बरसात की कविताएँ मंजुल भटनागर मेघा कब बरसोगे नदी व्याकुल सी झील मंद सी मौन खेत ,आँगन ,मोर नभ निहारे कब भरेंगे सुखन मनस सारे कब म...
बरसात की कविताएँ
मंजुल भटनागर
मेघा कब बरसोगे
नदी व्याकुल सी
झील मंद सी मौन
खेत ,आँगन ,मोर नभ निहारे
कब भरेंगे सुखन मनस सारे
कब मन हर्षोगे
मेघा तुम कब बरसोगे ?
नागार्जुन के प्रिय
देखा तुम्हें बरसते
विंध्याचल के द्वारों पर
देखा दूर हिमालय पर
मलयानिल झोंकों से मेरा आंगन
तुम कब सरसोगे
मेघा तुम कब बरसोगे?
कालिदास के मेघ दूत
विरह सिक्त पावक प्रतीक्षा रत
नभ गवाक्ष से झांक रहे तुम
ले अगणित जल संपदा
गुजर रहे सजल तुम द्वारिका से
मेरे द्वार कब छलकोगे
मेघा तुम कब बरसोगे.
दया निधि बन जाओ
कृषक प्रतीक्षा रत
बरसा जाओ नभ कंचन
महकेगा खेत प्रांगन
आह्लादित होगा धरणी का तन मन .
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सर्वेश कुमार मारुत
वर्षा के मौसम में,
यह कैसी बजती शहनाईं?
बिजली चमकी कड़-कड़-कड़,
और दिखाती है चमकाई।
आसमान भी काला-पीला,
रास्ता देता नहीं दिखाई।
छपड़-छपड़ फिर बरस पड़ा क्यों?
अब तो भर गयी गहरी खाई।
मत्स्य भी तड़प के उछल पड़ी तब,
वह फिर ना ऊपर आई।
बोले दादुर खूब टरा-टर,
ध्वनि तेज़ थी बहुत सुनाई।
मयूर भी तब नाच उठे थे,
जब वर्षा थोड़े पहले ही आई।
छप्पर बोले छपर-छपर ,
पानी से थे जो भरमाई।
घर आँगन भी ऊब चले थे,
नालों से जब ना निकला पानी।
अस्त पड़े हैं-व्यस्त पड़े हैं ,
सुनाई पड़े चीखा चिल्लाई।
छोड़ दिया या छोड़ दिया अब,
ना घर मेरा ना तेरा ही।
छपड़-छपड़ खूब छपा-छप,
बरसे और करे ठिठलाई।
इधर थे बाल पतंगा मिलकर,
वह कूद पड़े इसके पानी।
छोड़ी नौका जब उसमें,
और खूब करी उन्होंने शैतानी।
बाबा उनको आए डाँटने,
और देख उन्हें हुई हैरानी।
सब बालक तब भाग चले,
और करे आनाकानी।
पर क्या करते बस वापस ही चले?,
उनका बस अब उन पर नहीं।
वर्षा के मौसम में देखो,
यह कैसी बजती शहनाईं?
सभी पात्र अब उज्ज्वलित हो चले,
मानो वर्षा ने की हो सफाई।
जड़ - चेतन सब तृप्त हो चले,
और हवा के झोंके लाई।
पवन बरसा तब मीत हो चले,
फिर दी सबको को तान सुनाई।
सर्वेश कुमार मारुत
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उषा कटियारे
भोर की पीर......
भोर जब आई थी आज ... उदास थी,
थोड़ी देर पहले ही.. “भीगी रात” से मुलाक़ात हुई थी उसकी,
साँझ ने रात को अपनी जब कहानी सुनाई थी......
रात की आँखें भर आई थीं...
भोर से वो कुछ भी छुपा नहीं पाई थी...
भोर ने दुपहरी से थोड़ी सी आस लगाई थी...
पर दुपहरी तो साँझ की तलाश में पहले से ही अनमनाई थी....
क्योंकि साँझ ने दुपहरी से आंखें चुराई थी
जब दुपहरी ने उसकी उसकी आँखों में देखी, पीर की परछाई थी......
