चुके एक पुराने खुर्राट थे। अपने नेत्रों के सामने एक ऊँचे ओहदेदार विनयशील पुरूष की पत्नी की सरेआम इज्जत लुटती देखकर वह अपना मन मसोसकर रह गए।
इसी तरह दो-चार दिन और गुजरे। सोमवार का दिन था और सबेरे के साढ़े आठ बजे का समय। ठाकुर महेंद्र प्रताप तैयार होकर अपने आफिस जाने के लिए घर से ज्यों ही बाहर निकले त्योंही गुलजारी लाल ने उन्हें टोक दिया। वह उनके निकट जाकर कान में धीमे स्वर में बोले-अरे भई बाबू साहब, मेरी बात का बुरा न मानिएगा परंतु बिना बताए आखिर मेरा दिल भी नहीं मानता है।
यह सुनते ही बाबू साहब कहने लगे-बताइए, बताइए बिल्कुल निःसंकोच होकर कहिए क्या कहना है? सेठ जी, आप जो कुछ भी कहना चाहते हैं एकदम खुलकर बताइए।
महेंद्र प्रताप का आश्वासन पाकर सेठ जी बेधड़क बोले-भइया, कुछ कहते हुए बहुत डर लग रहा है फिर भी कह रहा हूँ तनिक गौर से सुनिए। बाबू, आप अपने आदमी हैं इसलिए बता रहा हूँ अन्यथा सुबह-सुबह मैं आपसे कुछ भी न कहता। दरअसल बात यह है कि आप तो रोज सुबह अपनी ड्यूटी पर चले जाते हैं। घर में अपनी बिटिया एकदम अकेली रह जाती है। भई ठाकुर साहब, परमात्मा की सौंगंध खाकर कहता हूँ आज लगभग बीस-इक्कीस दिन बीत गए। जब आप अपने काम पर चले जाते हैं तब वह कमीना जग्गू उसे अच्छी तरह जानते ही हैं नालायक पीछे से बलात आपके मकान में दाखिल हो जाता है और डेढ़-दो घंटे बिताने के बाद यहाँ से फिर वापस जाता है। मेरे ख्याल से मामला कुछ गड़बड़ है। हाँ मुझे इतना शक अवश्य है कि उसने कभी अवसर पाकर हमारी बिटिया रानी को डरा-धमका दिया है। यही वजह है कि वह खुद आपसे कुछ कहने की साहस नहीं कर पा रही हैं। बाबू, आप एक शिक्षित और सुशील व्यक्ति हैं। आशा है आप उनकी परेशानी समझने की कोशिश करेंगे। मेरे विचार से आप कुछ ऐसा कीजिए कि साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। उस दुष्ट से अपना पीछा भी छुड़ा लीजिए और आपका घर भी बसा रहे। भई, कुछ भी हो मेरी बिटिया एकदम निर्दोष है। इस जुर्म में उसका कोई कसूर नहीं है। बेटा, मुझे जो कहना था सो कह दिया आगे आपकी मर्जी। हाँ, मेरी बातों पर यकीन न हो तो किसी दिन खुद आजमाकर देख लीजिए तब विश्वास कीजिए क्योंकि आँखें बंद करके चलने वाला रास्ते से अवश्य भटकता है। इंसान को मार्ग का पता चलने के बाद ही उस पर चलना चाहिए।
यह सुनना था कि बाबू साहब बिगड़ खड़े हुए। जग्गू का कारनमा सुनकर वह एकदम जलभुन उठे। उनके नेत्रों से मानो चिंगारियाँ निकलने लगीं। उनका पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। वह आँखें लाल-पीली करके बोले-कोई बात नहीं चाचा जी, उस शैतान की यह हिम्मत? किन्तु मेरे गले एक बात कतई नहीं उतर रही है कि मेरी धर्म परायण पत्नी आखिर इस बात को