किसी भी बड़े कवि की पहचान होती है कि वह अपने समय के कितना अनुकूल रहता है। समय की अनुकूलता से आशय समय के प्रति संवेदनशीलता व समय के प्रति सजग...
किसी भी बड़े कवि की पहचान होती है कि वह अपने समय के कितना अनुकूल रहता है। समय की अनुकूलता से आशय समय के प्रति संवेदनशीलता व समय के प्रति सजगता है। कविता में समय को साध लेना कला भी है और कवि होने की अनिवार्य शर्त भी। अधिकांश कवि इस अनिवार्यता को नहीं समझते। वे काल-विशेष की विशिष्टताओं का ही आजीवन रेखांकन करते रहते हैं। उनका अपना दशक होता है। विशेष कालखंड की रचनात्मक पहचान होती है। वे उस पहचान को ही आजीवन वहन करते रहते हैं। यह हिन्दी कविता के समक्ष एक बड़ा संकट है। आधुनिक हिन्दी कविता के दिग्गज कवि इस दोष से मुक्त नहीं हो सके; जैसे विजेन्द्र का काव्य - विजेन्द्र आज भी अस्सी के दशक से अलग नहीं हो पाए हैं। कोई एक कविता ऐसी नहीं है जो अस्सी के दशक की सीमा का अतिक्रमण करती हो। मगर सुधीर सक्सेना इस अवगुण से मुक्त हैं। उनकी आरम्भिक कविताओं और अब की कविताओं में अन्तर साफ़ दिखाई देता है। एक कविता का रचना-कर्म एक विशेष कालखंड में ही चर्चित होता है। उस कालखंड को हम कवि की पहचान से जोड़ देते हैं। जो समय के प्रति सजग होता है। वही, कालखंड से अवमुक्त होकर, अगले कालखंड की विशिष्टताओं को आत्मसात करने लगता है। वह हर एक काल एवं हर एक धारा के अनुकूल अपनी रचनात्मकता का भी अनुकूलन कर लेता है। सुमित्रानन्दन पन्त , सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला काव्य अनुकूलन के बड़े उदाहरण हैं। यह अनुकूलता विविधता लाती है। कवि की प्रतिभा और समझ को भी विस्तारित करती है। निराला की पहली कविता ‘जूही की कली’ छायावाद की आरम्भिक रचनाओं में है; लेकिन बाद की कविताओं में विशेषकर कुकुरमुत्ता , खजोहरा , भिक्षुक , दीन , बादल राग आदि में और ‘जूही की कली’ में ज़मीन आसमान का अन्तर है । यह
अन्तर समय का है। जब-तक छायावाद आन्दोलन का प्रभाव रहा तब-तक निराला छायावादी रहे। जैसे ही प्रगतिशील आन्दोलन का प्रभाव बढ़ा निराला प्रगतिशील हो गये। गीत आन्दोलन के प्रभाव से गीत भी लिखे। यही पन्त के साथ हुआ। उनकी आरम्भिक रचनाएँ वीणा , ग्रन्थि , पल्लव , आदि छायावादी हैं तो 1936 में प्रकाशित उनकी रचना युगान्त छायावाद के अन्त की उद्घोषणा करती प्रतीत होती है। 1937 में युगवाणी; इसके बाद ग्राम्या आदि रचनाएँ प्रगतिवादी हैं तो बाद की रचनाओं में विशेषकर ‘कला और बूढ़ा चाँद’ में वह अरविन्द-दर्शन से प्रभावित दिखाई देते हैं। समय का अनुकूलन पन्त और निराला दोनों में है। यही कारण है, दोनों कवि महाकवि हैं। महान कवि वही हो सकता है जिसके काव्य में विविधता है। यह विविधता पन्त और निराला दोनों में है। यही गुण महेन्द्र भटनागर की कविताओं में हैं। महेन्द्र का जन्म 1926 में हुआ था। आज़ादी के पूर्व का औपनिवेशिक शासन उन्होंने भुगता है, देखा है और समझा है । जन्म के समय हिन्दी में छायावादी स्वच्छन्दतावादी आन्दोलन का ज़ोर था। छायावाद का प्रभाव हिन्दी कविता में अभी तक देखा जा सकता है। यह आन्दोलन इतना व्यापक और गहरा था कि इसके आगे की पीढ़ियां इसके प्रभाव से अपने आपको अवमुक्त नहीं कर पाईं ।
1936 में प्रगतिशील आन्दोलन का प्रभाव बढ़ा। छायावाद की धमक कम हुई। लेकिन, फिर भी छायावाद का वैयक्तिकतावादी प्रभाव अवशेष के रूप में बचा रहा। बच्चन , भगवतीचरण वर्मा , दिनकर जैसे कवि इस आन्दोलन से जुड़े रहे। इसी, चूँकि इसी समय राष्ट्रीय आन्दोलन भी अपने यौवन को प्राप्त हो चुका था; विश्व के समस्त औपनिवेशिक मुल्क उपनिवेश के कलंक से मुक्त होने के लिए संघर्षरत थे। रूस में क्रान्ति हो चुकी थी। समाजवाद की पहचान स्थापित हो चुकी थी। राष्ट्रीय आन्दोलन के बड़े नेताओं के गुण व लक्षण भी काव्य-मूल्य के रूप में स्थापित होना आरम्भ हो चुके थे। इन छोटी-छोटी विशिष्टताओं को तत्कालीन कविता में भली-भाँति परखा जा सकता है। यह महेन्द्र की अनुभूतिक प्रक्रिया का समय था। वह सजग होकर तमाम वैचारिक व राजनैतिक परिवर्तनों को परख रहे थे। महेन्द्र का लेखन-कार्य 1940 के बाद आरम्भ हुआ; मतलब 1941 से उनका लेखन नियमित होने लगा। जन्म 1926 तो लेखन 1941 - कुल पन्द्रह-सोलह वर्ष की उम्र में उनका रचनाकार सक्रिय हो उठा था । इसी समय प्रयोगवादी कविता का जन्म हुआ - गीत , नवगीत , अगीत, अकविता , भूखीपीढ़ी काव्य, नक्सलबाड़ी कविता जैसे छोटे-छोटे आन्दोलनों का आरम्भ महेन्द्र के सक्रिय होने के साथ ही हुआ। ज़ाहिर है, जब आन्दोलन उत्पन्न होता है तो अचानक उसे स्वीकृति नहीं प्राप्त होती है और दशक समाप्त हो जाने के बाद भी वह अचानक खत्म भी नहीं हो जाता है, उसका प्रभाव बहुत समय तक रहता है। 1941 में महेन्द्र पन्द्रह वर्ष के नौजवान थे। ज़ाहिर है, उस समय कैशोर्य भावुकता का समय था। स्वच्छन्दता और काल्पनिकता व मस्ती का समय था। यही कारण है, महेन्द्र की आरम्भिक रचनाएँ छायावाद से प्रेरित दिखाई देती हैं; विशेषकर उनके विशाल कविता-संग्रह ‘कविता-गंगा’ के प्रथम खंड की नब्बे फ़ीसदी कविताएँ छायावाद से प्रभावित हैं। आरम्भिक कविताओं पर छायावादी प्रभाव होने के बावज़ूद महेन्द्र की अपनी विशिष्टता विलोपित नहीं होती है। उनकी मानवतावादी दृष्टि किसी भी वाद के बरक्स अधिक प्रबल है। कहने का आशय है कि युग-प्रवृत्तियों से प्रभावित होकर भी वह अपने रचना सामर्थ्य के कारण अलग ही दिखाई देते हैं। सही मायने में वह मनुष्यता के कवि हैं। मनुष्यता का यह राग उनकी अपनी वैचारिकता का तकाज़ा है। उनके लेखन का आरम्भ उस दौर में हुआ था जब प्रगतिवादी आन्दोलन अपने चरम पर था। ज़ाहिर है, मानवतावाद प्रगतिवाद से अनुप्राणित होने का ही प्रतिफल है। उनकी छायावाद से प्रभावित रचनाओं में भी मनुष्यता का राग देखा जा सकता है। भले ही कल्पना, भावुकता, वैयक्तिकता, छायावादी-स्वच्छन्दतावादी होने का भ्रम दे; लेकिन वह छायावादी नहीं है। केवल युगानुरूप छायावाद का प्रभाव है। प्रभाव को वाद नहीं कहा जा सकता है। जैसे उनकी एक कविता है - ‘ज्योति-कुसुम’। इसका रचना-काल 1942 है अर्थात् रचना-युग आरम्भ होने के एक वर्ष बाद लिखी गयी। इस कविता को देखिए - अपनी बुनावट व अनुभूति की संवेदित प्रक्रिया के तहत यह छायावादी सौन्दर्य-बोध की कविता प्रतीत होती है; मगर गहराई से विश्लेषण किया जाए तो प्रगतिशील सौन्दर्य भी परिलक्षित होने लगता हैः
फूल ही
बस फूल की रे
एक हँसती खिलखिलाती
वायु से औ’ आँधियों से
काँपती हिलती सिहरती
यह लता है, यह लता है!
यह किसी लता का बिम्ब है; एक सक्रिय बिम्ब है। इस लता को कोमल कहने के बाद भी आँधी और वायु से मुठभेड करने की बात कह देना छायावादी कविता में नहीं था। यह प्रगतिशील सौन्दर्य-बोध है। भले ही विषय लता हो; विषय पर और विषय प्रस्तुतीकरण पर छायावादी प्रभाव है। मगर, यहाँ कवि कविता के मायने छायावादी नहीं रखता है। यही है, प्रभावित होना। यदि कवि मायने भी बदल देता तो यह कविता प्रगतिशील न होती; छायावादी-बोध की कविता बन जाती, जैसे जयशंकर प्रसाद को देखिएः
लो यह लतिका भी भर लाई
मधु मुकुल नवल रस गागरी!
तू अब तक सोई है आली
आँखों में भरे विहाग री!
यहाँ लतिका का सौन्दर्य देखा जा रहा है, न कि उसका संघर्ष देखा जा रहा है। छायावादी कविता में सौन्दर्यबोध केवल ऐन्द्रिक होता था। यदि थोड़ी बहुत तब्दीली भी हुई तो उसे सचेतन सत्ता से जोड़कर आध्यात्मिक रंग में रँगने की कोशिश कर दी गयी है। आध्यात्मिकता छायावादी कविता की विशिष्टता है। कवि जागतिक सौन्दर्य का उपभोग करते हुए बड़ी शिद्दत के साथ आध्यात्मिक सौन्दर्य तक पाठक को ले जाता था। जैसे पन्त को देखिए उनकी कविता नौका-विहार में आरम्भ में मानवीकरण के द्वारा गंगा को एक स्त्री के रूप में दिखाया गयाः
शैकत शय्या पर दुग्ध धवल
तन्वंगी गंगा गीष्म विरल
लेटी है श्रान्त क्लान्त निश्चल
मगर कविता का आख़िरी बन्द आते-आते अचानक पन्त लिखते हैःं
इस धारा सा जग का क्रम
शाश्वत उद्गम शाश्वत अन्त
लेकिन, महेन्द्र भटनागर की कविता में ऐसा नहीं होता है। उनका कविता-पथ जागतिक है - वह जागतिक सौंदर्य-बोध को जागतिक ही रहने देते हैं; उसे किसी चेतन सत्ता से जोड़ने का या उस सत्ता से सम्बन्ध स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं करते हैं। इसी लिए मैंने कहा है कि वह छायावाद से प्रभावित हैं; छायावादी नहीं हैं। और वह इसलिए छायावादी नहीं हैं कि उनकी चेतना जागतिक ही रहती है; आध्यात्मिक नहीं रहती है। छायावादी कविता में जगरण गीत भी लिखे गये। इस रीति का महेन्द्र भटनागर भी अनुकरण करते हैं। मगर छायावादी कविता के ‘छायावाद’ से मुक्त होकर करते हैं। जागरण गीत महादेवी वर्मा , पन्त , प्रसाद , निराला तीनों लिखते हैं। इनमें पन्त, महादेवी वर्मा और प्रसाद की एक ही चेतना है - आध्यात्मिकता। आध्यात्मिक जागरण एक प्रकार का प्रयोग था छायावाद का। इसकी आड़ में वे लोग राष्ट्रीय जागरण को मज़बूत कर रहे थे । मगर महेन्द्र यहाँ भी सबसे अलग हैं। उनके जागरण गीत प्रसाद, पन्त महादेवी की अपेक्षा निराला के अधिक निकट हैं। निराला छायावादी कवियों में सबसे अधिक प्रगतिशील थे। शायद, यही कारण है महेन्द्र के गीत अपनी प्रतिस्थापनाओं में निराला के अधिक सन्निकट हैं - देखिए, महेन्द्र का एक जागरण-गीत। यह गीत 1944 का लिखा हैः
जागो, हे जीवन जागो!
कूल बढ़े हैं नदियों के
सोये जागे सदियों के
मूक व्यथाएँ खो जाएँ बन्दी युग जीवन जागो!
उत्सर्ग भरे गानों से
प्राणों के बलिदानों से
त्रस्त मनुष्य के उद्धारक हे नव युग के मन जागो!
इस जागरण-गीत और छायावादी जागरण गीतों की तुलना कीजिए। महेंद्र भटनागर के जागरण गीत भले ही छायावादी शिल्प का रूप लिए हों, लेकिन कविता की अन्तर्वस्तु एकदम पृथक है। जीवन का जागना यहाँ क्रान्ति का चेतस स्वर है। मगर, यही स्वर छायावाद में रहस्यवाद में बदल जाता है। रहस्यवाद स्वर को चेतना से हटाकर अलौकिकता की तरफ़ मोड़ देता है। रहस्यवाद का प्रभाव महेन्द्र की कविताओं में नहीं है। इसका मूल कारण है, वह यथार्थवादी थे। यथार्थवाद रहस्यवाद का विलोम है। वह कल्पना एवं अलौकिकता को नकार कर यथार्थ के अनुसार अपना विज़न तय करते हैं। यही महेन्द्र की कविताओं का अलगाव व अलहदापन है कि वह छायावाद की शैली और शिल्प से प्रभावित होकर भी छायावादी विज़न से पृथक रहते हैं।
अब इस गीत की तुलना महादेवी वर्मा के जागरण-गीत से कीजिएः
जाग तुझको दूर जाना, जाग तुझको दूर जाना!
बाँध लेंगे क्या तुझे ये मोम के बन्धन सजीले,
पंथ की बाधा बनेंगे क्या तितलियों के पर रँगीले,
तू न अपनी छाँह को अपने लिए कारा बनाना!
जाग तुझको दूर जाना!
महादेवी वर्मा का पंथ वही है ”पथ रहने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला“ अर्थात् मुक्ति का पंथ दैव प्राप्ति का पंथ। इस पंथ में पहुँचना ही जीव का परम लक्ष्य है। इसलिए वह माया व मोह जाल में न फँसने की सलाह दे रही हैं। माया-ममता-मोह को तोड़कर पंथ पर मन रमाने की सीख दे रही हैं - जबकि महेन्द्र बन्दी युग-जीवन जागो कहकर औपनिवेशिक सत्ता व पूँजीवादी सत्ता के खिलाफ़ प्रतिरोध का आगाज़ कर रहे हैं। यह प्रभाव प्रगतिशील चिन्तन का है। जिसमें कल्पना की गिनी-चुनी चार चीज़ों का चक्करदार गोला नहीं है; वह जीवन के ऊबड़-खाबड़ यातनादायक-उल्लासपूर्ण अनुभवों के बीच अनगिनत सम्भावनाओं तक ले जाती हैं - वहाँ से बार-बार ऐसी कविता का संसार लेकर आती हैं जो इहलौकिक है। जो न तो अपरिचित पंथ है न ही कोई अति-परिचित सत्ता है; जिससे मिलन की उत्कट अभिलाषा कोई काम कराए। यह जीवन का राग है। मनुष्य की पीड़ाओं का बोध है। जीवन का कठिन पथ है जो उसकी परिस्थिति-जन्य विसंगतियों से पैदा होता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि महेन्द्र में छायावादी टेक्श्चर का प्रयोग तो प्राप्त हो जाएगा; मगर आत्मा प्रगतिशील है। यही उनकी कविता का गुणधर्म है। महेन्द्र की कविता में प्रयोगवादी शिल्प भी है तो इसका आशय यह नहीं कि वह प्रयोगवादी हो गये।
प्रयोगवाद की जितनी दार्शनिक अवधारणाएँ हैं सबका महेन्द्र ने प्रयोग किया है; मगर वैचारिकता उनकी अपनी ही रही है। उस पर प्रयोगवादी अति-वैयक्तिकता का रंच-मात्र भी प्रभाव नहीं है - प्रयोगवाद चरम व्यक्तिवाद का कविता-आन्दोलन था - महेन्द्र जब लिखना आरम्भ कर रहे थे उसी समय प्रयोगवादी कविता का आरम्भ हुआ था। महेन्द्र ‘तार-सप्तक’ के किसी भी खंड में नहीं रहे, हालाँकि यह संकट और भी बड़े कवियों के साथ रहा है - केदार, नागार्जुन, त्रिलोचन भी ‘तार-सप्तक’ से बाहर थे । प्रयोगवादी कविता व्यक्ति केन्द्रित थी ऐसा व्यक्ति जो समाज से पृथक था न तो उसके सामाजिक उत्तरदायित्व थे न उस पर समाज का प्रभाव था वह नितान्त आत्मकेन्द्रित व्यक्ति था । आत्मकेन्द्रित व्यक्ति अहंवादी हो जाता है यही कारण है प्रयोगवाद में अहंमूलक ध्वनि का सर्वाधिक कविताकरण है । मैं प्रधान कविताएँ हर एक धारा के कवियों ने लिखी है मगर जो अहंवादी मैं होता है वह अकेला , समाज से अलग भय भूख और मैथुन जैसी पाशविक वृत्तियों का स्वामी होता है। मैं शब्द का उल्लेख और अहंमूलक विषाद की कविताएं महेन्द्र भटनागर में भी हैं यह अहंमूलकता निजी नहीं है वर्गीय है - यदि मैं शब्द का भी प्रयोग हुआ है तो वह निजी अभिव्यक्ति की बजाय सार्वजनिक अभिव्यक्ति ही समझना चाहिए यह उनकी कविता में ध्वनित है उनकी एक कविता है अप्रतिहत अर्थात अदमनीय जिसे जितना दबाओ वह झुकने को तैयार नहीं है । यह भावना अदम्य जिजीविषा का संकेत करती है यह अदम्य जिजीविषा प्रयोगवाद में नहीं थी -
मैं नहीं दुर्भाग्य के सम्मुख झुकूँगा
आज जीवन में हुआ असफल भले ही!
