‘‘संस्कारों हि गुणन्तराधानमुच्यते।’’ महर्षि चरक 'कदली शीप भुजंग मुख, स्वाती एक गुण तीन। ' जैसी संगती बैठिये, वैसा ही फल दीन।। रहीम स...
‘‘संस्कारों हि गुणन्तराधानमुच्यते।’’
महर्षि चरक
'कदली शीप भुजंग मुख, स्वाती एक गुण तीन।
' जैसी संगती बैठिये, वैसा ही फल दीन।।
रहीम
संस्कार का शाब्दिक अर्थ है, शुद्धिकरण। मन, वचन, क्रम और शरीर को पवित्र करना, हमारी प्रवृतियों और मनोवृतियों को शुद्ध व सभ्य बनाना संस्कार होता है ,और व्यवहारिक अर्थ में सद्गुणों को बढ़ाना व दुर्गुणों को घटाना और अच्छी आदत अपनाकर ,बुरी आदतें छोड़ना ही संस्कार है I वस्तु में नये गुणों का आधान करने का नाम संस्कार है। संस्कारों का व्यक्ति के साथ ऐसा सम्बन्ध है जैसा जल का जमीन के साथ। व्यक्ति एक जन्म का नहीं जन्म जन्मान्तर के संस्कारों का परिणाम है। व्यक्ति जो कुछ होता है, करता है वह सब उसके भीतर इस जन्म के और पूर्व जन्म के संस्कारों का एक प्रवाह गतिशील रहता है। वर्तमान में व्यक्ति जो कुछ भी कहता है, करता है उसके पीछे पूर्वगत संस्कार और वर्तमान संस्कारों की बहुत बड़ी भूमिका रहती है । संस्कार से ही हमारा सामाजिक और आध्यात्मिक जीवन पुष्ट होता है और हम सभ्य कहलाते हैं।
व्यक्तित्व निर्माण में संस्कारों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। संस्कारों का निर्माण मनुष्य के समग्र व्यक्तित्व के परिष्कार के लिए किया था। यह विश्वास किया जाता था कि संस्कारों के अनुष्ठान से व्यक्ति में दैवी गुणों का आविर्भाव हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन को अनुशासित किया जाना उसकी आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है। हिन्दू संस्कृति बहुत ही विलक्षण है। इसके सभी सिद्धांत पूर्णतः वैज्ञानिक है और सभी सिद्धांतों का एकमात्र उद्देश्य है- मनुष्य का कल्याण करना। मानव का कल्याण सुगमता एवं शीघ्रता से कैसे हो। और मानव का कल्याण सिर्फ सद्गुणों और संस्कारों को आचरित करने से ही होता है। संस्कारों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का अगर हम अवलोकन करें तो अथर्ववेद में विवाह, अंत्येष्टि और गर्भाधान संस्कारों का अधिक विस्तृत वर्णन मिलता है। गोपथ और शतपथ ब्राह्मणों में उपनयन गोदान संस्कारों के धार्मिक कृत्यों का उल्लेख मिलता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में शिक्षा समाप्ति पर आचार्य की दीक्षांत शिक्षा मिलती है। संस्कार का अभिप्राय उन धार्मिक कृत्यों से था जो किसी व्यक्ति को अपने समुदाय का पूर्ण रुप से योग्य सदस्य बनाने के उद्देश्य से उसके शरीर, मन और मस्तिष्क को पवित्र करने के लिए किए जाते थे, किंतु हिंदू संस्कारों का उद्देश्य व्यक्ति में अभीष्ट गुणों को जन्म देना भी था।
संस्कार कैसे बनते हैं?