उषा कटियारे
सहायक प्रबन्धक, राजभाषा
निक्षेप बीमा और प्रत्यय गारंटी निगम
भारतीय रिज़र्व बैंक
Usha Katiyare
Assistant Manager, Rajbhasha
Deposit Insurance and Credit Guarantee Corporation
Reserve Bank of India
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कुछ अन्य कविताएँ -
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कुबेर
शव परीक्षण का रिपोर्ट कार्ड
वह झूल गया था
जमीन से कुछ इंच ऊपर, मयाल से
और गर्दन उसका एक ओर लुढ़क गया था
जीवन-रस को लतियाता
रस-वंचित जीभ निकल आया था
दुनिया से बाहर, दुनिया को लानतें भेजता
और पथराई हुई उनकी विरस आँखें,
छिटक गये थे, आसमान की ओर
सितारों की दुनिया से दो-दो हाथ करने
जीवन की रंगीनियों को
जीवन की दुश्वारियाँ दिखाने।
जरा भी रहम नहीं किया था
जरा भी मोहलत नहीं दी थी
जरा भी हिचकिचाहट नहीं दिखलाई थी
नायलोन की उस बेरहम रस्सी ने
बाजार के हाथों की जिसके ऊपर छाप है
अकूत मुद्राओं की जिसके भीतर ताप है
बल्कि उसने
आँखों को चौंधियाती सुंदरता का आवरणवाली
अपनी उस धूर्त ताकत को ही दिखलाई थीे
ताकत के संग-संग
जिसके अंदर भरी हुई ढेरों छद्म और चतुराई थी।
और अपने अभियान की इस सफलता पर
गर्व से वह इठलाई होगी।
पैसे-पैसे जोड़कर
अपनी छोटी-छोटी इच्छाओं को निचोड़-निचोड़कर
भूख से ऐंठती आँतों को मुचोट-मुचोटकर
बचाये गये थोड़े से उन रूपयों को
बख्शा नहीं होगा, कानून के रखवालों ने भी
झटक लिये होंगे, कानून का भय दिखाकर
गटक लिये होंगे
हत्या के आरोप में फँसाने को धमकाकर।
और इस तरह
होरी के एक बार फिर से मर जाने पर
धनिया एक बार फिर से ठग ली गयी होगी
जाहिर तौर पर इस बार
सरकारी विधान का भय दिखाकर।
शव-परीक्षण करनेवाले ओ! डॉक्टर
अपने रिपोर्ट में आपने क्या लिखा है, क्या पता?
पर साहब, इससे हासिल भी क्या होता है
आपके इस लिखे को पढ़ने, न पढ़ने से
धनिया और होरी के होने, न होने को
भला फरक भी क्या पड़ता है।
ऐसे मामलों में अब तक आप
जैसा लिखते आये हो
आज, यहाँ भी आपने वही तो लिखा होगा
मामले की असलियत को
भला आपने कहाँ देखा और कहाँ समझा होगा?
उनकी खोपड़ी के भीतर के तंत्रों में
जहालत की जो इबारतें लिखी रही होंगी
उसकी लिपि आज तक किसी ज्ञानी,
किसी विज्ञानी द्वारा पढ़ी नहीं जा सकी है
आप उसे कैसे पढ़ सके होगे?
उनकी ऐंठी-चुरमुराई हुई आँतों के अंदर
अभावों की जो रिक्तिकाएँ बिखरी रही होंगी
उसकी सँख्या आज तक कभी
किसी गणितज्ञ द्वारा गिनी नहीं जा सकी है
आप उसे भला कैसे गिऩ सके होगे?
उनकी आँखों के विवर्ण परदे के ऊपर
अपमान और लाचारी की जो
भयावह छबियाँ चित्रित रही होंगी
वे न तो सरकार को कभी दिख पाती हैं
और न ही कभी ईश्वर को
आपको भला वे कहाँ दिख पायी होंगी?
अरे! ऐसे मामलों में अब तक
जैसा लिखते आये हो आप
कैसा आश्चर्य, यदि यहाँ भी,
आपने वैसा ही लिखा होगा
मामले की असलियत को भला
आपने भी कहाँ देखा और कैसे समझा होगा?