मुझसे छिपा क्यों रही है? उन्होंने इस बारे में मुझे कुछ क्यों नहीं बताया? लगता है दाल मे कुछ काला जरूर है वरना ऐसी नौबत हरगिज न आती। वह कुलक्षणी चुपके-चुपके ऐश कर रही है और मुझे कुछ खबर ही नहीं। आपने सब कुछ हमें पहले ही क्यों न बता दिया? फिर भी कोई बात नहीं। थोडी देर से ही सही आपने हमें आगाह तो किया। आपको बहुत-बहुत धन्यवाद। मैं आपका आजीवन आभारी रहूँगा।
इतना कहकर बाबू महेंद्र प्रताप एकदम ठकुआ गए। उनकी दशा बिल्कुल ऐसे हो गई मानो उन्हें काठ मार दिया गया हो। शानी मर्द किसी की बात भी बर्दाश्त नहीं करता है। कोई बात दिल में लग जाने पर वह किसी की जान ले भी सकता है और अपनी जान दे भी सकता है। पर, यहाँ बात कुछ और ही थी। वास्तव में बाबू साहब सच्चाई से कोसों दूर थे। अपनी मासूम अर्धांगिनी के विशय में उन्हें सच में कोई ज्ञान न था। वह दुविधा के शिकार हो गए। वह अन्यायी जग्गू को तो कोई सबक सिखाने का साहस तो कर न सके उल्टे उन्होंने बिना विचारे ही एकतरफा फैसला करके सोनालिका को त्यागने का मन बना लिया। उनके दिल में संदेह घर कर गया।
उस दिन महेंद्र प्रताप अपनी ड्यूटी पर न जाकर सत्य जानने की गरज से इधर-उधर ताकझाँक करके ही समय गुजारने लगे। वह कभी इधर आते तो कभी उधर चले जाते। बाबू साहब चुपके से एक चाय की दूकान पर जाकर बैरे से बोले-भाई, तनिक एक बढि़या खुशबूदार चाय पिलाना हाँ मलाई मारकर। तभी उनकी निगाह अचानक अपने मकान की ओर मस्ती से आते जग्गू पर जाकर अटक गई। वह नजर बचाकर सोनाली और जग्गू की हरकतों को ताड़ने में जुट गए। तब तक उन्होंने देखा कि जग्गू लपककर आया और चुपचाप उनके घर में घुस गया। यह देखकर बाबू साहब का खून खौल उठा। उन्होंने मन में सोचा-कोई स्त्री अपना मान-सम्मान अपनी मर्जी से ही गँवा सकती है वरना किसी मर्द की क्या मजाल कि उसकी आबरू से खिलवाड़ करने की जुर्रत भी कर सके।
वह झल्लाकर अपने अपने आप से बोले-अच्छा तो यह बात है। मेरे पीठ पीछे ऐय्याशी का खेल चल रहा है। बाप रे बाप मैं अपनी इन आँखों से यह सब क्या देख रहा हूँ? आदर्शविहीन स्त्री नाविक रहित जहाज के समान होती है। जरा इस औरत का त्रियाचरित्र तो देखिए। यह दुष्टा दिनदहाड़े मेरी पीठ में छुरा भोंककर एक गैर मर्द के संग गुलछर्रे उड़ा रही है। हे भगवान, इसे हमने क्या समझा और क्या पाया? मेरी गृह मर्यादा ही हमारे घर की मान-मर्यादा को यहाँ नीलाम कर रही है।
