श्रीरामकथा के अल् पज्ञात दुर्लभ प्रसंग :- त्रिभुवन में मेघनाद ( इन् द्रजित् ) का वध कौन कर सकता था ? मानसश्री डॉ . नरेन्...
श्रीरामकथा के अल्पज्ञात दुर्लभ प्रसंग :-
त्रिभुवन में मेघनाद (इन्द्रजित्) का वध कौन कर सकता था ?
मानसश्री डॉ.नरेन्द्रकुमार मेहता
’’मानस शिरोमणि एवं विद्यावाचस्पति
हरि अनंत हरिकथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता।
रामचन्द्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लागि जाहिं न गाए॥
श्रीरामचरितमानस बाल 139-3
श्रीरामजी की अनंत श्रीरामकथाओं में मेघनाद वध की कथा विभिन्न रामायणों में एक जैसी वर्णित है। मेघनाद वध लक्ष्मणजी द्वारा हुआ ऐसा क्यों ? इसके क्या कारण थे ? श्रीलक्ष्मण द्वारा ही मेघनाद का वध किस प्रकार किया गया आदि इस कथा प्रसंग में वर्णित है।
महर्षि विश्वामित्रजी ने ताड़का वध के उपरांत श्रीराम-लक्ष्मण को एक विशेष मंत्र द्वारा दीक्षित किया। क्योंकि ये दोनों भाई अत्यन्त ही छोटे बालक थे। इस मंत्र को देने से इन्हें वन में क्षुधा व प्यास से मुक्ति मिल गई तथा मंत्र के प्रभाव से शक्ति एवं तेज प्राप्त हुआ।
तब रिषि निज नाथहिं जियँ चीन्ही। बिद्या निधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥
जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड 208 (ख) 4
महर्षि विश्वामित्र ने प्रभु (श्रीराम-लक्ष्मण को विद्या का भंण्डार समझते हुए भी (नर लीला को पूर्ण करने के लिये ऐसी विद्या दी, जिससे भूख-प्यास न लगे और शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो।
इसी प्रकार का वर्णन वाल्मीकीय रामायण में भी वर्णित है -
क्षुत्पिपासे न ते राम भविष्येते नरोत्तम।
बला मतिबलां चैव पठतस्तात राधव॥
गृहाण सर्वलोकस्य गुप्तये रधुनंदन । वा.रा.बाल सर्ग 22-8
हे नरश्रेष्ठ श्रीराम लक्ष्मण सहित तात रघुनंदन! बला और अतिबला का अभ्यास कर लेने पर तुम्हें भूख प्यास का भी कष्ट नहीं होगा। अतः रधुकुल को आनन्दित करने वाले राम! तुम सम्पूर्ण जगत् की रक्षा के लिये इन दोनो विद्याओं को ग्रहण करों। ये दोनों शक्तियाँ अयोध्यानगरी से डेढ़ योजन दूर जाकर पवित्र पावन सरयूनदी के दक्षिण तट पर महर्षि विश्वामित्र ने श्रीराम लक्ष्मण को दी थी। ये शक्तियाँ ब्रह्मा जी की पुत्रियाँ थी। इनके प्राप्त होने पर श्रीराम लक्ष्मण को राक्षसों के वध तथा 14 वर्ष के बनवास में भूख प्यास का कष्ट नहीं हुआ ।
इन कथाओं का मेघनाद वध से अत्यन्त ही निकट का संबंध है। पौराणिक कथानकों के अनुसार मेघनाद को माता दुर्गा ने वरदान दिया था कि तुझे वही व्यक्ति मारेगा जिसने 12 वर्षों तक नींद-नारी और अन्न का त्याग कर रखा हो।
आनन्द रामायण में मेघनाद को ब्रह्माजी के वरदान तथा मृत्यु के संबंध में उल्लेख है -
यस्तु द्वादश वर्षाणि निद्राहारविवर्जितः।
तनैव मृत्युर्निर्दिष्टा ब्रह्मणाऽस्य दुरात्मनः॥
आ. रा.-सारकाण्ड 11-176
लगभग ऐसा ही वर्णन नेपाली भानुभक्त रामायण में भी वर्णित हैं -
येती बिन्ति सुनी हुकूम हन गयो, जान्छू म मार्छू भनी॥
फेरी बिन्ति विभीषणै सरि गन्या,यस्तोछ यो वीर भनी।
खाँदै कत्ति नखाइ कृति नसुती, रात दिन् नियम् खुप गरी।
जस्को वर्त छ बाहृ वर्ष ज पुरूष, तेरा अगाड़ी सटी॥
भानुभक्त रामायण 19 वी शती युद्धकाण्ड 193
