केंचुए हमारा पुराना मोहल्ला तालाबों से घिरा हुआ था। हांडी तरिया, आमा तरिया घोरई तरिया, धोबी तरिया आदि बहुत से तालाब हमारे घर के आस-पास थे। इ...
केंचुए
हमारा पुराना मोहल्ला तालाबों से घिरा हुआ था। हांडी तरिया, आमा तरिया घोरई तरिया, धोबी तरिया आदि बहुत से तालाब हमारे घर के आस-पास थे। इन तालाबों में हांडी तरिया सबसे बड़ा था। इसमें मछली पकड़ने का ठेका होता था, सो यहाँ मछली पकड़ने की सख्त मनाही थी। हम किराने की दुकान से दस पैसे में मछली पकड़ने वाली गरी (काँटा) लेकर आते, और उसे पतंग उड़ाने वाले माँझे से बाँधकर और कांटे में चारा फंसाकर दूसरे तालाबों या डबरियों में जाकर मछलियां पकड़ा करते थे। हम पाँच दोस्तों की टोली थी। मेरे शेष चार दोस्त नम जगहों पर बड़े-बड़े पत्थरों को उठाकर देखते। इन पत्थर के नीचे बिना रीढ़ वाले केंचुए बिलबिलाते रहते। कई एकदम मोटे, कई मध्यम तो कई एकदम पतले होते थे। उनकी बिलबिलाहट मुझमें घिन पैदा कर देती थी, और मुझे उबकाई सी आने लगती थी। मेरे दोस्तों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था। वे बड़े आराम से मोटे-मोटे केंचुओं को उठाते और बड़े ही ध्यान से उन्हें अपने-अपने काँटों में गूंथ देते। मैं ऐसा कर पाने की कल्पना भी नहीं कर पाता था। मैं घर से आटे की लेई लेकर जाता, और उसे अपने काँटे पर जैसे-तैसे लगाता। हम सभी गरी डालकर आराम से बैठ जाते। उनके काँटे में धड़ाधड़ मछलियाँ फँसती जातीं, जबकि मेरे काँटे में लगा आटे वाला चारा धीरे-धीरे काँटे से छूट जाता, और मेरा काँटा खाली हो जाता। कभी बाईचाँस एकाध मछली पकड़ में आती भी तो मैं उसकी छटपटाहट देखकर घबरा जाता। मैं उसे काँटे से निकाल ही नहीं पाता। काँटे से बाहर निकालने में मेरे दोस्त मेरी मदद करते। काँटे से निकलकर मछलियाँ बुरी तरह छटपटातीं, तो मैं उन्हें वापस पानी में छोड़ देता। मेरे दोस्त मेरा खूब मजाक बनाते और मुझे फट्टू-फट्टू कहकर चिढ़ाते। दरअसल हम दलित वर्ग के लोग भी नम पत्थरों के नीचे पाये जाने वाले रीढ़-विहीन केंचुए की तरह ही हो जाते हैं, जो अपनी-अपनी जातियों और उपजातियों में फँसे हुए बिलबिलाते रहते हैं, और दूसरे लोग बड़े आराम से हमें चारे की तरह अपने कांटे में गूंथकर इस्तेमाल करते हैं।
मेरी कॉलोनी शहर के आउटर में स्थित है। मैंने अपना वो पुराना वाला मोहल्ला छोड़ दिया है। एक छुट्टी वाले दिन मैं अपने घर पर बैठा टी.वी.देख रहा था। पत्नी मायके गई हुई थी। अचानक मुझे अपने घर के लोहे के गेट पर हल्की सी खटखटाहट सुनाई पड़ी। मैंने बाहर निकलकर देखा तो पाया कि गेट पर मैले-कुचैले कपड़े पहनी हुई एक कुपोषित सी दिखने वाली महिला अपने कुपोषित से बच्चे के साथ खड़ी हुई है। मुझे लगा वह भीख मांगने के लिए खड़ी हुई है, तो भी मैंने उससे पूछ ही लिया-क्या चाहिये ? इस पर उसने कहा कि उसे काम चाहिए। मैंने उससे फिर पूछा- कहाँ से आई