भारत यायावर प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग आवास - यशवंत नगर, मार्खम कॉलेज के निकट, ...
भारत यायावर
प्राध्यापक, हिन्दी विभाग,
विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग
आवास - यशवंत नगर,
मार्खम कॉलेज के निकट,
हजारीबाग - 825 301 (झारखण्ड)
मोबाइल - 09835312665
ई-मेल - bharatyayawar@gmail.comआत्म-परिचय
जन्म - 29 नवम्बर, 1954 ई., हजारीबाग.
कविता-पुस्तकें - झेलते हुए (1980), मैं हूँ यहाँ हूँ (1983), बेचैनी (1990), ‘हाल-बेहाल’ (2004) एवं ‘तुम धरती का नमक हो’ (2015) प्रकाशित और चर्चित.
जीवनी - ‘नामवर होने का अर्थ’ (2012)
आलोचना - ‘नामवर सिंह का आलोचना कर्म’ (2013), ‘विरासत’ (2013), ‘रेणु का है अंदाजे बयां और’ (2014), ‘पुरखों के कोठार से’ (2016)
संस्मरण - ‘सच पर मर मिटने की जिद’ (2016)
खोज-कार्य - हिन्दी के महान् लेखक महावीर प्रसाद द्विवेदी एवं फणीश्वरनाथ रेणु की दुर्लभ रचनाओं का खोज-कार्य. इन दोनों लेखकों की लगभग पच्चीस पुस्तकों का संकलन-संपादन. ‘रेणु-रचनावली’ (1994) एवं ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली’ (1996) का संपादन.
अन्य संपादित पुस्तकें - ‘कवि केदारनाथ सिंह’ (1990), ‘आलोचना के रचना-पुरुष - नामवर सिंह’ (2003) एवं ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी का महत्त्व’ (2004)।
पुरस्कार - नागार्जुन पुरस्कार (1988)
बेनीपुरी पुरस्कार (1993)
राधाकृष्ण पुरस्कार (1996)
पुश्किन पुरस्कार (1997) मास्को
‘कवि’ पत्रिका में नामवर की रचनाएँ और आलोचना
भारत यायावर
उन दिनों नामवर सिंह की एक विवेकवान, मेघावी, कुशाग्र,
अध्ययन-मननशील आलोचक के रूप में पहचान बन चुकी थी, किन्तु उन्हें बहुत सारे लेखक कवि के रूप में ही पहचानते थे. और, दुर्भाग्य यह था कि उनकी कविताएँ कम छप पाती थीं. बहुत कोशिश करने पर भी उनका कविता-संग्रह नहीं छप पाया था. फिर भी 1957 ई. तक उनकी कविताएँ यदा-कदा छपती रहीं. जून, 1955 के ‘ज्ञानोदय’ में शमशेर एवं नामवर की कविताएँ एक ही शीर्षक के अन्तर्गत छपीं. ‘पार-अपार’ शीर्षक से प्रकाशित दोनों कविताओं में कितना अन्तर है, इसमें पार कौन है और अपार क्या है- कहना मुश्किल है.
पार-अपार
तुम कहाँ, किस पार से आये-
सत्य बनने या हृदय छलने?
सुबह के तारे
झिलमिलाते हैं
वक्ष पर सारे और सागर को
शान्त, चुप.
स्वप्न आते हैं
नींद में हारे
कांक्षा में लुक,
समय में सरके
क्यों समात हैं
हृदय में आकर
मौन के आकाश...सुप्त,
हताश?
तुम बताओगे-
कहाँ से आये
प्रेम के पथ पर
पाहुने बन कर
हृदय में अपने
सत्य को छलने?
-शमशेर बहादुर सिंह
नभ के नीले सूनेपन में
हैं टूट रहे बरसे बादर
जाने क्यों टूट रहा है तन!
बन में चिड़ियों के चलने से
हैं टूट रहे पत्ते चरमर
जाने क्यों टूट रहा है मन!
घर के बरतन की खन-खन में
हैं टूट रहे दुपहर के स्वर
जाने कैसा लगता जीवन!
-नामवर
1955 ई. में राजकमल प्रकाशन ने ‘मैला आँचल’ का नया संस्करण प्रकाशित किया और अक्टूबर महीने में फणीश्वरनाथ रेणु को इलाहाबाद बुलाया. ओमप्रकाश जी ने ‘मैला आँचल’ पर एक बड़ा आयोजन किया था, जिसमें नये-पुराने लगभग दो सौ लेखक जुटे थे. उन्होंने इस आयोजन में हजारीप्रसाद द्विवेदी एवं नामवर सिंह को भी बुलाया था. इसमें द्विवेदी जी तो नहीं आ पाये थे, किन्तु उन्होंने रेणु के नाम एक पत्र लिखकर नामवर सिंह द्वारा भिजवाया था. इस सन्दर्भ का पूरा विवरण पटना से 3 नवम्बर, 1955 ई. को मधुकर गंगाधर के नाम लिखे रेणु के पत्र से चलता है. इस पत्र के अंत में रेणु लिखते हैं- “गोष्ठियों में तेज व्यंग्य करने से नहीं चूका. शमशेर बहादुर ने सभी रिमार्कों को नोट किया है विस्तृत परिवेश के साथ. हिन्दू विश्वविद्यालय से प्रो. नामवर सिंह (प्रयोगशील कवि) आये थे पूज्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का पत्र लेकर. हिन्दू विश्वविद्यालय...दिसम्बर में आइये...आपकी...उन्हीं से मालूम हुआ हिन्दू विश्वविद्यालय में राज बुक्स की हैसियत से ‘मैला आँचल’ कोर्स में स्वीकृत करने का प्रस्ताव पेश है.”
यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि तब रेणु नामवर सिंह को एक ‘प्रयोगशील कवि’ के रूप में जानते और मानते थे. तात्पर्य यह कि नामवर सिंह की कविता को तब उनकी आलोचना से भी ज्यादा महत्त्व दिया जाता था. वे अपनी हर कविता में भाषा, शिल्प एवं वस्तु के स्तर पर प्रयोग करते थे. सच मायनों में वे एक प्रयोगधर्मा कवि थे.
1957 ई. में नामवर का कवि-स्वरूप फिर उभर कर आया. जनवरी, 1957 से विष्णुचन्द्र शर्मा ने बनारस से ‘कवि’ नामक पत्रिका निकाली. इसके कुल बारह अंक उन्होंने निकाले. जनवरी-फरवरी-मार्च, 1958 ई. (संयुक्तांक) में अंतिम अंक निकल कर यह बन्द हो गया. इसके हर अंक में एक कवि की कई कविताएँ उस अंक के विशिष्ट कवि के रूप में छापी जाती थी. इसके जनवरी, 1957 ई. के विशिष्ट कवि त्रिलोचन शास्त्री हैं, फरवरी अंक के केदारनाथ अग्रवाल, मार्च अंक के नामवर सिंह, अप्रैल अंक के गजानन माधव मुक्तिबोध, मई अंक के केदारनाथ सिंह, जून अंक की कीर्ति चौधरी, जुलाई अंक के रामदरश मिश्र, अगस्त अंक के नलिन विलोचन शर्मा, सितम्बर अंक के दुष्यंत कुमार, अक्टूबर अंक के भवानी प्रसाद मिश्र. इन दसों कवियों पर अलग-अलग लोगों ने आलोचनात्मक टिप्पणी भी लिखी थी. इस पत्रिका के संपादन में त्रिलोचन, नामवर, केदारनाथ सिंह, चन्द्रबली सिंह, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामअवध द्विवेदी, रामदरश मिश्र सक्रिय रचनात्मक योगदान देते थे. हर विशिष्ट कवि पर इन लोगों में से किसी एक ने आलोचनात्मक टिप्पणी लिखी है. इसके हर अंक में नामवर सिंह ‘विवेक’ स्तम्भ के अन्तर्गत कविता पर कवि-मित्र नाम से आलोचना लिखते थे. इस तरह ‘कवि’ पत्रिका में नामवर की कविता और आलोचना दोनों यहाँ पहली बार एक साथ उपस्थित हैं. यहाँ उसकी कुछ बानगी संक्षेप में प्रस्तुत है.
जनवरी, 1957 ई. में ‘भाव-चित्र’ शीर्षक से एक सॉनेट छपा है. दूसरा सॉनेट जुलाई, 57 के अंक में छपा है. उन्होंने त्रिलोचन की भूमि पर रोला छंद में इन्हें लिखा था. ये दोनों सॉनेट इस प्रकार हैःं
एक
बुरा जमाना, बुरा जमाना, बुरा जमाना
लेकिन मुझे जमाने से कुछ भी तो शिकवा
नहीं, नहीं है दुख कि हुआ क्यों मेरा आना
ऐसे युग में जिसमें ऐसी ही बही हवा
गंध हो गयी मानव की मानव को दुस्सह
शिकवा मुझको है जरूर लेकिन वह तुमसे-
तुमसे जो मनुष्य होकर भी यों गुम-सुम से
पड़े कोसते हो बस अपने युग को रह-रह
कोसेगा तुमको अतीत, कोसेगा भावी
वर्तमान के मेधा! बड़े भाग से तुमको
मानव जय का अंतिम युद्ध मिला है, चमको
ओ सहò जन-पद-निर्मित चिर पथ के दावी!
तोड़ अद्रि का वक्ष शुद्र तृण ने ललकारा
बद्ध गर्भ के अर्भक ने है तुम्हें पुकारा.
दो
दोस्त, देखते हो जो तुम अंतर्विरोध-सा
मेरी कविता कविता में, वह दृष्टि-दोष है.
यहाँ एक ही सत्य सहò शब्दों में विकसा
रूप रूप में ढला एक ही नाम, तोष है.
एक बार जो लगी आग, है वही तो हँसी
कभी, कभी आँसू, ललकार कभी, बस चुप्पी.
मुझे नहीं चिंता वह केवल निजी या किसी
जन-समूह की है, जब सागर में है कुप्पी
मुक्त मेघ की, भरी ढली फिर भरी निरन्तर.
मैं जिसका हूँ वही नित्य निज स्वर में भरकर
मुझे उठायेगा सहò कर पद का सहचर
जिसकी बढ़ी हुई बाहें ही स्वर शर भास्वर
मुझमें ढलकर बोल रहे जो वे समझेंगे
अगर दिखेगी कमी स्वयं को भी भर लेंगे.