मेघनाद वध के प्रसंग में विभीषण ने श्रीराम से मार्ग रोककर कहा कि लक्ष्मण ऐसा वीर है जिसने बिना खाये पीये निरन्तर बारह वर्ष तक एक व्रत किया है। इद्रजित् (मेघनाद)एक मात्र लक्ष्मण के हाथों ही मारा जायेगा। ऐसा ही वरदान है। अतः श्रीराम लक्ष्मण को मेघनाद वध करने की आज्ञा दे।
गोस्वामी तुलसीदासजी कृत रामायण वेंकटेश्वर स्टीम प्रेस बम्बई टीकाकार पं. ज्वालाप्रसादजी मिश्र कृत टीका में लंकाकाण्ड में भी मेघनाद को देवी भगवती द्वारा 20 वर्ष की अवस्था में कठोर तप उपरांत वर दिया। वरदान में एक अद्भुत रथ उसे दे दिया जो किसी को युद्ध में मेघनाद को बैठा देख नहीं सकता था। उसे उसकी मृत्यु का भी कारण बताया गया था -
दोहा- जो त्यागे द्वादश नींद अन्न अरू नारि।
तासो मत करिये समर, सो तोहि डारै मारि॥
रामायण-वेकटेश्वर प्रेस बुम्बई लंकाकाण्ड दो-106
मेघनाद जिसने बारह वर्ष तक अन्न, नींद एवं स्त्री (नींद एवं नारी) का त्याग किया हो उससे युद्ध मत करना। जो इन तीनों को त्याग देगा वही तेरा काल बनकर वध करेगा।
एक समय श्रीराम अपनी सभा में विराजित होकर मुनियों के आगमन पर उनसे अनेेक कथाएँ सुन रहे थे। उस समय उन्होंने दक्षिण में निवास करने वाले अगस्त्य ऋषि से राक्षसों के इतिहास को बताने का आग्रह किया। ’’बँगला कृत्तिवास रामायण’’ में मेघनाद वध अगस्त्य ऋषि ने बड़ा ही रोचक प्रसंग का वर्णन किया है। मुनि ने कहा -रामचन्द्र तुमसे कहता हूँ कि इन्द्रजित् (मेघनाद) जैसा वीर त्रिभुवन में नहीं है। जो व्यक्ति चौदह वर्ष निंद्रित नहीं हुआ, चौदह वर्ष जिसने स्त्री सुख नहीं देखा, जो वीर चौदह वर्ष अनाहारी रहा, वहीं व्यक्ति मेघनाद का वध कर सकता था।
चौद्द वर्ष येर वीर थाके अनाहारे। इन्द्रजिते बधिकारे सेइ जन पारे।
श्रीराम वलेन मुनि, कि कहिले मुनि। चौद्द वर्ष लक्ष्मणेरे फल दिछि आमि॥
बँगला कृत्तिवास रामायण उत्तकाण्ड 30
श्रीराम ने कहा-मुनि आप क्या कह रहे है ? हम चौदह वर्ष तक लक्ष्मण का फल देते रहे है। सीता सहित वह चौदह वर्ष भ्रमण करता रहा है, तो कैसे लक्ष्मण ने सीता मुख नहीं देखा ? हम सीता के साथ रहा करते थे। लक्ष्मण दूसरी कुटिया में रहते थे फिर वह चौदह वर्ष तक कैसे निद्रित नहीं रहे ? हम कैसे इस बात पर विश्वास करें। अगस्त्य ने कहा-हे राम तुम लक्ष्मण को सभा में ले आओ तब इस बात की सत्यता की परीक्षा हो जावेगी। यह बात सत्य है या असत्य श्रीराम ने मंत्री सुमन्त्रजी कहा -शीघ्र जाकर लक्ष्मण को सभा में उपस्थित करो। सुमन्त्रजी जब लक्ष्मण जी के पास गये तब लक्ष्मण जी माता सुमित्रा की गोद में बैठे थे । सुमन्त्रजी ने श्रीरघुनाथ का सभा में पहुँचने हेतु सन्देश सुनाया।
लक्ष्मणजी ने मन में यह विचार आया कि श्रीराम संभवतः मेरे वन में हुए दुःखों के बारे में पूछेंगे। श्रीराम के समक्ष सुमन्त्रजी सहित लक्ष्मण सभा में जाकर उन्हें प्रणाम किया। श्रीरामचन्द्रजी ने लक्ष्मणजी से कहा- मेरी शपथ है ,मैं जो बात पूछूँ उसे सभा के समक्ष बताओ। हम तीनों चौदह वर्ष बनवास में एक साथ रहे। हे लक्ष्मण तुमने सीता का मुख कैसे नहीं देखा ? मुझे कुटिया में छोड़कर तुम रोज फल लाया करते थे। हमें फल देकर तुम कैसे अनाहारी रहते थे ? वन में तुम्हारी दूसरी कुटिया में रहते हुए, चौदह वर्ष तुम कैसे सोये नहीं, निंद्रित नहीं हुए ?
