मैं गया हुआ था अपनी बहन की ससुराल। दोपहर में खा-पी कर बाहर के कमरे में सो गया। बात संयोगवश ऐसी हुई कि मेरे वहाँ पहुँचने से आधा घंटा पूर्व ही...
मैं गया हुआ था अपनी बहन की ससुराल। दोपहर में खा-पी कर बाहर के कमरे में सो गया। बात संयोगवश ऐसी हुई कि मेरे वहाँ पहुँचने से आधा घंटा पूर्व ही मेरी बहन किसी डाक्टर से राय लेने के लिए शहर हेतु प्रस्थान कर चुकी थी और अब वह शाम की गाड़ी से लौटने वाली थी। बहन की सास ने मेरी पर्याप्त आवभगत की और खिला-पिला कर सुला दिया। मैं चादर से मुँह ढँक कर पड़ गया। नींद कहाँ से आती, कभी दिन में सोने की आदत जो नहीं थी। यूँ ही पड़ा-पड़ा सोच रहा था कि आँगन में औरतों का एक मजमा इकट्ठा हो गया। उनकी आवाजों से मुझे पता चला कि काफ़ी संख्या में औरतें अन्दर एकत्र हैं।
एक आवाज़ आयी - ’’क्यों बहन, आज तुम्हारे यहाँ कोई आया है, सुना।’’
’’हाँ, आया है, लाड़ली बहन का लाड़ला भाई। कमाना न धमाना। अब तक क्या तो पढ़ रहा है।’’ मेरी बहिन की सासजी के शब्दों में ऐसी वक्रता थी कि सुनते तो दंग रह जाते। मेरी दिलचस्पी बढ़ी इन लोगों की बातों में - ध्यानपूर्वक चादर ओढे़ सुनता रहा।
’’क्या उम्र होगी, जो अभी तक पढ़ रहा है?’’ दूसरी ने सवाल किया।
’’अरे राम, राम! तीस के आसपास होगी। शादी हो गयी होती तो आठ-दस बच्चे हुए होते।’’ सासजी का जवाब था।
’’एँ, अभी तक शादी नहीं हुई! छिः छिः!!’’ आवाज़ सुनाई पड़ी।
’’अरे बहन, शादी काहे को करेगा? रोज छोकरियाँ फँसाता फिरता होगा। क्या जरूरत है शादी की। और, शादी करेगा भी कौन इस बूढ़े से!’’ सासजी के इन शब्दों ने तो मुझ पर घड़ों पानी डाल दिया। कहाँ इतनी आवभगत की और कहाँ इतना जलील कर दिया। किन्तु करता क्या? सुनता रहा।
’’हाँ, राघो की माँ, क्यों आया है भला?’’
’’तुमने भी भला पूछा शांति की माँ। रुपये-पैसे घट गये होंगे। आया होगा बहन से लेने।’’ सासजी का जवाब था।
’’तो उसके पास रुपये कहाँ से आते हैं? भाई को कहाँ से लाकर देती है?’’ एक दूसरी आवाज़ सुनायी पड़ी।
’’अरे, राघो को क्या तुम कम समझती हो, मोहन की चाची। शहर में डेढ़ सौ रुपये पाता है। उसमें हमें क्या देता है - कभी पचास - कभी साठ। सब रुपये उस कलमुँही को ही तो देता है। देखो न, आज गयी है शहर, डाक्टर को दिखाने। जरा-सा कुछ हुआ नहीं कि चलो डाक्टर के पास। पैसे हैं, तो खर्च कैसे होंगे?’’
