कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद का निजी जीवन संघर्ष से भरा रहा। स्मरण रहे कि 8 फरवरी 1921 को मुंशी प्रेमचंद ने महात्मा गाँधी का भाषण सुनकर अपनी 25...
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद का निजी जीवन संघर्ष से भरा रहा।
स्मरण रहे कि 8 फरवरी 1921 को
मुंशी प्रेमचंद ने महात्मा गाँधी का भाषण सुनकर
अपनी 25 साल की पक्की सरकारी नौकरी को
ठोकर मार दी थी। यह उनकी जिंदगी का नया मोड़ था।
गाँधी के विचारों का आभामंडल उन्हें
देश की स्वतंत्रता के महायज्ञ में योगदान की तारीफ ले चला।
जलियाँवाला बाग काण्ड ने प्रेमचंद पर अमिट प्रभाव डाला था और ब्रिटिश सरकार के चेहरे को देखते हुए गाँधी जी की जनसभा में आने के बाद सहसा यह मानसिक परिर्वतन हुआ कि अब अपनी रचनाओं को किसी बड़े उद्देश्य के प्रति समर्पित करूँ। यह भी जान लें कि सन् 1916 में नॉर्मल स्कूल के अध्यापक के पद पर गोरखपुर आने से पहले मुंशी प्रेमचंद हमीरपुर के महोबा में डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल थे।
इतिहास गवाह है कि एक दिन ज़िला कलेक्टर ने उन्हें बुलाकर बताया कि उनका कहानी संग्रह "सोज़े वतन" विद्रोह भड़काने वाला है, इसलिए उसे ज़ब्त किया जाता है। यह एक सुपरिचित और बहुचर्चित घटना है। कलेक्टर ने उन्हें हुक्म दिया कि कलमगोई बंद करें। लेकिन वे कब मैंने वाले थे। जूझना तो उनकी आदत में शुमार था। लिहाज़ा, उन्होंने अपना नाम बदलकर प्रेमचंद उपनाम से लिखना शुरू कर दिया। यह बीसवीं सदी के शुरुआती दौर के प्रेमचंद थे। बता दें कि घटना सन् 1905 की है। किसी ने सोचा भी न होगा कि इस हुक्मरानी का उन पर किस कदर असर हुआ होगा। तो यह भी जान लें कि बड़े ही दब्बू, शर्मीले, खामोश और अंतर्मुखी प्रेमचंद ने सबसे पहले एक झंडी उखाड़ी और उससे पीटना शुरू कर दिया। जिसके बाद सारे लड़के भिड़ पड़े और अंग्रेज़ों को बुरी तरह पीट डाला। एक कलमकार के विरोध व विद्रोह का यह एक नया आगाज़ था। हिंदी के उपन्यासकार प्रो. रामदेव शुक्ल चुनार का एक किस्सा सुनाया था कि फुटबॉल का एक मैच हुआ था, मिशन स्कूल और अंग्रेजों के बीच में और अंग्रेज़ हार गये थे, और उन्होंने एक हिंदुस्तानी लड़के को बूट से मार दिया। समझा जाता है कि इसी घटना के कारण मुंशी प्रेमचंद को चुनार मिशन स्कूल की नौकरी गँवानी पड़ी थी।
मुंशी प्रेमचंद निर्भीक होकर लिखते रहे और उन्होंने प्रतिबंधित अखबारों में भी लिखा। छद्म नाम से लिखते रहे, पर हार नहीं मानी। मना जाता है कि वे रूसी क्रांति से प्रभावित थे और टॉल्स्टॉय उन्होंने पढ़ रखा था। मुंशी प्रेमचन्द ने अपनी लेखनी से स्वतंत्रता आंदोलन को बल दिया। उनके लिए लिखना एक मिशन सा बन गया था। उसके पीछे देश सेवा का गहरा ज़ज़्बा था। एक तरह की लड़ाई थी अंगेजों के खिलाफ। उपन्यास और कहानियों के अलावा गोरखपुर से प्रकाशित दैनिक स्वदेश और मुंशी प्रेमचंद की अपनी पत्रिका हंस और जागरण आदि में उनके लेख इस बात के गवाह हैं कि मुंशी प्रेमचन्द किस तरह अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन का हवा दे रहे थे। गरम दल के नेताओं जैसी गरम तासीर की क़लम उनकी पहचान बन गई थी।