संस्कार निर्माण की प्रक्रिया एक चरण बद्ध नियोजन है जो निम्नानुसार होती है।
1. विचार
2. विचार की पुनरावृत्ति (बारम्बार चिन्तन)
3. विचारों का कर्म से क्रियान्वयन
4. कर्म की पुनरावृत्ति (अभ्यास)
5. आदत बन जाना।
6. प्रवृत्ति बन जाना व जीवन के साथ प्रवृत्ति का ओत प्रोत हो जाना
7. संस्कार- (स्वभाव में परिणित हो जाना)
8. तद्नुरूप चरित्र का निर्माण
9. व्यक्तित्व का निर्माण
चरित्र ही वह धुरी है जिस पर मनुष्य का जीवन सुख शान्ति और मान सम्मान की अनुकूल दिशा अथवा दुःख दारिद्रय अशान्ति असन्तोष की प्रतिकूल दिशा में गतिमान होता है। हमारा कोई भी कर्म या आचरण हमारे ही विचारों के द्वारा निर्देशित होते हैं। अतः हमलोग यदि सचमुच अपना चरित्र सुंदर बनाना चाहते हों, तो हमें अपनी इच्छाओं के चयन के प्रति अत्यन्त सतर्क हो जाना चाहिए,तथा अपने मन में केवल सदिच्छाओं को ही रहने देना चाहिए। जब तक हम अपने ' विवेकसम्मत-इच्छाओं ' से अनुप्रेरित हो कर कर्म नही करेंगे तबतक हम सद्कर्म नहीं कर पाएंगे और सद्चरित्र का गठन भी न हो सकेगा। ' इसीलिए हमें 'श्रेय-प्रेय विवेक, आत्म -अनात्म विवेक, द्रष्टा-दृश्य विवेक, सत्य-मिथ्या विवेक' में से केवल श्रेय इच्छाओं को ही पूर्ण करने के दृढ़ निश्चयपर निरंतर अटल रहना चाहिए।
‘‘आ नो भद्रः क्रतबो भन्तुविश्वतः’’ (ऋग्वेद) सब ओर से कल्याणकारी विचार हमारे पास आए- हमारा जीवन मंत्र बन जाए।
जीवन में संस्कार की महत्वपूर्ण भूमिका है। जिस प्रकार नीव के बिना इमारत टिक नहीं सकती उसी प्रकार संस्कार जीवन की नीव है। जैसा संस्कार होगा वैसा जीवन बनेगा। भाग्य, पुरुषार्थ, संस्कार, संगती ये जीवन का निर्माण के चार आधारभूत स्तम्भ है ।
1. भाग्य:- पुराने जन्मों के कर्मफल 2.पुरूषार्थ :- वर्तमान जन्म में कर्म 3.संस्कार :- अपने अंदर की बुराइयों का अच्छाइयों में परिवर्तन 4. संगति -सद्गुणों को सीख कर स्थाई बनाना
सामान्यतया संस्कार मनुष्यों में पाये जाने वाले अच्छे-बुरे आचार-विचार, आदतें, व्यवहार, बातचीत, खाना-पीना, उठना बैठना, कपड़े पहनना, संयम आदि को अभिव्यक्त करते हैं। अच्छी संगति देना, अच्छी बातें सिखाना, बुजुर्गों का आदर-सम्मान, प्यार से बात करना, बगैर बात न हँसना, समय से खाना-पीना, गाली न बकना, मार-पीट से दूर रहना, समय से सोना-जागना, नहाना-धोना, नशा न करना, बगैर अवसर न बोलना, दिल लगाकर पढ़ाई करना, भगवान को याद रखना आदि कुछ अच्छे संस्कार हैं।
सदगुण ही संस्कारों के प्रणेता हैं-
सद्गुण ही ज्ञान है। सच्चे ज्ञान से ही सद्गुण उत्पन्न होता है जो व्यक्तिको संस्कारित करता है। सत्कर्म और सद्गुणों में अत्यंत घनिष्ट सम्बन्ध है। सद्गुण ही सत्कार्य के प्रेरक बनते हैं। मनुष्य में सद्गुणों का विकास निम्न चार गुणों से होता है।
1. विवेक 2. साहस 3. संयम 4. न्याय