उसके नाम और पते का विवरण भी
जैसा आपको बताया गया होगा -
निहायत औपचारिक और दुनियावी
वैसा ही आपने लिख दिया होगा।
पर, सुनो ऐ डॉक्टर
उसका परिचय -
न तो वह इन्सान था
और न ही भगवान था
इन दोनों से कही बहुत ऊपर
हत् भागी पर
वह तो इस देश का किसान था।
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रवि श्रीवास्तव
धरती के भगवान पिता हैं.
बचपन में उंगली पकड़कर, चलना सिखाया है,
जिंदगी में आगे बढ़ने का, रास्ता दिखाया है.
दिन में की मेहनत और रातों को सोचना
हंसते हुए मुझको है, तुझे तो देखना.
ख्वाब बस आता है, तेरे भविष्य का,
हरपल खुशियां देकर, ग़म उठाकर है चला.
साथ साथ चलता था तेरे, न था किसी का डर,
तेरे दम पर हौसले हैं, न है कोई फिकर.
जीवन के अंधिंयारों को, रोशन तूने किया,
तू न होता तो अगर, बुझ जाता ये दिया.
जलती धूप में छांव बनकर, सिर पर छाया किया,
त्याग देकर अपनी हंसी का, मेरी जिद को पूरी किया.
क्या ग़लत है, क्या सही, तूने है सिखलाया,
जीवन है इक संघर्ष, यह भी है बतलाया.
टूट न जाना कभी कठिनाइयों को देखकर,
साथ होगा तेरा पिता, जिंदगी की हर मोड़ पर.
अगर मै हूं धरती, तो तू आसमान है,
धरती पर पिता के रूप में तू तो भगवान है.
ऐ मेरे पिता तू तो महान है.
रवि श्रीवास्तव
स्वतंत्र पत्रकार
ravi21dec1987@gmail.com
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श्रद्धा मिश्रा
औरत बनायी जाती है...
इतना सरल नहीं है औरत पे कविता करना,
औरत जो पैदा नहीं होती
बल्कि बनायी जाती है,
बनाया जाता है उसके
अंगों को कोमल,
कुछ भी कोमल होता नहीं है लेकिन,
इमारतों के लिए ईंट उठाने में
जलते तवे पे रोटी बनाने में,
उनकी कोमलता को
कोई मोलता नहीं है।
बनाया जाता है उसे देवी
जिसका सीधा सा अर्थ
यही होता है कि
जो नहीं है सामान्य मनुष्य,
जिसके होने से घर स्वर्ग हो जाता है,
फिर भी उसका कोई
अपना घर नहीं होता।
देवी जो दे हीर
बदले में न ले कुछ भी।।।
सचमुच सिर्फ एक ही दिन में
नहीं जाना जा सकता उसे,
जो खुद ही खुद को नहीं जानती,
औरत खुद को कुछ भी नहीं मानती,
वो बाप के लिए बोझ,
पति के लिए दासी,
बच्चों के लिए
हर बात मनवाने का साधन
होती है,
ये सब बातें उसे बचपन से ही
सिखायी जाती है।
सच है औरत पैदा नहीं होती
बनायी जाती है।।।
श्रद्धा मिश्रा 8/3/2017
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डॉ सुलक्षणा
काश मैं हिन्दू ना रहूँ और तुम मुस्लिम ना रहो,
चलो अब गले लगाकर तुम आमीन तो कहो।
आओ सारा फर्क मिटा दें अपने दिलों से हम,
ना दर्द हम सहें नफरतों का अब ना तुम सहो।
काश ईद तुम्हारी हो और मीठी खीर मैं बनाऊँ
रोशनी हो तुम्हारे घर जब मैं दीवाली मनाऊँ।
सारी दुनिया मिसाल देगी हमारी मोहब्बत की,
जब होली वाले दिन प्रेम के रंग तुम्हें मैं लगाऊँ।
कश्मीर क्या पूरे हिंदुस्तान को जन्नत बनाएं हम,
लगें गले एक दूसरे के नफरतों को मिटाएँ हम।
आओ हिन्दू, मुस्लिम को छोड़ पीछे इंसान बनें,
इस दुनिया को राह ए मोहब्बत अब दिखाएं हम।
नहीं करती फर्क सुलक्षणा की कलम धर्म देखकर,
