भारत यायावर प्रोफेसर , हिंदी विभाग, विनोबा भावे विश्वविद्यालय , हजारीबाग (झारखण्ड) -- करन राम शोधार्थी , हिंदी विभाग, विनोबा भावे विश्वविद्...
भारत यायावर
प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
विनोबा भावे विश्वविद्यालय,
हजारीबाग (झारखण्ड)
--
करन राम
शोधार्थी, हिंदी विभाग,
विनोबा भावे विश्वविद्यालय,
हजारीबाग (झारखण्ड)
कविता में नवीनता का आग्रह आधुनिक काल के हर युग के कवियों में कुछ-न-कुछ अवश्य रहा है. दूसरे शब्दों में कहें तो हर कवि की हर कविता उसकी नई कविता होती है, किन्तु
स्वाधीनता के बाद कविता में आये रूपगत एवं वस्तुगत नवीनता को सबसे पहले ‘प्रतीक’ पत्रिका में रेखांकित किया गया, और 1951 ई. में अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘दूसरा सप्तक’ की भूमिका और उसमें संकलित कविताओं को आलोचकों ने ‘नई कविता’ से अभिहित किया. इसकी भूमिका में अज्ञेय ने ‘तार-सप्तक, (1943) के कवियों को प्रयोगवादी कहे जाने पर ऐतराज जताते हुए यह स्थापित किया कि प्रयोग का कोई वाद नहीं है. अज्ञेय ने यह भी स्थापित किया कि प्रयोग निरन्तर होते आए हैं और प्रयोग के द्वारा ही कविता या कोई भी कला या कोई भी रचनात्मक कार्य आगे बढ़ सका है. नए कवियों की प्रयोगशीलता एक विशेष प्रकार की नई रचनात्मकता को चिह्नित करती है.
अज्ञेय ने यह स्वीकार किया कि ‘दूसरा सप्तक’ नए हिन्दी काव्य को निश्चित रूप से एक कदम आगे ले जाता है और कृतित्व की दृष्टि से लगभग सूने आज के हिन्दी-क्षेत्र में आशा की लौ जगाता है. इस तरह अज्ञेय ने अपने सम्पादन के द्वारा नए काव्य का ‘तार सप्तक’ की दूसरी कड़ी के रूप में ‘दूसरा सप्तक’ का सम्पादन-प्रकाशन किया. धर्मवीर भारती ‘दूसरा सप्तक’ के एक प्रमुख कवि के रूप में जाने-माने जाते हैं. एक नए कवि के रूप में उनको यहीं से पहचान मिली. 1954 ई. में जगदीश गुप्त और विजयदेव नारायण साही ने ‘नई कविता’ पत्रिका निकाल कर उस दौर की हिन्दी कविता के लिए इस नामकरण को स्थिर कर दिया. ‘तार-सप्तक’ के कुछ सक्रिय कवियों ने भी ‘नई कविता’ में अपना योगदान दिया, खासकर अज्ञेय, मुक्तिबोध और गिरिजा कुमार माथुर ने. ‘दूसरा सप्तक’ के सात कवि ये हैं- भवानीप्रसाद मिश्र, शकुन्त माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती. बाद में 1959 ई. में ‘तीसरा सप्तक’ निकला, जिनके सात कवि भी नई कविता के सशक्त हस्ताक्षर माने जाते हैं, जिनमें चार कवियों का काव्य-विकास निरन्तर होता रहा. ये चार कवि हैं- केदारनाथ सिंह, कुँवर नारायण, विजयदेव नारायण साही और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना.