एक पल को भी साधना की भावना सोयी नहीं,
और जाऊँ हार ऐसी बात भी कोई नहीं,
मैं नहीं सुनसान राहों पर थकूँगा
दूर बेहद दूर हो मंज़िल भले ही!
यह वीरता का उद्दातपन है जिसे प्रयोगवादी भावना के अनुरूप नहीं कहा जा सकता है। यहाँ जितनी भी पीड़ाएं हैं वह परिवेशगत हैं और सामाजिक यथार्थ की ओर संकेत कर रही हैं । जबकि अज्ञेय की निजता देखिएः
मैं हूँ
पदाक्रान्त
रिरियाता कुत्ता!
इस कविता खंड में अप्रतिहत जैसा कोई भाव नहीं इसके उलट अपने आपको क्षीण मान चुके कुंठित व्यक्ति की सटीक उपमा कुत्ते से दी गयी जब व्यक्ति केवल द्वीप होकर रह जाता है तो वह खुद को पदाक्रान्त रिरियाया कुत्ता ही समझता है । उसे समाज की हितचिन्ता नहीं रहती वह केवल अपनी चिन्ता करता है इसीलिए प्रयोगवादी कविता को घोर कुंठाबोध की कविता भी कहा जाता है - इस कविता का व्यक्ति खुद के व्यक्ति होने में भी सन्देह करता है जबकि प्रगतिशील व्यक्ति अपने निजी व्यक्तित्व को भी समाज को सौंप देता है महेन्द्र अपनी कई कविताओं में खुद का उत्सर्ग करने की बात करते हैं । अर्थात अपने व्यक्ति को समाज में सौंप देने की बात करते हैं जबकि प्रयोगवादी कवि खुद को अकेला महसूस करता हैः
यह दीप अकेला मदमाता पर
इसे भी पंक्ति को दे दो!
इस कविता में निजता की नियति की स्वीकारोक्ति है। यह स्वीकारोक्ति महेन्द्र में नहीं है। निजता की अभिव्यक्ति प्रयोगवाद में इतनी तीव्र है कि कवि प्रकृति की मनोरम रचनाओं को भी खुद रंग में रंगकर देखता है जबकि प्रगतिवादी कवि प्रकृति को सामाजिक रंगत में डुबोकर देखता है अज्ञेय की कविता हैः
मैं सोते के साथ बहता हूँ
पक्षी के साथ गाता हूँ
वृक्षों के कोंपलों के साथ थरथराता हूँ!
और उसी अदृश्य क्रम में भीतर-ही-भीतरः
झरे पत्तों के साथ गलता और जीर्ण होता रहता हूँ!
इस कविता में प्रकृति की रम्यता से अधिक कवि की निजी चिन्ता अधिक प्रभावी है। जीर्णता , गलना , ढलना भीतर-भीतर टूटना घबराना - यह भय-ग्रस्त अकेले आदमी की चिन्ता है। इसके विपरीत महेन्द्र भटनागर की कविता देखिए - इसका शीर्षक है ‘आश्वस्त’। इस कविता में कवि की निजता नहीं है; बल्कि निजता का विस्तार है। फलक समूची मानवता का हैः
ज़िन्दगी के दीप हैं जिसने बुझाए,
और भू के गर्भ से उगते हुए पौधे मिटाए,
शस्य-श्यामल भूमि को बंजर किया जिसने,
नवल युग के हृदय पर मार
पैना गर्म यह खंजर किया जिसने,
उसी से कर रही है लेखनी मेरी बग़ावत!
रुक नहीं सकती।
इस कविता का विस्तार भी चिन्ता का है कवि जिस वस्तु या रचना को देख रहा है उससे आत्मीयता तो है ही साथ ही उसके अलग अस्तित्व का प्रबोध भी है । कवि प्रकृति को अपने भावों का आधार नहीं मानता वरन उसके अस्तित्व की स्वीकृति देता है। यही अन्तर है प्रयोगवादी और प्रगतिवादी कविता में । प्रयोगवादी कविता प्रकृति के इस विस्तार को अस्वीकार करती है विस्तार व अस्वीकार का स्वर इतना तीव्र है कि प्रकृति के निजी अस्तित्व को वह भी अपने आप में विलीन कर लेता है। उपभोक्तावाद या उपयोगितावाद की अवैज्ञानिक सोच का प्रभाव प्रयोगवादी कविता में रहा है जिसके तहत मनुष्य का सुख ही ध्येय है और इस सुख के बरक्स किसी भी वस्तु को द्वितीयक किया जा सकता है । जबकि प्रगतिवाद समूची मानवता के दुख से दुखी होता है उसका निजी दुख कुछ नहीं होता है वह अपने आप को समाज के प्रति सौंप चुका होता है इसलिए वह मनुष्य के लिए हानिकारक व उसके लिए घातक कर्मों और क्रियाओं का विरोध करता है महेन्द्र भटनागर प्रगतिशील धारा के कवि थे इसलिए उन्होंने इस चिन्ता को अभिव्यक्त किया है। इस कविता में पर्यावरण की चिन्ता साफ़ झलक रही है जो आज के दौर में एक पृथक विमर्श का रूप धारण कर चुका है। निजता के कारण व अतिव्यक्तिनिष्ठ होने के कारण ही प्रयोगवादी कविता व आन्दोलन में मृत्यु का भय है । इस धारा का कवि मृत्यु को अत्यन्त पीड़ादायी स्थिति मानता है लेकिन प्रगतिशील कवि मृत्यु का स्वागत करने के लिए तत्पर दिखाई देता है कारण है उसका जीवन के प्रति नज़रिया पूर्ण रूप से सामाजिक समाजवाद पर आधारित है उसका निजी कुछ भी नहीं है जो भी है वह सबका है वह समाज का है यदि समाज के लिए प्राण आहुति बन रहे हैं तो ऐसे मृत्यु को स्वीकार कर उसका स्वागत करना चाहिएः
मृत्यु से डरते रहेंगे
तो हो जाएगा जीना निरर्थक,
भार बोझिल - शुष्क नीरस!
अतः सार्थक तभी जीवन
मरण-डर मुक्त हो / हर क्षण!
यह निडरता नहीं है वैचारिकता व सामाजिक आसक्ति की अनिवार्य परिणति है - यह कविता महेन्द्र भटनागर की कविता-गंगा के तीसरे खंड में पृष्ठ 244 में है । इस खंड में मृत्युबोध पर कवि की सैकड़ों कविताएँ हैं । एक भी कविता ऐसी नहीं है जिसमें कवि मृत्यु के भय से कुंठित या भयभीत हो कवि इसमें भी अपने जीवन का विकास व आनन्द खोजता है । मृत्यु जीवन का खंडन होती है लेकिन विचार- धारा उसे खंडन से मंडन में तब्दील कर देती है - यह आशावादी चमत्कार केवल प्रगतिशील कविता में है यह विचारधारा की प्रतिबद्धता व ईमानदारी है इसीलिए वामपंथ को जीवन का विज्ञान कहा जाता है जीवन जीने की शैली कहा जाता है क्योंकि वह निराशा की घोर यातनाओं में भी आशा का रक्त संचारित रखता है - महेन्द्र भटनागर मानवीय आवेग के कवि हैं मनुष्यता के प्रति आशावादी नज़रिया रखते हैं इसलिए किसी भी क़िस्म का निराशाजनक स्वर उनकी कविता में नहीं है । शिल्प के तौर पर उन्होंने खूब प्रयोग किए हैं जितने भी काव्यान्दोलन हुए सबका प्रभाव उनके गीतों में देखा जा सकता है मगर वह काव्यान्दोलनों की नारेबाज़ी से दूर रहे इसलिए अपनी कविता को अन्त तक कविता के रूप में बचाए रखने में सफल हुए । महेन्द्र भटनागर ने गीत अधिक लिखे हैं वह हिन्दी की गीतपरम्परा के इने गिने लोगों में हैं जिनका सम्मान के साथ नाम लिया जाता है । वह आलोचक भी रहे ‘साहित्य ः विमर्श और निष्कर्ष’ नामक उनके दो ग्रंथ हैं। प्रेमचन्द के उपन्यासों पर भी उन्होंने समाजशास्त्रीय ढंग से आलोचना लिखी है। मगर उनका असली स्वरूप कवि का था उनका मन सबसे अधिक कविता में रमा - कविता से ही उन्होंने अपनी जिजीविषा अर्जित की । वह जानते थे विज़न और विचारधारा के बग़ैर कविता सम्भव नहीं है तभी वह प्रगतिशील आन्दोलन और जनवादी काव्य आन्दोलन से जुड़े और जनवादी गीतों की गीतपरम्परा में गम्भीर हस्तक्षेप किया। गीत शब्द तो पूर्णतः भारतीय है मगर हिन्दी में इसे लिरिक के अर्थ में लिया जाता है ।
गीत शब्द का पहला प्रयोग हमें भरत के नाटय्-शास्त्र में मिलता है। गीतम् शब्दितगानयो जैसा प्रयोग संस्कृत आचार्य हेमचन्द ने भी किया था - हिन्दी में गीतकाव्य शब्द का प्रयोग सबसे पहले लोचन प्रसाद पाण्डेय ने 1909 में किया किताब का नाम था ‘कविता कुसुम माला’ । इसकी भूमिका में उन्होंने श्रव्य काव्य , दृश्य काव्य और गीतकाव्य नामक तीन भेद किए थे । मतलब गीतकाव्य को साहित्य की एक विधा का रूप उन्होंने दिया था जिसे स्वीकार नहीं किया गया था कुछ लोग कहते हैं गीतकाव्य का विकास लोकगीतों से हुआ तो हरप्रसाद शास्त्री ने इसका विकास बांग्ला गीतों से माना है जो भी हो गीत प्रगीत नवगीत आदि समस्त भेद गीतकाव्य में समाहित हैं - परन्तु गीतकाव्य का प्रयोग लिरिक के लिए और प्रगीत का प्रयोग सांग के लिए किया जाता है । जो गाया जाए वह सांग है जो लिखा जाए वह गीत है । सांग और लिरिक में यही अन्तर है इस अन्तर के तहत ही हम गीत को कविता मानते हैं । गीतिकाव्य अनुभूति प्रधान होते हैं इसमें घटना व तथ्य का विवरण गौण होता है केवल अनुभूति की प्रवणता होती है - अपनी अनुभूति के बल पर गीतकार पाठक को अपनी सम्वेदना से जोड़ता है और संवेदना का सम्प्रेषण करता है । पाश्चात्य विचारक हीगल ने इसे प्रकृत काव्य कहा है क्योंकि यह अनुभूति को उसी आवेग में अभिव्यक्त करता है जिस रूप में कवि अनुभव करता है । गीतकाव्य की सबसे बड़ी विशेषता भावप्रवणता , रागात्मकता , गेयता, आत्माभिव्यक्ति है । लेकिन कवि की विचारधारा व विज़न के अनुरूप इन विशेषताओं में परिवर्तन भी होते रहे हैं । फिर भी आत्माभिव्यक्ति और भावप्रवणता से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है। गेयता शिल्प का वह गुण है जो आत्माभिव्यक्ति और भावप्रवणता की तरह आवश्यक है । इस प्रकार देखा जाए तो हर कविता गीत नहीं हो सकती है उसका अपना शिल्प होता है अपनी विशिष्टताएँ होती हैं । गीतों का प्रचीन प्रयोग वैदिक काल में प्राप्त होता है । वैदिककाल में सामवेद के मन्त्र गेय होते थे मगर यह गेयता भी बन्धनाविष्ट थी जिसके कारण गीतों में भावप्रवणता व आत्माभिव्यक्ति जैसे गुण नहीं आ सके हैं । वैदिक काल के बाद बौद्ध गीतों में आत्माभिव्यक्ति व भावप्रवणता की सम्भावना थी मगर धार्मिक आग्रहों ने इन गुणों को तिरोहित कर लिया और वह गीत होकर भी गीतकाव्य नहीं हो सके।
गीतकाव्य का सबसे प्राचीन और बेहतरीन उदाहरण मेघदूतम है इस कृति में भावप्रवणता भावुकता रागात्मकता , सरसता गेयता सब कुछ है मगर आलोचकों ने इससे अधिक ‘गीतगोविन्दम्’ को महत्व दिया है। ‘गीतगोविन्दम्’ में वह सभी लक्षण प्राप्त होते हैं जो आधुनिक गीतकाव्य के निर्धारित किए गये हैं। इस कृति ने गीत और प्रगीत के मध्य का अन्तर लगभग ख़त्म कर दिया था - गीतगोविन्दम् जैसे शैली और कहन को लेकर मैथिल कोकिल विद्यापति के गीत मील का पत्थर हैं । विद्यापति की पदावली से ही हिन्दी गीत कविता का विकास परिलक्षित होने लगता है । पदावली में संगीत की राग-रागनियों से निबद्ध पदों में कृष्ण और राधा की प्रेमकथा कही गयी है। इसमें हृदय की अनेक स्वाभाविक शक्तियों को लेकर प्रणय को विभिन्न अपरूपों में व्यक्त किया गया है । गीत-काव्यों की कोटि निर्धारण विभेद का बीज भी यहाँ उपलब्ध है । इस आधार पर विद्यापति को हिन्दी का पहला गीतकार कहा जा सकता है । गीतकाव्य का सर्वोत्तम विकास कृष्ण-भक्ति शाखा के कवियों ने किया। हालांकि रामभक्ति शाखा में भी कुछ कृतियाँ लिखी गयीं जिनमें गीतावली , कृष्णगीतावली , विनय-पत्रिका प्रमुख हैं पर वहाँ गीतपरम्परा से अधिक छन्द-बद्धता को महत्व दिया गया। कृष्ण भक्ति शाखा के महाकवि सूर ने उत्कृष्ट गीतों की रचना की। सूर के पद भी विभिन्न रागों में आबद्ध हैं । भावुकता , तर्क , बौद्धिकता , आत्माभिव्यक्ति जैसे गुण यहाँ उपलब्ध हैं। सूर की विनय , रूप-माधुरी , भ्रमरगीत जैसी रचनाएँ गीत परम्परा की प्रचीनतम मगर उत्कृष्ट उपलब्धियाँ हैं । रीतिकाल की अलंकार प्रियता और कलाकारी ने गीतों का स्वच्छन्द विकास नहीं होने दिया लेकिन इसके बाद भारतेन्दु युग में यथार्थवादी गीतों की परम्परा चल पड़ी जो भारतेन्दु स्थापित नाटय् मंडलियों में गाये जाते रहे।