बनती है तलवार ये तुम्हारी बातों का मर्म देखकर।
आजमा लेना जिंदगी में कभी भी तुम बातों को,
इसके सजदे में सर झुकाती है दुनिया कर्म देखकर।
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आज अफ़साना ऐ मोहब्बत लिख दूँ,
सोचती हूँ तेरे नाम एक खत लिख दूँ।
जो लबों पर आकर ठहर गयी मेरे,
सोचती हूँ वो ही हकीकत लिख दूँ।
वफ़ा के सिवा कुछ नहीं मेरे पास,
आ तेरे नाम मैं ये वसीयत लिख दूँ।
तेरी मजबूरियों को समझा था मैंने,
क्यों नहीं हुई पूरी इबादत लिख दूँ।
बेवफ़ाई नहीं की हमने एक दूजे से,
क्यों अधूरी रह गयी चाहत लिख दूँ।
आज भी दिल में तेरा प्यार बसा है,
कैसे हुई थी दिल पर आहट लिख दूँ।
दुनिया वाले नहीं समझ सकते कभी,
आशिक़ों से क्यों है नफ़रत लिख दूँ।
चलती रहती है कलम सुलक्षणा की,
माँ सरस्वती की हुई इनायत लिख दूँ।
©® डॉ सुलक्षणा
डॉ सुलक्षणा D/o श्री राम मेहर अहलावत,
शिव कृपा भवन, गली नंबर 2, वार्ड नंबर 6,
प्रेम नगर, चरखी दादरी-127306
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कुसुमाकर शास्त्री
चलो दिखायें हम तुमको अपनी माटी का गांव।
जहां सभी को मिलती रहती है छितवनकी छॉव।।
वह नदिया का सुखद किनारा,
बगिया की अमराई।
काली काली कोयल का ,
पंचम सुर पड़े सुनाई।
उधर स्वयं ही बढ़ते जाते,हैं लोगों के पांव।
चलो दिखायें हम तुमको अपनी माटी का गांव।।
ऊंची ऊंची लहरें उठतीं,
जब चलती पुरवाई।
दिशि दिशि निसदिन सुरभि बांटती,
ज्यों बसन्त रितु आई।
पलक झपकते पहुंचाती है,पार हमें वह नाव।
चलो दिखायें हम तुमको , अपनी माटी का गांव।।
सीधे -सादे से किसान हैं,
मन के भोले भाले।
इनके सीधेपन के कारण,
ईश्वर सदा संभाले।।
जहां सरलता सहज दीखती,डगर-डगर हर ठांव।
चलो दिखायें हम तुमको,अपनी माटी का गांव।।
जलाशयों में तिरती रहती,
हैं हंसिनि बालायें।
खेतों में पीताम्बर पहने,
सरसइयॉ लहरायें।।
नेताओं सा कष्ट दे रहा, है इनके पछियॉव।
चलो दिखायें हम तुमको अपनी माटी का गांव।।
कुसुमाकर शास्त्री
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आर एस शर्मा
भाई साहब,
पहचानते है आप,
हम एक मजदूर हैं,
दौलत के सुखों से दूर हैं,
सैकड़ों महल बनाये अमीरों के,
कुआँ, बाबड़ी और पुल समीरों के,
टूटी झोपडी में रहा करते हैं,
सूखी रोटी से अपना पेट भरा करते हैं,
सुखाकर ख़ून, बहा कर पसीना,
कर्म करते हैं तान कर सीना,
धूल मिट्टी से हमारा गहरा नाता है,
धूल पिता और मिट्टी हमारी माता है,
हमने बचपन से ही पाई है मजदूरी की शिक्षा ,
पाई है कर्म सेवा और ईमानदारी की दीक्षा,
मन तो करता है हो एक सुंदर मकान,
बच्चे हों शिक्षित, मिले बिद्या का ज्ञान ,
पर किस्मत के हम खोटे इन्सान हैं, खानदानी मजदूर की गरीब संतान हैं,
मजदूरी हमारा खानदानी कर्म है,
मजदूरी हमारी दौलत, हमारा धर्म है,
मजदूरी में ही जीते है,
किसी गरीब बेसहारा का खून नहीं पीते है,
हम उन अमीरों से अच्छे है,
जिनके ईमान धर्म कच्चे है,
न हम सेठ न साहूकार,
न गुलाम न कर्जदार,
बेईमानी भ्रष्टाचारी से दूर हैं,
भाई साहब हम मजदूर हैं ,
मज़दूर है, मज़दूर है........