अब विधि का विधान देखिए, बाबू साहब चाय की दूकान पर ही बैठे-बैठे माथापच्ची करके अपना समय नष्ट करते रहे और जग्गू उनकी गृह मर्यादा को मनमर्जी रौदता रहा। अपनी मान-मर्यादा सरेआम लुटती देखकर वह इतने व्यथित हुए कि उसके वापस जाने के बाद भी अपने जाने की शक्ति न जुटा सके। शत्रु से लड़ने से पहले ही जो अपनी पराजय से डरता है उसकी हार निश्चित ही है। वह सारे दिन वहीं बैठकर एक दीन-हीन, कमजोर पुरूष की भांति सोनाली और जग्गू को कोसने लगे। जब दफ्तर से घर लौटने का समय हो गया तब बाबू साहब वहाँ से भारी मन से उठे और मारे क्रोधावेश के जलभुनकर सोनालिका के पास पहुंचे। हाँ इतना जरूर है कि उन्होंने आवेश में उससे कुछ कहा नहीं। अपने मन के भावों को बड़ी चतुराई से छिपाकर हमेशा की तरह वह बिल्कुल अनजान बने रहे जैसे उन्हें कुछ पता ही नहीं। सोनालिका के जी में सदैव बार-बार आता कि पति से अपने गुनाहों को छिपाना घोर पाप है। लाओ इन्हें स्पष्ट रूप से सब कुछ बता दूँ लेकिन अपने जीवन की होने वाली बर्बादी को सोचकर वह रूक जाती।
अगली सुबह पति-पत्नी की जब नींद खुली तो ठाकुर साहब सोनालिका का हाथ पकड़कर बड़े प्रेम से कहने लगे-प्रिये, चलो आज हम लोग कहीं घूमने-टहलने चलते हैं। दफ्तर जाने को मन नहीं कर रहा है। आज तुम ऐसी बढि़या साड़ी, ब्लाउज पहनो जो सच में तुम्हें बहुत पसंद हो। यह सुनते ही सोनाली स्नान-ध्यान करके अपने पतिदेव के साथ सैर-तफरीह पर जाने के लिए झटपट तैयार हो गई। तत्पश्चात बाबू महेंद्र सिंह ने लपककर भाड़े की एक टैक्सी वाले को बुला लिया। उसके आते ही बाबू साहब और सोनालिका टैक्सी में बैठकर फुर्र से गायब हो गए।
टैक्सी में सवार होने के बाद ठाकुर साहब टैक्सी वाले से बोले-सीधे रेलवे स्टेशन के पास कालूपुर चलो। किन्तु पति को सदा देव स्वरूप समझने वाली पत्नी को अपने जीवन की नैय्या पार लगाने वाले बाबू महेंद्र प्रताप के मन में बसे पाप का कुछ आभास न हुआ। सोनालिका बेचारी बस यही जानती थी कि वह अपने जन्म-जन्म के स्वामी के साथ कहीं मौज-मस्ती करने जा रही है। वह मन-ही-मन बहुत रोमांचित और हर्षित हो रही थी। बाबू साहब के इशारे पर टैक्सी जाकर सीधे कालूपुर'' ही रूकी।
टैक्सी रूकते ही वह सोनाली से बोले-तुम जरा यहीं ठहरो हम अभी आते हैं और स्वयं उतरकर धड़धड़ाते हुए एक बड़े भवन में प्रविष्ट हो गए। महेंद्र प्रताप रेलवे स्टेशन के काफी निकट मगर आबादी से एकदम अलग कालूपुर इलाके की जिस बिल्डिंग में गए उसमें गटर जैसी एक कलंकित दुनिया आबाद थीै। वहाँ जिधर देखिए उधर वेश्यालय ही वेश्यालय मौजूद हैं।
कालूपुर, शहर की एक ऐसी बदनाम जगह थी जहाँ स्त्रियों की आबरू रूपयों के मोल बिकती है। वहाँ कोई ललना मजबूरीवश खुद बिकती है तो किसी को कोई दुष्टात्मा बेच जाता है। वहाँ चारों ओर का दृश्य देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानों वहाँ औरतों की खरीद और बिक्री का सजा हुआ कोई बड़ा बाजार हो। वहाँ जाकर उन्होंने एक कोठे की मालकिन गुलाब बाई से मिलकर अपनी जीवनसंगिनी सोनाली के बारे में सारी आपबीती सुनाकर उसे पच्चीस हजार रूपए में बेचने का सौदा पक्का कर लिया।