फरवरी, 1957 के ‘कवि’ में ‘विवेक’ स्तम्भ में नामवर सिंह ने ‘कवि-मित्र’ नाम से लिखा-
“कहते हैं, कविता समझ में आने से पहले ही मन को छू लेती है. जनवरी की ‘युग चेतना’ में प्रकाशित रघुवीर सहाय की ‘प्रेम की कुछ कविताएँ’, केदारनाथ अग्रवाल की ‘आत्माभिव्यक्ति’ और ‘कवि’ में प्रकाशित त्रिलोचन की ‘दर्द’ तथा ‘प्रिय गान नहीं गा सका तो...’ पढ़ने पर पहले-पहल ऐसा ही अनुभव होता है. इनमें ऐसा ‘कुछ’ है जो सांकेतिक अर्थ-वस्तु-को स्पष्ट करने से पहले ही अन्तर्जगत के अस्पष्ट शिखरों को आलोकित कर जाता है. नई कविता की यह मोहक अस्पष्टता रहस्यवादी अस्पष्टता से भिन्न है. ये किसी परोक्ष सत्ता की ओर संकेत नहीं करतीं बल्कि हमारी अस्पष्ट अनुभूतियों की ओर संकेत करती हैं; अनाम भावनाओं को नाम देती हैं. रघुवीर सहाय में यह क्षमता सबसे
अधिक है. केदार की सांकेतिका संगीत तथा लय में हैं. त्रिलोचन में कुछ-न-कुछ ये दोनों विशेषताएँ दिखाई पड़ती हैं. इस विषय पर सूक्ष्मता से विचार होना चाहिए कि रघुवीर सहाय की ये तथाकथित ‘प्रेम की कविताएँ’ प्रेम की परिपाटी विहित कविताओं की सीमा से कहाँ अलग होती हैं और केदार की आत्माभिव्यक्ति व्यक्तिवादियों की आत्माभिव्यक्ति से किस प्रकार व्यापक हैं और त्रिलोचन का ‘दर्द’ अन्तर्मुखी कवियों के ‘दर्द’ से क्यों सशक्त है?
नवंबर की ‘कल्पना’ में प्रकाशित पुरुषोत्तम खरे की ‘माँ’ शीर्षक लंबी कविता भाषा और छंद की अनगढ़ता के बावजूद मन पर वत्सल करुणा की छाप छोड़ जाती है. ‘दर्द’, ‘आस्था’, ‘आत्मरति’ आदि की अन्तमुर्खी कोठरियों में बंद नये कवियों के लिए यह कविता व्यापक मानवीय संवेदना का मार्ग दिखलाती है.
ऐसी मार्मिक कविताएँ पढ़ने के बाद ‘राष्ट्रवाणी’ की दुकान पर ‘नई कविता’ के लेबिल से विभूषित दर्जनों कविताओं को देखकर जायका बिगड़ जाता है. ‘राष्ट्रवाणी’ ने जनवरी के अंक में तीन दर्जन कविताएँ एकत्र छाप कर दिखा दिया है कि ‘नई कविता’ सम्प्रदाय के नुस्खे क्या हैं? न ये ‘नई’ हैं और न ‘कविता’ ही. अनुकृति...अनुकृति...विकृति!
लक्ष्मीकान्त वर्मा ने ‘नई कविता ः यथार्थ के नये धरातल’ लेख और ‘नये साल का नया दिवस’ कविता लिखकर सोदाहरण समझा दिया है कि उनके यथार्थ का नया धरातल जुगुप्सा है.
लोग कहते हैं कि कविता समझ में आने से पहले मन को छू लेती है, दरअसल समझ न आने से पहले ‘राष्ट्रवाणी’ में आती या फिर ऐसे आलोचकों के घोषणा-पत्र में आती है.”
मार्च, 57 के ‘कवि’ में उनकी यह टिप्पणी गौर करने लायक है-
‘निकष’ पर
‘निकष’ के नये अंक में अज्ञेय की ‘सागर तट की सीपियाँ’ कविता इस धारणा को पुष्ट करती है कि अब वे अपने को दुहरा रहे हैं. सागर, सीप और रेत के प्रतीक क्या अभी तक नहीं घिसे? ‘रूप की प्यास’ में भी ‘दृश्य के भीतर से कुछ के उमड़ कर बोलने’ की बात हम सुन चुके हैं. यों वे कलाकार हैं, पुराने प्रतीकों को भी नया संदर्भ तो दे ही सकते हैं. लेकिन ‘बर्फ की झील’ का नया प्रतीक लेकर भी वे मार्मिक प्रभाव नहीं उत्पन्न कर सके, यह चिन्त्य है. सर्वेश्वर का ‘स्वयम् से साक्षात्कार’ कविता की उठान जितनी प्रभावशाली है, अंत उतना ही अकाव्यात्मक. भारती के पास गुनगुनी धूप, मोमबत्ती, कसे अंग जैसी थोड़ी सी पूँजी है, जो उनकी हर कविता में आने के लिए लाचार है, इसलिए ‘श्याम, एक थकी लड़की’ में इन्हें देखकर आश्चर्य नहीं होता.
हमेशा की तरह इस बार भी मुक्तिबोध ने अपने ‘सहचर मित्र’ का चित्रण किया है. जिस ईमानदारी के साथ मुक्तिबोध आत्म-समीक्षा करते हैं, वह अन्यत्र दुर्लभ है. और वही उनकी कविता का आकर्षण भी है. समझ में नहीं आता कि वह बहुत-सी कविताओं को एक कविता क्यों बना देते हैं.
लगे हाथों कुछ ऐसी रचनाओं की भी चर्चा कर लेनी चाहिए, जिन्हें ‘निकष’ ने ‘कविता’ कहकर उपस्थित किया है लेकिन हैं वस्तुतः अकविता. जाहिर है कि वीरेन्द्र कुमार जैन ‘अपने प्यारे कवि कीट्स की याद में’ उद्गार व्यक्त करने से अपने को न रोक सके. इसी तरह ‘मन्वन्तर’ जैसे बड़े विषय का भार उठाने से पहले राजेन्द्र किशोर को अपने अंतर में देख लेना चाहिए था. लक्ष्मीकांत वर्मा की रचना है ‘स्टैम्पीड’; वे जो लिख दें सब ‘नई कविता’ है. जगदीश गुप्त ‘शब्द-दंश’ में आज भी ‘गारुड़ी’ को बुला रहे हैं और ‘निकष’ के निर्णय से वह ‘नई कविता’ है.
अंत में तीन कविताओं का घोषणा-पत्र. हस्ताक्षर तीन ः कुँवरनारायण, मुद्राराक्षस और वसंत देव. समझ में नहीं आता कि इन्हें कविता कहें या घोषणापत्र? इन्हें नई कविता और घोषणापत्र का गौरव इसीलिए मिला है कि इनमें, सम्पादक के अनुसार, ‘क्षण’ का जिक्र है. राष्ट्रवाणी के सम्पादक वसंत देव ने तो भारती के प्रिय शब्द ‘मर्यादा’ का भी जिक्र किया है. यह दूसरी बात है कि कुँवरनारायण की कृति को छोड़कर अन्य दो कृतियाँ निर्दिष्ट क्षणवाणी दर्शन से एकदम अनजान है.”
अप्रैल अंक में ‘कवि-मित्र’ नामवर ने ‘आजकल’ के मार्च, 1957 अंक की कविताओं पर टिप्पणी लिखी-
‘आजकल’ की कविताएँ’
“नये चित्रों के द्वारा अतिपरिचित भावनाओं में भी किस तरह नया उन्मेष प्रकट किया जा सकता है, इसका ताजा नमूना अमृता प्रीतम का गीत- ‘तुम नहीं आए’. अंगूरों को लाली ‘छू’- गई, हवा के होंठों में ‘शहद’- भर गया, धरती ने ‘अंजलि’ जोड़कर नीले नभ की दया पी ली जैसे नये चित्र केवल चित्र नहीं हैं, भावना के नये दिक् भी हैं. हिंदी पाठकों को ऐसा प्रसन्न गीत सुलभ करने के लिए नागार्जुन बधाई के पात्र हैं. उन्हें अनुवादक की जगह रूपान्तरकार कहना चाहिए था.
ऐसी ताजगी हिंदी के नये कवियों में भी मिल सकती हैं, इसका प्रमाण है रामदरश मिश्र का गीत ः ‘तुम बिन’; जिसमें अमूर्त अभाव को भी विविध मार्मिक चित्रों द्वारा मूर्त कर दिया गया है. “तुम बिन लगता जैसे कोई त्योहार अजाने गया निकल” जैसी पंक्ति लोकगीतों के संस्कार-संस्कृत कंठ से ही निकल सकती है.
ऐसी कविताओं की ताजगी पर परदा डालने के लिए कुंठा-कुंठित कवि इन्हें कैशोर भावना की कविता कहते हैं. लेकिन ताजगी और कचाई में अन्तर होता है; सहजता सरलता से भिन्न होती है. इनमें विवेक करने के लिए कीर्ति चौधरी की ‘एकांत’ और ‘कई दिनों बाद’ जैसी कैशोर-सरल कविताएँ देखी जा सकती हैं. जब मन में कोई मूर्ति प्रतिष्ठित न हो पाई हो और अनजान दिशा में ही हाथ स्वयं जुड़ते हों तथा सुबह-सुबह उठने पर अपनी ही अंजलि में अपना मुख धर देर तक अपने से ही प्यार किया जाता है तो वह भावना किशोर-वय की कहलाती है. लेकिन किशोर भावना लिखी जाने से ही कविता कच्ची नहीं हो जाती; कच्ची होती है किशोर-भावना से लिखने पर. फिर भी नारी-मन का यह अबोध-अभाव प्यारा लगता है. कीर्ति की कविताओं का शायद यही आकर्षण है. स्त्री-कवि की यह जैवी सुविधा है.
लेकिन शकुंत माथुर हैं कि इस सुविधा का उपयोग न करके नाहक ‘आयति’ और ‘आयत्त’ के अवर्त्त में कूद पड़ीं. कविपक्षी को ‘कविमित्र’ इससे ज्यादा और क्या कहें?
परन्तु प्रयागनारायण त्रिपाठी और बालकृष्ण राव से ‘कविमित्र’ कुछ जरूर कहेंगे. अच्छा हो कि प्रयागनारायण अपने को अब अज्ञेय के ‘संस्पर्श’ और ‘चीड़-अहं’ से मुक्त कर लें. और राव साहब पहले अपने-आप को ही अपनी ‘पाषाण-कारा’ से मुक्त करें. मलार्में का वह सूत्र तो वे जानते ही होंगे कि कविता विचारों से नहीं लिखी जाती और विचारों में भी नहीं.”
मई अंक में ‘कवि-मित्र’ ने रघुवीर सहाय की कविता ‘वसंत’ पर टिप्पणी लिखी-
वसंत और पतझर
‘कल्पना’ में प्रकाशित रघुवीर सहाय की ‘वसंत’ कविता को हम बेखटके इस महीने की कविता कह सकते हैं. वैसे, वसंत पर वर्षों बाद एक कविता-सी कविता पढ़ने को मिली है. ऐसी कविताएँ हों तो बसंत भी हो. आज तो यही स्थित है कि मुर्गा न बोले तो सुबह ही न हो. यों भी, आधे से अधिक बसंत कवियों की सृष्टि हैं. इसलिए जिस कवि में सृष्टि-रचना की क्षमता होती है, वही हर नये बसंत की अनुभूति करा सकता है. रघुवीर सहाय का यह वसंत केवल उस धूप पर ऐन्द्रिय बोध जगाता है जिसमें गंध, स्मृति, ऊष्मा, पहचान, हवा वगैरह कुछ इस तरह घुल-मिल गई हैं कि समझ में नहीं आता कि यह क्या है. शब्द हैं ः “एक सुगंध है, बल्कि सुगंध नहीं एक धूप है, बल्कि धूप नहीं एक स्मृति है, बल्कि ऊष्मा नहीं एक पहचान है...” पढ़ते-पढ़ते बॉदलेयर की ‘करेस्पॉण्डेन्सेज’ कविता याद आ जाती है. और इसका छंद भी ‘और, और’ की आवृत्ति के साथ एक अनूठे अलस प्रवाह से चलता है, जो कि उन्मद आत्म-विस्मृति की अपनी लय है. सन, 52 के ‘प्रतीक’ में भी रघुवीर सहाय ने बसंत पर एक नायाब कविता लिखी थी.