इन सब बातों को सुनकर लक्ष्मण जी ने श्रीराम से कहा-हे राजीव लोचन!सुनिए, जब पापी, दुष्ट राक्षस रावण ने सीताजी का हरण किया। हम दोनों रोते-रोते वन में भ्रमण करते थे। उस समय ऋष्यमूक पर्वत पर माता सीता के आभूषण पाकर जब आपने सुग्रीव के समक्ष पूछा था। लक्ष्मण ये सीता के आभूषण है या नहीं ? तब हे प्रभु मैं हार या केयूर को पहचान नहीं पाया। केवल चरणों में नूपुरों को पहचान सका था। यही बात वाल्मीकीजी द्वारा रामायण में वर्णित की गई है
एवं मुक्तस्तु रामेण लक्ष्मणो वाक्यमब्रवीत्
नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले॥
नुपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात्॥
वा.रा.किष्किन्धाकाण्ड , सर्ग 6-22
श्रीराम ने सुग्रीव द्वारा वस्त्र में रखे सीताजी के आभूषणों को पहचानने को कहा गया तब लक्ष्मण बोले-भैया मैं इन बाजूबन्दों को नहीं जानता और नहीं कुण्डलों को ही समझ पाता हूँ कि किसके है? किन्तु प्रतिदिन भाभी के चरणों में प्रणाम करने के कारण मैं इन दोनों नुपुरों को अवश्य पहचानता हूँ।
प्रभु यह सत्य है कि हम तीनों एक साथ वन में रहते थे किन्तु मैंने माता सीता के श्री चरणों को छोड़कर उनके वदन को न देखा।
मैं चौदह वर्ष कैसे निद्रित नहीं हुआ, हे रघुनाथ सुनिये आपको बताता हूँ। आप और जानकीजी कुटिया में रहते, मैं हाथ में धनुष बाण लेकर द्वार पर रखवाली करता था। मेरे नयनों को जब निद्रा ने आच्छान्न कर लिया तो मैंने क्रोधित होकर निद्रा को एक बाण से भेद दिया। मैंने कहा-निद्रा देवी मेरा उत्तर सुनो, यह चौदह वर्ष तुम मेरे समीप न आना। जब रामचन्द्रजी अयोध्यापुरी में राजा होगे माता जानकी श्रीरामचन्द्र के बाँये आसीन होगी मैं छत्रदण्ड हाथ में लेकर दाहिनी ओर खड़ा रहूँ। हे निद्रा देवी उसी समय तुम मेरे नयनों में आना। हे प्रभु आपसे कहता हूँ, जब आपके बाँये माता जानकीजी सिंहासन पर विराजमान थी तो मैं छत्र धारण कर खड़ा हुआ था तो मेरे हाथ से छत्र फिर गिर पड़ा था। मैं उस व्याप्त निद्रा पर हँसा तथा लज्जित भी हुआ।
मैं चौदह वर्ष अनाहारी था प्रभु उसका प्रमाण आपसे निवेदन करता हूँ मैं जंगल में जाकर फल लाया करता था। प्रभु आप उनके तीन भाग करते थे। हे राजीवलोचन! आपको स्मरण होगा या नहीं, आप मुझसे कहते-लक्ष्मण फल रख लो ? मैं उसे अपनी कुटिया में लाकर रख देता। हे प्रभु आपने मुझे कभी भी खाने के लिये नहीं कहा। बिना आपकी आज्ञा के मैं कैसे आहार करता। चौदह वर्षों से वहीं फल ऐसे ही पड़े रहे। श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा कि फल कैसे रखे है ? तुम इस सभा में ला दो ? लक्ष्मणजी ने श्रीहनुमान् से वन में जाकर फल लाने को कहा। हनुमान्जी ने एक तूण में फल भरे हुए देखा। हनुमान् ने मन मे विचार किया कि यह कार्य तो कोई भी साधारण वानर जाकर फल लाकर सभा में दे सकता था। प्रभु ने हमें इस तुच्छ कार्य हेतु भेजा। जब हनुमान्जी को जरा सा अहंकार हुआ तो फल का वह तूण कई लाख गुना भारी हो गया। हनुमान्जी उठाना तो दूर हिला भी नहीं सके। इसके पश्चात् श्रीराम ने लक्ष्मण को तूण सहित फल लाने को कहा। लक्ष्मण जी पलभर में बाँये हाथ से तूण फल सहित उठाकर सभा में ले आये।