r.s.sharma
Mangalmay parisar
hoshangavad m.p.
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प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
दस क्षणिकाएँ : ---------
01. स्वप्न
--------------
क्षितिज .......
छूना आसान
छू लूँ ....
व्यर्थ न हो स्वप्न
सहेज तो लूँ पहले
अपने हिस्से के आकाश को ।
□□□
02. भेद
--------------
आदमी ; ईश्वर है
और ईश्वर
एक आदमी ।
□□□
03. नियति
-----------------
नीड़ निर्माण का काम
शेष न होगा कभी
तय है क्यों कि -------
हवा का आना
और हवा के साथ
नीड़ का बिखर जाना ।
□□□
04. बन्धन
----------------
बाँध लिया है
धरती, समुद्र, गगन
भूमि, जल, पवन
जकड़े है अंतः से
बँधा हुआ है मन
बँध गये चरण
आज वह स्वयं
बँध गया बन्धन ।
□□□
05. जिजीविषा
---------------------
बनूँ चिड़िया
छूटे न सृजन
रुके न जीवन
चुनूँ तिनके
ले चोंच में आकाश
उड़ जाऊँ
बना लूँ नीड़
देखता रहूँ विजन वन को
सुनता रहूँ
साथी पंछियों के आलाप
गाऊँ नव गीत मधुर
बुलाऊँ प्रिय
वसंत को सोल्लास ।
□□□
06. आकांक्षा
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कविता ; मेरी आत्मा
राह ढूँढती है मोक्ष की
अर्थ की तलाश
भटकते रहे हैं शब्द
लड़ते आपस में
आकांक्षाएँ......
रह जाती हैं वहीं
मिलने नहीं देते शब्द
मेरी चिर आकांक्षाओं को ।
□□□
07. भरोसा
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हवा की परवाह नहीं
तृण-तृण
जोड़ती चली चिड़िया
नीड़ बनेंगे
हौसले देते हैं
उसे भरोसा ।
□□□
08. प्रेरणा
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सुबह के साथ
नई पत्तियों का जगना
पंछियों का चहचहाना
गिरि को फोड़
निर्झर का बहना
कड़ी धूप में ---------
रुठे बादलों को
रवि का मनाना
दुख में हँसना
खुशी से रो पड़ना
यही सृजन प्रेरणा ।
□□□
09. सृजन
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कवितायें ........
सृजन में उसके
जोड़ रहा हूँ शब्दों को
पर मेरी भावनाएँ
जोड़ने नहीं देतीं
मानो एक चिड़िया
नोड़ बनाने
तिनकों को जोड़े जा रही है,
और हवा है ; कि --------
मशगूल है उड़ाने में
घोंसले को ।
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10. दर्शन
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जीवन जीना ;
नहीं रे ! आसान
अभिनय से
जी सकोगे ?
जीयो..........