‘ज्ञानोदय’ में आशा के विपरीत बहुत दिनों पर एक पढ़ने लायक कविता मिली, कुँवर नारायण की ‘तुमने देखा’, जिसकी आखिरी पंक्तियाँ न हों तो किसी उर्दू शायरी की शोखी का तर्जुमा मालूम हो. वे अंतिम पंक्तियाँ जो इसे ‘नई कविता’ बनाती हैं, वे हैं, “उस विरल क्षण की अद्वितीय व्याख्या में सदियों तक रहूँ.”
और उसी अंक में आशंका के अनुकूल मुंशी लक्ष्मीकान्त वर्मा की ‘परिशिष्ट’ कविता मिली जिसमें उन्होंने अज्ञेय के प्रति अपनी वफादारी दिखाने के लिए निःसंकोच भाव से ‘मुट्ठी से बालू गिराने’ वाला प्रतीक ले मारा है और यही इस कविता की विशेषता है.
‘राष्ट्रवाणी’ में सर्वेश्वर ने हमेशा की तरह एक आत्मविज्ञापन दिया है; ‘मैंने कब कहा’ जिसका निष्कर्ष है ‘मैं नया कवि हूँ’. कविमित्र कहते हैं कि मैंने यह कब नहीं कहा! देखकर अत्यंत खेद होता है कि इतने संवेदनशील कवि को नेताओं ने अपने विचारों के अनुवाद कार्य में फँसा दिया. कुछ ऐसा ही कार्य ‘नया पथ’ में केदार नाथ अग्रवाल ने ‘लेखक की स्वतंत्रता’ कविता
( ? ) में किया है! केदार का यह पुराना रोग है; कवियों को चाहिए कि वे गद्य भी लिखा करें, इससे कविता का कल्याण होगा.
जुलाई, 57 के ‘कवि’ में नामवर ने अज्ञेय के कविता-संग्रह पर समीक्षात्मक टिप्पणी लिखी-
नयी कविता ः एक सम्भाव्य भूमिका
अन्वेषी कवि यदि नये-नये चित्रों की खोज करते हैं तो प्रतिनिधि कवि कुछ चित्रों को युगचेतना का प्रतीक बना देते हैं. टी. एस. इलियट ने अंग्रेजी की नई कविता को ‘वेस्टलैंड’ और ‘हैलो मेन’ जैसे प्रतीक दिये लेकिन हिंदी की नई कविता में अभी उस प्रकार का एक भी व्यक्तित्व नहीं दिखाई पड़ रहा है. ले-दे कर एक अज्ञेय हैं जिन्होंने इस दिशा में कुछ प्रयास किया है. उनका ‘नदी के द्वीप’ धीरे-धीरे कुछ लोगों के लिए प्रतीक बन चुका है और इधर ‘सागर तट की सीपियों’ तथा ‘सेतु’ की भाषा में कुछ कवि सोचने लग गए हैं, जो उनके नये काव्य-संग्रह ‘इन्द्र धनु रौंदे हुए ये’ (सरस्वती प्रेस, इलाहाबाद) में क्रमशः
प्रधानता के साथ प्रस्तुत हुए हैं.
नई कविता के इन प्रतीकों की यह सीमा है कि इनका विषय नया कवि स्वयं ही है. कविता का विषय स्वयं कवि- और कभी-कभी स्वयं कविता ही- बन जाय, यह प्रवृत्ति निरंतर बढ़ती जा रही है जो एक इतिहासकार की दृष्टि में इस कविता के अन्त का सूचक है. अज्ञेय का ‘सीपी’ प्रतीक इस तथ्य को पूरी मार्मिकता के साथ उपस्थित करता है. युग के बालुका तट पर आज भी सृजनशील प्रतिभाएँ रौंदी हुई सीपियों के समान पड़ी हैं, जिनके मुख में अब किरकिराते रेत कन भरे हैं. कवि के अनुसार यही ‘रौंदे हुए इन्द्र धनु’ हैं.
‘हम रौंदे हुए हैं’ इसी अनुभूति का दूसरा प्रतीक है ‘सेतु’, जो सीपियों से इस मामले में विशेष है कि वह देश, काल और व्यक्ति की भिन्न सत्ताओं को जोड़ता है. यह सेतु भी एक प्रकार का रौंदा हुआ इन्द्र धनु ही है किन्तु यह छायावादी कवि का शून्य में लटका हुआ ‘आशा का सेतु’ नहीं है बल्कि ‘मानव से मानव का हाथ मिलने से बनता है’ और इसलिए सह सेतु ‘जो है और जो होगा’ उसको मिलाता है! यदि नये कवि की यह आशंका सच्ची है तो ‘नयी कविता की सम्भाव्य भूमिका’ इसी पथ से प्रारंभ होगी.
किन्तु इस संग्रह की अन्य कविताओं को देखने से अभी तो यही प्रतीत होता है कि अज्ञेय ‘चिर-वर्तमान के निमिष’ वाले क्षणवादी दर्शन में इस तरह बँधे हुए हैं कि इस भाषा से मुक्त होना ही उनके लिए सबसे बड़ी समस्या है. यही वजह है कि इस संग्रह की अधिकांश कविताएँ ‘शब्दार्थ’ की समस्या सुलझाने और अपने आलोचकों को उत्तर देने में ही भटक गई हैं. फलतः ‘इन्द्र धनु रौंदे हुए ये’ काव्य-संग्रह न होकर नई कविता का काव्य-शास्त्र हो गया है, जिसमें लक्ष्य भी है और लक्षण भी! और ये लक्षण भी प्रायः ‘निरलक्ष्य तीर से रहित धनुष की प्रत्यंचा की अनमनी टंकार हैं.’ सचमुच इससे ‘हाथ कुछ नहीं आता.’
जुलाई, 57 के ‘कवि’ में वाद-विवाद के अन्तर्गत ‘विचार-विनियम’ प्रकाशित किया गया-
विचार-विनिमय
‘अप्रैल-मई, 1957 के ‘नया पथ’ में प्रकाशित श्री केदारनाथ अग्रवाल की ‘लेखक की स्वतंत्रता’ शीर्षक कविता पर ‘कवि’ के पाँचवें अंक में ‘कवि मित्र’ ने जो विचार व्यक्त किया था, उस पर हमारे यहाँ श्री केदारनाथ अग्रवाल ने एक पत्र भेजा है. पूरा पत्र अत्यन्त विचारपूर्ण है परन्तु स्थानाभाव के कारण यहाँ हम उसका एक अंश ही उद्धृत कर रहे हैं; साथ ही कविमित्र का उत्तर भी दिया जा रहा है. ‘कवि’ ऐसे विचारों का स्वागत करता है.’ -विष्णुचन्द शर्मा
श्री केदारनाथ अग्रवाल के पत्र का अंश
...आप के कथन से स्पष्ट ज्ञात होता है कि मेरी वह कविता गद्य है- कविता नहीं. मैं कुछ सोच-विचार करने के बाद नहीं समझ पाया कि आखिर वह गद्य क्यों?
मैं समझता हूँ कि वह गद्य नहीं है. उस कविता का प्रवाह ही इसका प्रथम प्रमाण है. वास्तव में बात है कि उसमें गद्य की पदावली का प्रयोग है और वह तर्क और विचार को लेकर चली है जो तथ्य उसे गद्य के नजदीक ले जाता दिखता है, हालाँकि गद्य से काफी दूर रखता है. दूसरी बात यह है कि ‘लेखक की स्वतंत्रता’ की बात उसमें उसी तरह कही गई है जैसे अमूमन गद्य में कही जाती है. ‘उसी तरह कहने’ से तात्पर्य है विचारों की स्पष्टता तथा बोद्यगम्यता से. पद्य में अभी तक- कविता में- यही बात लोग अक्सर उलझाव से, इशारों से कहने के आदी रहे हैं. यदि बात को खोलकर लिखना गद्य है, कविता नहीं तो मैंने जरूर कविता नहीं लिखी- गद्य ही लिखा है.
कविमित्र का उत्तर
मेरी दृष्टि में ‘लेखक की स्वतंत्रता’ कविता की आरम्भिक सत्रह पंक्तियाँ काव्य हैं, शेष इकतीस पंक्तियाँ अकाव्य और वह भी आप ही के द्वितीय तर्क से. स्पष्ट कहना अ-काव्य नहीं है, एक ही कविता में एक बात संकेत से कहकर फिर उसे स्पष्ट करना अ-काव्य की ओर जाना है क्योंकि वह अपनी ही कविता का भाष्य करना है. ‘कवि लोग गद्य भी लिखा करें’ मेरे इस कथन का यही अभिप्राय था.
सितम्बर, 57 के ‘कवि’ में नामवर ने कविमित्र नाम से भवानी प्रसाद मिश्र के कविता-संग्रह ‘गीत-फरोश’ (1937-47 तक की कविताओं का संग्रह) की टिप्पणी लिखी-
भवानी प्रसाद मिश्र की कविताएँ
और कवि लिखते हैं, लेकिन भवानी प्रसाद मिश्र कविता कहते हैं. ‘जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख’ उनका मोटो है, जिसमें जोर शायद ‘तरह’ पर है. कविता में वे बोलचाल का लहजा भी ले आने की कोशिश करते हैं. इसका मतलब यह नहीं है कि वे एकदम नये छंदों का प्रयोग करते हैं. प्रचलित छंदों के पैटर्न पर ही वे बोलचाल का पैटर्न आरोपित कर देते हैं. यही उनका नया प्रयोग है और इसीलिए उन्हें प्रयोगशील कवियों में जगह दी गई है, अन्यथा भवानी हर तरह से बच्चन और दिनकर युग के कवि हैं.
बातचीत का यह लहजा बच्चन और दिनकर में भी देखा जा सकता है; साथ ही बच्चन-दिनकर के ‘रेटरिक’ से भवानी भी ग्रस्त हैं. लेकिन भवानी का अकर्षण उनकी निहायत बेतकल्लुफी में है, जो उनकी कविताओं को प्यारी व्यक्ति व्यंजकता से भर देती है. इसीलिए कहीं-कहीं उनकी कविताओं में व्यक्ति व्यंजक निबन्धों का-सा रस मिलता है. जगह-जगह वे ‘भवानी’ का उल्लेख करते हैं, जो खटकता कहीं भी नहीं. ‘घर की याद’, ‘नया साल’, ‘दहन-पर्व’, ‘तेरा जन्म दिन’ आदि कविताएँ इसी व्यक्ति व्यंजकता के स्पर्श से सप्राण हो उठी हैं और इस संग्रह की सबसे बड़ी उपलब्धि भी यही हैं.