भारतेन्दु युगीन गीतों में लोकगीत लोकशैली लोकभाषा का उत्तम अनुप्रयोग देखने में आता है। आगे चलकर छायावाद में जयशंकर प्रसाद का करुणा ,आँसू , झरना , लहर आदि अपने भाव और अपने रचनात्मक कौशल के कारण हलहदा गीत बन गये हैं। ये गीत ऐसे हैं जो अपने युग को भी पहचान देते हैं । निराला की कविता में गीतों का विकास अपने चरम तक पहुँच गया। उन्होंने छायावादी ,आध्यात्मवादी , यथार्थवादी गीतों की रचना की । परिमल , गीतिका , वनबेला , गरम पकौड़ी , खजोहरा , कुकुरमुत्ता , यमुना के प्रति , पंचवटी प्रसंग , उत्कृष्ट गीतकाव्य हैं। निराला ने गीतों को अलग विधा के रूप में मानने की रीति का खंडन प्रस्तुत किया । गीतों को निजता से पृथक कर उन्हें सामाजिक चेतना से युक्त किया । निराला के हाथ से ही प्रगतिशील गीतों की रीति चल पड़ी जो छायावादी गीतों से अलग अपना अस्तित्व बनाकर एक विशाल परम्परा के रूप में समकाल में स्थापित हैं । महादेवी वर्मा , रामकुमार वर्मा , भगवती चरण वर्मा के गीत छायावादी विज़न को नहीं तोड़ सके और गीतों की संस्कारित परम्परा का अनुकरण करते रहे। सियाराम शरण गुप्त का दूर्वादल , मैथिली शरण गुप्त का झंकार ‘भारत भारती’ भी प्रसिद्ध हुए - इसमें से ‘भारत भारती’ अधिक लोक प्रिय रही। इस गीतिकाव्य में वीर रस और आवेग से भरा हुआ राष्ट्रवाद है जो औपनिवेशिक युग में प्रतिरोध का रूप धारण कर चुका था - इसके बाद सुभद्रा कुमारी चौहान , बालकृष्ण शर्मा नवीन , माखनलाल चतुर्वेदी ने भी राष्ट्रीयता परक गीत लिखे; लेकिन वह मुकाम नहीं पा सके जो ‘भारत भारती’ को मिला था; हालाँकि सुभद्रा कुमारी चौहान की रचना ‘झाँसी की रानी’ भी खूब लोकप्रिय रही । प्रगतिवाद छायावाद के प्रतिरोध में आया था। इसने छायावादी मूल्यों से अलगाव की घोषणा की; फिर भी गीतों से मुक्त नहीं सका । निराला और पन्त के बाद तो बृहत् त्रयी के तीनों कवियों - नागार्जुन, त्रिलोचन , केदारनाथ अग्रवाल ने गीतों का प्रयोग खूब किया । इनके गीत क्रान्ति-गीत थे। शोषण के खिलाफ़ और शोषित के पक्ष में थे। प्रगतिवादी गीतों की बड़ी खासियत रही कि इन्होंने ख़ुद को लोक से जोड़ा। इसलिए इन गीतों में लोक की यथार्थ छबियाँ, लोकबिम्बों व लोकभाषा का भी आगमन हुआ । केदार की कविता तो लोक-प्रसूत रही। बाँदा और वहाँ की संस्कृति वहाँ की प्रकृति सब कुछ केदार की पहचान बन गयी ।
महेन्द्र भटनागर निराला की विविधता का अनुकरण करते हैं। जैसी पीड़ा जैसा आक्रोश जिस तरह की मनुष्यता निराला-काव्य में प्राप्त होती है; वही महेन्द्र भटनागर में भी प्राप्त होती है । गीतों के दृष्टिकोण से महेन्द्र अपने सभी समकालीनों से बीस हैं। उद्भ्रान्त के गीतों में वैचारिकता खटकती है; मगर महेन्द्र के गीतों में वैचारिकता और अनुभूति दोनों का समूहन है - यह बहुत कम कवियों में देखने को मिलता है । गीत अनुभूति और संवेदन प्रधान होते हैं; वहाँ वैचारिकता या बौद्धिकता का होना खटक जाता है । लेकिन महेन्द्र के यहाँ ऐसा कोई ख़तरा नहीं है । कविताओं को पढ़कर अन्तरंग जगत और बाह्य जगत दोनों का अनुमान हो जाता है । चूँकि महेन्द्र भटनागर मँजे हुए गीतकार हैं; अतः गीतों में पाठक को बाँध लेने की कला भी है। यह कला किसी भाषागत शिल्प के कारण नहीं; वरन अन्तरंग और बहिरंग भावों की आवाजाही है; जिससे हर पाठक गुज़रता है और अपने जीवन में अनुभव करता है । जिस तरह की बहिरंग व्यवस्था होती है कवि के गीत उसी अन्दांज़ में अपना विज़न तय करते हैं । सब मिलाकार कहा जा सकता है कि महेन्द्र भटनागर ऐसे गीतकार हैं जिनकी अनुभूति और अभिव्यक्ति में अन्तर्विरोध नहीं है । जैसे उनकी एक कविता है ‘नया समाज’ । यह कविता गीत गंगा में संकलित है । इस कविता को कवि की अनुभूति भर मत समझिए। यह तत्कालीन पाठक की भी अनुभूति थी। कविता का एक अंश देखिएः
करवटें बदल रहा समाज
आ रहा है लोकराज,
ध्वस्त सर्व जीर्ण-शीर्ण साज
धूल चूमते अनेक ताज,
आ रही मनुष्यता नवीन
दानवी प्रवृत्तियाँ विलीन
अंधकार हो रहा है दूर
खंड-खंड और चूर-चूर!
यह गीत 1949 का लिखा है । भारतीय गणतन्त्र जन्म ले रहा था । भारतीय संविधान और भारतीय लोकतन्त्र से जनता को बहुत आशाएँ थीं । यह कविता का वह दौर था जब हर एक संवेदनशील व्यक्ति आज़ादी के प्रति व अपने संविधान के प्रति बहुत आशावान था। यही मनःस्थिति उस समय आम जनता की भी थी । महेन्द्र भारतीय आज़ादी को केवल अपने नज़रिए से नहीं महिमामंडित कर रहे हैं; यह उस समय के नागरिक का नज़रिया था। लेकिन जल्द ही यह भ्रम टूटा और ऐसा प्रतीत होने लगा कि यह आज़ादी नहीं छल है । तब मोहभंग का दौर आरम्भ हुआ; जिसे हम साठोत्तरी कविता कहते हैं । यहाँ कवि अपनी समझ का बयान साझा कर रहा है। गीत में लोकतन्त्र के प्रति अटूट आस्था और मुहब्बत है। यही इसे भावुक व संवेदित गीत में तब्दील कर रहा है । यही आस्थाएँ और विश्वास महेन्द्र के गीतों को भावप्रवण बना देता हैः
आज ऊसर भूमि पर गंगा बहाओ!
उच्च दृढ़ पाषाण गिर-गिर कर चटकते
रेत के कण नग्न धरती पर चमकते
अग्नि की लहरें हवा में बह रही हैं
रूप घन का शान्तिमय, जग को दिखाओ!
यहाँ भी भावप्रवणता आस्था के कारण है। महेन्द्र छायावादी या कलावादी कवि की तरह थोथी भावुकता नहीं दिखाते हैं। उनकी भावुकता सकारण है । वह उन आवस्थितियों से प्रसूत है जो कवि के विज़न में सम्मिलित हैं । यही अन्तर महेन्द्र की कविता को समकालिक और जनवादी बनाए रखता है । यही गुण उन्हें प्रयोगवादी आत्मकेन्द्रिकता से बचाता है । बहुत से कवि जब अधिक भावुक हो जाते हैं तो जीवन से पलायन करने लगते हैं। जीवन के सन्दर्भ में निराशावादी हो जाते हैं । मैंने महेन्द्र को किसी भी कविता में पलायनवादी नहीं देखा; यहाँं तक कि मृत्यु का स्वागत करने के लिए उत्सुक कवि जीवन के प्रति भगोड़ा कैसे हो सकता है! इसका एक मात्र कारण है वह मनुष्य और उसके विज़न का पल्ला कभी नहीं छोड़ते हैं। वह विज़न के साथ लगे रहते हैं। महेन्द्र भटनागर ने हर कोटि के गीत लिखे हैं; कभी एक विषय पर बँधकर नहीं रहे। यह विशेषता उन्हें अन्य गीतकारों से पृथक करती है । विषयानुसार व युगानुसार गीत लिखना असाधारण काम है; क्योंकि गीतों का अभिलक्षण रखते हुए अपने समय की अभिव्यक्ति सफलतापूर्वक कर लेना रचनात्मक संघर्ष है । प्रगतिशील गीतकार इस ख़तरे से जूझते रहे हैं । युग सापेक्षता प्रगतिशीलता की पहचान है; इसलिए प्रगतिशीलता और गीतात्मकता एक साथ वहन करना थोड़ा कठिन है। या तो प्रगतिशील होने में संकट खड़ा होगा या फिर गीत शुष्क हो जाएंगे। जैसा कि शिवमंगल सिंह सुमन की कविताओं में प्राप्त होता है । आरम्भिक प्रगतिशील गीतों में भावपरकता नहीं है; वह शुष्क क्रान्ति- गीतों में तब्दील दिखाई देते हैं । लाल रूस , कम्युनिस्ट पार्टी , मज़दूर वर्ग का बार-बार उल्लेख प्रगतिशीलता को वैचारिक अवधारणा न बनाकर महज़ नारेबज़ी बना देता है; मगर महेंद्र भटनागर इस सन्दर्भ में हरीश भादानी जैसे कवि हैं । प्रगतिशीलता होने के बावज़ूद गीतात्मकता प्रभावी और आकर्षक हैः
अकेला नहीं हूँ, अकेला नहीं हूँ!
ज़माना नया साथ है
और मैं भी बड़ी ही खुशी से
सदा साथ उसके!
करोड़ों भुजाएँ मुझे आज बल दे रही हैं,
अथक शक्ति मेरी बिना रोक के ले रही हैं।
इस कविता में शुष्कता और बैनरबाज़ी नहीं है। कवि कविता में राजनीति न करते हुए भी राजनीति कर रहा है । मतलब राजनीति का प्रयोग न करते हुए भी राजनीति का ही विधान कर रहा है! यही महेन्द्र के गीतों की विशिष्टता है। यह विशिष्टता इधर के गीतकारों में हरीश भादानी , महेश्वर तिवारी में भी हैं । ये वे गीतकार हैं जो कविता की राजनीति करने के माहिर खिलाड़ी है । लेकिन पहली शर्त कविता है; बाद में राजनीति । यदि पहली शर्त राजनीति होती तो कविता शिवमंगल सिंह सुमन जैसी शुष्क हो जाती। देखिए कविता, ‘ओ भवितव्य के अश्वो!’ इसे हम क्रान्ति का आवाहन गीत कह सकते हैं; लेकिन कविता इतनी भावप्रवण है कि आवाहन गीत होने पर भी रसपूर्ण गीत प्रतीत हो रहा हैः
वर्चस्वी! धरा के पुत्र हम,
दुर्धर्ष, श्रम के बन्धु हम,
तारुण्य के अविचल उपासक,
हम तुम्हारी रास
ओ भवितव्य के अश्वो!
सुनो, हर बार मोड़ेंगे!
इस काव्यांश में रसवत्ता का अनुमान कीजिए और कवि की प्रवणता भावुकता देखिए। मनुष्य का विज़न व विजय-घोष सुनिए। ये विशेषताएँ महेन्द्र की कविता को अपनी विशाल गीत-परम्परा में अलग कर देती हैं । राजनैतिक कवि होने पर भी वे कवि बने रहते हैं। क्रान्ति का उद्घोष करने के बावज़ूद भी बग़ैर शुष्कता के कविता कह लेते हैं। महेन्द्र के गीतों का अनुशीलन बता देता है कि वह हिन्दी के अद्भुत गीतकार हैं। कहीं प्रकृति की मनोरम झाँकियाँ हैं तो कही प्रणय का भावोल्लास है; कहीं ऋतुओं की छटा है तो कही मानवीय रागों का परिहास है; कहीं व्यवस्था के प्रति खिन्नता है तो कहीं आत्मालाप है; कहीं सब-कुछ तोड़ देने के लिए आमादा गुस्सा है - तो कहीं स्वदेश-प्रेम और देशानुराग है । कहीं स्त्री का कठिन और दुरूह जीवन है तो कहीं स्त्री के प्रति श्रद्धा भाव से अवनत सिर है। इतनी विविधताएँ होने के बावज़ूद उनका झुकाव जन की ओर अधिक रहा। वह जन जो सदियों से बन्धनों में जकड़ा है, अभाव और ग़रीबी की पीड़ा ढो रहा है। वह जन जो अपने हिस्से से वंचित है। वह उत्पादक है; मगर अपने उत्पादन का समुचित लाभ नहीं ले पाता है। वह जन कठिनाइयों से जूझ रहा है। एक तरफ़ उसका शोषण पूँजीपति-वर्ग कर रहा है तो दूसरी तरफ़ वह साम्राज्यवाद की गुलामी भी ढो रहा है। वह दोहरे शोषण के कुचक्र में पिस रहा है। ऐसे समुदाय का जागरण ज़रूरी है। यही वह समुदाय है जो परिवर्तन ला सकता है। यदि इस वर्ग को क्रान्ति का सफल मन्त्र दिया जाए तो परिवर्तन-कामी वर्ग ज़रूर परिवर्तन करेगा । महेन्द्र की जन-आस्था उनकी वैचारिकता का आधार - उनके गीतों का आधार है । जब कवि की आस्था जन के साथ होती है तो कवि अपनी निजता को कभी भी कविता में नहीं आने देता है और वह निर्भय होकर परिवर्तनों के स्वागत हेतु तैयार रहता है। जन क्रान्तिकारी हो सकता है; मगर धर्म और रीति के बन्धनों से उसे जकड़ दिया गया है। इसलिए महेन्द्र कुछ गीतों में धर्म और परम्परा की भी आलोचना करते हैं। किसी भी विश्वास को तर्क के साथ ग्रहण करने की सीख देते हैं । जन-आस्था उनकी कविता का प्राणतत्व है। देखिए एक कविता - कविता का शीर्षक है तरुण ः
दुनिया के अगनित मुक्त तरुण बन्धन की कड़ियां तोड़ रहे!
युग-जनता ने करवट बदली, आज़ाद गगन का मूल्य गहा,
जनता ने जाना-पहचाना कटु पशुबल का हो नाश कहा,
जाग्रत मनुज लुटेरों के गढ़ रज-सम ढूहों से तोड़ रहे!
यह जनता के प्रति आस्था है जो कवि को स्वप्न व परिवर्तन की प्रेरणा देती है । जनता ही बलिदान करती है। इन बलिदानों से यशोगाथाएँ बनती हैं । जन-आस्था प्रगतिशील कवियों का गुण है । बाबू केदार नाथ अग्रवाल कहते थेः
यह जन मारे नहीं मरेगा!
जीवन की जो धूल चाटकर बड़ा हुआ है
तूफ़ानों से लड़ा और वह अड़ा हुआ है
यह जन मारे नहीं मरेगा!
यह आस्था नागार्जुन और त्रिलोचन की भी थी । प्रगतिवादी कविता इसी जन के बूते आगे बढ़ी और तमाम क़िस्म की सम्भावनाओं को तलाशती , जीवन के नकारात्मक भावों व विनिर्मितियों का मानमर्दन करती भवितव्य के सपनों की अटूट-अखंड नींव रखती है। इस अखंड विश्वास का उल्लेख महेन्द्र इस प्रकार करते हैःं
गिर नहीं सकती कभी
विश्वास की दीवार!
निर्मित तप्त जन-जन के लहू से,
वज्र-सी फौलाद-सी दृढ़ हड्डियों से,
नींव के नीचे पड़े
कातर अनेकों मूक जन-बलिदान!
जन-आस्था ही जनवाद का मूल आधार है । जन-आस्था परिवर्तन कारी शक्तियों का आधार है । जिस कवि में बदलाव के प्रति उत्सुकता नहीं है वह जन-आस्थावादी भी नहीं हो सकता है। जन-आस्था समय के प्रति सजग करती है। कवि अपने समय की राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं के प्रति सचेत रहता है - और वह अपनी कविता में भी इसका अंकन करता है। महेन्द्र भटनागर समय के प्रति सजग हैं। अपने समय की घटनाओं से भी परिचित हैं। उनकी कविता में साम्राज्यवाद का प्रतिरोध है तो गाँधी का गुणगान भी है; परमाणु बम के खिलाफ़ आवाज़ है तो हिन्दुस्तान में हुए साम्प्रदायिक झगड़ों व दंगों के विरुद्ध भी आक्रोश है । महेन्द्र भटनागर ने अपने समय को बड़ी शिद्दत से कविता में पिरोया है । इन्हीं घटनाओं का प्रभाव कवि को समय के प्रति अनास्थावान बनाता है और वह व्यवस्था के परिवर्तन का गीत गाता है। यह परिवर्तन जन भागीदारी से ही सम्भव है। इसलिए कवि जन-आस्था रखता है; जनता के प्रति विश्वास रखता है; क्योंकि उसे परिवर्तन से ही आशाएँ हैं - सपनों की ज़मीन मिलने की सम्भावना हैः
परिवर्तन हो,
नव-जीवन हो,
जग के कण-कण में
जागृति का नव कंपन हो!