हो? तो उसने बताया कि वह उड़ीसा के कालाहांडी ज़िले की रहने वाली है। कालाहांडी जिले का नाम सुनते ही मेरे सामने भीषण अकाल की तस्वीर आ गई। क्योंकि उड़ीसा के कालाहांडी जिले में अकाल से संबंधित हमने इतनी सारी बातें सुन रखी थी कि वह एक तरह से अकाल का पर्याय ही बन गया था। अचानक मुझे उससे सहानुभूति सी होने लगी, और मैंने उसे अन्दर बुला लिया। मेरे द्वारा सोफ़े पर बैठने को कहने पर वह संकोच करने लगी। मेरे ज़ोर देने पर वह सकुचाती हुई सी सोफ़े पर बैठ गई। मैंने देखा वह एकदम सूखी सी थी। उसके दांत बड़े-बड़े से थे। मैले-कुचैले कपड़ों में वह बेहद ही बदसूरत लग रही थी। उसकी बच्ची भी पिनपिनी सी थी। हमें वैसे भी घर के काम के लिए एक बाई की जरूरत थी। हमारी अच्छी आर्थिक स्थिति के बावजूद और ज़्यादह पैसे देने पर भी लोकल बाइयाँ हमारी छोटी जात के कारण हमारे घर काम नहीं करना चाहती थीं। मेरी पत्नी खीझती-झींकती सी घर का काम किया करती थी। सामने बैठी महिला हमारे घर का काम कर सकती थी। मैंने उससे उसका नाम पूछा और उसने अपने सरनेम के साथ पूरा नाम बताया। उसका सरनेम सुनकर मेरी बांछें खिल उठीं। दलित आंदोलनों से जुड़े मेरे कुछ मित्र उड़ीसा के थे, सो मैं उड़ीसा के दलित सरनेमों के बारे में जानता था। उस महिला का दलित सरनेम जानकर मुझे बड़ा अच्छा लगा, और मुझे उसके साथ अचानक एक अपनापन सा महसूस होने लगा। मैंने उससे पूछा कि अभी तुम कहां रहती हो? तो उसने बताया कि यहीं नजदीक की एक नाले से लगी हुई बस्ती में किसी दूर के रिश्तेदार के यहां हम लोग ठहरे हुए हैं। मैंने उससे कहा कि मेरी पत्नी का मायका नज़दीक ही है। वह शाम को वापस आ जायेगी। तुम कल आना। हाँ बोलकर वह चली गई। शाम को पत्नी के आने पर मैंने उसे उस बाई के बारे में बताया। पत्नी ने आशंकित होकर कहा कि किसी को भी कैसे काम पर रख लें। वह तो हमारे प्रदेश की भी नहीं है। कल को कुछ उल्टा-सीधा करके भाग गई तो हम उसे कहाँ-कहाँ ढूंढते फिरेंगे। मैंने उससे कहा कि मैं अपने उड़ीसा के मित्रों से कहकर उसके पते का सत्यापन करा लूंगा। फिर हमें बाई की जरूरत भी तो है। तुम दिन भर खटती रहती हो, मुझसे देखा नहीं जाता कहकर मैंने अपनी पत्नी को भावनात्मक रूप से छेड़ा। मेरा दलित मन कह रहा था कि मुझे हर हाल में उस बाई की मदद करना ही है। फिर मैंने अपनी पत्नी को दलित आंदोलन की दुहाई देते हुए कहा कि हमें अपने दलित समाज के लिए कुछ न कुछ करना ही चाहिए। अगर वह बाई ठीक-ठाक रही, तो हम उसकी बच्ची का स्कूल में एडमिशन भी करा देंगे। इस पर पत्नी ने कहा-कल जब वह आयेगी, तो देखेंगे कि उसे रखना है, या नहीं। अगले दिन वह आई। मेरी पत्नी ने उससे दो चार-बातें की। पत्नी के यह पूछने पर कि वह महीने के कितने रूपये लेगी? वह एकदम निरीह सी होकर बोली-आप जितना दे दो, मुझे तो काम की बहुत ज़रूरत है। हमने उसे लोकल बाइयों को दिये जाने वाले रेट