लेकिन एक सीमा के बाद अकृत्रिमता भी कृत्रिम हो जाती है ः और लहजा भी लटका हो जाता है. खास तौर से जब उसे फलसफा बना दिया जाता है. वर्धा के सहजिया दर्शन को भवानी ने भाषा और लहजे तक ही लागू न करके जीवन और जगत को देखने तक फैला दिया अर्थात् ‘पढ़ो जरा कम, कातो ज्यादा’ तक. लिहाजा उन्होंने कपास की तरह कविता को भी कातना शुरू कर दिया. हल्केपन और सादगी के लिए उन्होंने कपास बना डाला. यही नहीं, वे ‘शब्दों के महल’ में कैद भी हो गए. सोचने लगे ‘कि मेरे शब्द अब मुझसे भी बड़े हो गए हैं.’ इसे मुगालता कहा जाय या मुबालगा. जो हो; जिस ‘गीत फरोश’ के साथ भवानी कविता के बाजार में आए, अब उसी के साथ यदि उनकी तमाम पुरानी कविताएँ भी आ गइर्ं तो इनका स्वागत ही करना चाहिए.
दस विशिष्ट कवियों में नामवर सिंह ने मुक्तिबोध एवं केदारनाथ सिंह की कविताओं पर टिप्पणी लिखी है.
अप्रैल, 57 के ‘कवि’ में विशिष्ट कवि मुक्तिबोध हैं और उनकी लम्बी कविता ‘ब्रह्मराक्षस’ का पहला ड्राफ्ट पहली बार यहीं छपा, नामवर की टिप्पणी के साथ. मुक्तिबोध की कविता पर की गयी उनकी टिप्पणी आज भी कितनी सारगर्भित लगती है-
गजानन माधव मुक्तिबोध
मुक्तिबोध, नई कविता के पाठकों के बीच, पूर्वपरिचित तो हैं लेकिन लोकप्रिय नहीं हैं; क्योंकि उनकी कविताएँ अक्सर लंबी होती हैं, उलझी दिखाई पड़ती हैं और बौद्धिक लगती हैं. इधर पाठक हैं कि उन्हें कविता के साथ माथापची करने का अभ्यास नहीं है. लिहाजा, नये कवियों में लोकप्रिय प्रायः वहीं हैं जो छोटी कविताएँ लिखते हैं और मुक्तिबोध, नई कविता के पाठकों के बीच, पूर्वपरिचित तो हैं लेकिन लोकप्रिय नहीं हैं; क्योंकि उनकी कविताएँ अक्सर लंबी होती हैं, उलझी दिखाई पड़ती हैं और बौद्धिक लगती हैं. इधर पाठक हैं कि उन्हें कविता के साथ माथापच्ची करने का अभ्यास नहीं है. लिहाज़ा, नये कवियों में लोकप्रिय प्रायः वहीं हैं जो छोटी कविताएँ लिखते हैं और वह भी ऐसी कविताएँ जिनमें दो चार ताज़ा चित्र हों या एक तीव्र भावना हो! ‘केसर रंग रंगे वन’ और ‘नवंबर की गुनगुनी धूप’ इन्द्रियों को तुरंत प्रभावित करती हैं; और ऐसी कविताएँ बहुत सफल समझी जाती हैं. निःसन्देह इस दिशा में प्रयोग करने वालों को सफलता जल्दी मिलती है और देखते-देखते अनेक नये कवि लोकप्रिय हो उठे हैं.
बात यह है कि ऐसे युग में जहाँ मान्यताएँ विवादग्रस्त और अनिश्चिच हों, ऐंद्रिय विषय ही निश्चित हैं और इन्हीं का यथातथ चित्रण संभव भी है. यही वजह है कि आज के
अधिकांश किशोर तथा किशोर-मति कवि प्राकृतिक चित्रों की खोज में विकल हैं. झंझटों से बच निकलने का यह आसान तरीका है. समाज से कम झंझट प्रकृति में है और प्रकृति में भी इन्द्रियग्राह्य प्रभावों के चित्रण से सबसे कम झंझट है.
मुक्तिबोध उन कवियों में से हैं जिन्होंने सफलता का यह सरल पथ छोड़कर इस युग की उलझनों में जानबूझ कर अपने को डाला है. उन्होंने एक मुश्किल काम अपने हाथ में लिया है. उनकी कविताओं का केंद्रीय विषय है ः आज के व्यक्ति मन का अंतर्द्वन्द्व. सामाजिक अंतर्द्वन्द्व की जो छाया व्यक्ति के जागरूक मन में प्रतिबिंबित हो रही है, उसी के मार्मिक चित्रण का प्रयास मुक्तिबोध ने बार-बार किया है. इस तरह मुक्तिबोध आत्मविश्लेषण के माध्यम से इस युग के सामाजिक संघर्ष को समझना चाहते हैं. उनकी कविता में इसी आत्मसंघर्ष से छिटकी हुई चिनगारियों की चित्र-शृंखला मिलती है.
अंग्रेज कवि डब्लु.बी. येट्स ने कहीं लिखा है कि जब हम अपने से बाहर संघर्ष करते हैं तो कथा-साहित्य की सृष्टि होती है और अपने-आप से लड़ते हैं तो गीतकाव्य की. अपने आप से लड़ने पर जो गीतकाव्य पैदा होता है, वह निःसंदेश छायावादी गीत नहीं बल्कि आज की कविता का गीत हैं. लेकिन एक तीसरी भी स्थिति होती है जब हम अपने आप से लड़ते हुए बाहरी स्थिति में भी लड़ने की कोशिश करते हैं और एक विशेष प्रकार की ‘लंबी कविताएँ’ पैदा होती हैं जो आधुनिक कविता की सबसे बड़ी उपलब्धि है. निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’, ‘सरोज-समृति’ आदि लंबी कविताएँ इसी प्रकार के संघर्ष से उत्पन्न हुई है. मुक्तिबोध की लंबी कविताएँ उसी परंपरा में आती हैं.
इस प्रकार का संघर्षशील कवि अनिवार्यतः भावुकता से कुछ दूर निकल जाता है; उसमें संभवतः निःसंगता सी है; उन्मथित भाव विचार की सीमाएँ छूने लगते हैं; अनेक छोटी-छोटी भावनाएँ कार्य-कारण परंपरा में गूंथ कर शृंखलाबद्ध हो उठती हैं जिनकी अभिव्यक्ति के लिए विशेष प्रकार के ‘बौद्धिक’ व्यापार की आवश्यकता पड़ती है. आलोचकों ने सामान्यतः ऐसी कविताओं को बौद्धिक कहा है जो निश्चित ही अचिन्तित प्रयोग है. अचिन्तित इसलिए की जो लोग आज नये कवियों को ‘बौद्धिक’ कह रहे हैं, वही एक समय छायावादी निराला को भी बौद्धिक कहते थे. तीव्र संवेदनाओं के कवि निराला को जो बौद्धिक कहे, कम से कम उस आलोचक को तो हम बौद्धिक नहीं कह सकते!
यहाँ इलियट का यह विचार युक्ति संगत प्रतीत होता है कि ‘बौद्धिक’ और ‘चिन्तक’ कवि में अंतर करना चाहिए. निराला की तरह ही मुक्तिबोध भी ‘चिन्तक’ कवि हैं; ‘बौद्धिक’ कवि के उदाहरण नये कवियों में प्रभाकर माचवे हैं. प्रसंगात् यहाँ यह संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि भावुकता वाले कवि ज्यों ही गंभीर होने का प्रयत्न करते हैं, चिन्तक न होकर प्रायः ‘बौद्धिक’ ही हो पाते हैं. छायावादी कवियों में आगे चलकर पंत जी और प्रयोगशील कवियों में गिरिजा कुमार माथुर तथा भारती वगैरह की तथाकथित गंभीर कविताओं में इस बौद्धिकता के दर्शन हो सकते हैं.
संक्षेप में यहाँ मुक्तिबोध की केवल रचना-प्रक्रिया का विश्लेषण किया गया है जिससे उनकी उपलब्धियों पर विचार करने के लिए उचित मानदंड का निर्माण हो सके. उनकी उपलब्धियों पर विचार करने की यह जगह नहीं है. संकेत स्वरूप मैं केवल यही कह सकता हूँ कि मुक्तिबोध उन कवियों में से हैं जो अपने युग के सफल कवि नहीं बल्कि सार्थक कवि कहलाने योग्य होते हैं और कभी-कभी सार्थकता सफलता से श्रेयस्कर होती है.
मुक्तिबोध तब नागपुर में रहते थे. उनको जब ‘कवि’ का यह अंक मिला तो उन्होंने विष्णुचंद शर्मा को 26.04.1957 को एक पत्र लिखा. उस पत्र के साथ नामवर के नाम लिखा भी एक पत्र था, जो ऐतिहासिक महत्व का है. प्रस्तुत है ये दोनों पत्र-
1
प्रिय विष्णुचन्द्र जी,
आपको किन शब्दों में धन्यवाद दूँ. आपने बड़ा आदर दे डाला!! मुझे खीच-खाँचकर, अथक रूप से बार-बार पत्र लिखकर कहाँ बैठा दिया. इतने अधिक ध्यान का विषय बनने का मैं कतई आदी नहीं हूँ. आपके इस सहज स्नेह और निस्वार्थ परिश्रम को मैं क्या कहूँ!! यही कह सकता हूँ कि यह मानवता का गुण है और वह स्वयं प्रकाशी है. उसके प्रति मैं हार्दिक रूप से नतमस्तक हूँ.
आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँ. मेरी कविता जो आपने प्रकाशित की उसमें प्रुफ की बहुत-बहुत गललियाँ हुई हैं. यह तो मेरी कविताएँ वैसे ही जड़ हैं, दूसरे यदि उनमें ऐसी भूलें रह जाये तो वे और भी अपाठ्य हो जाती हैं. आशा है, मेरी बात का आप कतई बुरा न मानेंगे.
अब एक दो काम की बातें. एक तो यह कि क्या आप ‘कवि’ के उस अंक की एक और प्रति मेरे पास भिजवा सकेंगे, जिसमें नामवर सिंह जी ने मुझ पर लिखा है? हो सके तो अवश्य भिजवाइयेगा.
दूसरे, इस पत्र के साथ मैंने नामवर सिंह जी के लिए चिट्ठी रखी है. क्या कृपाकर उस चिट्ठी को आप उन तक पहुँचा दीजियेगा? उनका पता मुझे मालूम नहीं है. और, नामवर सिंह जी का पता मुझे भेज दीजियेगा.
इतना काम जरूर कर दीजिए. त्रिलोचनजी को नमस्ते कह दीजिए. यदि बाकी बची मेरी कविताएँ आप न छापें तो अच्छा. यदि वे वापिस कर सकेंगे तो बुरी बात क्या है!! मैं इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि प्रूफ की अशुद्धियाँ होती हैं, वरन् इसलिए कि अब उन्हें छापने में कोई सार नहीं. वैसे आप छापना चाहते ही हों तो बात बिल्कुल भिन्न है.
