कि सी भी अन्य भारतीय भाषा की रचना हिन्दी में पढ़ने को मिले और आभास न हो पाये कि हम अनूदित रचना पढ़ रहे हैं तो इसका श्रेय अनुवादक को जाता है. श...
किसी भी अन्य भारतीय भाषा की रचना हिन्दी में पढ़ने को मिले और आभास न हो पाये कि हम अनूदित रचना पढ़ रहे हैं तो इसका श्रेय अनुवादक को जाता है. श्रीमती निरूपा मोहनजी ने मराठी भाषा की प्रख्यात लेखिका श्रीमती विजया जहांगीरदार के चर्चित उपन्यास ‘ययाति कन्या माधवी’ का हिन्दी अनुवाद करके यह कौशल कर दिखाया है.
निरूपा मोहनजी की पहचान यूँ तो नारी उत्थान की गतिविधियों में है, पर मराठी मूल के इस उपन्यास का भावानुवाद करके उन्होंने सराहनीय कार्य किया है, जबकि अनुवादक के रूप में उनका यह पहला प्रयास है. उन्होंने पौराणिक उपन्यास को गरिष्ठ व क्लिष्ट होने से बचाये रखा और सरसता में कोई अवरोध नहीं आने दिया. तत्कालीन गुरुकुल, ऋषिमुनि, गुरुशिष्य परम्परा, राजप्रासाद, उद्यान, उत्सव आदि का सजीव चित्रण उपन्यास में है. पौराणिक काल की जो भाषा होनी चाहिये, वह उपन्यास की है. भाषा की विवशता होते हुए भी वर्णन सरस और ग्राह्य हैं. संवादों में पूर्ण सम्प्रेषणीयता और स्वाभाविकता है. इन्हीं विशेषताओं से यह अनूदित उपन्यास रोचक और पठनीय बन पड़ा है.
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कथा के केन्द्र में महाराज ययाति और देवयानी की पुत्री माधवी है. माधवी अतीव सुन्दर और विदुषी है. पिता की आज्ञाकारिणी है. ययाति की दूसरी पत्नी शर्मिष्ठा भी है, जो कि वृषपर्वा की पुत्री है. माधवी व शर्मिष्ठा में परस्पर स्नेह है. शर्मिष्ठा को देवयानी हेय दृष्टि से देखती और उसे नीचा दिखाने में नहीं चूकती थी. पति ययाति को देवयानी समय-समय पर डराती, धमकाती और अपमानित करती रहती है.
देवयानी के पिता शुक्राचार्य हैं, जो असुरों के गुरु माने जाते थे. ययाति को सदैव शुक्राचार्य के शाप का भय सताता रहता था और एक समय आता है, जब शुक्राचार्य क्रोधित होकर महाराज ययाति को असमय बूढ़ा होने का शाप भी दे देते हैं.