’’तुम ही एक जीव हो चाची कि इतना सब कुछ सहती हो। यह क्या बात! बचपन से पाला-पोसा, बड़ा किया तुमने और आज रुपये गिनने वाली है वह। सब दोष तुम्हारा है, जो लाड़-प्यार में इतना बहका रखा है।’’ सासजी को मीठी-मीठी झड़प सुनायी गयी, किंतु उनकी प्रशंसा से ओतप्रोत।
’’हाँ बहन, दोष तो मेरा है ही।’’ - सासजी की आवाज़ ऐसी हो गयी, जैसे वे रो रही हों। शायद रो भी रही थीं वे, किन्तु उनका कहना जारी था - ’’मैंने अपनी जान दे कर उसे पाला-पोसा, बड़ा किया, और आज? आज मैं दूध की मक्खी हूँ। मैंने पहले सोचा, नया-नया विवाह हुआ है, अभी कुछ लालसा है - वह पूरी कर ले, फिर तो मुझे मानेगा ही, रुपये-पैसे देगा ही। लेकिन बहन, मुझे तो खाना-पीना भी नसीब नहीं है।’’ और वे फूट-फूट कर रो पड़ीं। मुझे रुलाई सुन कर बहुत दया आयी उन पर और बहिन पर क्रोध।
’’चुप रहो बहन। क्या करोगी। क़िस्मत की बात।’’ किसी ने सांत्वना दी।
’’सो तो है ही।’’ अब सासजी का रोना बंद हो गया था।
’’सुना शांति की माँ? आज लछमिनिया अपने पड़ोस के उस कहार के साथ हँस-हँस कर बातें कर रही थी। निर्लज्जता की तो हद हो गयी।’’
’’यह कौन-सी नयी बात है, मोहन की चाची। उसको तो कई बार लोगों ने पकड़ा है। मैंने तो यह भी सुना है कि उस कहार का उसको ...’’
’’ऐं! राम! राम!!’’ एक साथ सभी स्त्रियाँ बोल उठीं। मुझे आश्चर्य हुआ कि अभी तक तो सासजी रो रही थीं और अभी उस लछमिनिया का प्रसंग आने पर उसके गर्भ रहने (पता नहीं सच या झूठ) का समाचार इतनी व्यग्रता से सुनाने लगीं।
इसके बाद भी बहुत-सी अल्लम-गल्लम बातें वे करती रहीं और मैं विवश होकर सुनता रहा। मुझे स्मरण आ रहे थे मेरे एक मित्र के वे शब्द, जो उसने एक दिन मुझे कहे थे - ’’अरे भाई, सास-पतोह का यह झगड़ा, तब तक समाप्त नहीं हो सकता, जब तक प्रौढ़ा-महिला सम्मेलन पर रोक नहीं लगेगी।’’ और मैंने विस्मित हो पूछा था - ’’यह प्रौढ़ा-महिला सम्मेलन कौन-सी बला है?’’ उसने उत्तर में कहा था - ’’यह सम्मेलन दोपहर में पास-पड़ोस की कुछ प्रौढ़ा महिलाएँ, खास कर जिनके घर में पतोह आ जाती हैं, आयोजित करती हैं। बिना पतोह वाली प्रौढ़ाओं को भी इस सम्मेलन में स्थान मिलता है, यदि वे पतोहवालियों की हाँ-में-हाँ मिलायें। उच्च और मध्यम घराने की प्रौढ़ाओं का यह सम्मेलन अक्सर दोपहर में उस प्रौढ़ा के यहाँ होता है, जिसकी पतोह मायके में या बाहर हो और पुरुष काम के सिलसिले में घर से बाहर हों। निम्न श्रेणी की प्रौढ़ाएँ इस निश्चित समय और स्थान के अतिरिक्त बाहर कुएँ पर या बर्तन माँजते समय अथवा बाज़ार जाते समय भी स्नेहायोजन कर लेती हैं। इस सम्मेलन के विचारणीय विषय होते हैं - फलाँ की बहू निखट्टू है - दिन-रात खाट तोड़ती है, या अमुक की बहू अपनी सास को भोजन-वस्त्र नहीं देती, अथवा फलाँ की बहू फलाँ के साथ ...। बीच-बीच में प्रसंगवश दूसरों की बेटियों की कुचरित्रता पर भी प्रकाश डाला जाता है।’’ खैर!
अपनी बहन की शिक़ायत सुन कर मुझे बहुत ग्लानि हुई और मैंने निश्चय कर लिया कि अपनी बहन को समझाऊँगा - उसे भला आचरण करने की सीख दूँगा। सो, शाम को जब मनोरमा से मेरी भेंट हुई, तो उसने मेरी नाराजगी को भाँप लिया और ज़िद कर बैठी यह जानने के लिए कि मैं क्यों नाराज हूँ उससे?