युग-युग के बाद उठें फिर से
उर-सागर में लहरें सुख की,
स्रोत बहे जीवन का निर्मल,
जन-जन मन - संसार सुखी हो!
जन-मन और संसार की कामना करना कवि को हिन्दी की उस परम्परा से जोड़ देता है जिस परम्परा से कोई भी कविता डिग नहीं सकती है । कहा जाता था - कविता किसके लिए? उत्तर होता था- जनता के लिए। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा हैः
कीरति भनति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सबकर हित होई॥
साहित्य का लक्ष्य, उद्देश्य व कार्य तीनों जनता के लिए है । महेन्द्र भटनागर इसी अमिमत के पोषक हैं । यह जनवादी लोकधर्मी लेखक की परम्परा है। अर्थात् लेखन को विशाल जन-समुदाय के निमित्त कह देना व उसी के लिए लिखना ही लोकधर्मी प्रगतिशीलता है। महेन्द्र भटनागर के सम्पूर्ण रचनात्मक अवदान में आदमी ही विद्यमान है। वह मानव समाज की वर्गीय विसंगतियों को समझते हैं। उन्हें शोषण की ऐतिहासिक भूमिका व भंगिमा की भी जानकारी है। वह पूँजी के करतब और भ्रम समझते हैं; इसीलिए सारी साजिशों का पर्दाफ़ाश करते हुए मानव को उच्चादर्शों की विशाल भूमि पर खड़ा करने की कोशिश करते हैं - महेन्द्र भटनागर प्रगतिशील व लोकधर्मी कविता की हर मूल्यवत्ता के दृष्टिकोण से सफल कवि हैं । प्रगतिशील कविता में वैयक्तिकता से इंकार नहीं किया जा सकता है; लेकिन इस वैयक्तिकता को महज़ अनुभूति की प्रधानता के स्तर पर लेना चाहिए। अनुभूति सर्वदा वैयक्तिक होती है। अनुभूति वैयक्तिक है; कवि उसे सार्वजनिक अनुभूति में बदलता है। वैयक्तिक अनुभूति से लेकर सार्वजनिक अनुभूति में तब्दील होने तक कवि या लेखक को जो परिश्रम करना पड़ता है उसे श्रम कहते हैं। जो कवि जितना श्रम करता है कविता उतनी ही सुन्दर होती है। यह श्रम-आधारित सौन्दर्य का सिद्धांत है। महेन्द्र भटनागर इस विषय में अत्यन्त सजग हैं। अनुभूतियाँ वैयक्तिक होकर भी समूचे देश की अनुभूतियाँ प्रतीत होती हैं। यही कारण है, उनकी कविता में स्वदेश अनुराग की रचनाएँ बड़ी संख्या में प्राप्त होती हैं। वैसे वैयक्तिक अनुभूति-परक कविता में दो प्रकार की धाराएँ रहीं - पहली धारा वह रही जो वैयक्तिक ऊब और घुटन से पीड़ित होकर शराब और साक़ी की ओर आकर्षित रही तो दूसरी धारा मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ से प्रभावित रही । पहली धारा का नाम हालावाद हुआ तो दूसरी धारा को राष्ट्रवादी काव्य कहा गया। राष्ट्रवादी काव्य में स्वदेश अनुराग, देश के औपनिवेशिक शासन और अतीत के अतीव अनुराग से पैदा हुआ था। अर्थात् प्राचीन काल के आत्मगौरव व मिथ्या काल्पनिक सामन्ती गौरव की टूटन व विखंडन के त्रास से पैदा हुआ था। वह अपने अतीत को ही वर्तमान में देखना चाहते थे। लेकिन देश-अनुराग का तीसरा पक्ष भी था जो देश की वास्तविक हालात से व देश की लूट से दुखी था। वह देश में औपनिवेशिक शासन द्वारा की जा रही साजिशों का भोक्ता था। वह प्रकृति के नष्ट होने और आम आदमी के शोषण व वर्गीय विभेदों की बढ़ती खाई से चिन्तित था । वह आपसी भाईचारा व आपसी सहयोग से इस मुल्क को आज़ादी दिलाने के लिए गीत गा रहा था । यह सर्वाधिक चेतन व वैचारिक राष्ट्रवाद था। महेन्द्र के गीत इसी राष्ट्र के गीत गाते हैं । महेन्द्र का देश-अनुराग समरसता और समता का अनुराग है । यह मिट्टी का अतीतधर्मी प्रेम नहीं है। समाज के सबसे पीड़ित व उपेक्षित व्यक्ति के प्रति संवेदना का राग हैः
तूने कर दिया बरबाद
मेरे देश का वैभव
कि मेरे देश का गौरव!
तूने कर दिया मुहताज, भूखों मार,
दुख आतंक - गोलों और तोपों का भरा भंडार!
तूने जमाया पैर माँ के वक्ष पर
जिसके करोड़ों लाल
हिन्दू और मुस्लिम को लड़ाया
फूट का बो बीज
भू-सम्पत्ति का कर विक्रय!
इस कविता से कवि की समझ और उसके राष्ट्र की व्यापक अवधारणा को समझा जा सकता है। कवि जिस देश के लिए दुखी है वह किसी एक नागरिक का नहीं है, एक जाति और धर्म का नहीं है। ब्रितानी शासक और इस देश की साम्प्रदायिक शक्तियाँ पृथक धर्मों को ही राष्ट्र का आधार मानती हैं। मुस्लिम लीग दो राष्ट्र की बात करती थी- एक हिन्दू राष्ट्र तो दूसरा मुस्लिम राष्ट्र। मगर जनवादी कवि के जेहन में ऐसे संकुचित राष्ट्र की कोई महत्ता नहीं है - वह बृहत्तर राष्ट्र की कल्पना करता है। उसके लिए सभी एक माँ के लाल हैं और आपसी भाईचारे को ब्रिटिश शासन ने अपने हित में नष्ट किया है । उसका हित है कि हिन्दुस्तानियों की सम्पत्ति का शोषण हो - इसलिए वह उन्हें आपस में लड़ाकर अपना हित साध रहा है । महेन्द्र भटनागर का यह नजरिया आज के अनुकूल है। आज भी इस दृष्टिकोण की ज़रूरत है। साम्प्रदायिकता आज हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा राजनैतिक मुद्दा है। इस मुद्दे ने समस्त मुद्दों को अपने भीतर समाहित कर लिया है। कारण भी है । आज़ादी के बाद जिस तरह से प्रतिक्रियावादी ताक़तों का राजनैतिक विस्तार हुआ, जिस तरह राजनीति का अपराधीकरण हुआ वह किसी से छिपा नहीं है। समकालीन कवियों ने इस मुद्दे को कविता में आज सम्मिलित किया है; लेकिन महेन्द्र भटनागर इस विषय में बहुत पहले से सचेत थे। वैसे प्रतिक्रियावादी शक्तियों और पूँजीवाद का आन्तरिक गठबन्धन तो बहुत पहले हो चुका था; लेकिन इसके कुपरिणाम आज सामने आए हैं। आधुनिक भारत में गंगा-जमुनी तहज़ीब के दर्शन लगभग कठिन हो गये हैं। जो भी आपसी सौहार्द्र और प्रेम की बात करता है; वह अपराधी हो जाता है। जो भी मिथकों और कल्पनाओं या मिथ्या इतिहास का तर्क से खंडन करता है वह मार दिया जाता है। वैश्विक पूँजी के विकास और विस्तार में साम्प्रदायिकता का बड़ा योगदान है। वैश्विक पूँजी वित्त का वह हिस्सा है जो देशी उद्योगों में निवेशित होकर लाभ को विदेश ले जाती है। 1991 की आर्थिक नीतियों के तहत बड़े पैमाने पर निजीकरण को बढ़ावा दिया गया। सरकार के लिए आरक्षित गम्भीर व जनहितकारी उद्योगों को भी निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया। वैश्विक पूँजी ने शहरीकरण व मशीनीकरण को बढ़ावा दिया; जिससे बेरोज़गारी बढ़ी। बड़े पैमाने पर उत्पादन व वितरण की व्यवस्था की गयी; जिससे छोटे लघु व कुटीर उद्योग सब चरमरा गये । खेती में अधाधुन्ध खाद-बीज का प्रयोग हुआ; जिससे उत्पादन कम हुआ। खेती का प्रति हेक्टेयर उत्पादन कम होने लगा। बेरोज़गारी , ग़रीबी जैसे मुद्दों से जनता में आक्रोश था। वह बदलाव चाहती थी । वैश्विक पूँजी प्रतिरोध को सहन नहीं कर सकती है। अस्तु उसने वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए साम्प्रदायिकता का कार्ड खेला । यही कारण है, 1991 में आर्थिक उदारीकरण लागू हुआ और 1992 में बाबरी मस्जिद टूट गयी। जिस समय भूमि-अधिग्रहण बिल पास होना था; उसी समय मुज़फ़्फ़रनगर का दंगा हो गया । जब बैंकों ने ब्याज दर कम कर दी - जीपीएफ से व्याज दर कम की गयी; उसी समय गाय और तलाक़ का मुद्दा छेड़ दिया गया। जिस समय कर्मचारियों की पेंशन बन्द हो रही थी; उसी समय गोधरा काण्ड हो गया। मतलब, जनता के विरुद्ध जब भी कोई बड़ा फ़ैसला हुआ; उसी समय असल मुद्दे से भटकाने के लिए जातीय मुद्दे छेड़ दिये गये; जिससे जनता मुद्दों को समझ न सके और उन्हें आपस में लड़ाकर लूट को छिपा ले। आज भी यही हो रहा है। वैश्विक पूँजी अब राजनीति की नियन्ता हो गयी है। वह राजनीति की स्वामिनी है। अब हिन्दू और मुस्लिम वाद राजनीति की दिशा और दशा तय कर रहा है। यही वैश्विक पूँजी की मन्शा है। महेन्द्र भटनागर इस तथ्य से वाकिफ़ थे कि हिन्दुस्तान का भविष्य क्या होने वाला है। इसलिए वह आरम्भ से ही आपसी भाईचारे के लिए गीतों में राग गुनगुनाते रहे। महेंद्र भटनागर ने साम्प्रदायिक दंगे भी देखे हैं। इन दंगों की भयावहता व इनकी पीड़ा भी उनकी कविता में दिखाई देती है। देखें उनका एक गीत - साम्प्रदायिकता का इतना प्रभावकारी और यथार्थ बिम्ब शायद ही किसी कवि ने रचा होगा। ‘साम्प्रदायिक विष’ -
ध्वस्त गृह-अट्टालिकाएँ,
धूल उड़ती / नाश की चलती हवाएँ,
खून के सागर धरा पर बह रहे,
ज्वालामुखी लावा उगलते,
हो रहा है मृत प्रलय तांडव प्रखर,
गिरते धरा पर शीश अगणित
वार से होकर पराजित,
अवनि- लुण्ठित, चरण-मर्दित!
यह कविता 1948 की है जब देश आज़ाद हो रहा था। तब ब्रितानी औपनिवेशिक शासन ने अन्तिम चाल के रूप में साम्प्रदायिक कार्ड खेला था। उसको आशा थी कि हिन्दू-मुसलमानों की आपसी लड़ाई में फ़ायदा हमें मिलेगा और हिन्दुस्तान हमेशा के लिए उपनिवेश बना रहेगा। मगर इस देश के अमनपसंद लेखक और बुद्धिजीवियों ने इस कुकृत्य का विरोध किया। गाँधी नोवाखली गये। नेहरू और अन्य नेता प्रयासरत रहे; लेकिन दंगे रुके नहीं और हिन्दुस्तान का राजनैतिक विभाजन कर दिया गया। यह उस दौर की स्थिति थी; आज की स्थिति इससे भिन्न है। आज अलग मुल्क की अवधारणा तो नहीं है; लेकिन अलग राष्ट्र का बयान ज़रूर आता रहता है। महेन्द्र भटनागर इस विद्वेष से पीड़ित थे। वह बार-बार हिन्दू-मुस्लिम को धर्मान्धता छोड़ने का आग्रह करते हैं। ऐसे गीत जिनमें हिन्दू-मुस्लिम समता और एकता का विधान है वहाँ महेन्द्र कबीर की तरह धर्म के बाह्याचारों का प्रतिरोध करते हैं और मनुष्यता की दुहाई देते हुए एकता का प्रतिपादन करते हैं। उनकी कविता है - ‘हिन्दू-मुसलमान’। इस कविता में महेन्द्र कबीर जैसे प्रतीत होते हैःं
एक है सबका खुदा, जिसने बनाये जीव सारे!
खून की नदियाँ बहाकर देश की रक्षा न होगी,
धर्म का ले नाम, यों पथ-भ्रष्ट मानवता न होगी,
सभ्यता का हार, जिसमें उच्च भावों को पिरोये
हैं युगों से क़ीमती मोती, अनेकों प्राण खोये।
एक होकर ही रहेंगे, हिन्द तेरे जन-सितारे!