नामवर सिंह जी को साथ की चिट्ठी जरूर पहुँचा दीजियेगा.
आपका सस्नेह
ग.मा. मुक्तिबोध
2
प्रिय नामवर सिंह जी,
‘कवि’ में आपने मेरे सम्बन्ध में जो कुछ लिखा, उसके लिए मैं किन शब्दों में धन्यवाद दूँ.
औपचारिक पत्र लिखने का मुझे बिलकुल अभ्यास नहीं है. दिल की कहूँ तो यह कि अगर आप मेरे समीप होते तो गले लगा लेता, इसलिए, नहीं कि तारीफ हुई है वरन् इसलिए कि एक सुदूर अजाने कोने में एक समानशील समधर्मा मिला. ‘समानधर्मा’ शब्द पर शायद आपको आपत्ति हो, किन्तु अपनी कमजोरियों और दोषों में मैं आपको शामिल नहीं कर रहा हूँ.
सच कहूँ तो वैसी टिप्पणी जो आपने लिखी- किसी अन्य द्वारा संभव ही नहीं थी. गालियाँ पड़तीं. मैं आपसे भी यही मगचमबज कर रहा था- लेकिन वे बौद्धिक गालियाँ होतीं- जैसे तिनेजतंजमकए ‘कुण्ठाग्रस्त’, ‘नैराश्य-ग्रस्त’- आदि-आदि. या तो लोग ऐसी ही बात करते या फिर प्रशंसा ही. प्रशंसा कम, गालियाँ ज्यादा. काश, प्रगतिशील आन्दोलन हम जैसे लोगों को थोड़ा समझ पाता!! पिछले बारह वर्ष के एक पूरे तय समय में उसने काव्य-मर्मज्ञता के क्षेत्र में जरा-सी भी समझ, सहानुभूति और सहिष्णुता का परिचय दिया होता. तो उसकी वैसी गत न होती जैसी आज है. खैर, मैं बहक गया, और शायद मुझे यह बात नहीं लिखनी चाहिए थी.
लेकिन, मुझे बरबस यह याद आया. शुरू-शुरू में ‘तारसप्तक’ के प्रकाशन के अनन्तर ही, प्रगतिशील क्षेत्र में नयी कविता को बड़ी गालियाँ पड़ी. आलोचना आवश्यक थी विरोध आवश्यक नहीं था. खैर, यह पिछली बात हुई. हुई-गई. लिखने का कारण यह है आगे चलकर, क्या इस आन्दोलन को फिर से उठाना जरूरी नहीं है, विशेष संशोधनों के साथ- यह सवाल दरपेश है. आशा है, आप इस पर अवश्य सोचेंगे.
जिस भीतरी पहचान का प्रतिबिम्ब आपकी टिप्पणी में मुझे दिखायी दिया, उसके लिए मैं क्या कहूँ. इतना ही कहूँगा कि मैं खुद को बहुत भाग्यवान समझता हूँ, बहुत-बहुत भाग्यवान!! किन्तु इसी प्रतिबिम्ब के आधार पर और उसी से अधिकार लेकर मैंने, फिर से इस प्रकार का आन्दोलन चलाये जाने का जिक्र आप से किया. क्या आजकल यह सचमुच असम्भव हो गया है? इस पर आप सोचिएगा और यदि सम्भव हो सके तो मुझे भी बताइगा.
त्रिलोचन जी को सस्नेह नमस्कार कहिएगा. आशा है, आप प्रसन्न हैं!! उनकी कविता-पुस्तक कब निकल रही है?
आपका ही
ग. मा. मुक्तिबोध
पुनश्च ः टिप्पणी, जो आपने लिखी, के बारे में यहाँ के यानी मध्यप्रदेश-विदर्भ के हमारे सब मित्रों की राय है कि न केवल बहुत अच्छी लिखी गयी, वरन् यह कि उसके पीछे एक अर्से तक चलने वाला, विविध समस्याओं पर गहरा चिन्तन साफ झलकता है.
निश्चय ही, मेरी उसमें बहुत तारीफ है, और इस सम्बन्ध में मेरा खुश होना और आपकी प्रति-प्रशंसा करना भी सहज हो जाता है. इसीलिए, मैंने उन मित्रों का जिक्र किया जिन्होंने उसे पढ़ा और राय दी. आपके विश्लेषण के प्रति उनका विशेष अनुराग झलका, खास तौर पर लम्बी कविताओं के बारे में. संघर्ष और प्रदीर्घ कविता की कड़ी का जो आपने आभास दिया और बौद्धिक और चिन्तक- इनका जो भेद आपने बताया उनकी यहाँ विशेष चर्चा होने के अलावा आपकी पूरी दृष्टि पर यहाँ बातचीत हुई.
बाकी, फिर कभी.
ग. मा. मुक्तिबोध
मई अंक में विशिष्ट कवि के रूप में प्रस्तुत केदारनाथ सिंह की कविताओं पर उन्होंने टिप्पणी करते हुए लिखा-
केदारनाथ सिंह
केदारनाथ सिंह नई कविता की उस पीढ़ी के प्रमुख कवि हैं, जिसका उदय सन्’ 50 के आसपास हुआ और जिसने नई कविता को एक विशेष दिशा में मोड़ने का सफल प्रयत्न किया. इस पीढ़ी के युवक कवियों की मनःस्थिति में चालीस के पुराने प्रयोगशील कवियों की घुटन, कुंठा, अंतर्मुखीनता तथा कटु बौद्धिकता नहीं हैं इनमें पिछली पीढ़ी के प्रगतिशील कवियों का कोरा राजनीतिक जोश भी नहीं है, इसके अतिरिक्त ये छायावादोत्तर प्रगीतवादियों के सरल गीतों से भी संतुष्ट होने वाले नहीं हैं. कविता के क्षेत्र में इस पीढ़ी ने एक ऐसी स्वस्थ भावसत्ता के साथ प्रवेश किया जिसमें अपनी यथार्थ-संकुल निजता के बीच आशापूर्ण भविष्य की ललक तथा सुंदर जीवन की अभिलाषा झलक मारती रहती है. इस नवीन उत्थान का संबंध परोक्ष रूप से तत्कालीन राष्ट्रीय परिस्थिति तथा अंतराष्ट्रीय परिस्थिति से भी जोड़ा जा सकता है. साहित्यिक दृष्टि से इसे प्रगतिवाद, प्रयोगवाद तथा प्रगीतवाद के लंबे घात-प्रतिघात का परिणाम भी कह सकते हैं; निश्चित ही इन विभिन्न प्रवृत्तियों ने एक दूसरे के एकांत की आलोचना करके कविता के क्षेत्र में एक नये संतुलन की पृष्ठभूमि तैयार की. यह कविता न प्रगतिवाद थी, न प्रयोगवाद, न प्रगीतवाद ही और न इन तीनों का समन्वय ही. यह ‘नई कविता’ है. यह आकस्मिक नहीं है कि ‘नई कविता’ का नारा इसी समय के आस-पास दिया गया.
यह नवोत्थान बहुत कुछ अंग्रेजी कविता में डिलेन टामस के नेतृत्व में उदित होने वाले नये ढंग के रोमैंटिक आर्विभाव की तरह है, जो सन् 30 वाले कवियों की अतिशय बौद्धिकता और यथार्थ प्रियता के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ.
नई पीढ़ी के इस अभियान के महत्त्व को कम करने के लिए कुछ लोग इसे केवल लोकगीतों का संस्कृत रूप कहते हैं; लेकिन अपनी साहित्यिक परंपरा की ओर दृष्टिपात करने पर पता चलेगा कि कविता के क्षेत्र में हर नवोत्थान लोकगीतों की ओर उन्मुख हुआ है; चाहे वह आदिकालीन रासो का रोमांस काव्य हो, चाहे संत-भक्ति काव्य अथवा आधुनिक युग का स्वच्छंदतावादी काव्य. यह तो लोक जागरण का प्रमाण है. लेकिन इस नई कविता को केवल लोकगीतों का अनुवाद कहना विवेक की पीठ देना है. इन कविताओं की अनुभूतियाँ लोकगीतों से कहीं अधिक आधुनिक और जटिल है.
इसी तरह कुछ पुराने प्रयोगशील कवियों ने अपना महत्त्व बढ़ाने के लिए इस नवोत्थान को अपनी ही रूमानियत का विकास कहा है, लेकिन विवेकी पाठक जानते हैं कि गिरजा कुमार माथुर जैसे कवियों की रूमानी ‘थकान’ से इन कविताओं की तरुण ताजगी अलग है. यही नहीं, इनकी संवेदनाएँ, आरंभिक ऐन्द्रियता और मांसल गरमाई से अधिक गहरी हैं.
पिछले चार-पाँच वर्षों में नई कविता पर जो कुछ लिखा गया है उससे एकदम स्पष्ट है इस नवोत्थान के कवियों में केदारनाथ सिंह का स्थान सर्वप्रमुख है.
ताजे चित्र (इमेज) और संवेदनक्षम गीत केदारनाथ सिंह की विशेषताएँ हैं. चित्र नई कविता की कसौटी हैं और इनके जरिए किसी कवि की अनुभूतियों के क्षेत्र और साथ-साथ उसकी कला-शक्ति का पता चल सकता है. मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि चित्र-चयन और चित्र-रचना अर्थात् चित्रों द्वारा उपयुक्त रागबोध के ‘पैटर्न’ का निर्माण की जैसी क्षमता केदारनाथ सिंह में है वैसी आज किसी कवि में नहीं है. निःसंदेह आरंभ में वे नरेश मेहता की तरह फिजूल चित्रों की लड़ी लगा देते थे लेकिन धीरे-धीरे वे अब एक वृहद् चित्र के भीतर अंगांगि संबंध से केवल थोड़े से आवश्यक चित्रों की योजना करने में सफल हो चले हैं. प्रस्तुत कविताओं में से ‘शंका-पुत्र’ में यह मितव्ययिता देखी जा सकती है.
जहाँ तक केदार के चित्रों की व्याप्ति का प्रश्न है, वे प्रायः सरल ग्राम्य और वन्य जीवन के हैं, शहर के चित्रों में वे सड़क और चाय की भाप से आगे नहीं बढ़ते. कवि की मनःस्थिति बतलाने के लिए बार-बार आने वाले कुछ चित्र- जो निःसंदेह प्रतीक बन गए हैं- बहुत सहायक हो सकते हैं. बंद कमरा है तो उसमें ‘खिड़की’, घर है तो ‘आंगन’, बाहर निकले तो पगडंडी या खेत की दूर्वा-दल ढकी मेड़; अधिकांश कविताओं की पृष्ठभूमि में सांझ की छाया है या फिर भोर की हल्की ऊष्णता. ‘कुहरा’ केदार के यहाँ अक्सर उठता है और कभी-कभी दुहरा. चिड़ियों के गिरे पंख और फूल की झरी पंखड़ियाँ उन्हें ज्यादा प्रिय हैं. क्रियाकलाप में हल्की छुअन, नाम लिखना, हांक लगाना, भटकना, अनागत की प्रतीक्षा, किसी अनदेखे को ढ़ूंढ़ना इत्यादि.