नई कविता का काव्य-परिदृश्य बेहद विस्तृत था. ये सभी कवि अपनी रचनाशीलता में एक-दूसरे से भिन्न होते हुए अपने-अपने अलग राहों के अन्वेषी थे. सबकी अपनी अलग सर्जनात्मक भाषा, शैली और बनावट थी. इसके एक छोर पर अज्ञेय के समान छोटी कविताएँ लिखने वाले कवि थे, तो दूसरी और प्रदीर्घ और विलक्षण नव-क्लासकीय कविता लिखने वाले मुक्तिबोध. एक तरफ शमशेर नव-सौंदर्यवादी कवि-‘‘प्रात का नभ/बहुत नीला/शंख जैसा’’ की तरह की कविताएँ लिख रहे थे तो दूसरी ओर धर्मवीर भारती प्रेम की पवित्रता को स्थापित करते हुए लिख रहे थे-
रख दिये तुमने नज़र में बादलों को साधकर,
आज माथे पर, सरल संगीत से निर्मित अधर,
आरती के दीपकों की झिलमिलाती छाँह में
बाँसुरी रखी हुई ज्यों भागवत के पृष्ठ पर!
नई कविता आंदोलन ने ऐतिहासिक महत्त्व के कई कवियों को स्थापित किया. जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि इन सभी कवियों का अपना मौलिक दृष्टिकोण था, कविता की अपनी नवीन सर्जनात्मक भाषा थी, नए-नए प्रयोग थे, प्रतीक और बिम्बों का नया संयोजन था. इन कवियों में धर्मवीर भारती की प्रारम्भिक कविताओं में प्रेम और सौंदर्य का अद्भुत अन्वेषण था. उनकी कविताएँ युवा मन की प्यास और बेचैनी को बेहद सहजता और आत्मीयता से रच रही थीं. प्रेम के प्रगाढ़ क्षणों में उदासी का भी सौदर्य-बोध होता है, यह सबसे पहले धर्मवीर भारती की कविता ही व्यंजित करती है-
तुम कितनी सुंदर लगती हो,
जब तुम हो जाती हो उदास!
ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में,
सूने खंडहर के आसपास
मदभरी चाँदनी जगती हो!
प्रेम और शृंगार के क्षणों को रूपायित करते हुए धर्मवीर भारती जो अप्रस्तुत विधान निर्मित करते हैं, उनमें प्रकृति की अद्भुत छटा और आध्यात्मिक चेतना का उत्कर्ष है-
ये शरद के चाँद-से उजले धुले-से पाँव, मेरी गोद में!
ये लहर पर नाचते ताजे कमल की छाँव मेरी गोद में!
दो बड़े मासूम बादल, देवताओं से लगाते दाँव, मेरी गोद में!
भारती की प्रेम कविताएँ ठोस और माँसल होने के साथ-साथ नए उपमान, नए बिम्ब और नए प्रतीकों से सज्जित हैं. उन्होंने ‘दूसरा सप्तक’ में ‘गुनाह का गीत’, और ‘गुनाह का दूसरा गीत’ नामक कविताओं में कुछ अद्भुत और खूबसूरत काव्य-पंक्तियाँ दी हैं, ऐसी पंक्तियाँ हिन्दी में एक नई भंगिमा के साथ पहली बार प्रस्तुत हुई हैं-
गुलाबी पाँखुरी पर एक हलकी सुरमई आभा
कि ज्यों करवट बदल लेती कभी बरसात की दुपहर
तुम्हारे स्पर्श की बादल-घुली कचनार नरमाई!
तुम्हारे वक्ष की जादूभरी मदहोश गरमाई!
तुम्हारी चितवनों में नरगिसों की पात शरमाई
इसी कविता में तन को ‘सुहागन लाज में लिपटा शरद की धूप’ के समान बताना, मन को ‘अंधेरी रात में खिलती हुई लता’ के समान बताना नई कविता के विस्तृत क्षितिज में एक नवीन काव्य-संवेदना का अन्वेषण है. ‘दूसरा सप्तक’, के अपने वक्तव्य में धर्मवीर भारती ने अपनी काव्य-चेतना के निर्माण में यह स्वीकार किया है कि जब उनकी चेतना ने पंख पसारे तब छायावाद का बोलबाला था. उन्हें लगा कि कविता की शहजादी इन अपार्थिव कल्पनाओं, टेढ़े-मेढ़े शब्द-जालों, अस्पष्ट रूपकों और उलझे हुए जीवन-दर्शन की शिलाओं से बंधी उदास जलपरी की तरह कैद है, ‘‘और भारती को चाहिए कि वह, उसे उन्मुक्त कर सर्वथा मानवीय धरातल पर उतार लाए; ताकि वह फैली-फैली चाँदी की बालू पर आदम की संतानों के साथ बेहिचक आँख-मिचौनी खेल सके, उनके सीधे-सादे दुख-सुख, वासनाओं-कामनाओं को समझ सके, उन्हीं की बोली बोल सके. इसलिए भारती ने सबसे पहले लिखे सरलतम भाषा में रंग-बिरंगी चित्रात्मकता से समन्वित साहसपूर्ण उन्मुक्त रूपोपासना और उद्दाम यौवन के सर्वथा माँसल गीत, जो मन की प्यास को झुठलाएं और न उसके प्रति कोई कुंठा प्रकट करें, जो सीधे ढंग से पूरी ताकत से अपनी बात आगे रखें. आदमी की सरल और सशक्त अनुभूतियों के साथ-साथ निडर खेल सकें, बोल सकें.’’