इस कविता में महेन्द्र भटनागर ने भाईचारे की बात की है और आधार कबीर का लिया है। चूँकि यह उस समय की कविता है जब प्रतिक्रियावादी ताक़तों का गठबन्धन पूँजीवाद से नहीं हुआ था; इसलिए अमनपसंद लोगों की पहली पसंद कबीर थे। भाईचारे या बन्धुत्व हमारे संविधान की मौलिक अवधारणा है और भारत के राष्ट्र होने का सबसे बड़ा कारण है। ‘भाईचारा’ - मतलब, सब यह सोचें कि हम आपस में भाई हैं। यह भाईपन तभी आता है जब सभी यह समझें कि हम एक पिता की सन्तान हैं। एक पिता की सन्तानें ही आपस में भाई होती हैं। यह भाईपन की क्लासिकल परिभाषा है जो हिन्दुस्तान में अभी तक चली आ रही है। महेन्द्र ने भी सबको एक खुदा की सन्तान कहकर भाईपन की अवधारणा पर ही बात की है। वह भाईपन को क़ीमती मोती तक कह देते हैं। क़ीमती वह होता है जिसके मूल्य पर सब कुछ लिया जा सके। कवि का ध्येय आज़ादी है, शोषण-विहीन वर्ग-विहीन समाज है। यह तभी सम्भव है जब सभी एकजुट होकर लड़ें। किसी भी लड़ाई और एकजुटता के लिए भाईपन बेहद ज़रूरी तथ्य है।
महेन्द्र भटनागर का समग्र पढ़ते हुए मैंने पाया कि उनकी कविता लोकधर्मी है। जीवन से पृथक नहीं है। अधिकतर गीतकारों में यह समस्या आ जाती है कि वे कला और भावुकता में इतने संलिप्त हो जाते हैं कि कविता में जीवन का अभाव परिलक्षित होने लगता है । लेकिन महेन्द्र में यह दिक़्क़त नहीं है। वह अपने आपको जनवादी कहते हैं और आलोचकों ने भी उन्हें जनवादी गीतकार माना है। जनवादी कवि का दायित्व है; वह अपनी रचनात्मकता को जनमन-गण में अर्पित कर दे । जन के माध्यम से ही वस्तुओं को परखे और देखे। जो जन के खिलाफ़ है उसकी आलोचना करे और जो जन के अनुकूल है उसे स्वीकृति प्रदत्त करे। यही महेन्द्र भटनागर करते हैं । जनवाद का गहरा रिश्ता लोक के प्रति होता है। वह लोक की विसंगतियों का सचेष्ट भोक्ता होता है। लोक की चिन्तनधारा व अपनी वैचारिकता की अभिव्यक्ति वह चरित्रों के माध्यम से करता है। लोकधर्मी कविता का सबसे बड़ा गुण है कि कवि जिस ज़मीन में रहता है वहाँ की प्रकृति, वहाँ के परिवेश, वहाँ के लोगों पर कविता लिखता है। यदि वह कवि है तो कहीं-न-कहीं वह अपने परिवेश और ज़मीन का बिम्ब अपनी कविता में उकेरेगा। महेन्द्र चूँकि गीतकार हैं; इनसे वह आशा नहीं की जा सकती है जिस तरह की आशा हम केदार, नागार्जुन , त्रिलोचन से करते हैं। गीत मुक्तक होते हैं। चरित्र की सम्भावनाएँ न के बराबर होती हैं या यह कहिए की चरित्र होते ही नहीं। चरित्र होना प्रबन्ध कविताओं का गुण हैं। बहुत से कवि हैं जो प्रबन्ध कविताओं में भी चरित्र नहीं सृजित कर पाते हैं जैसे केदारनाथ सिंह , विष्णुखरे , अशोक बाजपेयी , राजेश जोशी। इन कवियों में चरित्रों का अभाव है। जबकि केदार , त्रिलोचन , नागार्जुन , विजेन्द्र, मानबहादुर सिंह , वीरेन डंगवाल , सुधीर सक्सेना में चरित्रों की भरमार है। चरित्र आधारित कविता लिखना कवि की कसौटी है; उसकी कवित्व-क्षमता का प्रतिमान है। हर एक कवि / लेखक इस चुनौती को स्वीकार नहीं कर सकता है; न सफल हो सकता है। चरित्र सृजन में वही सफल होता है जिसे लोक की व लोक अनुभव की गहरी समझ हो। महेन्द्र भटनागर का काव्य-रूप चरित्र के लायक़ नहीं है; फिर भी लोकधर्मिता है इसलिए चरित्र भी हैं। जहाँ लोक के प्रति संवेदना है वहाँ पर लोक के पात्र भी हैं ।
चरित्रों के सन्दर्भ में महेन्द्र हिन्दी कवियों से आगे हो जाते हैं; क्योंकि चरित्र होना और चरित्रों का आपसी सम्वाद होना या नाटकीयता जैसे गुण बहुत कम कवि उत्पन्न कर पाते हैं। महेन्द्र की एक कविता है ‘हरिजन’ - इस कविता का पूरा ताना-बाना नाटकीय और संवादी है। यह लम्बी कविता है। इस कविता में दो पात्र आपस में संवाद करते हैं। संवाद काव्य के रूप में । नाटक जैसा ही कथोपकथन है। संवादों के साथ कविता चलती है और संवादों में ही कविता का निकष भी निहित है । संवादों के शिल्प पर हिन्दी में कविता लिखना बडी बात नहीं है। यम-नचिकेता संवाद को लेकर कुँवर नारायण ने आत्मजयी , धर्मवीर भारती ने कनुप्रिया , अन्धा युग लिखा। प्राचीन काल में नाटक को भी काव्य के अन्तर्गत माना जाता था। कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तलम् में भी संवाद और कविता आपस में मिल गये हैं। लेकिन किसी यथार्थवादी विषय पर संवादमूलक कविता हिन्दी में बहुत कम है। महेन्द्र का यह प्रयोग नया है। इस कविता को चरित्र व प्रबन्ध के दृष्टिकोण से प्रतिनिधि कविता कहा जा सकता है। महेन्द्र भटनागर में चरित्रों की सभी कोटियाँ मिलती हैं। कुछ चरित्र छोटी कविताओं में हैं तो कुछ लम्बी कविताओं में हैं। यह कहना कि चरित्र केवल लम्बी कविताओं में होते हैं या वही काव्य-रूप चरित्र ला सकता है तो महेन्द्र के सन्दर्भ में इस बात को सही नहीं कहा जा सकता है। यहाँ छोटी कविताओं में भी चरित्र हैं और उतना ही जीवन्त यथार्थ है जितना होना चाहिए। चूँकि महेन्द्र जनवादी लोकधर्मी कवि हैं; स्वाभाविक है उनका लगाव व संवेदना लोक के प्रति है न कि प्रभु-वर्ग के प्रति है। जिस वर्ग से लगाव होता है, जिस समुदाय से कवि की आत्मीयता होती है वह उसी समुदाय से चरित्र खोजता है - भिखारिन , हरिजन जैसी कविताएं इसी कोटि की हैं। इसके अतिरिक्त कवि अपने समुदाय से भी चरित्र तय कर लेता है। महेन्द्र कवि हैं लेखक हैं - यदि इस वर्ग से चरित्र न होते तो महेन्द्र के लोकधर्मी होने पर सवाल खड़ा होता। महेन्द्र ने साहित्कारों को भी चरित्र के रूप में उकेरा है। तुलसीदास, प्रेमचन्द, निराला उनके प्रिय लेखकों में हैं। प्रेमचन्द पर उन्होंने आलोचना-पुस्तक लिखी है। प्रेमचन्द के उपन्यासों और उनकी विचारधारा का व्यापक प्रभाव इनकी कविता में देखा जा सकता है। महेन्द्र के चरित्रों में सबसे ख़ास बात यह है कि वह वर्गीय पूँजीवादी समस्याओं के प्रतिरोध में बात करते हैं। यह सवाल केवल चरित्र का नहीं है; अस्मिता का सवाल भी है। जब हम दलित , शोषित, उपेक्षित तबके से चरित्र सृजित करते हैं तो उनकी पहचान का उत्तरदायित्व कवि पर ही होता और कवि अपने नज़रिए से इस तथ्य को प्रस्तुत करता है। महेन्द्र की कविता ‘हरिजन’ देखिएः
एक युवक ( पड़ा-पड़ा गुनगुनाता है )
बीत चुके हैं चार दिवस
हम नहीं गये अपने कामों पर,
दृष्टि नगर के जन-जन की
हम पर ही आज लगी है,
क्योंकि नहीं है काम हमारा
औरों के बल-बूते!
वर्तमान जीवन केे
अभिन्न अंग बने हम,
आज हमारे बिना हुआ
रहना सभ्य मनुजता का
कठिन असम्भव!
यह युवक बेरोज़गार है, दलित है। दलितों की अपनी कोई सम्पत्ति नहीं होती। वह मालिक का सेवक होता है। जितनी मज़दूरी करता है उतना धन पाता है। वह केवल ख़ान-!!पीने भर के लिए कमा पाता है। अनुमान करिए जिस आदमी का जीवन रोज़ कुआँ रोज़ पानी जैसी विडम्बना से गुज़र रहा हो, यदि उसे काम न मिले तो वह क्या करेगा? युवक और उसकी माता के संवादों द्वारा महेन्द्र ने दलित अस्मिता का ज़रूरी मुद्दा उठाया है । वह केवल मुद्दा भर नहीं उठाते; गम्भीर स्थिति में सहानुभूति भी दिखाते हैं। यह सहानुभूति नहीं होती है; जीवन के द्वन्द्वों से उत्पन्न और आँखों के सामने पसरी ज़िन्दगी का सच होती है। कवि इस यथार्थ से विचलित होता है; संवेदित होता है। वह विसंगतियों से टकराता है । वह सदाचार की चादर ओढ़े हुए समाज में अनाचार और दुराचार देखता है तो पीड़ित के लिए सहानुभूति का होना उसकी अपनी वैचारिक अवस्थिति का तकाज़ा है। उनकी ‘भिखारिन’ कविता देखिए और इस कविता में कवि की ईमानदारी व अपनी संवेदना का वर्गीय सच देखिए। आम तौर पर कवि मध्यमवर्ग या उच्चवर्ग से होता है; मगर वह अपने आप का वर्गान्तरण करता है; तभी वह असीम समाज से अपने आपको जोड़ पाता है। महेन्द्र ने इस कविता में अपनी वर्गीय अवस्थिति को छिपाया नहीं है। उसने अपने-आपको वास्तविक संवेदनाओं की अभिव्यक्ति तक प्रस्तुत किया है। भिखारी की पीड़ा पर जब उच्च-वर्गीय व्यक्ति अपनी कमज़ोरियों व अपनी वर्गीय अवस्थिति को छिपाता है तो वह नक़ली संवेदनाओं का वाहक बन जाता है। अनुभूति की वास्तविकता साहिल में बैठकर तूफ़ान का नज़ारा करने से नहीं मिलती। वह तो तूफ़ान में डूबकर मिलती है। महेन्द्र भी यही कर रहे हैं। उन्होंने संवेदना को नक़ली नहीं होने दिया। उसे अपनी वर्गीय अवस्थिति के अक्स के साथ प्रस्तुत किया। यह कवि की इ्रर्मानदारी है । ईमानदारी बहुत कम लेखकों और कवियों में देखने को मिलती है। केवल वहीं प्राप्त होती है जहाँ अनुभूति यथार्थ और वास्तविक हो; न कि काल्पनिक और आभासी होः
न जाने कितने दिन की होगी भूखी प्यासी यह सोच तनिक,
मैंने सोचा इन बातों को अच्छा हो टालूँ सुबह तलक।
फिर उसको भोजन-आश्रय दे, मैं भी सोने तत्काल गया,
एक प्रहर इस उलझन में ही बीता कब होगा प्रात नया।
सुबह-सुबह उठकर देखा केवल पाया अबला का शव,
इसी तरह दम तोड़ रहे हैं जग में जाने कितने मानव!
कवि यहाँ एक पात्र के रूप में, भिखारिन को देखकर उसे घर-वस्त्र देता है और फिर से सोने चला जाता है। यह निश्चिन्तता वर्गीय तकाज़ा है; जो कवि ही नहीं सभी संवेदनशील मानव करते हैं। कवि यहाँ चाहता तो खुद को रात-भर जगा भी सकता था; परन्तु वह झूठा होता! दुनिया में कौन है जो भिखारी की सेवा में रात भर जागे ? महेन्द्र की ईमानदारी इसी बात पर है कि उसने इस तथ्य को अतिरंजित नहीं बनाया और घटना को हूबहू अंकित कर विशाल उद्देश्य के प्रति समर्पित कर दिया कि संसार में हर रोज़ मानव भूख से मरते हैं। ऐसे बहुत से चरित्र हैं जिन्हें महेन्द्र बड़ी ईमानदारी से अपने काव्य का विषय बनाते हैं और चतुर्दिक व्याप्त शोषण व उत्पीड़न के अधाधुंध राज का पर्दाफाश करते हैं। महेन्द्र के बहुत से चरित्र तो साहित्यिक और राजनैतिक भी हैं; लेकिन उनके चित्रण में भी वह अपने नज़रिए से भटकते नहीं हैं। वैसा ही चित्रण करते हैं जिस तरह का यथार्थ होता है। वह मिथकों से भी चरित्र खोजते है। मगर मिथकीय अवैज्ञानिकता पर नहीं रमते। वैज्ञानिकता को ही तरजीह देते हैं। उनकी कविता ‘तुलसीदास’ इसका उदाहरण है। तुलसीदास पर बहुत से कवियों ने लिखा है; लेकिन जिस तरह का जीवट और लोक- धर्मी स्वरूप महेन्द्र ने दिखाया है वह कोई भी कवि नहीं दिखा सका - सिवाय निराला के। महेन्द्र भटनागर ने राजनैतिक चरित्रों में सबसे अधिक कविताएँ गाँधी पर लिखी हैं। गाँधी पर लिखी कविताएँ गाँधी का गुणगान नहीं है; जैसा कि पन्त आदि की कविताओं में प्राप्त होता है। गाँधी पर कविताएँ लिखकर उन्होंने दो तरह के लक्ष्यों की पूर्ति की है - पहला लक्ष्य रहा कि आज़ादी की लड़ाई का समूचा खाका खींच दिया और संघषोंर् की महत्ता को भी स्वीकृति प्रदत्त कर दी। यह किसी भी वैचारिक कवि का लक्षण होता है कि वह अपना कोई भी शब्द हवा में नहीं उछालता। उसमें वैचारिक आयाम व सोद्देश्यता होती है। गाँधी पर लिखी कविताओं से यही सिद्ध होता है
त्रस्त दुर्बल विश्व को सुख, शक्ति के उपहार हो तुम!
मनुज जीवन जब जटिल, गतिहीन होकर रुक गया है,
शृंखलाएं बंधनों की तोड़ता जब थक गया है,
दमन अत्याचार हिंसा से प्रकम्पित झुक गया है,
एक सिहरन, नव प्रगति की, शान्ति के अवतार हो तुम!
गाँधी यहाँ व्यक्ति के स्वरूप में नहीं हैं; चेतना के रूप में हैं। ऐसी चेतना जहाँ अहसास न हो तो अहसास भर दे; जहाँ क्रान्ति सुप्त हो वहाँ जाग्रत कर दे। कविता का काम भी यही है। कविता खुद नहीं लड़ती। वह खुद क्रान्ति नहीं करती। वह क्रान्ति की सहयोगिनी होती है। गाँधी को कवि इसी कारण के रूप में देख रहा है - वह चेतना व जागरण का प्रतीक है। लेकिन कवि की चिन्ता इस कविता में गाँधी से अधिक चेतना विहीनता की है। वह गाँधी से नहीं चिन्तित है - दमन, शोषण और अत्याचार के बावज़ूद चेतना विहीनता से चिन्तित है। इसका आशय है कि कवि गाँधी गुण-गान केवल चेतना की स्मृति के लिए कर रहा है; बाक़ी उसका लक्ष्य तो दलित, शोषित और ग़रीब है; जिन्हें वह क्रान्ति के लिए तैयार कर रहा है। इसी कविता में आगे वे कहते हैं-
पीड़ितों, वंचित-दलित-जन के उरों में आश भर-भर
प्राणमय, सन्देशवाहक, साम्य का नव-गीत गाकर,
मुक्त उठने के लिए तुम दे रहे हो पूर्ण अवसर;
देख मानवता जगी दुर्जेय कर्णाधार हो तुम!