इन चारगुणों को अगर हम ,जीवन में धारण करते हैं तो आत्म-श्रद्धा,आत्म-विश्वास,आत्म-निर्भरता, आत्म-संयम, साधारण-बुद्धि, मन-वचन-कर्म में पवित्रता, धैर्य,सहनशीलता, अध्यवसाय, दृढ़संकल्प, स्वयं तथा अन्य के प्रति ईमानदारी , विवेक-प्रयोग तथा उद्देश्य के प्रति निष्ठा, भद्रता, सहानुभूति,त्याग करने की शक्ति, सेवापरायणता,नैतिक और शारीरिक साहस,सत्यनिष्ठा आदि अन्यान्य सद्गुण अपने आप हमारे स्वाभाव में धारित होकर हमें उच्चता प्रदान करते हैं।
इन गुणों का नियमित अभ्यास हमारे अंदर सदगुण उत्पन्न करा है और सद्गुणों से हम संस्कारित होते हैं। सद्गुणों को सामान्य व्यवहार में परिलक्षित करना ही संस्कारित होना कहलाता है। संस्कार और सद्गुण सिखाने से नही अभ्यास से आते हैं। सद्गुणों का मूल्याङ्कन किन्ही पूर्व निश्चित मानदण्डों के आधार पर किया जाता है। ये मानदण्ड व्यक्तिगत भी हो सकते हैं और सामाजिक भी, मनोवैज्ञानिक भी हो सकते हैं और वैज्ञानिक भी, अल्पमान्य भी हो सकते हैं और बहुमान्य भी। जो मानदण्ड जितना अधिक वस्तुनिष्ठ होता है और जितने अधिक व्यक्तियों को मान्य होता है। वह उतना ही अधिक अच्छा मानदण्ड माना जाता है। सद्गुणों का विकास नैतिक शिक्षा से ही संभव है। नैतिक गुणों के विकास के लिए नम्रता, ईमानदारी, समय की पाबन्दी, आज्ञाकारिता, सत्यवादिता इत्यादि गुणों का विकास आवश्यक है जो अनुशासनपूर्ण वातावरण में ही संभव है।
सदगुण और संस्कार जीवन में सफलता की कुंजी है। हमारे अवचेतन मन में दृढ़ता से जमी विवेक सम्मत सदिच्छाएं इसी प्रकार हमें सदैव सद्कर्म ही करने के लिए अनुप्रेरित करती रहतीं हैं। अपनी दुर्बलताओं को जीत लेने वाला मनुष्य ही सच्चा वीर है। सच्चा वीर वही है जो अपने मन को वशीभूत करके, दृढ़ निश्चय और लगन के बल पर एक ओजस्वी चरित्र का निर्माण कर लेता है। सदगुणों को चरित्रगत कर लिया जाता है तो वे व्यक्तित्व की स्थायी संपत्ति बन कर सदैव उसमे विद्यमान रहते हैं। आज बहुत सारे भौतिक आकर्षण है उनसे बचकर सुसंस्कृत होकर जीवन में अपने लक्ष्य की ओर हमें बढ़ना है । बचपन में मां के द्वारा रोपित संस्कार हमें गलत मार्ग पर जाने से रोकते है। हमारे सदगुण माता-पिता एवं शिक्षकों की देन है, उनके प्रति कृतज्ञ रहें। आज हमारा दायित्व है कि हम अपने माता-पिता के प्रति संवेदनशील एवं वात्सल्यमय व्यवहार करें। अपनी शक्ति एवं क्षमताओं को पहचाने। अपने दायित्वों को पूर्ण ईमानदारी से पूरा कर आत्मसंतोष को प्राप्त करें।जब हम अपने 'मन' को सद्विचारों और संस्कारों का ' दैवीकवच ' पहनाएंगे तभी सही अर्थों में विवेकानंद जी के "उत्तिष्ठत! जाग्रत!" मन्त्र को अभिप्रमाणित कर सकेंगें।
सन्दर्भ पुस्तकें:-
1. विचारों की अपार और अद्भुत शक्ति।
2. आत्मिक उन्नति हेतु अवलम्बन की आवश्यकता।
3. षोडश संस्कार विवेचन- बाङमय 33
4. कर्मकाण्ड भास्कर।
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Sushil Sharma
ईमेल - archanasharma891@gmail.com
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