धर्मवीर भारती का यह सोच उनके स्वच्छ और निर्मल मन को दर्शाता है, जो गुनाहों का गीत गाने से भी नहीं घबड़ाता. उन्होंने इसी कुंठारहित संवेदना से ‘गुनाहों का देवता’ नामक उपन्यास की रचना की, जिसका सम्पूर्ण प्रभाव काव्यात्मक है. बहुमुखी प्रतिभा के धनी धर्मवीर भारती के उपन्यास, कहानियाँ, संस्मरण, यात्रा-वृतांत, रिपोर्ताज की रचना में भी उनका कवि-मन ही सक्रिय है. उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि उन्हें साहित्य के हर रूप में दिलचस्पी है और हर तरह की चीज वे लिखते हैं, यहाँ तक कि एक दर्जी दोस्त की दुकान का उद्घाटन था और उसके प्रबल आग्रह से उन्होंने उसके लिए एक कलात्मक विज्ञापन का नोटिस भी लिखा था. ‘दूसरा सप्तक’ के आत्म-वक्तव्य में वे लिखते हैं- ‘‘असल में भारती का मन कविता में ही रमता है, क्योंकि कविता के माध्यम से ही भारती आज की बेहद पिसती हुई संघर्षपूर्ण, कटु और कीचड़ में बिलबिलाती हुई जिन्दगी के भी सुंदरतम अर्थ खोज पाने में समर्थ रहा है. कविता ने उसे अत्यधिक पीड़ा के क्षणों में विश्वास और दृढ़ता दी है. कविता भारती के लिए शांति की छाया और विश्वास की आवाज रही है.’’ अर्थात् विविध विधाओं में साहित्य-कर्म करते हुए भी धर्मवीर भारती के लिए कविता ही केन्द्रीय विधा है. वे मूलतः कवि हैं. इस कवि-कर्म में वे परम्परा से भी जुड़ते हैं और उसकी रूढ़ियों का भंजन करते हुए नई कविता में अपना अनूठा रचनात्मक अवदान भी करते हैं. वे यह स्वीकार करते हैं कि मात्र परम्परा तोड़ने के लिए या प्रयोग करने के लिए ऐसा नहीं करते हैं. जब जिंदगी, अनुभूति और विश्वास का तकाजा इतना हो जाता है कि वे बेचैन हो जाते हैं, तभी नई कविता लिखते हैं. वे कविता में प्रभावोत्पादकता को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं. दुष्यंत कुमार के शब्दों में कहें कि वे अपनी आवाज में असर के लिए लिखते हैं. ऐसा करते हुए उनमें निरंतर आत्म-विश्लेषण का विवेक जागृत रहता है.
‘दूसरा सप्तक’ (1951) में धर्मवीर भारती की तेरह कविताएँ संकलित हैं. इन तेरह कविताओं में 26 और कविताएँ मिलाकर उन्होंने अपना पहला कविता-संग्रह ‘ठंडा लोहा तथा अन्य कविताएँ’ नाम से 1952 में प्रकाशित करवाया. इस कविता-संग्रह की भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया है कि वे कविताएँ बहुत कम लिख पाते हैं. इस संग्रह में उनकी छह वर्षों की प्रारंभिक कविताएँ संकलित हैं. इस संग्रह की पहली कविता है-‘ठंडा लोहा’. आजादी के बाद धीरे-धीरे देशभर में निराशा का माहौल छा रहा था, इसका प्रभाव इस कविता में है. इसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ देखें-
ठंडा लोहा! ठंडा लोहा! ठंडा लोहा!