इस कविता में कवि ने अपना मन्तव्य बिलकुल साफ़ कर दिया है। वह आशा का संचार माँग रहा है; जिससे उसका लक्ष्य साम्यवाद प्राप्त किया जा सके। वह जानता है कि पीड़ित, दलित, शोषित लोगों में चेतना का संचार हुए बग़ैर ऐसा सम्भव नहीं है।
महेन्द्र भटनागर का रचना-काल चालीस के दशक से लेकर दो हज़ार दस के बाद तक का है; जिसकी परिधि लगभग 77 वर्ष है। इतना लम्बा और प्रतिबद्ध लेखकीय जीवन जीना भी इस युग में कठिन है। आज के दौर में लेखक छोटी-छोटी इच्छाओं के लिए पल भर में अपनी पक्षधरता और प्रतिबद्धता का चोला उतार कर फेंक देते हैं; पता नहीं चलता, कौन कब किसके खेमे में सम्मिलित हो जाए; वहाँ महेन्द्र भटनागर जैसे प्रतिबद्ध कवि का होना लेखकीय ईमानदारी का सर्वोत्तम नमूना है। आज का दौर कविता और कवि दोनों के लिए संकट का दौर है। वैश्विक पूँजी ने कुछ खाँचे बना दिए हैं; कुछ मुद्दे तय कर दिए हैं और कुछ कवि निश्चित कर दिए हैं। सारी अकादमिक संस्थाएँ और पीठ आदि इन्हीं तयशुदा चीज़ों पर पिछले पचास साल से क़लम घिसते चले आ रहे हैं। न तो नयेपन के लिए कोई प्रयास है, न नया करने का कोई माहौल है। नामवर सिंह ने मुक्तिबोध की प्रतिष्ठा की; यह ठीक है - लेकिन पिछले पचास सालों में जितनी सुनियोजित चर्चाएँ मुक्तिबोध की की गयी हैं उससे हिन्दी को बहुत नुक़सान हुआ है। बहुत से कवि जिनकी चर्चा होनी चाहिए थी; वह चर्चा से बाहर हो गये; बहुत से कवि खत्म हो गये। मुक्तिबोध की चर्चा होना हिन्दी की साहित्यिक राजनीति है। जब तक मुक्तिबोध की चर्चा होती रहेगी तब तक नामवर सिंह बड़े आलोचक के रूप में स्थापित रहेंगे। इसलिए विश्वविद्यालयों और लेखक-संगठनों के माध्यम से चर्चा को बनाए रखा गया है। नामवर सिंह की शिष्य परम्परा लम्बी है। हर जगह उनके शिष्य हैं। विश्विद्यालयों , लेखक-संगठनों में उनकी गहरी पैठ भी है। पदाधिकारी भी वही हैं। अतः सरकारी पैसे से लगातार चर्चाएँ होती रहती हैं। इस चर्चा में वही लोग सम्मलित हो सके जो नामवर के क़रीबी थे या कलावादी थे। मुक्तिबोध व रामविलास शर्मा से असहमत व्यक्ति इन चर्चाओं में कभी नहीं गये । यही कारण था कि जो नामवर से सहमत रहा वह बड़ा कवि हो गया; जो असहमत रहा वह खतम हो गया! जबकि मुक्तिबोध उतने बड़े कवि नहीं थे; जितनी बातें की जाती हैं। उनकी रचनात्मकता में बहुत-सी खामी है।
लेकिन सवाल यह है कि बाक़ी कवियों पर ये खेमेबाज़ आलोचक चुप क्यों रहे? भवानीप्रसाद मिश्र , महेन्द्र भटनागर , मानबहादुर सिंह , हरीश भादानी , सर्वेश्वर दयाल सक्सेना , जैसे कवि कैसे छूट गये ? क्या इनकी पक्षधरता में कमी थी ? क्या ये लोग प्रगतिशील नहीं थे ? क्या इनका लिखा-पढ़ा किसी पुरस्कृत कवि से कमज़ोर है? इन कवियों का जीवन और रचना दोनों किसी भी पुरस्कृत कवि से कमज़ोर नहीं है; बल्कि श्रेष्ठ है। कम-से-कम अशोक बाजपेयी , निर्मल वर्मा , नरेश मेहता , उदय प्रकाश , विष्णु खरे , कुँवर नारायण से तो मीलों आगे है। केदारनाथ सिंह की कविता फोक है किसी भी भाषा का साहित्य हो उसकी सार्थकता ”लोकधर्मिता“ में सन्निहित है। महानगरीय मनोवृत्ति के लेखक लोकधर्मिता का आशय फोक से लेते हैं। फोक और लोकधर्मिता परस्पर भिन्न अवधारणाएँ हैं। फोक शब्द की उत्पत्ति बहुत बाद में हुई; जबकि लोक भारतीय अवधारणा है। लोक जन-सामान्य को कहते हैं; जिसमें शिक्षित , अशिक्षित , ग्रामीण, कस्बाई शहरी सभी समाहित हैं। लोक का विलोम प्रभु-वर्ग है । अर्थात् जो सम्पत्ति और शक्ति का स्वामित्व रखता है वह प्रभु-वर्ग में आता है। सत्ता से जुड़े वर्ग भी प्रभु-वर्ग हैं। हम उस साहित्य का समर्थन करते हैं जो प्रभु-वर्ग की सामन्ती और उत्पीड़नकारी आदतों का विरोध करते हुए लोक की सांस्कृतिक विरासत व सांस्कृतिक उपस्थिति को व्यक्त करता है। समस्त भाषाएँ और संस्कृतियाँ लोक से उत्पन्न होती हैं; मगर कालान्तर में वे प्रभु-वर्ग द्वारा अपहृत कर ली जाती हैं। जब संस्कृति का स्वरूप वर्गीय होने लगता है तब लोक पुनः नयी सांस्कृतिक अवधारणा की प्रस्तावना करता है। हमारी मान्यता है, जिस साहित्य से लोक की मूलभूत आदतों, चरित्र व संस्कृति को प्रकट किया जा सकता है, जिसमें लोक की आपसी एकता , भाईचारा , समझदारी व मुल्क के प्रति प्रेम बढ़ाने वाली चेतना निहित हो - उस साहित्य का हम समर्थन करते हैं। जिस साहित्य से अश्लीलता , कुंठा , धार्मिक एवं जातीय हिंसा , साम्प्रदायिकता, क्रूर धार्मिकता , अन्धविश्वास , भाईचारे-रिश्तों के आपसी टूटन को बढ़ावा मिले, हम उस साहित्य एवं संस्कृति को खारिज करते हैं। ऐसे भटकावपूर्ण साहित्य का हम सब विरोध करते हैं। और सत्ता के प्रतिरोध का समर्थन करते हैं।
अभी तक गीतकारों की चर्चा नहीं की जाती है; लेकिन चर्चा न करने का एकमात्र लक्ष्य है - लोकधर्मी कविता और जनप्रिय गीतों व जीवन से जुड़े कवियों को हाशिए पर ढकेल देना; जिससे सत्ता का विपक्ष रचती कविताएँ कभी सत्ता को शंकित न कर सकें। सत्ता और कारपोरेट इस खेल में लगातार भागीदार रहे। यूजीसी से आयोजनों के लिए खूब ग्राण्ट आती रही और दो-चार क्लासनोट्स लेखकों-प्रोफ़ेसरों के इष्ट मित्र आकर उड़ाते रहे और यही इन पचास सालों से होता आ रहा है। अब ऐसा परिदृश्य टूट रहा है। पूँजीवादी व सत्ता-सेवियों द्वारा रचित भ्रम अब सोशल मीडिया के युग में टूटने लगा है। आलोचकों की ऐसी पीढ़ी तैयार हो चुकी है जो विश्वविद्यालय और कारपोरेट की जड़ताओं से अवमुक्त है और वह इतिहास द्वारा किए गये अपराधों की बडी शिद्दत से पड़ताल कर रही है। जो तोड़ने लायक है उसे तोड़ रही है; जो बनाने लायक है उसे बना रही है। यदि आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के सन्दर्भ में देखा जाए तो भी महेन्द्र भटनागर आज के विभिन्न विमर्शों के अनुकूल हैं। वह पूँजी द्वारा पालित-पोषित सामन्तवाद से बखूबी परिचित हैं एवं उसके खिलाफ़ उनके पास पुष्ट वैचारिक सन्दर्भ भी हैं। आज वही कवि सामयिक माना जाता है जो विमर्शों के खाँचों में खुद को फिट कर दे। लेकिन विमर्शों का वह स्वरूप जो पूँजीवाद द्वारा प्रस्तावित है महेन्द्र को स्वीकार नहीं है। वह हाशिए की अस्मिताओं की बात लोकधर्मी तरीक़े से करते हैं। हमने उनकी ‘हरिजन’ कविता पढ़ी। इस कविता में कवि का मुख्य शत्रु अभिजात्य वर्ग है। पूँजीकृत शोषण की पद्धति है न कि जातिगत आधार पर कोई शत्रु तय किया गया है। दलित विमर्श में यही एक कमी है। जिस ब्राह्मणवादी सामन्तवाद की मुखालफ़त उन्हें करना था उसी ब्राह्मणवाद की आदतों और तरीकों का इस्तेमाल किया। इससे दलित-विमर्श हिन्दी में वह स्वीकृति नहीं पा सका जो उसे मिलनी चाहिए थी। महेन्द्र भटनागर की ‘हरिजन’ कविता की तुलना नागार्जुन की हरिजन-गाथा से की जा सकती है। दोनों कविताओं में जातीय और वर्गीय वर्चस्ववाद की निन्दा है। शोषण का विरोध है। यह वर्गीय दलित-विमर्श है। लेकिन दलित लेखक राजनीति के कारण खुद को वर्ग नहीं मानते रहे। वे जाति पर अधिक महत्व देते रहे। जाति का महत्व आर्थिक स्थिति के परिवर्तन के साथ ही समाप्त हो जाता है। लेकिन वर्गीय द्वन्द्व सनातन है।
दुनिया से न तो ग़रीब खत्म होंगे न ग़रीबी खत्म होगी। यह तभी खत्म होगी जब समूची जनता को भागीदारी दी जाएगी। सार्वजनिक सम्पत्ति में बराबर का वितरण होगा अर्थात् उत्पादन और वितरण में समता का प्रयोग होगा। महेन्द्र की ‘हरिजन’ कविता में इसी बात की ध्वनि आती है। इसलिए वह खुलकर साम्य जीवन की माँग रखते हैं। यही बात स्त्रियों के सन्दर्भ में कही जा सकती है। स्त्री अपनी जैविकीय और सामाजिक स्थिति के अनुसार खुद एक वर्ग है। यह सर्वहारा का वह हिस्सा है जो अनादिकाल से अधिकार और सम्पत्ति से विस्थापित रहा। भारत में सारे कानूनी और ज़मीन-जायदाद के अधिकार राजनैतिक अधिकार पुरुषों के पास थे। यहाँ तक औपनवेशिक शासन में शिक्षा का अधिकार भी नहीं था। विषमता का सर्वाधिक शिकार महिलाएँ रहीं। ज्यो- ज्यों लोकतान्त्रिक चेतना जाग्रत हुई स्त्री-शिक्षा का प्रसार हुआ त्यों-त्यों वह अपने अधिकारों के प्रति सचेत हुई। आरम्भिक नारीवादी आन्दोलन इसी माँग के साथ आरम्भ हुए कि हमें भी समाज के बुनियादी अधिकार दिए जाएँ। लेकिन शीघ्र ही महानगरीय लेखिकाओं का ऐसा वर्ग हिन्दी में आया जो शान-शौक़त की ज़िन्दगी जी रहा था। उनका जनता से कोई मतलब नहीं था। न कभी जनता को देखने की ज़रूरत समझीं। उन्होंने पाश्चात्य नारीवाद के सत्तर वाले दशक से अनुप्राणित होकर आर्थिक मुक्ति, सामाजिक मुक्ति व भागीदारी के पक्ष की माँग करने की बजाय यौन-मुक्ति का नारा देने लगीं। यहीं से भटकाव आरम्भ हो गया और जिस तरह की स्वीकृति नारीवाद को मिलनी चाहिए थी वह नहीं मिली। ऐसे फूहड़ नारीवाद को भी सत्ता के इशारे से बढ़ावा मिला। अधिकांश लेखिकाएँ बड़े घरानों की रहीं और विश्वविद्यालयों में इनको महत्व मिला, जिससे यह आन्दोलन मात्र कागज़ी बहसों में सिमटकर रह गया।
हिन्दुस्तान की आम स्त्री वैसी- की-वैसी ही रही जैसी वह थी। लेकिन महेन्द्र भटनागर की स्त्रीवादी कविताएँ इस जड़ता को तोड़ती हैं। नारीवाद का कोई भी पाठ करने से पहले महेन्द्र की नारीवादी रचनाओं को पढ़ा जाना चाहिए। नारी के प्रति महेन्द्र का दृष्टिकोण दो प्रकार का है - पहला है समता का तो दूसरा है हक़ का। समता के लिए वह नारी-सम्मान की माँग करते हैं; उसे बदलाव के लिए उद्बोधित करते हैं तो हक़ के लिए साम्यवाद की माँग करते हैं। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि स्त्री का यह विज़न ही भारत के लिए उपयुक्त है। नारी की दुर्दशा का भान रखने वाला कवि उसकी जागृति से कभी भयभीत नहीं होता। नारी- सत्ता से नारी-शोषक ही भयभीत होते हैं। विश्व के नारीवादी आन्दोलनों को पुरुषवादी सामन्तवाद ने तहस-नहस करने की कोशिश की थी। हिन्दुस्तान में भी नारी-अधिकार अचानक नहीं मिल गये; इसके लिए लम्बा रास्ता तय करना पड़ा है। यहाँ तक कि ३३: आरक्षण का मामला भी अभी तक लटका हुआ है। नारीवादी आन्दोलनों और नारी-जागरण का महेन्द्र भटनागर स्वागत करते हैं। स्त्री के पक्ष में या स्त्री के सन्दर्भ में समता अर्थात् विमुक्ति का कोई भी आन्दोलन हो। यदि वह सदियों से दलित- पीड़ित-उपेक्षितों के लिए है तो कवि के लिए वह साम्य का मार्ग है; मनुष्यता के हित में है। वह उसका स्वागत करते हैं। उनकी एक कविता है ‘नारी’- देखिए इस कविता में वे किस तरह नारी-आन्दोलनों का स्वागत करते हैः
अब तक केवल बाल बिखेरे कीचड़ और धुएँ की संगिनि
बन, आँखों में आँसूँ भरकर काटे घोर विपद के हैं दिन,
सदा उपेक्षित, ठोकर स्पर्शित पशु-सा समझा तुमको जग ने,
आज भभक कर सविता-सी तुम निकली हो बनकर अभिशापिन!
अब-तक वह केवल श्रम की पर्याय थी; यही उसका जीवन था । आज भी परम्परागत समाजों में जहाँ शिक्षा और आधुनिकता का प्रसार नहीं है; स्त्री का स्वरूप ऐसा ही दिखाई देता है। दर असल हमारे समाज का पारिवारिक ढाँचा ही कुछ ऐसा बनाया गया है जिसमें स्त्री को गृहस्वामिनी कहा जाता है मगर गृह-दासी बनाकर रखा जाता है। यह भी एक शोषण है। वह पति के जैसा खा नहीं सकती, उसके जैसा पहन नहीं सकती, उसके जैसा घूम नहीं सकती। वह परिवार के साथ-साथ समाज से भी उपेक्षित होने लगती है। महेन्द्र इस अवस्थिति से परिचित हैं। उनके समय के समाज की कल्पना हम कर सकते हैं; आज तो विकास बहुत हो गया है। महेन्द्र इनके संघर्ष को साम्यवाद का मार्ग कहते हैं और शोषण से विमुक्ति का नारा देते हैं। यह कवि की उदात्तता है; जो पचास के दशक में भी इतना कुछ कहने का वैज्ञानिक तर्क और साहस रखते हैःं
समता का आज़ादी का नव इतिहास बनाने को आयीं,
शोषण की रखी चिता पर तुम तो आग लगाने आयीं!
‘शोषण की चिता पर आग लगाने’ का आशय यही है कि सदियों के बन्धनों के खिलाफ़ नारी का खड़ा होना कवि के लिए काम्य है। वह इस आग को क्रान्ति की संकल्पना देता है। आग क्रान्ति ही है। जो शोषण को समाप्त करे वही क्रान्ति है। जो इसकी समाप्ति के लिए अग्रदूत बने वही क्रान्ति-दूत है। यह महेन्द्र की वैचारिकता है कि नारीवाद अभियान का वेे मुक्ति का अभियान कहते हैं। इस कविता में नारी की वस्तु-स्थिति का, उसकी पहचान व चतुर्दिक जकड़बन्दी से घिरी हुई चेतना का स्वरूप भी वे प्रतिपादित करते हैं। मगर, एक नारी और है जो परिवार में रहकर श्रम की भागीदारी करती है। उसका पति भी श्रम का भागीदार होता है। उसके पति को भी न्याय नहीं प्राप्त होता तो स्त्री को कैसे प्राप्त होगा! ऐसी स्त्री के बिम्ब भी महेन्द्र की कविता में उपलब्ध हैं; जो श्रमिक-स्त्री के बिम्ब हैं। यह स्त्री की वास्तविक दशा है। गाँव में स्त्री की स्थिति श्रमिक से अधिक नहीं होती; विशेषकर श्रम-आधारित उद्योगों में तो और भी अधिक शोषित होती है। महेन्द्र भटनागर की एक कविता है ‘खेतिहर’- इस कविता की तुलना गिनी-चुनी कविताओं से की जा सकती है। यह भी नये क़िस्म का प्रयोग है। प्रयोगवादी शिल्प में यह प्रगति चेतना की कविता है; जिसे नाटकीयता और संवादमयता ने और भी कलात्मक बना दिया है। इस कविता में कृषक-स्त्री की स्थिति और भाषा आप देखिए और खुद निर्णय कीजिए कि महेन्द्र के लिए स्त्री का विज़न क्या हो सकता है और आधुनिक खाया-पिया अघाया नारीवाद कहाँ भटक रहा है। इस कविता में एक किसान और उसकी पत्नी का संवाद है। किसान खेत चलने के लिए कहता है तो स्त्री कहती हैः
मगर बिटिया पड़ी बीमार है ज्वर से,
तुम्हें यह सूझता है क्या?
दिखाई भी नहीं देता
कि वह बेहोश-सी कैसी पड़ी चुपचाप!
बोलो, किस तरह उसको अकेली छोड़कर जाऊँ?
यह समस्या आम कृषक-महिला की है। वह पति के साथ खेतों में काम करती है; मगर इतनी कमाई नहीं हो पाती कि उससे जीवन चलाया जा सके। ग़रीबी और लाचारी का यह बिम्ब बुन्देलखंड, तमिलनाडु , उड़ीसा और महाराष्ट्र के किसान जानते हैं। इस ग़रीबी और जहालत का कारण अव्यवस्था है। अगला वाक्य किसान का हैः
बढ़ता जा रहा है ब्याज,
दस से सौ रक़म तक हा,
हो गयी है आज!
पटवारी हमारे खेत पर हावी,
फ़सल सारी उसी ने ली
कराकर कोठरी खाली!
खड़े हैं हम लुटा कर घर
भरे ये हाथ अपना झाड़कर!