प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ के पहले प्रेसीडेंट थे। इसे उनका वाम-पक्ष स्पष्ट हो जाता है। लेकिन नहीं भूलना चाहिए कि मुंशी प्रेमचंद अंत तक गाँधी जी के विचारों के समीप और साथ भी रहे। उनकी जीवनी में इस बात का ज़िक्र मिलता है कि नौकरी छोड़ने के बाद मुंशी प्रेमचंद चरखा, स्वदेशी और स्वराज के प्रचार में लग गए थे। बताया जाता है कि गोरखपुर से लमही जाकर उन्होंने चरखे बनवाकर भी बाँटे। इस बात का भी ज़िक्र मिलता है कि सन् 1930 में जब वह लखनऊ के अमीनुद्दौला पार्क में रहते थे तो नमक क़ानून के खिलाफ सत्याग्रह करने वालों को अपने हाथ से कुर्ता और टोपी पहनाकर रवाना करते थे।
प्रतिरोध उनकी मूल प्रकृति थी।
मुंशी प्रेमचंद आर्थिक तंगी के शिकार रहे, लेकिन महाराजा अलवर ने जब उन्हें उस ज़माने में 400 रू. महीना वेतन, मोटर और बंगले वाली नौकरी की पेशकश की तो उन्होंने नामंज़ूर कर दिया। बॉलीवुड ने उन्हें फ़िल्मी पटकथा लिखने बुलाया, लेकिन वहाँ की रीति-नीति से समझौता न करने के कारण बंबई छोड़कर वापस बनारस आ गए। पत्नी शिवरानी देवी ने कांग्रेस के टिकट पर काउंसिल चुनाव लड़ने का प्रस्ताव रखा, लेकिन मुंशी प्रेमचन्द ने इसे नामंजूर कर दिया और कहा,"मेरा काम काउंसिल में काम करने वालों की समालोचना करना हैं." एक यथार्थवादी लेखक होने के बावजूद प्रेमचंद निराशा के जनक नहीं बल्कि आदर्शोन्मुखी और क्रांतिकारी समाजपरिवर्तन के प्रबल पक्षधर थे। अपने पक्ष को प्रबल बनाने और जन-मन में बसाने के लिए उन्होंने अपनी लेखनी का सर्वस्व समर्पित कर दिया।
प्रेमचंद और जैनेन्द्र ; एक मार्मिक चित्रण
प्रस्तुत संस्मरण में प्रेमचंद जी के साथ बिताए अन्तिम क्षणों का चित्रण है। जिसे लिखा है जैनेन्द्र जी ने। बहुत ही मार्मिक व संवेदना से परिपूर्ण।आज प्रेमचंद जी को यद् करते हुए आइये यह दुर्लभ संस्मरण भी पढ़ें। जैनेन्द्र लिखते हैं -
मुझे एक अफसोस है, वह अफसोस यह है कि मैं उन्हें पूरे अर्थों में शहीद क्यों नहीं कह पाता हूँ, मरते सभी हैं, यहां बचना किसको है ! आगे-पीछे सबको जाना है, पर मौत शहीद की ही सार्थक है, क्योंकि वह जीवन की विजय को घोषित करती है। आज यही ग्लानि मन में घुट-घुटकर रह जाती है कि प्रेमचन्द शहादत से क्यों वंचित रह गये? मैं मानता हूँ कि प्रेमचंद शहीद होने योग्य थे, उन्हें शहीद ही बनना था।और यदि नहीं बन पाए हैं वह शहीद तो मेरा मन तो इसका दोष हिंदी संसार को भी देता है।
मरने से एक सवा महीने पहले की बात है, प्रेमचंद खाट पर पड़े थे। रोग बढ़ गया था, उठ-चल न सकते थे। देह पीली, पेट फूला, पर चेहरे पर शांति थी।मैं तब उनकी खाट के पास बराबर काफी-काफी देर तक बैठा रहा हूँ। उनके मन के भीतर कोई खीझ, कोई कड़वाहट, कोई मैल उस समय करकराता मैने नहीं देखा, देखके तो उस समय वह अपने समस्त अतीत जीवन पर पीछे की ओर भी होंगे और आगे अज्ञात में कुछ तो कल्पना बढ़ाकर देखते ही रहे होंगे लेकिन दोनों को देखते हुए वह संपूर्ण शांत भाव से खाट पर चुपचाप पड़े थे। शारीरिक व्यथा थी, पर मन निर्वीकार था।ऐसी अवस्था में भी (बल्कि ही) उन्होंने कहा- जैनेन्द्र! लोग ऐसे समय याद किया करते हैं ईश्वर। मुझे भी याद दिलाई जाती है। पर अभी तक मुझे ईश्वर को कष्ट देने की जरूरत नहीं मालूम हुई है।शब्द हौले-हौले थिरता से कहे गए थे और मैं अत्यंत शांत नास्तिक संत की शक्ति पर विस्मित था।