मेरी दुखती हुई रगों पर ठंडा लोहा!
मेरी स्वप्न-भरी पलकों पर
मेरी दर्द-भरी आत्मा पर
स्वप्न नहीं अब
गीत नहीं अब
दर्द नहीं अब-
एक पर्त ठंडे लोहे की!
मैं जमकर लोहा बन जाऊँ-
हार मान लूँ-
हार मान लूँ-
यही शर्त ठंडे लोहे की!
धर्मवीर भारती ने यह स्वीकार किया है कि ‘ठंडा लोहा’ जैसी युग-सापेक्ष कविता की शुरुआत ‘कवि और अनजान पगध्वनियाँ’ से हुई. यह एक रोमानी और स्वच्छंदतावादी कवि के मन पर पड़ने वाली अवसाद की गहरी छाया का विश्लेषण है. इस कविता में छंद-संवाद के द्वारा एक नाटकीय काव्य-प्रबंध है, जिसका विस्तार उनकी आगामी महत्त्वपूर्ण काव्य-रचनात्मक प्रतिभा पर पड़ा और उन्होंने ‘कनुप्रिया,’ ‘अंधायुग, ‘प्रमथ्युगाथा’ जैसी नाटकीय परिदृश्य की महत्त्वपूर्ण कविताएँ लिखीं. यह संवादात्मक गाथा का ऐसा परिपक्व और सर्वथा नवीन काव्य-संप्रेषण था, जिसके माध्यम से हिन्दी कविता को एक नया आयाम मिला.
‘अंधायुग’ का प्रकाशन 1954 में हुआ. धर्मवीर भारती के सम्पूर्ण रचनात्मक योगदान में यह उनकी परम उपलब्धि है. कवि ने इसे गीति-नाट्य कहा है. इस कृति में प्रबंध कौशल के साथ-साथ सभ्यता-विमर्श की एक नवीन दृष्टि है. उसे पढ़कर प्रसिद्ध आलोचक देवराज को ‘कामायनी’ की याद आयी थी, यह स्वाभाविक भी है. गजानन माधव मुक्तिबोध ने ‘वसुधा’ के दिसम्बर, 1958 अंक में इसकी समीक्षा लिखी थी और इसके अंत में लिखा था- ‘‘ ‘अंधायुग’ नई साहित्यिक पीढ़ी का एक मूल्यवान और महत्त्वपूर्ण प्रयास है- ऐसा प्रयास जिस पर व्यापक बहस होना आवश्यक है. हम इस कृति के लिए श्री भारती का अभिनन्दन करते हैं.’’ मुक्तिबोध की कविताओं में फैंटेसी की महत्त्वपूर्ण भूमिका है. यह ज्ञातव्य है कि उन्होंने फैंटेसी को ‘कामायनी’ में ढूंढ़ा और फिर ’अंधायुग’ में. वे लिखते है- ‘‘श्री भारती ने अपनी फैंटेसी के अन्तर्गत व्यक्तियों द्वारा उभारे गए जिन निष्क्रिय सत्यों, तटस्थ सत्यों और धर्म-सत्यों को उद्धाटित करने का प्रयत्न किया है, वे सत्याणु, वस्तुतः कुछ प्रवृत्तियाँ सूचित करते हैं- ऐसी प्रवृत्तियाँ जो संस्कृति और नेतृ-वर्ग की है.’’ ‘अंधायुग’ बीसवीं शताब्दी के छठें दशक की श्रेष्ठ काव्योपलब्धि है. इसकी भूमिका में धर्मवीर भारती यह स्वीकार करते हैं- ‘‘कुंठा, निराशा, रक्तपात, प्रतिशोध, विकृति, कुरूपता, अंधापन- इनसे हिचकिचाना क्या, इन्हीं में तो सत्य के दुर्लभ कण छिपे हुए हैं, तो इनमें क्यों न निडर धंसूँ, इनमें धंसकर भी मैं मर नहीं सकता. हम न मरैं, मरिहै संसारा.’’ भारती अपने युग से व्याप्त अंधेरे की बारीक पड़ताल इस कृति में करते हैं और वास्तव में यह कृति उन्हें अमरता प्रदान करती है.