ऐसे और इतने चित्र अपने से बाहर निकलने पर ही मिलते हैं, लगता है कि कवि अपनी स्पृहणीय-भावनाओं को बाह्य प्रकृति और विस्तृत जीवन में खोज रहा है और विस्तृत जीवन में उनका मूर्त रूप प्रतिष्ठित कर रहा है. यह आकुल प्रतीक्षा एक ऐसे भविष्य की है जिसका आभास उसे मिल गया है, रस्ता-घाट का यह भटकना उसी की तलाश में है. यह कोरी ‘नास्टेल्जिया’ नहीं है. किसी अंतर्मुखी तथा कुंठित कवि के लिए यह संभव नहीं है.
इस अनूठी बहिर्मुखी प्रवृत्ति ने केदारनाथ सिंह के गीतों में एक विशेष प्रकार की नाटकीयता भर दी है जो उनकी अपनी विशेषता है; इसलिए उनकी मुक्तछंदवाली कविताओं में भी अद्भुत गीतात्मक मिलती है. वे प्रगीत कवि न होते हुए भी मूलतः गीतात्मक हैं और चित्रवादी न होते हुए भी चित्रात्मक हैं.
किंतु कुल मिलाकर केदार मद्धिम या हल्के संवेगों के कवि हैं, उनके यहाँ आवेश कहीं नहीं है, संभवतः इसीलिए उनकी कविता का धरातल एकदम सम है, सभी कविताओं का स्तर प्रायः एक है या वे एक स्तर की हैं. ऐसे कवि प्रायः औसत कोटि के ही रह जाते हैं. तीव्र संवेगों के कवि (जैसे बायरन और निराला) की रचनाओं का स्तर प्रायः विषम होता है, उनकी कलम से बहुत सी कविताएँ इतनी निम्नकोटि की निकलती हैं कि सहसा आश्चर्य होता है, लेकिन अपने सर्वोत्तम रूप में ये कवि बेजोड़ होते हैं.
हमें आशा करनी चाहिए कि जीवन के संघर्ष इस कवि की भावनाओं को विशुद्ध करके कभी-न-कभी तीव्रता अवश्य प्रदान करेंगे, जिससे वह अपनी काव्य-प्रतिभा का उचित विकास कर सके.
मार्च अंक में नामवर की आठ कविताएँ ‘विशिष्ट कवि’ स्तम्भ में प्रकाशित हुई. इनमें दो सॉनेट, दो चार पंक्तियों की कविताएँ, एक आठ पंक्तियों की एवं तीन मुक्तछंद की.
एक
पारदर्शी नील जल में सिहरते शैवाल
चाँद था, हम थे, हिला तुमने दिया भर ताल
क्या पता था, किन्तु, प्यासे को मिलेंगे आज
दूर ओठों से, दृगों से संपुटित दो नाल
दो
विजन गिरिपथ पर चटखती पत्तियों का लास
हृदय में निर्जल नदी के पत्थरों का हास
“लौट आ, घर लौट”, गेही की कहीं आवाज
भींगते से वस्त्र शायद छू गया वातास
तीन
पथ में सांझ
पहाड़ियाँ ऊपर
पीछे अँके झरने का पुकारना
सीकरों की मेहराब की छाँव में
छूटे हुए कुछ का ठुनकारना
एक ही धार में डूबते
दो मनों का टकराकर
दीठ निवारना
याद है, चूड़ी के टूक-से चाँद पै
तैरती आँख में आँख का ढारना?
चार
मंह मंह बेल कचेलियां, माधव मास
सुरभि सुरभि से सुलग रही हर सांस
लुनित सिवान, संझाती, कुसुंम उजास
ससि-पाण्डुर क्षिति में घुलता आकास
फैलाये कर ज्यों वह तरु निष्पात
फैलाये बाहें ज्यों सरिता वात
फैल रहा यह मन जैसे अज्ञात
फैल रहे प्रिय, दिशि लघु लघु हाथ!
पाँच
कोजारगर
दीठियों की डोर-खिंचा
(ऊगते से) इंदु का आकासदीप-दोल चढ़ा रहा.
गोरोचनी जोन्ह पिघली सी
बालुका का तट, आह, चन्द्रकान्तमणि सा पसीज-सा रहा.
साथ हम
नख से विलेखते अदेखते से
मौन अलगाव के प्रथम का बढ़ा आ रहा.
अरथ-उदास में, कपास-मेघ जा रहा.
नीर हटता सा
क्लिन्न तीर फटता सा गिरा
किंतु मूढ़ हियरा, तुझे क्या हुआ जा रहा.
छह
उनये उनये भादरे
बरखा की जल चादरें
फूल दीप से जले
कि झुरती पुरवैया की याद रे
मन कूयें के कोहरे सा रवि डूब के बाद इरे.
भादरे.
उठे बगूले घास में
चढ़ता रंग बतास में
हरी हो रही धूप
नशे सी चढ़ती झुके अकास में
तिरती हैं परछाइयां सीने के भींगे चास में.
घास में.
इन आठों कविताओं में यह सॉनेट सबसे अच्छा बन बड़ा है, जिसमें गाँव का जीवंत चित्र प्रस्तुत हुआ हैः
सात
धुंधुवाता अलाव, चौतरफा मोढ़ा मचिया
पड़े, गुड़गुड़ाते हुक्का कुछ खींच मिरजई
बाबा बोले लख अकास ः ‘अब मटर भी गई’
देखा सिर पर नीम फाँक में से कचपचिया
डबडबा गई-सी, कँपती पत्तियाँ, टहनियाँ.
लपटों की आभा में तरु की उभरी छाया.
पकते गुड़ की गरम गंध ले सहसा आया
मीठा झोंका. ‘आह! हो गई कैसी दुनिया!
सिकमी पर दस गुना.’ सुना फिर था वही गला
सबने गुपचुप गुना, किसी ने कुछ नहीं कहा.
चूं-चूं बस कोल्हू की; लोहे से नहीं सहा
गया. चिलम फिर चढ़ी, ‘खैर, यह पूस तो चला...
पूरा वाक्य न हुआ कि आया खरतर झोंका
धधक उठा कौड़ा, पुआल में कुत्ता भौंका.
अभाव का दिन. बेटे विजय का जन्मदिन. मिलने की तड़प. पर गाँव जाकर न मिल पाना. एक तड़प और बेचैनी से भरा मन. नामवर ने उस समय की भाव-स्थिति को इस सॉनेट में मार्मिकता से अभिव्यक्त किया-
आठ
आज तुम्हारा, जन्मदिवस, यूंही यह संध्या
भी चली गई, किंतु अभागा मैं न जा सका
समुख तुम्हारे और नदी तट भटका भटका
कभी देखता हाथ कभी लेखनी अबन्ध्या.
पार हाट, शायद मेला; रंग रंग गुब्बारे.
उठते लघु लघु हाथ, सीटियां; शिशु सजे धजे
मचल रहे...सोंचूं कि अचानक दूर छः बजे.
पथ, इमली में भरा ब्योम, आ बैठे तारे
‘सेवा-उपवन’, पुस्पमित्र गंधवह आ लगा
मस्तक कंकड़ भरा किसी ने ज्यों हिला दिया.
हर सुंदर को देख सोचता क्यों मिला हिया
यदि उससे वंचित रह जाता तुम्हीं-सा सगा
क्षमा मत करो वत्स, आ गया दिन ही ऐसा
आंख खोलती कलियां भी कहती हैं पैसा.
त्रिलोचन शास्त्री ने नामवर की कविताओं पर सटीक टिप्पणी की है. उनकी कविताओं के प्रथम श्रोता ही नहीं, वे उनके काव्य-विकास के सभी पड़ावों के साक्षी भी रहे थे. त्रिलोचन लिखते हैं-
“नामवर सिंह काल-विचार से ही नहीं, अर्थ-विचार से भी आधुनिक कवि हैं...कई बार पढ़ने पर इन कविताओं में गुम्फित भाव शब्दों और पदों के माध्यम से स्तर-स्तर खुलते हैं.
नामवर सिंह के प्रकृत्ति-चित्र दृष्टि सीमा तक विशद् और फैले हुए हैं. प्रकृति उनकी कविताओं में आलम्बन और उद्दीपन दोनों रूपों में आयी है. सांध्य-काल में नौका-विहार करते हुए गंगा में शत-शत कम्पमान ज्योति-लताएँ, हरित-फौव्वारों सरीखे धान, प्रभातकाल के लघुवृत्त दीपालोक, नदी के पार के पेड़ों पर उगे हुए मृगशिरा नक्षत्र, पारदर्शी नील जल में सिंहरते शैवाल, स्वर-ताग में पल्लव-सरीखे पंछियों का सुभग बन्दनवार सूचीभेद्य घन के द्वार, शाम के सादे बदरफट घाम, रात के भीतर उभरती रात-सी परिचित-अपरिचित जिसके तनों की फांक के उस पार चमकता है शशिघुला निःसीम कल्प खुला-खुला-सा ताल, सवेग चलते हुए एक टहनी से फुदककर दूसरी फिर तीसरी पर उड़ रहा चंचल चिड़ी-सा चाँद; सब में नामवर सिंह दूसरे कवियों से अलग दिखाई देेते हैं. वर्ण, गंध, शब्द, रूप इन सभी विषयों का सह-चित्रण करने में तथा जागरूक पाठक के हृदय में उसकी समानुभूति जगा देने की ओर वे अपनी कविताओं में विशेष ध्यान रखते हैं.
नामवरसिंह की वे कविताएँ जिनमें युग्म-जीवन का आकर्षण आधार है, सामान्य पाठकों को इस कारण सबसे अधिक पसंद आती हैं कि उनकी स्वयं की अनुभूतियाँ उनसे अनुगुंजित होती हैं पर इस प्रकार की कविताओं का दृश्य, संविधान और भाव-संस्थान वैयक्तिक अधिक है. ये दृश्य प्रकृति के चुने हुए सौंदर्य स्थल हैं; निर्झर, नदी, वृक्ष, उपवन, संध्या अथवा ज्योत्सना-स्नान शर्बरी. युग्म-जीवन के परम्परित वर्णनों के साथ साथ कुछ नवीन जीवन की सहज उद्भावनाएँ भी हैं. जहाँ वेणी का गूंथना-छोड़ना है वहीं हूँ टूँ भी है. ऐसी भी कविताएँ हैं जिनमें कवि ने एकाकी हृदय का स्पंदन भी ध्वनित किया है. चाहे आसमान हो, चाहे नौकाविहार हो, चाहे पुरखों का डीह हो, चाहे अमलतास, चाहे किसी भी अनेक या एक भावमुद्रा में अंकित एकांत स्मृति; सर्वत्र एक ही भावधारा बहती है. नामवर सिंह ने ऐसी कविताएँ भी लिखी हैं जिनमें आज के सामाजिक असंतोष और संघर्ष की व्यंजना दी गई है. ये कविताएँ किसी बंधे बधाए ढंग पर नहीं हैं, कहीं तो बच्चों की लड़ाई में सयानों का लड़ पड़ना है, कहीं पुत्र की बरसगाँठ के अवसर पर कुछ दे न पाने की कचट है, कहीं अलाव के चारों ओर बैठे ग्रामीण जनों की देशकाल-समीक्षा है. ये कविताएँ नामवरसिंह की प्रकृति और प्रेम संबंधी सफलतम कविताओं के स्तर की नहीं हैं, परंतु उनके कवि जीवन के विकास की सबसे अधिक संभावना इन्हीं कविताओं में लक्षित होती है.