मौत से पहली रात को मैं उनकी खटिया के बराबर बैठा था। सबेरे सात बजे उन्हें इस दुनिया पर आँख मीच लेनी थीं। उसी सबेरे तीन बजे मुझसे बातें होती थीं। चारो तरफ सन्नाटा था। कमरा छोटा और अँधेरा था। सब सोए पड़े थे। शब्द उनके मुंह से फुसपुसाहट में निकलकर खो जाते थे। उन्हें कान से अधिक मन से सुनना पड़ा था।तभी उन्होंने अपना दाहिना हाथ मेरे सामने कर दिया, बोले-दाब दो।हाथ पीला क्या सफेद था और पूला हुआ था, मैं दाबने लगा।वह बोले नहीं, आँख मींचे पड़े रहे। रात के बारह बजे ' हंस' की बात हो चुकी थी। अपनी आशाएँ, अपनी अभिलाषाएँ, कुछ शब्दों से और अधिक आँखों से वह मुझपर प्रगट कर चुके थे। ' हंस' की और साहित्य की चिंता उन्हें तब भी दबाए थी। अपने बच्चों का भविष्य भी उनकी चेतना पर दबाब डाले हुए था। मुझसे उन्हें कुछ ढारस था।अब तीन बजे उनके फूले हाथ को अपने हाथ में लिए मैं सोच रहा था कि क्या मुझ पर उनका ढारस ठीक है। रात के बारह बजे मैने उनसे कुछ तर्क करने की धृष्टता भी की थी। वह चुभन मुझे चुभ रही थी। मैं क्या करूँ? मैं क्या करूँ?इतने में प्रेमचन्द जी बोले, जैनेन्द्र! बोलकर, चुप मुझे देखते रहे। मैने उनके हाथ को अपने दोनों हाथों से दबाया। उनको देखते हुए कहा, आप कुछ फिकर न कीजिए बाबूजी। आप अब अच्छे हुए और काम के लिए हम सब लोग हैं ही।अब मुझे देखते, फिर बोले-आदर्श से काम नहीं चलेगा। मैने कहना चाहा...आदर्श, बोले-बहस न करो। कहकर करवट लेकर आँखें मींच लीं।
उस समय मेरे मन पर व्यथा का पत्थर ही मानो रख गया। अनेकों प्रकार की चिंता-दुश्चिंता उस समय प्रेमचन्द जी के प्राणों पर बोझ बनकर बैठी हुयी थी। मैं या कोई उसको उस समय किसी तरह नहीं बटा सकता था। चिंता का केन्द्र यही था कि 'हंस' कैसे चलेगा? नहीं चलेगा तो क्या होगा? 'हंस' के लिए तब भी जीने की चाह उनके मन मं थी और ' हंस' न जियेगा, यह कल्पना उन्हें असह्य थी, पर हिन्दी-संसार का अनुभव उन्हें आश्वस्त न करता। 'हंस' के लिए न जाने उस समय वह कितना झुककर गिरने को तैयार थे।मुझे यह योग्य जान पड़ा कि कहूं ...' हंस' मरेगा नहीं, लेकिन वह बिना झुके भी क्यों न जिये? वह आपका अखबार है, तब वह बिना झुके ही जियेगा। लेकिन मैं कुछ भी न कह सका और कोई आश्वासन उस साहित्य-सम्राट को आश्वस्थ न कर सका।थोड़ी देर में बोले -गरमी बहुत है, पंखा करो। मैं पंखा करने लगा। उन्हें नींद न आती थी, तकलीफ बेहद थी। पर कराहते न थे, चुपचाप आंख खोलकर पड़े थे। दस पंद्रह मिनट बाद बोले-जैनेन्द्र, जाओ, सोओ। क्या पता था अब घड़ियां गिनती की शेष हैं, मैं जा सोया। और सबेरा होते-होते ऐसी मूर्छा उन्हें आयी कि फिर उनसे जगना न हुआ।
हिंदी संसार उन्हें तब आश्वस्त कर सकता था, और तब नहीं तो अभी भी आश्वस्त कर सकता है। मुझे प्रतीत होता है, प्रेमचन्द जी का इतना ऋण है कि हिन्दी संसार सोचे, कैसे वह आश्वासन उस स्वर्गीय आत्मा तक पहुंचाया जाये।
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प्रख्यात प्रेरक वक्ता और प्राध्यापक,
हिंदी विभागशासकीय दिग्विजय स्वशासी
स्नातकोत्तर महाविद्यालय, राजनांदगांव
मो. 9301054300
Aadarniye premchand ji ko sadar shradhanjali....desh ke sahity ko nai uchai par pahuchane ke liye we sadev yaad kiye jayenge
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