यह स्थिति केवल स्त्रीवाद को समझने के लिए है महेन्द्र नारेबाज़ी में एतबार नहीं करते। वे नारेबाज़ी से दूर हैं। वे ज़मीनी वास्तविकता की बात कहते हैं। उनकी यह कविता बता देती है कि स्त्री के शोषण व दोयम दर्ज़े की मान्यता का कारण इस समाज में पूँजीवादी प्रभुत्व है। नहीं तो वह किसान की बेटी को बीमार नहीं दिखाते; बेटे को भी बीमार दिखा सकते थे। महेन्द्र भटनागर के स्त्रीवादी विचार आधुनिक और सच्चाई से परिपूर्ण हैं। जिस समय का उनका युग था; उस युग में नारीवाद का उतना प्रभाव नहीं था। लेकिन उस समय स्त्री को केन्द्र बनाकर शोषण और जहालत की कविता लिखना किसी क्रान्ति से कम नहीं था।
महेन्द्र भटनागर के गीत मात्र वैचारिक स्तर पर ही मज़बूत नहीं हैं; वरन कलात्मक स्तर पर भी उत्कृष्ट हैं। वे मूल रूप से बोध-युक्त सौन्दर्य के कवि हैं यही उनके काव्य का कला-पक्ष है। बोध-सौन्दर्य का आशय है कि प्रकृति की कोई भी संरचना हो उसका अवलोकन वह अप्रस्तुत रूप में या भावुक रूप में नहीं करते; वह अनुभूति और द्वन्द्व के रूप में करते हैं। सौन्दर्य शास्त्रियों ने सौन्दर्य अनुभूति की तीन कोटियाँ स्वीकृत की हैं - पहली कोटि है अलौकिक सौन्दर्य- बोध, द्वितीय कोटि है लौकिक सौन्दर्य, तीसरी कोटि है अजैविक सौन्दर्य। अलौकिक बोध में प्रकृति को ईश्वर की संज्ञा से अभिरूपित कर दिया जाता है और जीवन-जगत को अनुपम कहकर विस्तार दिया जाता है। यह सौन्दर्य-बोध यथार्थ के विरुद्ध होता है। रहस्यवादी कवि इस सौन्दर्य-बोध का अधिक प्रयोग करते रहे हैं। छायावाद में इस बोध की भरमार थी। कवि इतना भावुक था कि वह जड़ प्रकृति में चेतना को अधिरोपित कर उसे ईश्वरीय स्वरूप प्रदत्त कर देता था। मानवीयकरण अलंकार इसी चेतना की देन है। ऐसी रचनाओं का अन्त आध्यात्मवाद में होता है। सुमित्रानन्दन पन्त की रचना ‘नौका विहार’ देखी जा सकती है। इस कविता में गंगा को स्त्री का रूप दिया गया है। उसके अलौकिक सौन्दर्य को वर्णित किया गया; फिर अन्त में जाकर - ”ज्यों-ज्यों लगती नाव पार। उर में आलोड़ित शत विचार। धारा-सा इस जग का क्रम। शाश्वत जीवन शाश्वत उदगम!“- जैसे विचार उत्पन्न होते हैं और जीवन को शाश्वत बता कर जन्म-मरण के चक्र का बोध करा दिया जाता हैे। यह रहस्यवाद की टेक्नीक है। रहस्यवाद जीवन को अनादि और अनन्त ही मानता है और इस मान्यता के पीछे तर्क यही है कि जब जीवन अनादि और अनन्त होगा तभी वह ईश्वरीय अनुकृति सिद्ध होगा; क्योंकि ईश्वर भी अनादि अनन्त और शाश्वत है। इस अलौकिक सौन्दर्य-बोध के उलट लौकिक सौन्दर्य-बोध है। इस बोध में जो भी यथार्थ है उसे वैचारिकता के आलोक में और कवि के मन्तव्यों के आलोक में प्रस्तुत किया जाता है। इसके तहत पहले कवि प्रकृति का अवलोकन करता है; तदुपरान्त प्रकृति से आत्मीयता स्थापित करता है। फिर जीवन के ठोस अनुभवों से प्रकृति को मूल्यांकित करता है। इससे न तो प्रकृति या वस्तु का बोध पतित होता है न उसके मौलिक स्वरूप में कोई बड़ा परिवर्तन होता है। वस्तु भी अपरिवर्तित रहती है; बोध भी अपरिवर्तित रहता है। इसे सहज सौन्दर्य-बोध कहा जाता है। प्रगतिशील कविता में इस बोध की व्यापक चर्चा रही। केदार , त्रिलोचन , नागार्जुन इसी बोध के कवि रहे। जिस स्वरूप में वस्तु है उसका बोध उसी रूप में ग्रहण करना एवं जन-जीवन के अनुरूप उस ग्रहण-भाव की अभिव्यक्ति करना इस सौन्दर्य की रचनात्मक प्रक्रिया है। त्रिलोचन के सौन्दर्य-बोध को सहज सौन्दर्य कहा जाता है। क्योंकि त्रिलोचन ने लोक की वास्तविक संरचनाओं के आधार पर जीव और जगत का बोध किया है। उनकी ‘घमौनी’ कविता इस बोध का उदाहरण है। गाय का घमौनी करता हुआ बिम्ब हिन्दी-कविता में दुर्लभ है। तीसरी कोटि काल्पनिक सौन्दर्य-बोध की है। यह सबसे अयथार्थ बोध है। इसका कोई ज़मीनी बोध नहीं होता। यदि ज़मीनी बोध होता भी है तो महज़ उत्प्रेरक के रूप में होता है। वह उत्प्रेरक मात्र कारण बनता है कवि की कल्पना का। ऐसा बोध छायावाद में खूब प्राप्त होता है। आजकल की कविताओं में भी नमक बराबर यथार्थ लेकर लम्बा चौड़ा काल्पनिक वितान खड़ा करने की आदत है। नरेश सक्सेना और केदारनाथ सिंह इस मामले में विख्यात हैं। उनकी कविता हवा-हवाई कल्पना व अतिरंजन के कारण यथार्थ से पृथक हैं। महेन्द्र भटनागर का सौन्दर्य-बोध द्वितीय कोटि का है। वह लौकिक है और सहज है। वह न तो अलौकिकता को थोपते हैं; न भारी-भरकम उपमानों और विधानों से उसे अप्राप्य और अतिरंजित बनाते हैं। जैसी वस्तु है, वैसा ही उसका गुण है। फिर भी, भावुकता का अभाव नहीं है। ऐसे सौन्दर्य-बोध में देखा जाता है कि भावुकता और सूक्ष्म गहरी अनुभूतियाँ कविता में नहीं रह जाती हैं; मगर महेन्द्र की कविता इस अवगुण से विमुक्त है। पढ़ने में कहीं से नहीं प्रतीत होता कि महेन्द्र वैचारिकता को थोप रहे हैं। वैचारिकता भी सहज है; प्रस्तुति भी सहज है और कवि की आत्मीयता भी सहज है। यदि कहा जाए कि यह सब आत्मीयता के कारण सम्भव हुआ तो कोई आश्चर्य नहीं है। कवि जब प्रकृति एवं वस्तु के साथ आत्मीयता रखता है तो भावुकता स्वाभाविक है; वह अतिरंजित बनकर नहीं आती है। अतिरंजना तभी होती है जब कवि की अनुभूति में गड़बड़ी होती है। गड़बड़ी छिपाने के लिए ही कवि अतिरंजना की सहायता लेता है। सहज-बोध की उनकी बहुत- सी कविताएँ हैं। यह सहज-बोध उनकी प्रकृति व प्रेम सम्बन्धी कविताओं में निखर आया है। उनकी एक कविता है ‘दूर खेतों पार’ इस कविता का सौन्दर्य विधान देखिए जो रात के बिम्ब द्वारा आसन्न संकट का प्रतिबोध दे रहा हैः
शीत की काली भयावह रात!
दूर खेतों पार जर्जर ढूह /जीवन स्तब्ध
धुंध भीषण काँपती हरे रूह /जन-मन दग्ध
मूक प्राणों के दमन की बात!
शीत की काली रात महज़ एक बहाना है। कवि का मन तो आसन्न संकटों पर रमा है। वह संकट के दौर से गुज़र रहा है। वह संकट देख रहा है, उसका अनुभव कर रहा है। वह काली रात का बहाना लेकर आमजन-मानस के बिम्ब का प्रदर्शन कर रहा है। यही कवि की कला है और उसकी लेखकीय प्रतिबद्धता है - कि वह प्रकृति को न तो अपने रंग में रँगकर देखता है;े न प्रकृति के रंग में रँगता है और न ही आध्यात्म का बहाना लेता है। वह जन-मन-गण के मानस से जोड़ देता है। इस कला से कविता का अर्थ अभिधा से हटकर व्यंजना की अभिव्यक्ति करने लगता है। यही बात ऐन्द्रिक बिम्बों में भी है। महेन्द्र के ऐन्द्रिक बिम्ब बड़े सहज और संवेद्य होते हैं। वे अतिरंजना से दूर सार्थक भाषा में सार्थक अभिव्यक्ति के उदाहरण बन गये हैं। उनकी एक कविता है ‘मुख को छपाती रही!’ इसका आरम्भिक बिम्ब हैः
धुआँ ही धुआँ है!
नगर आज सारा नहाता हुआ है!
अँगीठी जली है व चूल्हे जले हैं
विहग बाल-बच्चों से मिलने चले हैं....
यहाँ शाम का बिम्ब है। शाम पर किसी भी तरह का मानवीकरण नहीं है। शायद यही कारण है, कविता अतिरंजना से दूर होकर यथार्थ को सुस्पष्ट ढंग से अभिव्यक्त कर रही है। इस कविता का अर्थ और भी प्रभावी हो जाता है जब कवि इसमें बच्चों और माँ के मिलने की बात कहता है। यह कविता के सौन्दर्य में कवि का वैचारिक हस्तक्षेप है। श्रमिक-माताएँ सारे दिन दो जून की रोटी के लिए काम करती हैं। शाम को लौटती हैं, अपने परिवार से मिलती हैं। पक्षी तो बहाना है; मूल अर्थ मेहनतकश समुदाय की ओर ले जाता है। यही है महेन्द्र का सौंदर्य-विधान। केवल इतना ही नहीं; वह जनमन के अनुरूप देखते हैं, प्रकृति की भावुक अनुभूति भी करते हैं । महेन्द्र भटनागर के कविता-संग्रहों में भावुक अनुबोध की कविताएँ भी हैं। मगर वह छायावादी भावुकता से कोसों दूर हैं। भावुकता प्रगतिशील है। छायावादी भावुकता, कल्पना और अलौकिकता की ओर बढ़ती है; तो प्रगतिशील भावुकता वस्तु के अपने रूप पर केन्द्रित हो जाती है। देखिए एक कविताः
स्तब्धता सुनसान, पथ वीरान,
सीमाहीन नीला व्योम,
मटमैली धरा पर वृक्ष बरगद का झुका
मानो कि हो प्राचीनता साक्षात!
यह ‘बरगद’ कविता का अंश है; जो उनकी एक सुन्दर कविता है। इसमें ‘मानों’ शब्द का आना, इसे उत्प्रेक्षा अलंकार में बदल देता है। लेकिन यह उत्प्रेक्षा भी अतिरंजित नहीं है। बरगद को बूढ़े आदमी जैसा दिखाया गया है। मगर वह है अचेतन और उत्प्रेक्षा भी अचेतन अजैविक सत्ता से की गयी है। समय से तुलना है-प्राचीनता समय है और समय का एक बूढ़ा अपरूप है। दृष्य की उपमा अदृष्य से करना बड़ी कल्पना है। जितनी बड़ी कल्पना होती है, कवि की भावुकता भी उतनी तीव्र होती है - ऐसा आचार्यों ने कहा है। बरगद और समय दो पृथक वस्तुओं की आपस में साम्यता नहीं है; मगर कवि ने स्थापित की है। अप्रस्तुत को प्रस्तुत करके दिखाया; जबकि छायावादी भावुकता प्रस्तुत को ही ग़ायब कर देती है। पन्त ने अपनी प्रेयसी के लिए कहा था - वह है, वह नहीं अनिर्वच यहाँ ग़ायब हो गयी है। महेन्द्र यथार्थवादी थे, वह प्रस्तुत को ग़ायब नहीं कर सकते हैं। महेन्द्र का यह गुण उनके अन्य अप्रस्तुत विधानों में भी देखा जा सकता है। उनकी एक कविता देखिएः
अथक जनशक्ति के तूफ़ान छाये आसमानों पर,
कि गहरी धूल के कम्बल दिशाएँ ओढ़ती डर कर!
यहाँ भी अप्रस्तुत विधान है। इसे उपमा भी कहा जाता है। यहाँ शाम का बिम्ब है। धूल भरी आँधियाँ जो कि प्रस्तुत हैं; वहाँ जनशक्ति की कल्पना व दिशाओं को डरने की बात कहना कवि की सूक्ष्म पर्यवेक्षण शक्ति को बता देता है। धूल और आँधी पर ऐसी कल्पना ही बता देती है कि यहाँ ‘ग़ायब’ को प्रस्तुत किया जा रहा है और जो प्रस्तुत है उसे और भी स्पष्ट किया जा रहा है। कला के साथ वैचारिक परिपक्वता देखना इस कविता को और भी प्रभावी बना देता है। महेन्द्र जब अपनी कविता में अप्रस्तुत विधानों के साथ व्यंजना का प्रयोग करते हैं तब कविता की मारक क्षमता और बढ़ जाती है। व्यंजना भाव-प्रवणता और व्यंग्य का स्रोत है। इस कला का प्रयोग बहुत कम कवि जानते हैं। हिन्दी कविता में लोकधर्मी कवियों ने इस कला का खूब प्रयोग किया है। विजेन्द्र , सुधीर सक्सेना , नासिर अहमद सिकन्दर इस कला के माहिर खिलाड़ी हैं। व्यंजना शब्दगत और अर्थगत दोनों तरह की होती है। महेन्द्र ने दोनों का कुशलतम प्रयोग किया है। व्यंजना, सूक्ष्म और सीमित अनुभूति से कविता को निकालकर, उसे विस्तारित अर्थवत्ता प्रदत्त करती है। अर्थ-विस्तार व्यंजना का ख़ास गुण है। इससे कवि अपने मन्तव्य के अनुरूप काम करा लेता है। महेन्द्र भटनागर की कविताओं में व्यंजना का सुन्दर प्रयोग मिलता है। उनकी सैकड़ों कविताएँ, व्यंग्य-आक्रोश की अभिव्यक्ति, व्यंजना के माध्यम से करती हैःं
आज सबेरा होता है
पर बहुतेरे सोते हैं,
काट रहे जन आज फ़सल
पर बहुतेरे रोते हैं!
आज नयी गंगा बहती
पर बहुतेरे प्यासे हैं,
चातक से बन इस जल को
पीना घातक कहते हैं।
यहाँ व्यंजना के सहारे चेतना व विधि-निषेध की सामन्ती परम्परा तक अर्थ-विस्तार किया गया है। ‘आज सबेरा होता है’ का आशय है - सब कुछ स्पष्ट है; फिर भी लोग समझ नहीं पा रहे हैं। जनता अपना हिस्सा छीन रही है; जब कि अकर्ता जन-बल क्षीण हो रो रहे हैं। महेन्द्र यहाँ अर्थ-विस्तार कर रहे हैं; अर्थ को नया आयाम दे रहे हैं। वह कविता की खुराक में, कला के माध्यम से, संघर्षों का आहार दे रहे हैं। और यही नहीं, वह व्यंग्य की धार पैदा करने में भी व्यंजना का सहाय लेते हैं। एक व्यंग्य सीधा होता है तो दूसरी कोटि का व्यंग्य व्यंजना-प्रधान होता है। सीधे कहना भी तीखापन देता है और व्यंजना भी तीखापन प्रदत्त करती है। उनकी कविता है ‘पुनर्निर्माण’ - देखिए व्यंग्य और प्रहार का समालोचनात्मक स्वरूपः
बुद्धि अगर बढ़ जाएगी
तो शेरों की खालों में छिपे हुए गीदड़
अब और न जीवित रह पाएंगे!
इसीलिए आज पुनर्निर्माण करो!