नामवर सिंह ने पदावली और विषय-निर्वाह के अतिरिक्त अभी तक और कोई नवीनता नहीं दी है. सवैयों का मुक्तछंद जैसा लिखा जाना पहले भी देखा गया है, पर जो परिणति नामवरसिंह इस छंद को प्रदान करते हैं वे अन्यत्र नहीं है. घनाक्षरी छंद में भी उन्होंने इसी प्रकार सधे चरण रखे हैं. ‘कोजागर’ का अवलोकन करने से इसका परिचय मिलेगा. चतुष्पदियाँ और गीत भी उन्होंने लिखे हैं. ‘उनये उनये भादरे’ उनका बहुत ही सुंदर और प्रसन्न गीत है. नामवर सिंह ने सॉनेट भी लिखे हैं. ‘उनये उनये भादरे’ उनका बहुत ही सुंदर और प्रसन्न गीत है. नामवर सिंह ने सॉनेट भी लिखे हैं. उनके सॉनेट, भाषा और विषय को निखारकर उपस्थित करते हैं. अरुद्धचरणान्तवाक्य छंद के अनुशासन में मुक्ति की सशक्त व्यंजना किस प्रकार दिखलाते हैं, यह पढ़ने पर ही जाना जा सकता है.”
और अंत में उन्होंने लिखा- “नामवर सिंह की पुस्तक-पकी आँखें, प्रकृति और जीवन के अछूते दृश्यों का चित्र भी दिखा सकती है, यह उनका पाठक पहली ही नजर में पहचान जाएगा. नामवर सिंह की भाषा में, सफाई और निखार होते हुए भी जहाँ तहाँ छायावादी झलक है. क्लिष्ट-कल्पनाओं को भी उनकी कविताओं में देखा जा सकता है.”
‘कवि’ पत्रिका का अन्तिम अंक विशेषांक के रूप में छपा. इस अंक में नामवर का एक महत्त्वपूर्ण आलोचनात्मक निबन्ध छपा-
नयी कविता और क्षण
‘क्षण’ नये कवियों के लिए ‘फेटिश’ हो गया है. वैसे, हर युग के अपने कुछ खास शब्द होते हैं, बल्कि हो जाते हैं, जो उस युग के लिए कुंजी का (ताले का भी) काम करते हैं. आज के लिए वह शब्द है ‘क्षण’. नयी कविता में ‘क्षण’ पर इतना आग्रह है कि हर उम्मीदवार ‘क्षण की मर्यादा को थामने’ की कोशिश कर रहा है और माखनलाल चतुर्वेदी जैसे वयोवृद्ध कवि की कविता में ‘क्षणिक का स्थिर राज’ देखकर नये कवि उन्हें अपनी पाँत में बिठा लेने के लिए उत्सुक हैं (निकष ः 3-4). आलोचकों ने आरम्भ में कहना शुरू किया कि नयी कविता ‘मूड’ की कविता है और इसमें ‘जीवन के छोटे-छोटे अनुभव’ को चित्रित किया जा रहा है, परन्तु उन्हें गुमान भी न था कि आगे चलकर नये कवि ‘क्षण’ के प्रति इतने सजग हो जायेंगे. कहने को तो छायावादी महादेवी वर्मा ने भी एक समय कहा था कि आज का कवि अपनी हर साँस को लिख डालना चाहता है लेकिन उन्हें नहीं पता था कि आगे वह ‘साँस’ टूट कर इतनी छोटी हो जायेगी. यही तो मुश्किल है. ‘क्षण’ की जमीन इतनी अस्थिर है कि जो एक बार इसपर खड़ा हुआ वह उसकी तर्क-संगत परिणति से बच नहीं सकता.
1949 ई. में संभवतः पहली बार अज्ञेय ने ‘हरी घास पर क्षण भर’ का प्रस्ताव किया था, ठीक टी.एस. इलियट की तरह जिसने ‘क्वार्टेट्स’ में ‘द मोमेन्ट इन द रोज गार्डेन’ का फलसफा दिया है. परन्तु उस समय तक ‘क्षण भर हम न रहें रह कर भी’ अर्थात् ‘क्षण भर लय’ होने तक ही स्थिति थी. साल दो साल बाद ही ‘नदी के द्वीप’ में अनुभूति के इस क्षण ने तर्क-पथ पर आगे बढ़ते हुए दार्शनिक जामा पहनना शुरू कर दिया और रेखा के मुँह से सुनाई पड़ने लगा कि ‘मेरे जिए काल का प्रवाह भी प्रवाह नहीं है, केवल क्षण और क्षण और क्षण का योग फल है- मानवता की तरह काल प्रवाह भी मेरे निकट युक्ति सत्य है, वास्तविकता क्षण ही की है. क्षण सनातन है.’ पाँच साल बाद ‘नदी के द्वीप’ का यह क्षणवादी दर्शन ‘नयी कविताः एक सम्भाव्य भूमिका’ का आग्रह बन गयाः
आज के विविक्त अद्वितीय इस क्षण को
पूरा हम जी लें, पीलें, आत्मसात् कर लें-
उसकी विविक्त अद्वितीयता
इस ‘क्षण’ की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि यह एक क्षण ‘होने का- अस्तित्व का’ क्षण है, यही नहीं बल्कि ‘होने के सत्य का, सत्य के साक्षात्’ भी है. पश्चिमी योरोप यात्रा के दौरान में लिखे गये ‘जर्नल’ के कुछ सूत्रों (निकष ः 3-4) में भी अज्ञेय कहते हैं कि मैं या तो इस क्षण में अमर हूँ या कभी नहीं हूँ.
‘क्षण’ की यह ‘फेटिश’ अज्ञेय तक ही सीमित नहीं है. विजयदेव नारायण साही की ‘नितान्त सामयिकता का नैतिक दायित्व’ भी अन्ततः ‘क्षण’ का ही दायित्व है. धर्मवीर भारती के अन्धायुग’ के प्रभु भी सृजन और रस के ‘क्षण’ में ही जीवित होने का सन्देश देते हैं. ‘चक्रव्यूह’ के कुँवर नारायण का इतिहास-बोध भी ‘क्षण’ को ही सपने में जीवित रखने का प्रयास है. प्रयाग के साहित्यकार सम्मेलन की कविता गोष्ठी में रघुवीर सहाय ने भी ‘प्रयोग’ तथा ‘अन्वेषण’ को ‘कलात्मक अनुभूति का क्षण’ घोषित किया. इन थोड़े से सांकेतिक उदाहरणों से स्पष्ट हो सकता है कि नये कवियों में किस हद तक ‘क्षण’ की ‘फेटिश’ है. अब यदि इस शोरगुल से रोब खाकर कुछ अबोध कवि अपनी कविताओं में गाहे-बे-गाहे ‘क्षण’ शब्द को जड़ देते हैं तो नयी कविता के पुराने कवि चौंकते क्यों हैं? यदि उन्हीं के शब्दों में उनसे कहा जाय कि ‘मेरे आह्वान से अगर प्रेत जागते हैं. मेरे सगो, मेरे भाइयों! तो तुम चौंकते क्यों हों ? मुझे दोष क्यों देते हो? वे तुम्हारे ही तो प्रेत हैं.’
इन आग्रहों से स्पष्ट है कि नये कवियों का यह ‘क्षण’ सामान्य अनुभूति का क्षण नहीं है. मूल òोतों का पता लगाने से मालूम होता है कि जिस डी.एच. लारेन्स का प्रभाव स्वयं अज्ञेय भी स्वीकार करते हैं, उसे ‘क्षण’ की ‘फेटिश’ थी. अपने ‘न्यू पोएम्स’ के अमेरिकन संस्करण (1920) की भूमिका (जो आगे चलकर 1936 में उसके ‘फोएनिक्स’ संग्रह में पुनर्मुद्रित हुई) में लारेंस ने अत्यन्त आग्रह के साथ ‘क्षण की ऐन्द्रिय पूर्णता’ का नारा दिया था. सेक्स-रहस्यवाद से पीड़ित लारेंस के लिए जो क्षण की तीव्र ऐन्द्रिय अनुभूति है, वही अज्ञेय की जबान पर ‘इस क्षण को पूरा हम जी लें.’ तात्पर्य यह कि आज का कवि लारेंस की तरह ही हर क्षण को पूरा का पूरा निचोड़ डालना चाहता है. तय है कि इस तरह अधिक दिन जी सकना असम्भव है. आकस्मिक नहीं है कि अल्पवय में ही लारेंस ने अपनी पूरी आयु को निचोड़ कर समाप्त कर दिया. क्या हिन्दी के नये कवि भी अपने अस्तित्व और सृजन के क्षण को इसी अर्थ में स्वीकार करने के लिए तैयार हैं?
वस्तुतः लारेन्स के इस क्षण-दर्शन की परम्परा काफी लम्बी है. लारेन्स के पाठक जानते हैं कि वह वर्गसाँ से बहुत प्रभावित था- उस वर्गसाँ से जिसने ‘सृजनात्मक विकास’ तथा ‘समय और स्वतन्त्र इच्छाशक्ति’ आदि ग्रन्थों में ‘सृजन’, ‘क्षण’ तथा क्षणों के बीच के ‘अवकाश’ की विस्तृत चर्चा की है और जिसके दर्शन से प्रेरित होकर अमेरिकन विलियम जेम्स ने मनोविज्ञान में ‘चेतना प्रवाह’ का सिद्धांत चलाया जो आगे चलकर जेम्स ज्वायस, वर्जिनिया वुल्फ आदि के उपन्यासों में क्षणों के धारावाहिक चित्रों के रूप में प्रकट हुआ. अज्ञेय ने ‘क्षण’ के साथ जिस ‘अस्तित्व’ शब्द को संबद्ध किया है उसके संबंध में भी केवल इतना संकेत कर देना काफी होगा कि वर्गसाँ के दर्शन का एक भाग अस्तित्ववादी दर्शन से सम्बद्ध माना जाता है. सार्त्र जिस अस्तित्व की वकालत करता है, वह भी वस्तुतः व्यक्ति के एक क्षण का ही अस्तित्व है. इन विविध संबंध-सूत्रों के उल्लेख का प्रयोजन इतना ही है कि नई कविता के पाठकों के सामने इस क्षणवादी मनोवृत्ति के मूल कारणों तथा सम्भावित परिणामों को समझने में सुविधा हो. प्रसंगात् यहाँ इतना ही संकेत किया जाता है कि पिछले दस वर्षों में हमारे यहाँ इस क्षणवादी मनोवृत्ति का प्रसार बहुत बढ़ गया है- यहाँ तक कि नये कवियों के क्षेत्र से बाहर के उपन्यासकार भी इससे ग्रस्त हैं जैसे रेणु के ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ उपन्यास भी कुल मिलाकर क्षण चित्रों के प्रवाह ही हैं. नई कविता और नये उपन्यासों में प्रायः एक ही समय क्षणवादी मनोवृत्ति का प्रसार आकस्मिक नहीं है. अनुमान लगाया जा सकता है कि छायाजीवी मध्यवर्ग की युद्धोत्तर नई पीढ़ी में यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे प्रबल हो रही है और सामयिक यूरोपीय साहित्य उस प्रवृत्ति को चारा चुगा रही है.