से कुछ ज़्यादह ही देना तय किया, और वह बेहद प्रसन्न होकर चली गई। हम उसकी बच्ची को रोज ही खाने-पीने की बहुत सी चीजें दे दिया करते थे। हमने उसे सिर्फ़ झाड़ू-पोछा और बर्तन के लिए रखा थी, और उसका ये सारा काम डेढ़ घण्टे में निपट जाता था, तो भी हम उसकी परिस्थिति को देखते हुए उसे सुबह का खाना खिला देते थे। हमने कभी भी उसे बासी खाना नहीं खिलाया। हमेशा ताज़ा और गर्म खाना ही खिलाया।
अब उस बाई के चेहरे पर रौनक सी रहने लगी, और वह गुनगुनाती हुई सी अपना काम करती। हम पति-पत्नी को एक दलित महिला के लिए कुछ करने का आत्मसंतोष था। कुछ दिनों बाद उसने बताया कि जिस रिश्तेदार के घर पर वे लोग रूके हुए हैं, वह अब उन्हें अलग रहनेे के लिए कह रहा है। चूँकि हमारी कॉलोनी आउटर पर बसी हुई थी और शहर के नज़दीक होने के बावजूद हमारी कॉलोनी के चारों तरफ खेत थे। इन खेतों का मालिक मेरा मित्र था। खेतों के बीच में उसका एक पंपहाउस था, जहां से नलकूप द्वारा वह खेतों की सिंचाई किया करता था। उसका पंपहाउस काफ़ी बड़ा था। उसमें दो कमरे थे। मेरे कहने पर उसने मेरी बाई के परिवार को यूँ ही बिना किसी किराये के अपना पंप हाऊस रहने को दे दिया। उन कमरों में दो खाटें पहले से थीं। वहाँ गृहस्थी का भी कुछ सामान पहले से था। मतलब मेरी बाई को सिर्फ़ वहां जाकर रहना ही था। अब मेरी उस बाई का परिवार आराम से रहने लगा। एक दिन मेरी बाई ने मुझसे कहा भैया मेरा आदमी सायकल-रिक्शा चलाना चाहता है, लेकिन जान-पहचान नहीं होने के कारण उसे कोई भी स्टोर्स वाला रिक्शा नहीं देता है। उसके ऐसा कहने पर मैंने अपनी गारण्टी पर उसके आदमी को रिक्शा दिला दिया। अब पति-पत्नी दोनों ही अच्छा कमाने-खाने लगे थे। अब मुझे लगने लगा कि वे लोग अच्छे से सेट हो चुके हैं। कुछ दिनों बाद बरसात का मौसम आ गया। एक दिन वह बाई मुझसे कहने लगी-भैय्या वो घर तो खेतों के बीच में है। वहां पर हमेशा ही साँप-बिच्छू का ख़तरा बना रहता है। मेरी छोटी बच्ची है। हमें तो हमेशा ही डर बना रहता है। भैय्या कहीं दूसरी जगह रहने की व्यवस्था करा दीजिए ना।
मैंने अपने घर की छत पर एक कमरा बना रखा था, जिसे हम स्टोर के रूप में उपयोग करते थे। उस कमरे में अटैच्ड लेट-बाथ भी था। मैंने वह कमरा उन्हें देने के लिये अपनी पत्नी से बात की। थोड़ी ना-नुकुर के बाद उसने भी हामी भर दी, और फिर वे लोग हमारे घर पर ही ऊपर वाले कमरे में रहने लगे। अब तक साल भर हो चुका था। एक दिन बाई ने मुझसे कहा कि भैया मैंने सुना है कि गरीब लोगों को सरकार रहने के लिये मकान देती है। मेरे हाँ कहने पर उसने कहा भैय्या हमें भी कहीं एक मकान दिलवा दीजिए ना। अब तक मुझे लगने लगा था कि उसकी माँगें दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं, पर मेरे दलित मन से हमेशा आवाज़ आती कि इन गरीब दलितों की मदद हम नहीं करेंगे, तो कौन करेगा। हालांकि उसे मकान