जमाना जोर-जबरदस्ती का है। शिष्टता और सदाशयता के गुण ऐसे लापता है जैसे राजनीति से चरित्र और तीर्थस्थलों से भक्तित्व। अब ऐसे उद्योग भी खु...
जमाना जोर-जबरदस्ती का है। शिष्टता और सदाशयता के गुण ऐसे लापता है जैसे राजनीति से चरित्र और तीर्थस्थलों से भक्तित्व। अब ऐसे उद्योग भी खुल गए हैं, जिनका दफ्तर जोर-जबरदस्ती से चलता है।
भाई गिरी, उठाईगिरी,रंगदारी,हफ्ता वसूली, बूथकब्जाई वगैरह ऐसे ही जबरिया उद्योग हैं। चंदा उगाही उद्योग भी इसी कुटुम्ब में शामिल है। बल्कि यह उन सबसे पुराना, शातिराना और जाना-पहचााना उद्योग है।
पूरी संभावना है कि सम्राट विक्रमादित्य के समय में भी राजकर्मचारी मदनोत्सव के लिए जनता से चंदा वसूली करते होंगे। आगे बादशाह अकबर के जमाने में भी शाही-कुश्ती और कव्वाली के लिए खासो-आम से चंदा उगाही की जाती होगी।
चंदा-उद्योग के विकास के लिए किसी खास जलवायु की जरूरत नहीं पड़ती। सर्दी, गर्मी बरसात सभी मौसम अनुकूल होते है। यह बारामासी उद्योग है। महानगर हो या मात्र नगर, कस्बा हो या गांव यह सभी जगह फल फूल सकता है।
चंदा-उद्योग का संचालन चंदा-बहादुर या चंदावीर करते हैं। चंदा-वसूली बहादुरी या वीरता के बिना संभव नहीं है। देने वाला आसानी से टेंट नहीं खोलता। उसके लिए छल-बल, वाकपटुता और काफी धैर्य की साधना जरूरी है।
हमारे देश में कई सामान्य काम भी वीरता की सूची में शामिल हैं। रेल का रिजर्वेशन लेना हो, सरकारी दफ्तर में आवेदन जमा करना हो, थाने में रपट लिखानी हो ,कचहरी से स्टाम्प पेपर खरीदना हो या सस्ती राशन दुकान से राशन प्राप्त करना हो। मुद्रा अथवा मर्दानगी के प्रदर्शन के बिना कोई काम संभव नहीं है।
बेरोजगारी के इस दौर में चंदा-उगाही एक उच्चकोअी का उद्योग बन गया है। यह उत्सवधर्मी देश है। यहां बारहों महीने उत्सव होते रहते हैं। इससे चंदा बहादुरों की चांदी हो जाती है। वे साल भर चंदे की फसल काटते रहते हैं। गणेशोत्सव, दुर्गोत्सव, और रामलीला उत्सव देश के चिर स्थायी उत्सव है। इनकी चिर स्थायी चंदा समितियां हैं। जैसे दूध वाले से दूध और अखबार वाले से अखबार बंधा रहता है वैसे ही इन्होंने प्रत्येक घर से चंदा बांध रखा है। पता लगाने पर इनका सलाना टर्न-ओवर छोटी-मोटी फैक्ट्री से ज्यादा ही निकलेगा। यह संत-महंत प्रधान देश है। इसलिए यहां प्रवचन उद्योग खासी विकसित अवस्था में है। चक्काजाम, बंद, हड़ताल आदि की तरह देश में प्रवचनों का भी काफी जोर रहता है। चंदावीर यहां भी सक्रियता का जबर्दस्त परिचय देते हैं। भगवान विष्णु के हाथों में सुदर्शन चक्र होता है, वह असुरों का गला काटने का काम करता है। चंदाबहादुर अपने हस्तकमल में रसीद बुक धारण करता है। रसीदबुक लेकर वह हर सज्जन-दुर्जन के सामने जेब काटने प्रकट हो जाता है।
बाढ़, भूकम्प, अकाल आदि दुर्घटनाएं चंदा बहादुरों के लिए वरदान बनकर आती है। ऐसे अवसरों पर हर खड़ा, बैठा या लेटा व्यक्ति उसका सहज शिकार बन जाता है। जो महाबली परमाणु बम से भी नहीं डरता, वह चंदावीर की आहट पाते ही प्राणरक्षा के लिए अंडरग्राउंड होने में ही कल्याण समझता है।
हफ्ता भर पहले मैं भी कुछ जन्मजात चंदा बहादुरों के हमले का शिकार हो गया था।
वे तुफान की तरह घर में घुस आए, फिर बादलों की तरह गरजने लगे-चंदा निकालिए तीन सौ रूपए फटाफट। वे चार थे और चारों दिशाओं से मेरी नाकेबंदी कर ली थी। आचरण आतंकियों जैसा था। मेंने साहसकर पूछा-चंदा? वह किस लिए? उनका सरगना थानेदार जैसे रूतबे से बोला-साला किस वास्ते पूछता है रे? ए बांके बता इसे कायके वास्ते? बांके नामक बला ने मेरे सामने स्टूल पर एक पैर रखा और ठेठ दादागिरी के अंदाज में कहा- तू भाई से पूछता है, काय कूं? एक दफा बता देता है आपुन, आगे नहीं पूछने का, क्या? तुम्हारे कफन-दफन के वास्ते नहीं, कवि-सम्मेलन करा रेला, उसीच के वास्ते,समझा?