आर्थिक सुरक्षा के अभाव में हमारी नई पीढ़ी जिस जर्जर मनःस्थिति से गुजर रही है उसे शीतयुद्ध का संकट और भी जर्जर बना रहा है. जिस पीढ़ी को अपने भविष्य का निश्चय न हो, जिसका वर्तमान इतना अरक्षित हो और अतीत की महान परम्परा भी जिसे संभालने में असमर्थ हो, स्वाभाविक है कि उसके लिये प्रत्यक्ष क्षण ही सबसे बड़ा सत्य प्रतीत हो. अनिश्चय के युग में क्षण ही एक मात्र निश्चित मालूम होता है, लिहाजा धनी निर्धन सभी प्राप्त क्षण का अधिक से अधिक उपभोग कर लेने को आतुर दिखाई पड़ते हैं. ऐसे युग में अपने हर क्षण के लिये आत्म सजग हो उठना स्वाभाविक है. किन्तु इसके साथ ही यह भी निश्चिय है कि यह आत्म सजगता व्यक्ति के लिये बहुत महंगी पड़ती है. किसी क्षण को पूरी तीव्रता से अनुभव करने में मस्तिष्क-तन्तुओं पर बेहद तनाव पड़ता है- यहाँ तक कि उन तन्तुओं के टूट जाने की आशंका रहती है. क्षण की तीव्र अनुभूति का सीधा रास्ता विक्षिप्तता की ओर जाता है, शमशेर ने एक जगह स्वीकार किया है कि प्रयोगवाद ‘नर्वस ब्रेक डाउन’ की कविता है. इस प्रकार ‘क्षण’ की कविता का चरम रूप कवि और पाठक दोनों के लिये असह है. रेणु के उपन्यासों के बारे में अनेक प्रबुद्ध पाठकों ने राय जाहिर की है कि उन्हें अधिक देर तक पढ़ना असम्भव है. नये कवि भी क्षण की इस अनुभूति को दर्द की पराकाष्ठा कहते हैं.
परन्तु एक क्षण को पूरी तीव्रता के साथ अनुभव करने में एक और भी खतरा है. तीव्रता की अतिशयता धीरे-धीरे अनुभूत वस्तु को धुँधलाने लगती है जिसे जेम्स ज्वाइस ने ‘एपिफैगी’ नाम दिया है. क्रमशः धुँधली होते-होते यह वस्तु मन में एक विराट अमूर्त या शून्य के रूप में शेष रह जाती है. अनुभूति की उस स्थिति में वह क्षण एकदम रहस्यात्मक सत्ता का रूप धारण कर लेता है. इस प्रकार ‘क्षण’ की कविता कभी-कभी एक नये ढंग के रहस्यवाद में परिणत हो जाती है. अज्ञेय जब ‘शब्दातीत’ कुछ अर्थों की चर्चा करते हुए अपने से बड़े किसी ऐसे दर्द को बात करते हैं ‘जो कहा नहीं गया’ तो सहसा रहस्यवादियों के अनिर्वचनीय तत्त्व का आभास हो जाता है. यही नहीं, उस क्षण को जब वे अजर अमर अक्षर आदि विशेषणों से विभूषित करने लगते हैं तो एक बार फिर अद्वैतवादियों के ब्रह्म की याद ताजा हो जाती है.
इस प्रकार क्षणवाद के तीन प्रभाव निश्चित हैं- भोगवाद, दुःखवाद और रहस्यवाद. अज्ञेय की कविता में क्षणवाद के ये तीनों रूप मिलते हैं. अन्य कवियों में से किसी में दो रूप मिलते हैं तो किसी में एक. इतिहास में अन्यत्र भी क्षणवाद की ये तीनों परिस्थितियाँ दिखाई पड़ती हैं. बुद्ध के क्षणवाद ने वज्रयानी सिद्धों में भोगवाद तथा रहस्यवाद को जन्म दिया था, आधुनिक अस्तित्ववादियों के साहित्य में सेक्स, निराशा और रहस्य तीनों ही मिलते हैं.
परन्तु क्षणवाद का प्रभाव कविता के रूप-विन्यास पर भी पड़ा है. नई कविता में जो बिम्बों और प्रतीकों की बहुलता की बात की जाती है, वह भी अन्ततः क्षणवाद की ही रूपगत परिणति है. बिम्बवाद के प्रवर्तकों में से एक- एजरा पाउन्ड- ने क्षण के ऊपर ही बिम्ब के सिद्धान्त को आधारित माना है. ‘बिम्ब वह है जो काल की एक तात्कालिकता (इन्स्टैन्ट) में बौद्धिक और भावात्मक संसृष्टि को उपस्थित करता है.’ (ए फिउ डोन्ट्स वाई ऐन इमैजिस्ट, 1913) अनुभूति के क्षण इसी अर्थ में ‘सृजन’ के क्षण हैं कि उनमें विभिन्न बिम्बों का सृजन होता है. यदि क्षण विविक्त हैं तो प्रत्येक बिम्ब भी विविक्त होगा और संपूर्ण कविता बिम्बवादी होगी, यदि बिम्ब प्रवहमान धारा के अन्तर्गत होंगे तो वहाँ ‘फ्री असोसिएशन’ की कविता होगी और यदि बिम्ब-विशेष में कोई पर-संकेत-जनित अस्पष्टता होगी तो उससे प्रतीकवादी कविता बनेगी.
क्षणवाद कविता की लय को किस तरफ प्रभावित करता है, इसके लिए डी. एच. लारेंस का ही उपर्युक्त निबन्ध देखने योग्य है. लारेंस ने लिखा है कि नितान्त सामयिकता की कविता का सच्चा रूप वाल्ट हि्वटमैन में मिलता है, जिसका न कोई आरम्भ है, न अन्त है और न कोई स्थिर आधार ही है- वह सतत् प्रवाहमान है, क्योंकि हि्वटमैन के सामने केवल वर्तमान था- हर क्षण गतिशील वर्तमान. निःसन्देह वाल्ट हि्वटमैन ने आगे और पीछे की ओर भी दृष्टि डाली लेकिन जो नहीं है उसके लिये आह नहीं भरी. उसके धारावाहिक छन्दों की लय का यही रहस्य है. लारेंस का यह कथन स्वयं उसकी कविता की लय के बारे में भी सही है. अज्ञेय की आरम्भिक कविताओं में जो प्रलंबित काव्य विन्यास मिलते हैं, जिसे प्रभाकर माचवे ने लारेंस की परम्परा और प्रभाव में माना है, इसी मनोवृत्ति के परिणाम हैं. परन्तु आगे चलकर जिस प्रकार उनकी नदी में अनेक द्वीप पड़ गए, उनके लय-प्रवाह में भी अलग-अलग द्वीप बनने लगे. मुक्तछन्द बहुल नई कविता की विविध लयों का विवचेन करके वर्तमान क्षणवादी मनोवृत्ति के सूक्ष्म प्रभावों का पता लगाया जा सकता है.
यहाँ क्षणवाद के विविध साहित्यिक रूपों के विवेचन के लिए समय नहीं है. यदि सूक्ष्म विश्लेषण किया जाय तो लघुमानव, लघुपरिवेश, सार्थकता, सृजन आदि अनेक मान्यताओं से इसके संबंध-सूत्रों का पता चल सकता है. नई कविता के सन्दर्भ में ‘क्षण’ सम्बन्धी इस विवेचन का प्रयोजन यह है कि इस बुनियादी इकाई के आधार पर नई कविता को समझने और समीक्षा करने की कोशिश की जाय. मेरा विश्वास है कि इस आधार पर नई कविता की सीमाओं और सम्भावनाओं का पता अधिक अच्छी तरह लग सकता है.
इलाहाबाद में डॉ. जगदीश गुप्त ने ‘नयी कविता’ नामक एक अनियतकालीन किन्तु ऐतिहासिक महत्त्व की पत्रिका की शुरुआत की थी. इसके प्रवेशांक में नामवर की दो छोटी कविताएँ छप चुकी थीं. वे इस तरह हैं-
एक
हरित फौव्वारों सरीखे धान
हाशिए-सी विंध्य-मालाएँ
नम्र कन्धों पर झुकीं तुम प्राण
सप्तपर्णी केश फैलाए
जोत का जल पोंछती-सी छाँह
धूप में रह-रह उभर आये
स्वप्न के चिथड़े नयन-तल आह
इस तरह क्यों पोंछते जाएँ?
दो
फागुनी शाम
अंगूरी उजास
बतास में जंगली गन्ध का डूबना
ऐंठती पीर में
दूर, बराह-से
जंगलों के सुनसान का कूँथना.
बेघर बेपहचान
दो राहियों का
नत शीश
न देखना, न पूछना.
शाल की पंक्तियों वाली
निचाट-सी राह में
घूमना घूमना घूमना.
‘पहल’ पत्रिका के 1988 ई. में नामवर सिंह पर केंद्रित विशेषांक में उनकी रचनाशीलता पर विचार करते हुए केदारनाथ सिंह ने लिखा है- “नामवर सिंह की आरम्भिक पहचान एक कवि के रूप में बनी थी. वे गोष्ठियों-सम्मेलनों में जाते थे और रस लेकर अपनी कविताएँ सुनाते थे. उनकी कविताएँ उस समय के प्रचलित फैशन से अलग होती थीं. उनमें एक सादगी होती थी और एक खास तरह की ऐंद्रिकता भी.”
विजय मोहन सिंह ने लिखा है- 57 में ही एक शाम इलाहाबाद रेडियो से ‘स्वर बेला’ कार्यक्रम के अन्तर्गत बिरला हॉस्टल के कॉमन-रूम में मैंने नामवर सिंह का काव्य-पाठ सुना था, जो जिगर के इस शेर की भूमिका के साथ शुरू हुआ था, “हर इक सूरत, हर इक तस्वीर मुबहक होती जाती है. इलाही, क्या मेरी दीवानगी कम होती जाती है.” नामवर सिंह की काव्य-पाठ की मेरे लिए यह अंतिम काव्य-पंक्तियाँ थीं.
सम्पर्क ः यशवंत नगर, मार्खम कॉलेज के निकट, हजारीबाग-825 301 (झारखण्ड)
E-mail : bharatyayawar@gmail.com
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