हालांकि पहले गुलाब बाई ने उन्हें ऐसा करने से बहुत रोका। उसने उनसे कहा कि सोनालिका ने जो कुछ भी किया हो सकता है उसकी कोई बड़ी मजबूरी रही हो। वह आपकी पत्नी है। उसे एक बार माफ कर दीजिए। उसे सुधरने का अवसर दीजिए। पश्चाताप की अग्नि में जल लेने दीजिए। जल्दबाजी में इतना बड़ा फैसला मत कीजिए लेकिन वह नहीं माने। अपनी जिद पर अड़े रहे। वह बोले-मौसी! मैं देखते हुए मक्खी नहीं निगल सकता। ऐसी कुलटा का क्या भरोसा? यह कल को मेरी जान भी ले सकती है। अब इस पर मुझे लेशमात्र भी यकीन नहीं रहा। उनका कलेजा नहीं पसीजा। तदंतर बयाने की रकम लेकर फौरन उसके पास वापस लौट आए।
तदंतर उन्होंने अपने मन के भावों को छिपाकर मुस्कराते हुए उससे कहा-सोनालिका, आओे अब चलो आज हम तुम्हें अपने एक अजीज मित्र से मिला लाते हैं।
तब सोनालिका बोली-जैसी आपकी इच्छा नाथ, चलिए। मैं आपकी अर्धांगिनी हूँ। आप मुझे जहाँ चाहें वहाँ ले चलें।
उस बेचारी अभागिन को यह आभास भी न था कि उसके जीवन का स्वामी और रक्षक ही जीवन भर के लिए उसे एक ऐसे दलदल में ढकेलने जा रहा है जहाँ से दुबारा सुरक्षित बच निकल पाना कठिन ही नहीं बल्कि नामुमकिन भी है। अंततः ठाकुर साहब अपनी पत्नी सोनालिका को लेकर गुलाब बाई के कोठे पर पहुँचे और उसके पास बिठा दिए। सोनाली को देखकर गुलाबो बाई बहुत प्रसन्न हुई। इसके बाद उन्होंने गुलाब बाई से खुसर-पुसर कुछ बात की और सोनालिका से बोले-प्रिये! तुम तनिक यहीं रूको, मैं अभी आता हूँ। इतना कहकर वह सोनाली को वहीं छोड़कर फौरन वहाँ से गायब हो गए।
उनका इंतजार करते-करते जब काफी समय बीत गया तब सोनाली ने गुलाब बाई से पूछा-मेरे प्राणाधार कहाँ गए हैं और अभी तक आए क्यों नहीं? वह कब आएँगे?
यह सुनते ही गुलाब बाई व्यंगमय मुस्कान के साथ बोली-अरी पगली! अब तू उसे भूल जा। यही तेरे लिए ठीक है। वह भड़वा अब यहाँ कभी नहीं आएगा। वह तुझे पच्चीस हजार रूपए में बेच गया है। यह सुनते ही सोनालिका धामिन की तरह छटपटा उठी। उसके मुँह से चीख निकल गई। वह फफक-फफककर रोने लगी। वह रोती हुई बोली-नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता। तुम झूठ बोल रही हो।
तब गुलाब बाई उसे समझाते हुए बोली-अरी! अब रोना-धोना बंद कर। रोने-धोने से कुछ नहीं होने वाला। आज से तेरा घर-द्वार यही है। तूने उसके साथ छल किया तो उसने तेरे साथ विश्वासघात किया। अब दोनों का हिसाब बराबर हो गया। जैसी करनी वैसी भरनी, इसमें रोने-गाने का क्या मतलब? अब तू यहाँ रहकर मजा कर। यहाँ तेरी प्यास शांत हो जाएगी। तुझे इधर-उधर भटकना नहीं पड़ेगा। यहाँ पानी पिलाने वाले एक से बढ़कर एक लोग आते हैं।