‘अंधायुग’ के बाद धर्मवीर भारती की रचनात्मक मनोभूमि में कुछ तीखे सवाल अपने युग को लेकर कौंध रहे थे और उन्होंने उसके बाद उन्हीं सवालों को हल करने के लिए ‘कनुप्रिया’ की रचना की. इसका प्रकाशन 1959 के प्रारंभ में हुआ. इसकी भूमिका में वे यह स्वीकार करते हैं कि ऐसे तो क्षण होते ही हैं, जब लगता है कि इतिहास की दुर्दांत शक्तियाँ अपनी निर्मम गति से बढ़ रही हैं, जिनमें कभी हम अपने को विवश पाते हैं, कभी विक्षुब्ध, कभी विद्रोही और प्रतिशोधयुक्त, कमी वल्गाएँ हाथ में लेकर गतिनायक या व्याख्याकार, तो कभी चुपचाप शाप या सलीब स्वीकार करते हुए आत्मबलिदानी उद्धारक या त्राता...लेकिन ऐसे भी क्षण होते हैं जब हमें लगता है कि यह सब जो बाहर का उद्वेग है- महत्त्व उसका नहीं है- महत्त्व उसका है जो हमारे अन्दर साक्षात्कृत होता है, चरम तन्मयता का क्षण जो एक स्तर पर सारे बाह्य इतिहास की प्रक्रिया से ज्यादा मूल्यवान सिद्ध होता है, जो क्षण हमें सीपी की तरह खोल गया है- इस तरह कि समस्त बाह्य-अतीत, वर्तमान और भविष्य-सिमट कर उस क्षण में पुंजीभूत हो गया है, और हम हम नहीं रहे. यह कृति अपनी परंपरा के प्रति दायित्व-बोध, परंतु चिंतन पर समर्पण भावना और नवीनता बोध का सुखद सम्मिलित रूप है. मानवीय पहलू के कुछ चिरन्तन प्रश्नों और सामयिक जीवन की समस्याओं के द्वंद्व से निर्मित ‘कनुप्रिया’ प्राचीन सांस्कृतिक मिथक का अत्यंत कलात्मक उपयोग एक करुण और सुकोमल भाव-संसार को उजागर करती है.
धर्मवीर भारती की चौथी काव्य-कृति ‘सात गीत वर्ष’ 1959 के अंत में प्रकाशित हुई. इसमें विविध शैली, शिल्प और विषय-वस्तु की 51 छोटी कविताएँ संकलित हैं. इस संग्रह के बाद धर्मवीर भारती यदा-कदा कविताएँ लिखते रहे. उनके जीवन के अंतिम वर्षों की समग्र कविताएँ वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से ‘सपना अभी भी’ नामक काव्य-पुस्तक में संकलित हैं. इस संग्रह में उनकी ‘मुनादी’ नामक कविता भी संकलित है, जो 1974 ई. में जयप्रकाश नारायण पर लाठी से प्रहार किये जाने की खबर सुनकर लिखी गई थी. इस कविता को 74 आंदोलन में पोस्टर बनाकर छात्रों द्वारा दीवारों पर साटा जाता था. उसी समय इस कविता का 22 भाषाओं में अनुवाद भी हुआ था.
धर्मवीर भारती की कविताओं में प्रगीतात्मकता भी है और नाटकीयता भी. उनकी कविताओं में कविता के अनेक प्रयोग हैं, शिल्प के स्तर पर भी और कथ्य के स्तर पर भी. उनमें भावात्मकता भी है और विचारात्मकता भी. उनकी काव्यभाषा में एक गतिमयता, प्रवाह और लय का संगीतात्मक स्वरूप भी है.
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