रहोगे खुश ।
□□□
■ प्रदीप कुमार दाश "दीपक"
साहित्य प्रसार केन्द्र साँकरा
जिला - रायगढ़ [ छत्तीसगढ़ ]
पिन - 496554
मो.नं. 7828104111
Email : pkdash399@gmail.com
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- सूरज
किसी बंद दरवाजे के कमरे में बैठकर खिड़की की ओर ताकता रहता हूँ
हंसते चलते लोगों को देखकर मन बहलाने की कोशिश किया करता हूँ
गूंगा बना दिल बैठ गया है नाउम्मीदी के हर साए में
कतरा कतरा टूट गया हूँ, बिखर गया हूं टुकड़ों में।
बेवफाई जब आंखों की परवानगी उड़ा ले जाती है
हर अंधेरी रात गम आंखों से हंसते-हंसते कट जाती है
दिल तुम्हारा भी होगा सोचकर कितने धोखे खा गया हूँ मैं
कतरा कतरा टूट गया हूँ, बिखर गया हूं टुकड़ों में।
बचपन हमको छोड़ता नहीं कि बचपन की खुशियां छूट जाती है
मासूम थे सपने उम्मीदों ने बांधे जो किस्मत हमसे रूठ जाती है
अपनों ने ही धोखा दिया है, डर लगता अब विश्वास में
कतरा कतरा टूट गया हूँ, बिखर गया हूँ टुकड़ों में।
- सूरज
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कुमारी अर्चना
"लाल जोड़ा"
जब भी लाल जोड़ा को देखती हूँ
खुद को दुल्हन बनी आईने में पाती हूँ
तू सेहरा बाँधे सामने नज़र आता है
सज संवर लेती हूँ खुद के ही हाथों से
अपने बाहरी रूप रंग को!
गालों पे पाउडर
आँखों में काजल
माथे पर बिंदी
हाथों में पोला और शंखा
पाँव में पाजेब और बिछुवा
फिर जैसे ही सिंदूर लगाने जाती हूँ
मैं फिर से मैले कुचैले कपड़े में आ जाती हूँ
कोई मुझे तेरी सुहागन ना समझ ले
मैं तो.......तेरी!
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"इश्क का खुदा है तो"
किसी के सच्चे
इश्क की याद है तू
मोहब्ब़त पर लिखी
इबारत है तू!
किसी प्रेमी की प्रेमिका के लिए
इबादत है तू
सुना है सच्चे प्रेमियों का खुदा भी है तू!
ताज कब्रगाह नहीं तू
दो बुतों की
अल्लाह के दूत है बसते यहाँ!
मैं भी प्रेमी हूँ
किसी के प्यार की
मेरी उससे मिलन की भी
दुआ तू सुन लें!
उससे पहले की
मैं फ़ना हो जाउँ!
कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार
000000000000000000
महेन्द्र देवांगन "माटी"
पेड़ लगायें
चलो चलें एक पेड़ लगायें,
धरती को हम स्वर्ग बनायें ।
चारों ओर हरियाली छाये ,
खुशियों की बगिया महकायें ।
पौधे लाकर हम लगायें,
चारों ओर घेरा बनायें ।
खाद पानी रोज डालें,
जानवरों से इसे बचायें ।
नये नये कोपल निकलेंगे ,
हर डाली पर पत्ते बिखरेंगे ।
उड़ उड़ कर पक्षी आयेंगे ,
चींव चींव मीठे गीत गायेंगे ।
ताजा ताजा फल लगेंगे,
बच्चे बूढ़े खुश रहेंगे ।
सुंदर सुंदर फूल खिलेंगे ,
इसकी सेवा खूब करेंगे ।
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रोज स्कूल जायेंगे
****************
खतम हो गई छुट्टी अब तो,
रोज स्कूल जायेंगे ।
मम्मी भर दो टिफिन डिब्बा,
मिल बांटकर खायेंगे ।
नये नये जूता और मोजा,
नया ड्रेस सिलवायेंगे ।
नई नई कापी और पुस्तक,
नया बेग बनवायेंगे ।
नये नये सब दोस्त मिलेंगे,
उनसे हाथ मिलायेंगे ,
नये नये शिक्षक और मैडम
हमको खूब पढ़ायेंगे ।
नहीं करेंगे अब शैतानी,
डांट नहीं अब खायेंगे ।
टीचर जी के होमवर्क को ,
पूरा करके जायेंगे ।
मन लगाकर पाठ पढ़ेंगे,
अपना ज्ञान बढ़ायेंगे ।
काम्पीटेशन के इस युग में,
अव्वल नंबर लायेंगे ।
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महेन्द्र देवांगन "माटी"
गोपीबंद पारा पंडरिया
जिला -- कबीरधाम (छ ग )
पिन - 491559
मो नं -- 8602407353
Email - mahendradewanganmati@gmail.com
सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई
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