मुझे उनका अंदाज अच्दा नहीं लगा। मैंने नारजगी से कहा-कवि सम्मेलन तो इतिहास की चीज बन गए। अब कवि सम्मेलन होते हैं, बंदरों जैसी उछलकूद करने वाले। मुझे माफ कीजिए। वे हतोत्साहित नहीं हुए। चंदा-उद्योग के पुराने चावल थे। अब दादा नम्बर तीन बोला- खोपड़ी में लीद भरी है क्या बाप? माना कवि थोड़ी नौटंकी करते हैं। इसलिए कि कविता पसंद न आए तो नौटंकी हाजिर है ऐसे नहीं तो वैसे मनोरंजन होना चाहिए, बस।
चौथा क्यों चूकता, बोला- कवि भोलाराम भालू की जबर्दस्त डिमांड क्यों है? पट्ठा मैं भालू हूं लालू हूं न मालू हूं, किस जानलेवा अंदाज में पढ़ता है। कसम बाबा मटकी वाले की, श्रोता तो रोता श्रोतियां भी लोटपोट हो जाती हैं। कपड़ों तक की सुध नहीं रह जाती।
सरगना बोला-जास्ती टैम खोटा मत करो, चंदा तो तुम्हारे अब्बाश्री को भी देना पड़ेगा। शहर की नाक का सवाल है।
मुझसे गुस्सा संभाला न गया। मैंने तीखे स्वर में पूछा- पिछले बार पूरे पैसे नहीं मिलने पर मंच पर ही हंगामा खड़ा कर दिया था, कवियों ने। किस नाक की बात कर रहे हो तुम?
सरगना ने शर्मिंदा हुए बिना ढिठाई से कहा- सालों की होटल में हमने वो धुलाई की थी कि लांड्री क्या करती ? वैसे भी वे शहर के नाम भूलने से रहे।
मैंने हथियार नहीं डाले, ऐसी बदतमीजी से कौन दुबारा आना पसंद करेगा?
चारों ठहाका मार कर हंसे। सरगना बोला-हम जिसे एक बार बुलाते हैं, दुबारा चांस नहीं देते। देश मवेशियों की तरह कवियों से भी भरा है। आजादी के बाद दो ही चीजों का तो देश में विपुल उत्पादन हुआ-करप्शन और कवि।
मैंने व्यंग्य किया-तीसरे हैं, चंदा चक्रवर्ती , उन्हें क्यों भूल रहे हैं?
सरगना ने घड़ी देखी और कहा-शैतान के शार्गिद ने पच्चीस मिनट बर्बाद कर दिए। अब तक छः-सात निपट जाते। थोबड़े पर तीन सौ की रसीद मारो और बता बदमिजाज को कि हमें खाली हाथ लौटाने वाला आज तक पैदा नहीं हुआ।
चंदा-वसूली का रजत जयंती वर्ष है हमारा, कहकर एक दादा ने मेरी आंखों से चश्मा खींचकर जमीन पर पटक दिया। दूसरे ने गला पकड़कर कुरता फाड़ दिया। तीसरा कुर्सी से खींचने लगा तो मेरे होश ठिकाने आ गए।
मैंने कहा-जालिमों ले लो रूपए।
सरगना बोला-अब पांच सौ लगेंगे। पांच रसीदों का टैम खोटा किया है तूने।
कुरता फाड़ने के बाद वे मेरी अशोकवाटिका (बैठक) उजाड़ने पर तुल गए थे। मैंने पेनाल्टी सहित रुपए चुका दिए।
चलते-चलते सरगना ने नसीहत दी कि नेक कामों में टोका-टाकी या आनाकानी उल्लू के पट्ठे करते हैं। अगले साल हमारे सम्मान का ख्याल रहे।
चंदा-उद्योग के चंदा मारी का कारवां गुजर गया और मैं गुबार देखता रहा।
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प्रस्तुति – बीरेन्द्र साहू.
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