श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा चौदह वर्ष के फलों की गणना करो। लक्ष्मणजी ने एक-एक कर सारे फलों की गिनती की। केवल सात दिनों के फल नहीं मिले। श्रीराम ने कहा-प्राणप्रिय लक्ष्मण तुमने सात दिन तो फल खाये। लक्ष्मण ने कहा-हे प्रभु सुनिये उन सात दिनों का संग्रह किसने किया था? जिस दिन पिता के वियोग के समाचार से हम विश्वामित्र के आश्रम में निराहार रहे थे। उस दिन फल संग्रह नहीं किया था । शेष छः दिन के बारे में सुनिए। जिस दिन पापी रावण ने सीताजी का हरण किया, उस दिन अत्यन्त दुःखी होने के कारण फल कौन लाता ? जिस दिन इन्द्रजित ने नागपाश में बाँधा था। उस दिन भर अचेत रहे इससे उस दिन फल नहीं ला सका। चौथे दिन की बात आपके चरणों में निवेदन करता हूँ चौथे दिन इन्द्रजित ने माया सीता को काटा था उस दिन शोक रूपी अग्नि में दोनों भाई दग्ध होने के कारण हम फल नहीं ला सके। हे प्रभु स्मरण कर विचार करे। प्रभु और एक दिन की बात स्मरण है अथवा नहीं आप और मैं दोनों पाताल में महिरावण के यहाँ बंदी थे। इस बात के साक्षी पवननन्दन है। उस दिन फलों का संग्रह नहीं किया था। जिस दिन रावण ने मुझे शक्ति मारी थी प्रभु आप उस दिन मेरे शोक से अधीर हो उठे थे। प्रभु मैं नित्य ही फल लाता था किन्तु यह दास मूर्छित पड़ा था अर्थात फल नहीं लाये गये सातवें दिन की बात क्या कहूँ जिस दिन रावण के वध के कारण अपार आनन्द था सभी लोग आनन्द उत्सव में चँचल हो उठे थे उसी हर्ष के परिणामस्वरूप फल लाना चूक गया। हे नारायण आप विचार कर देखें, ये चौदह वर्ष हमने कुछ नहीं खाया। आपके मन में यहीं धारणा थी कि लक्ष्मण नित्य फल खाता है।
आपको हमारी पूर्व कथा विस्मृत हो गई कि हम दोनों को विश्वामित्र ने मंत्र दिया था जिससे भूख-प्यास नहीं लगती थी। महर्षि विश्वामित्र की दी गई मंत्रशक्ति से ही चौदह वर्ष उपवासी रहा। इसी कारण इन्द्रजित् मेरे बाणों से मारा गया। यह सुनकर श्रीराम के नेत्रकमलों से आसुओं की धारा बह निकली तथा उन्होंने भाई लक्ष्मण को गोद में बैठा लिया।
तीनों लोक जानते हैं कि इन्द्रजित् दुर्जेय था। लक्ष्मणजी ने उसका वध किया,यह अपूर्व कथा है।
इस कथा द्वारा हम सभी पाठकों को संदेश मिलता है कि मानव जीवन में नींद-नारी-आहार की अति सर्वदा सर्वनाश का कारण है। सदा जागने वाला सजग अल्प आहारी तथा माया से दूर रहकर ही निर्धारित लक्ष्य पर पहुँचा जा सकता है। कुम्भकरण नींद लेने वाला तथा अति आहारी था ।इसलिये ही उसकी मृत्यु हुई। लक्ष्मण की कथा जीवन में सजगता कर्मठता-आज्ञाकारिता-भ्रातृप्रेम की अनूठी मिसाल है। आधुनिक काल में ऐसे भाई की कल्पना भी नहीं की जा सकती है क्योंकि वे ईश्वर के वरदान से ही जन्म लेते हैं। हर युग में राम जन्म लेते हैं परंतु लक्ष्मण जैसे परमवीर वीर योद्धा - कर्तव्यनिष्ठ पैदा ही नहीं होते हैं । ऐसे विरले महापुरूष वरदान स्वरूप ही पृथ्वी पर अवतरित होते हैं ।
इति
मानसश्री डॉ.नरेन्द्रकुमार मेहता
मानस शिरोमणि एवं विद्यावाचस्पति
Sr.MIG-103,व्यासनगर, ऋषिनगर विस्तार उज्जैन (म.प्र.)पिनकोड- 456010
Email:drnarendrakmehta@gmail.com
COMMENTS