दिलाना आसान नहीं था। कई तरह से पापड़ बेलने पड़ते। बहुत ज़्यादह भागदौड़ करनी पड़ती। साम-दाम-दण्ड-भेद सभी का समान रूप से प्रयोग करना पड़ता, सो मैंने उस वक़्त तो देखता हूँ कहकर बात टाल दी। इस दौरान काम करते-करते वह कई बार हमसे कहती-भैया लोगों के पास तीन-तीन, चार-चार घर होते हैं, हमारे पास एक भी नहीं है। ऐसा कहते हुए बेघर होने की कसक उसके चेहरे से स्पष्ट झलकती थी। मुझे भी लगता कि घर तो एक बुनियादी जरूरत है। इसे घर दिलाना ही होगा। मैंने खूब भागदौड़ की। तमाम तरह के उपाय अपनाये और भारी उठा-पटक करके आख़िरकार गरीबों को मकान दिलाने वाली योजना में उसे मकान दिलवा ही दिया। बहुत ही मामूली किश्तों में वह मकान उन्हें मिल गया था। वे लोग खुशी-खुशी अपने घर पर रहने चले गये। उनका घर हमारे घर से बहुत ज़्यादह दूर नहीं था। वह हमारे घर काम पर आती रही। वह बेहद खुश लगती थी। उसको खुश देखकर हमें भी खुशी होती थी।
एक दिन वह किसी अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल का दो सौ रूपये का फार्म लेकर आई और मुझसे कहने लगी भैय्या मैं और मेरा आदमी तो अंगूठा छाप हैं। आप ये फारम भर दीजिए। मैं अपनी बच्ची को अंगरेज़ी स्कूल में पढ़ाना चाहती हूँ। अब मेरा माथा ठनका। माना कि शिक्षा बुनियादी अधिकार है, पर अंगरेज़ी स्कूल में पढ़ाना तो बिल्कुल ही अव्यावहारिक है, विशेषकर उन परिस्थितियों में, जबकि मां-बाप दोनों ही निरक्षर हों। मैंने उससे कहा कि स्कूल में होमवर्क भी मिलता है। तुम दोनों तो पढ़ना-लिखना जानते नहीं हो, तो तुम्हारी बच्ची को तो बहुत दिक्कत हो जाएगी। इस पर उसने बड़े आराम से कह दिया कि होमवर्क के लिए मैं ट्यूशन लगवा दूंगी। मेरी पत्नी ने भी उसे समझाने की कोशिश की कि सरकारी हिन्दी मीडियम की स्कूल में भरती करा दे, तो बारहवीं क्लास तक कोई फ़ीस नहीं लगेगी। बल्कि स्कूल में दोपहर का खाना भी मिलेगा। इस पर उसने पलटकर कह दिया कि आप लोग तो अपने बच्चों को प्रॉयवेट अंग्रेज़ी मीडियम में पढ़ाते हैं, और हमसे सरकारी हिन्दी मीडियम में पढ़ाने को कहते हैं। मध्याह्न भोजन पर उसने कहा हम लोग कोई भूखे-नंगे थोड़े ही हैं। अब जब उसने ठान ही रखा था, तो हम कुछ नहीं कर सकते थे। उसने अपनी बच्ची का दाखिला अंग्रेज़ी मीडियम की स्कूल में करा दिया।
कुछ दिनों बाद मेरी इच्छा हुई कि जरा उस बाई के घर जाकर देखा जाये कि वे लोग किस तरह से रह रहे हैं। मैं उनके घर पहुंचा और दरवाज़ा खटखटाया, तो एक एकदम ही अपरिचित चेहरा बाहर निकला। मुझे लगा कि मैंने कोई ग़लत दरवाज़ा तो नहीं खटखटा दिया है। मैंने अपनी बाई का नाम लेते हुए पूछा कि भइया ये लोग किस मकान में रहते हैं। इस पर उस आदमी ने बताया कि ये मकान उन्हीं के नाम पर था, लेकिन उन्होंने मुझे एक लाख रूपये में यह मकान बेच दिया है, और खुद नज़दीक ही किराये से रहते हैं। इतना सुनते ही मेरा पारा गरम हो गया। मैं