गालव मुनि अपने गुरु विश्वामित्र को गुरुदक्षिणा माँगने के लिये उकसाते हैं. बार-बार अनुरोध करने पर विश्वामित्र क्रोध में आठ सौ श्यामकर्ण अश्व गुरुदक्षिणा के रूप में माँग लेते हैं. विश्वामित्र के अवचेतन मन में बचपन की अश्वों को प्राप्त करने की लालसा थी. इसकी भी रोचक अन्तर्कथा उपन्यास में है. गालव मुनि दक्षिणा की पूर्ति के लिये ययाति के राजदरबार में जाते हैं और आठ सौ श्यामकर्ण अश्वों की माँग रख देते हैं. महाराज ययाति आठ सौ श्यामकर्ण अश्व देने में असमर्थ होते है, परिणामतः संशय में पड़ जाते हैं. उन्हें मुनि के शाप का भय सताने लगता है, जिससे मुक्ति के लिये वह अपनी पुत्री माधवी को गालव मुनि को विधिवत दान कर देते हैं और निवेदन करते हैं कि किसी राजा से माधवी के बदले श्यामकर्ण अश्व प्राप्त कर लें. माधवी को लेकर गालव मुनि अयोध्या नरेश हर्यश्व के पास जाते हैं. अन्य रानियों के विरोध के बाद भी माधवी को हर्यश्व स्वीकार कर उसे भोगते हैं और इच्छित पुत्र प्राप्त करते हैं, पर दो सौ श्यामकर्ण अश्व ही दे पाने में समर्थ होते हैं. फलतः शेष अश्व प्राप्त करने के उधेश्य से अन्य राज्यों की ओर प्रस्थान करते हैं. माधवी को ऋषि अंगिरस का वरदान प्राप्त है कि सन्तान उत्पत्ति के बाद भी वह अक्षत यौवना ही बनी रहेगी. गालव मुनि क्रमशः काशी नरेश दिवोदास, भोजपुर सम्राट उशीनर के राज दरबारों में उसे लेकर जाते हैं. प्रत्येक राजा माधवी को भोगता है और पुत्ररत्न प्राप्त करता है. प्रतिफल में प्रत्येक राजा से मात्र दो सौ अश्व ही प्राप्त हो पाते हैं, क्योंकि किसी भी राजा के पास पर्याप्त श्याम कर्ण अश्व थे ही नहीं. अन्त में दो सौ अश्व शेष रह जाते हैं, तो गालव मुनि अपने गुरु विश्वामित्र के पास ही लौट आते हैं. विश्वामित्र की तीनों पत्नियाँ मायके में होती हैं. जित्येन्द्रिय विश्वामित्र को भी माधवी को देखकर स्त्रीमोह होता है. वह भी माधवी से सहवास करते हैं और पुत्र प्राप्त करते हैं, जिसका नाम अश्टक रखा जाता है.
इधर शुक्राचार्य के शाप से वयोवृद्ध हो चुके महाराज ययाति भोगविलास के लिये अपने ही पुत्र पुरु से यौवन माँग लेते हैं और उसे अपना बुढ़ापा दे देते हैं.
पूरी कथा तत्कालीन राजाओं, ऋषि-मुनियों के क्रोध, काम, भोगविलास को उजागर करती है. राजे-महाराजे जितने पराक्रमी होते थे, उतने ही ऋषि-मुनियों के शाप से भयभीत रहते थे. अपने स्वार्थ के लिए वे स्त्रियों को साधन बनाने में नहीं हिचकते थे. माधवी की इच्छा-अनिच्छा, करुणा, मार्मिक पीड़ा को उपन्यास में प्रभावी ढंग से दर्शाया गया है, पर उसकी मानसिक यातना को कोई नहीं समझता, यहाँ तक कि उसके पिता ययाति भी नहीं. एक पिता ही कैसे अपनी पुत्री को कलुषित जीवन जीने को बाध्य करता है. उपन्यास का यह ज्वलन्त विषय है.
भारतीयता का एक ऐसा अतीत, जिसे कम लोग जानते हैं, पाठकों के सामने लाने के लिए मूल रचनाकार विजया जहांगीर बधाई की पात्र हैं. वहीं निरूपा मोहनजी को भी इसका श्रेय दिया जाना चाहिए, कि उन्होंने पौराणिक काल के अनोखे उपन्यास को मराठी से अनूदित करके हिन्दी पाठकों के लिए उपलब्ध कराया है.
समीक्षित कृति : ययाति कन्या माधवी (उपन्यास)
मूल मराठी लेखिका : श्रीमती विजया जहांगीरदार
(अनुवाद : श्रीमती निरूपा मोहनजी)
प्रकाशक : नमन प्रकाशन, 4231/1, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली- 110002
मूल्य 350/- रुपये, पृष्ठ संख्या : 171
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समीक्षक सम्पर्क- 282, राजीव नगर, नगरा,
झाँसी-284003.
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