बुद्धि का बढ़ना और शेर की खाल में गीदड़ों का होना - यह व्यंग्य है; जो आक्रोश के साथ-साथ पूँजीवाद के दुःसाहस व मध्यमवर्गीय कायरता का पर्दाफाश कर देता है। महेन्द्र भटनागर मध्यमवर्ग से आते हैं। वह मध्यवर्ग की सभी आदतों से परिचित हैं। इसलिए वह अपनी कविताओं में मध्यमवर्ग पर लगातार प्रहार करते हैं। उसकी क्रान्ति-विरोधी आदतों की आलोचना करते हैं। यहाँ तक कि मध्यमवर्ग पर उन्होंने अलग से भी कविताएँ लिखी हैं। महेन्द्र भटनागर की सौन्दर्य चेतना भी वैचारिक मन्तव्यों के अनुकूल है। वह यथार्थ को विकृत नहीं करते हैं, न ही कल्पना और भावुकता का बोझ लादते हैं। अपने भाषागत प्रयोगों मसलन - मुहावरों , उपमाओं, बिम्बों, प्रतीकों, व्यंजना व व्यंग्य चित्रण में वह यथार्थवादी ही रहते हैं। यही उनका अलहदापन बाक़ी सभी समकालीन कवियों गीतकारों से अलग कर देता है। कोई भी कवि हो उसकी असली परीक्षा प्रेम-कविताओं से होती है। वैसे भी गीतों को प्रेमगीत माना जाता है; क्योंकि इसकी शुरूआत ‘गीतगोविन्दम्’ जैसी शृंगारपरक रचना से मानी गयी है और हिन्दी में अधिकांश प्रेमगीत एवं विद्यापति आदि प्रचीन कवियों की प्रेमगीत पदावलियाँ भी उपलब्ध हैं। प्रगतिशील कविता में प्रेमगीत एक चुनौती है। प्रेम का स्वरूप प्रयोगवादियों और कलावादियों ने इतना विकृत कर दिया था कि प्रगतिशील कविता के लिए उस रीति को तोड़ना कठिन था। मगर अशोक बाजपेयी छाप प्रेम-कविताओं का जवाब भी देना ज़रूरी था। केदारनाथ अग्रवाल की ‘हे मेरी तुम’, विजेन्द्र की ‘घना के पंख’ जैसी बेहतरीन रचनाएँ प्रगतिशील प्रेम- कविताओं का अपना पक्ष प्रस्तुत करती हैं। महेन्द्र ने भी प्रेम-कविताएँ लिखीं और अपनी प्रेम-कविताओं का सचेतन विस्तार किया। यह विस्तार वैयक्तिक अनुभूति के स्तर को तोड़ता हुआ समूची मानवता का राग बनकर उभरा है। यह प्रेम देह को छोड़ विदेह में; अनुभूति को छोड़ चेतना में तब्दील हो जाता है। साथ ही बदलाव की धमक के साथ सामन्ती आदतों के प्रतिरोध में खड़ा हो जाता हैः
जब से हुई पहचान
मूक अधरों पर
अयास, बिछल रहे कल गान!
देखा / एकाग्र पहली बार,
बढ़ गया विश्वास,
मन पंख पसार, छूना चाहता आकाश!
इसमें प्रिया को देखते ही सुख की अनुपम अनुभूति का कहन है। वह भी ऐसी अनुभूति जो मन को विस्तार देती है; विश्वास देती है। कवि आकाश चूमना चाहता है। आकाश चूमना कोई बिम्ब नहीं है। यह परिघटना है। जब व्यक्ति जीवन के संघर्षों को निबटा चुकता है; वह विजय की मुद्रा में होता है। वहाँ विश्वास ही बढ़ता है। और वह दुख- द्वन्द्वों की सांसारिकता से अलग हो जाता है। यही बात संयोग के बिम्ब में भी है। देखिएः
ओ पवित्रा!
मृदुल शीतल उँगलियों से
छू दिया तुमने माथ मेरा-
मुश्किलें उसी क्षण गया सब भूल!
प्रिया यहाँ मार्ग का कंटक काटती है। वह प्रियतम को अपने स्पर्श से कठिन जीवन में हर क्षण जीने का बोध देती है। सामाजिक अवरोधों का विनाश करती है। प्रेम का यह पक्ष अश्लील नहीं है; न अश्लीलता की सम्भावना है। यह चेतना का विस्तारित निःसंग प्रारूप है; जो क्रान्ति-पथ पर सहयोगी के रूप में आता है। यही बात महेन्द्र की विरह कविताओं में भी है। विरह प्रेम का सबसे आवश्यक अंग है। आचार्यों ने शृंगार को रसराज इसीलिए कहा है कि वहाँ समस्त भावों का उदात्त स्वरूप प्राप्त होता है। विरह-वर्णन की हिन्दी में लम्बी परम्परा है। अस्सी फ़ीसदी शृंगार विरह-वर्णन के रूप में मिलता है। दोहा, गीत , पद ,चौपाई , कोई छन्द का प्रारूप नहीं बचा जिसमें विरह सम्बन्धी रचनाएँ न की गयी हों। बहुत से कवियों ने इसे बारहमासा के रूप में प्रस्तावित किया और लिखा भी। बारहमासा में मौसम और प्रकृति की अनुकूलता-प्रतिकूलता के आधार पर विरह वेदना का रूपांकन किया जाता है। किसी कवि ने रहस्यवाद से विरह को जोड़ा तो किसी ने इस विभेद को ऐन्द्रिक और सांसारिक रखा। हर कोटि का वर्णन इस रस में प्राप्त होता है। शास्त्रीय रूप से विरह तीन प्रकार का होता है - पहला रूप है पूर्वराग , दूसरा है मान , तीसरा है प्रवास। पूर्वराग प्रेम के आरम्भ का विरह है तो मान प्रिया या प्रियतम की नाराज़गी से उत्पन्न होता है, प्रवास में प्रिय या प्रेमिका में से एक का विदेश गमन होता है। लेकिन महेन्द्र भटनागर का विरह वर्णन शास्त्रीयता को समाहित करता हुआ भी वेदना-प्रधान है। उसे किसी खाँचे में नहीं फिट किया जा सकता है। वह केवल वेदना है, पीड़ा है और द्वन्द्व है। जिसे रामचन्द्र शुक्ल ‘प्रेम की पीर’ कहा करते थे। आधुनिक काल में ‘प्रेम की पीर’ के दर्शन तो मुश्किल हैं; लेकिन महेन्द्र ने ‘प्रेम की पीर’ को बड़े भावुक और संवेदनशील अन्दाज़ में अभिव्यक्त किया हैः
अब न रहा जाता!
प्रिय दूभर जीना /मूक हृदय-वीणा
आघात समय का /अब न सहा जाता!
करुण कथा कितनी /गरल व्यथा कितनी
लय में, छन्दों में /अब न कहा जाता!
इस कविता में महेन्द्र विरह को रचनात्मकता से जोड़कर देख रहे हैं। यह विरह अन्यत्र से नहीं है; स्वयं की रचनात्मक ऊर्जा से है। जिन दुख-द्वन्द्वों को कवि अपनी भाषा में नहीं कह पा रहा, उन द्वन्द्वों की भाषा तलाश कर रहा है। यह भाषा से बिछुड़ने का द्वन्द्व है। यह पीड़ा नहीं, वेदना है। वेदना शारीरिक नहीं होती; आत्मिक होती है। इसी आत्मिक वेदना को शुक्ल जी ने ‘प्रेम की पीर’ कहा था। महेन्द्र की विरह कविताएँ शास्त्रीय प्रेम के बन्धनों में तोड़-फोड़ करती हुई प्रेम का विस्तार करती हैःं
मैं लिए हूँ
प्राण की यह रिक्त झोली
माँगता हूँ स्नेह निर्मल!
देखना बस चाहता हूँ
हाथ ममता का उपेक्षित शीष पर!
इस कविता की भाषा वेदना का अधिरूपण कर रही है। महेन्द्र किसी भी क़िस्म के विषय की भाषा पर पकड़ रखते हैं। यही कारण है, वह आपेक्षित शब्दों से अपने अनुसार बात कहलाने में सफल हो जाते हैं। प्रियतम को देखने की अदम्य लालसा और ममता की प्यास प्रेम में रति का खंडन है। जिसे प्रेम में रति रहने की ज़िद है, जो प्रेम में रति के अभिलाषी हैं उन्हें महेन्द्र की इस कविता को ज़रूर पढ़ना चाहिए।
अब आख़िर में महेन्द्र भटनागर की भाषा पर बात हो जाए। चूँकि महेन्द्र का कविता फार्मेट गीत का है तो ज़ाहिर है गीतों में परुष शब्दों से बचाव किया जाता है। ग्राम्य शब्दों का प्रयोग यदि कविता में होता है तो आलोचक उसे लोकधर्मी कहते हैं; मगर यही ग्राम्य भाषा यदि गीतों में प्रयुक्त होने लगे तो झट से लोकगीत कह देते हैं। यह खतरा गीतकारों के साथ बहुत रहा। महेन्द्र इस खतरे से वाकिफ़ थे। इसलिए उनके गीतों में ग्राम्य शब्दों का नहीं के बराबर प्रयोग है। यह संकट कविता या उसके फार्मेट का नहीं है। यह आलोचना का संकट है। दर असल लोककवि होना और लोकधर्मी होना दोनों अलग-अलग हैं। लोक तो आमजन होते हैं और जो आमजन के लिए लिखे वह लोकधर्मी होता है। आमजन जिस भाषा में बातचीत करता है और आमजन जिस भाषा में लिखता है; वह कविता लोक-कविता होती है और जो लोक के हित के लिए लिखता है वह लोकधर्मी कवि होता है। महेन्द्र ने लोकभाषा में नहीं लिखा। परिष्कृत और विशुद्ध संस्कृत-निष्ठ हिन्दी खड़ीबोली में लिखा। इसलिए वह लोककवि नहीं हैं; हाँ यह ज़रूर है उन्होंने आमजन के लिए लिखा है इसलिए वह निःसन्देह लोकधर्मी कवि है। मैंने अपने इसी आलेख में उन्हे कई बार लोकधर्मी कहा है। लोकधर्मिता वैचारिकता पर आश्रित होती है; जो महेन्द्र भटनागर में है। जो भी लोकधर्मी होता है वह केवल वैचारिकता पर अपना ध्यान केन्द्रित रखता है; भाषा या फार्मेट के किसी भी अपरूप को द्वितीयक रखता है। उसकी भाषा वही होती है जो कविगत हो। गीत संवेदना से उत्पन्न होते हैं। कवि की सघन एवं प्रभावी अनुभूतियों और मनोवेगों का इसमें योग होता है। कवि अपनी भाषा में इन आवेगों की अभिव्यक्ति करता है। यह वह अपनी भाषा में करता है; अनुभव के आश्रय की भाषा में नहीं। यह कवि की ईमानदारी है। यदि वह अपनी वर्गीय अवस्थिति को त्यागकर दूसरे वर्ग की भाषा का सहारा लेता है तो कविता से न तो कवि की पहचान हो पाती है न उस विषय की पहचान हो पाती है जिस विषय को लेकर कवि कविता लिख रहा है। महेन्द्र की काव्य-भाषा उनकी निजी भाषा है। अपनी निजी भाषा मेें ही निजी द्वन्द्वों की अभिव्यक्ति हो सकती है। अभिव्यक्ति के लिए वही भाषा समर्थ है। इसलिए समर्थ भाषा को निजी भाषा का अपरूप कहा जाता है; जब कवि समर्थ भाषा का प्रयोग काव्य-भाषा के रूप में करता है तो वह कहीं से भी नक़ली नहीं प्रतीत होती। वह असली भाषा होती है; सार्थक भाषा होती है। इस समर्थ भाषा के कारण ही अभिव्यक्ति के अन्दाज़ और कविता की प्रभावोत्पादकता बढ़ जाती है। यही महेन्द्र की कविताओं के साथ है। इनकी भाषा का रचनात्मक कसाव और अलगाव दोनों आवेगों के साथ बदलते रहते हैं। जैसा आवेग होगा, भाषा का रिदम भी वैसा होगाः
झिलमिल-झिलमिल होते तारक!
टिम-टिम कर जलते थिरक-थिरक
कुछ आपस में कुछ पृथक-पृथक
बिन मंद हुए हँस-हँस अपलक!
तारों के टिमटिमाने में कवि को एक अन्तर्राग दिख रहा है; इसलिए वह भी रागात्मक ध्वन्यात्मक शब्दों से रागात्मक गीत लिखता है। इस कविता के शब्द गढ़े गये हैं। हालाँकि ये शब्द आम बोलचाल के हैं, मगर कविता में ध्वन्तात्मकता का भली प्रकार निरूपण कर रहे हैं। महेन्द्र की काव्य-भाषा विषय के अनुरूप अपनी बुनावट तय कर लेती है। इसके लिए कवि को कोई आयास-प्रयास नहीं करना पड़ता। विषय स्वतः भाषा लेकर आता है। जब वह आक्रोशित होते हैं तो अपने आप भाषा रागात्मकता से च्युत हो जाती है। कभी-कभी वह गीत की भी शतोंर् का अतिलंघन करने लगती है। जब वह वेदना और पीड़ा-बोध से गुज़र रहे होते हैं तो शब्दों में बेचैनी और विकलता की आहट आ जाती है। मेरे कहने का आशय है, जब कवि कविता में अपनी मौलिक भाषा का प्रयोग करता है तो वह खुद-ब-खुद समर्थ भाषा का रूप धारण कर लेती है। उपर्युक्त रागात्मक गीत पढ़ने के बाद इस गीत को देखिए-रागात्मकता कैसे आक्रोश में तब्दील हो गयी है। यह गीत खेतिहर कविता का आख़िरी अंश हैः
मेहनतकश उठो!
बलवान हो तुम,
हल चलाकर ही उगा सकते अभी सोना,
मिटा दो आततायी का सभी मिथ्या भरा टोना,
अटल विश्वास जीवन में तुम्हारा हो सदा संबल,
उठाओ हल, चलाओ हल!
इस कविता में राग है; मगर रागात्मकता नहीं। ध्वनि है मगर ध्वन्यात्मकता नहीं। शब्द आक्रोश के हैं मगर सहानुभूति के साथ रखे गये हैं। आक्रोश और सहानुभूति को गीत के राग में बुनकर एक ऐसी काव्य-भाषा का जन्म हो रहा है जो गाँव और महानगर के निवासियों की मौलिक भाषा है। इसलिए मैं महेन्द्र को काव्य-भाषा का कुशल जादूगर कहता हूँ। भाषा यहाँ किसी अस्मिता का मुलम्मा बनकर नहीं आयी; क्योंकि कवि चरित्रगत कविताओं को छोड़कर हर जगह नेपथ्य में है। वही कथा कह रहा है, वही सूत्रधार है, वही अभिनेता है तो ज़ाहिर है, भाषा भी वही होगा और सम्प्रेषण का विषय कवि के मन्तव्य होंगे। रागात्मकता , आक्रोश , ध्वन्यात्मकता , सपाटपन , प्रभाविकता, संगीतात्मकता जैसे गुण तभी हो सकते हैं; जब कवि अपनी समर्थ भाषा में समर्थ भावों की समर्थ अभिव्यक्ति करता है। देखिएः
देखो, इन तारों का नर्तन!
सुरबालाओं का नृत्य, अरे देखा होगा हाला पीकर,
देखा होगा माटी का क्षणभंगुर नृत्य मनोहर!
यहाँ केवल तारे नहीं नाच रहे; भाषा भी नाच रही है। यह नाच शब्दों की संगति से पैदा हो रहा है। नर्तन शब्द ही उच्चारण में ध्वन्यात्मक परिवर्तन का अवगुंठन है- जिह्वा नाच उठती है। क्षणभंगुर शब्द का उच्चारण भी अल्पप्राण और महाप्राण ध्वनियों का सामूहिक समायोजन है; जिसके उच्चारण में वायु भी तालु और जीभ के साथ झटके खाती है। महेन्द्र की काव्य-भाषा समर्थ है; इसलिए वे अतिरिक्त अलंकरण का कोई प्रयास नहीं करते। समर्थ काव्य-भाषा अपने आप अलंकार, व्यंग्य , अप्रस्तुत विधान , उपमा , रूपक , बिम्ब आदि ले आती है। जैसा विषय होता है वैसे काव्य-सौन्दर्य के उपादान भाषा के साथ मिलकर रचनात्मकता में अपना हस्तक्षेप करने लगते हैं। महेन्द्र भटनागर के काव्य का अनुशीलन करने के बाद कहा जा सकता है कि वह कविता-पथ के जीवट राही हैं - ऐतिहासिक एवं अनिवार्य व्यक्तित्व हैं। अपने लम्बे रचनात्मक जीवन में तमाम क़िस्म के वादों, प्रतिवादों, संवादों, आन्दोलनों से जुड़कर भी उनसे असम्पृक्त रहना व रचनात्मक भावभूमि को प्रगतिशील रखते हुए प्रयोग की शिल्प-पद्धति को अंगीकार करना उनके रचनात्मक जोखिम का प्रमाण देता है । रौमैण्टिक भाववाद के खिलाफ़ विद्रोह उनकी कविता की आवश्यक परिणिति है तो गेयता उनका अपना शिल्प है। विचारधारा उनका दर्शन है तो लोक के प्रति चिन्ता उनका सरोकार है। मगर जितना महेन्द्र भटनागर पर काम होना चाहिए वह नहीं हो पाया। इसका मूल कारण है, साहित्य के ठेकेदार अब वे लोग हो गये हैं जो साहित्य के साथ-साथ यथार्थ से भी कटे हुए हैं। लेकिन महेन्द्र का विपुल काव्य जब-तक रहेगा तब-तक वे हिन्दी-कविता की ज़रूरी आवाज़ बनकर हमेशा उपस्थित रहेंगे ।
-उमाशंकर सिंह परमार
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