तुरंत ही उस आदमी के बताये पते पर पहुंचा। वहां देखा बाई और उसका आदमी दोनों ही बाहर खाट पर बैठकर दारू पी रहे हैं। यह देखकर मेरा गुस्सा और भड़क गया। मैंने तमतमाते हुए कहा-ये क्या तरीका है, मैंने तुम लोगों को इतनी मुश्किल से मकान दिलाया और तुमने उसे दूसरे को बेच दिया। इस पर बाई का जवाब सुनकर मैं दंग रह गया। उसने कहा बेचते नहीं तो और क्या करते। उस बिल्डिंग में सारे चमार और भंगी जाति के लोग ही रहते थे। हम उन नीच जात के बीच में भला कैसे रहते। आपको भी वही मकान मिला था, हमें दिलाने को। अब तक मेरा पारा सातवें आसमान पर पहुंच चुका था। मैंने कहा-साले तो तुम लोग बांभन-ठाकुर हो क्या। इस पर उसने कहा भले ही हमारी जाति छोटी है, पर हम इतने गये-गुजरे नहीं हैं कि भंगियों के साथ रहें। उसके इस उत्तर से मेरे दलित आंदोलन के फुग्गे में सुई चुभ गई थी और सारे फुग्गे की हवा बाहर निकल गई थी। घर पहुंचकर मैंने अपनी पत्नी को सारा किस्सा बताया इस पर उसने अपना निर्णय सुना दिया कि आज चार तारीख है। यह महीना खत्म होते ही उस बाई को हम अपना निर्णय सुना देंगे कि अब हम उसे नहीं रखेंगे। उस दिन के बाद बाई आती रही, लेकिन हम उससे सिर्फ़ औपचारिक बातें ही करते थे। मन खट्टा सा हो गया था। कुछ दिनों बाद मेरे साले की सगाई का कार्यक्रम मेरे ही घर से संपन्न होना था। सगाई वाले दिन आम्बेडकर और बुध्द की फोटो के सामने परित्राण पाठ का आयोजन भी था। सगाई कार्यक्रम दिन का था। शाम तक जूठे बर्तनों का ढेर लग चुका था। शाम को बाई आई और हमसे कहने लगी- आप लोगों ने हमें धोखा दिया है। उसके इस वाक्य से हम हतप्रभ रह गये। मैंने पूछा-कैसे? तो उसने कहा कि आप लोगों ने हमें बताया नहीं कि आप अंबेडकर की जात के हैं। हमारी जाति छोटी जरूर है, पर अम्बेडकर की जात से बड़ी है। मुझे यहां की कई सारी बाइयों ने बताया था कि आप लोग छोटी जाति के हैं। अब मैं नीच जाति के घर पर जूठे बर्तन नहीं मांजूगी, कहकर वह झटके के साथ चली गई। हम दोनों पति-पत्नी को ऐसा महसूस हुआ, मानों किसी ने हमें पुरस्कार के बदले झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद कर दिया हो।
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आलोक कुमार सातपुते
832, हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी सड्डू, रायपुर (छ.ग.)
Blog - laghukathakranti.blogspot.com
लेखक परिचय - 1. हिन्दी, उर्दू एवं अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं में समान रूप से लेखन
2.पाकिस्तान के अंग्रेजी अखबार डॉन के उर्दू संस्करण में लघुकथाओं का धारावाहिक प्रकाशन।
3. पुस्तकें प्रकाशन - अपने-अपने तालिबान (हिन्दी शिल्पायन एवं उर्दू आक़िफ़ बुक डिपो), बेताल फिर डाल पर (सामयिक प्रकाशन), मोहरा, बच्चा लोग ताली बजायेगा (डॉयमंड बुक्स)
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