दिन जैसे-तैसे किसी तरह बीत गया। सूरज ढल गया और आहिस्ता-आहिस्ता रात हो गई। चारों ओर बिजली की रोशनी फैल गई। सूनसान रात में कोठों पर ग्राहकों का आना-जाना शुरू हो गया। कुछ भ्रमर गुलाब बाई के पास भी आए। वहाँ सोनालिका को देखकर रोमांचित हो उठे। उनके शरीर में बिजली सी दौड़ने लग जाती।
जैसे हरी-भरी घास को देखकर हिरन कुलाँचे भरने लगते हैं वैसे ही नई-नवेली कली को देखकर भ्रमर गुंजार करने लगे। वे एक-एक कर उसके आसपास मँड़राने लगे। गुलाब बाई ने उसे जबरदस्ती अँधेरी कोठरी में ठेल दिया। जिस प्रकार मदमत्त हाथी कमल-दल को रौंद डालता है उसी प्रकार अवसर मिलते ही उन्होंने उस कली को बड़ी बेरहमी से रौंद डाला।
वह बेचारी सिसकियाँ भरकर ही रह गई। उसकी आबरू सरेआम नीलाम हो गई। उसकी दुनिया उजड़ गई। वह कहीं की न रही। काश! ऐसा न होता। अदालत भी मुजरिम का पक्ष सुनने के बाद ही अपना निर्णय सुनाती है किन्तु यहाँ ऐसा हरगिज नहीं हुआ। जज ने मुजरिम का पक्ष सुने बगैर ही अपना निर्णय सुनाकर एक अबला पर बड़ा अन्याय किया। गृह-मर्यादा के नाम पर उसकी आवाज कोठों में ही दबकर रह गई। ठाकुर साहब ने अक्लमंदी का परिचय न देकर एक बड़ा गुनाह किया क्योंकि इसमें कहीं न कहीं उनसे भी चूक हुई थी। रहस्य का पर्दा हटते ही उन्हें जेलयात्रा करनी पड़ी।
संसार में अच्छे लोग भी हैं और बुरे भी हैं। एक दिन सोनालिका की मुलाकात एक ऐसे सज्जन पुरुष से हो गई जिनकी पत्नी दुनिया छोड़ चुकी थी। उनका नाम था भुवनेश कुमार। वह बहुत ही नेक ओर उदार पुरुष थे। सोनालिका को देखकर न जाने क्यों वह जिस मकसद से वहाँ लालायित होकर पहुँचे थे उसे भूल गए। उन्होंने उससे वहाँ पहुँचने का रहस्य पूछा। सोनालिका ने सब कुछ सच-सच बता दिया। तदोपरांत फिर मिलूँगा कहकर वह चुपचाप वहाँ से चले गए।
उनके एक मित्र पुलिस महकमे के एक अधिकारी थे। वह उनसे मिलकर उन्हें सोनालिका के बारे में बता दिए। अगले दिन पुलिस ने अकस्मात गुलाब बाई के कोठे पर छापा मारा। सोनालिका बरामद हुई। पुलिस उसे वहाँ से निकालकर बाहर ले आई। कीचड़ भरे दलदल से बाहर आते ही उन्होंने सोनालिका के आगे उससे अपना जीवन साथी बनने का प्रस्ताव रखा जिसे उसने सहर्ष मंजूर कर लिया। अब उसकी दुनिया फिर आबाद हो गई। घर की मर्यादा घर वापस आ गई।
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अर्जुन प्रसाद
वरिष्ठ अनुवादक
उत्तर मध्य रेलवे परियोजना इकाई
शिवाजी ब्रिज, नई दिल्ली-110001
a cheap movie story ..where females are not shown as victim of sexual abuse ..... and yes .. Bkuvnesh kumar the best suitable widower for a victimised woman ... thoughtfully written .. below average literature .
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