मैंने आद्यान्त वह कहानी उसे सुना दी।
सुन कर वह विचलित नहीं हुई। हाँ, कुछ उदासी आ गयी उसके चेहरे पर।
उसने रुँआसा हो कहा - ’’यह कोई नयी बात तुमने नहीं कही भैया! ऐसी शिक़ायतें तो मेरी रोज़ ही होती रहती हैं। किन्तु, ईश्वर ही जानता होगा कि मैं उनके साथ कैसा व्यवहार करती हूँ।’’
’’ख़्ौर, तुम्हारा व्यवहार अच्छा है, यह अच्छी बात है, किन्तु राघो बाबू को तो रुपये-पैसे माँ के हाथ में देने चाहियें। वे माँ को रुपये नहीं देते, यह अच्छी बात नहीं है।’’
’’तुमने भी, भैया, विश्वास कर लिया उनकी बातों पर!’’ मनोरमा ने निराश स्वर में कहा।
’’तो क्या वे झूठ बोलती थीं?’’ मैंने पूछा।
’’मैं यह कैसे कहूँ, किन्तु जो असलियत है, वह तुम्हें बतला दूँ। उन्हें एक सौ पच्चीस रुपये मासिक वेतन मिलता है। इसमें से पैंतालीस वे अपने ख़्ार्च के लिए रखते हैं - भोजन, कपड़ा, घरभाड़ा आदि का ख़्ार्च उससे चलता है और बाक़ी अस्सी में से पचहत्तर माताजी को और पाँच मुझे देते हैं। तुम्हीं बताओ, भैया, कि कौन-सा अनुचित करते हैं वे?’’
’’नहीं, यह तो अनुचित नहीं है, बल्कि मैं तो समझता हूँ कि पैंतालीस रुपयों में उनका खर्च भी नहीं चलता होगा शहर में।’’
’’...’’
इसी समय मुझे याद हो आयीं सासजी की वे बातें, जो उन्होंने मेरे सम्बन्ध में उन औरतों के समक्ष कही थीं। मेरे मस्तिष्क में सारी स्थिति स्पष्ट झलकने लगी - एक दिन के मेहमान के बारे में जो स्त्री इतनी अनाप-शनाप बातें कह सकती है, वह कदापि निरपराध नहीं कही जा सकती।
दूसरे दिन सासजी गयीं गंगा नहाने शहर। कार्तिक पूर्णिमा का दिन था, इसलिए मैं अपनी बहन के यहाँ ही ठहरा हुआ था। उसी दिन शाम को मुझे घर वापस जाना था। दोपहर में खा-पी कर मैं बैठकखाने में जीजाजी से बातचीत करने लगा। बहन बर्तन आदि धो रही थी। कुछ देर के बाद फिर औरतों का एक मजमा इकट्ठा हुआ अन्दर।
’’राघो की माँ गंगा स्नान को गयी हैं, बहू?’’ किसी ने प्रश्न किया।
’’हाँ चाची!’’ यह मेरी बहन का स्वर था।
’’आजकल दाई नहीं आती क्या?’’ एक दूसरी आवाज़ आयी।
’’नहीं बहन। छुड़ा दिया है उसे। अरे हाँ, खड़ी क्यों हैं आप लोग। बैठिये न?’’ मेरी बहन का उत्तर था।
’’कितना काम करना पड़ता है बेचारी को। ओह दाई को भी छुड़ा दिया राघो की माँ ने। छिः छिः!’’ पहली स्त्री की आवाज थी।
’’नहीं चाची, मैंने ही छुड़ा दिया है। दो-तीन प्राणियों का बर्तन ही कितना! उतना ख़्ार्च बर्दाश्त नहीं होता था।’’ मनोरमा का उत्तर था।
’’सो क्या तुम्हारे छुपाने से बात छुप जायेगी, बहू। हम लोगों को क्या मालूम नहीं है तुम्हारे घर का हाल! वह बुढ़िया जब तक ज़िन्दा रहेगी, तुम्हें चैन नहीं मिलेगा।’’
’’तुम ठीक कहती हो, मोहन की माँ! इतनी सहनशील बहू तो गाँवभर में नहीं है। एक यही है कि इतना अत्याचार सहती है। बेचारी!’’
’’अरे देखो न! बुढ़िया सूद पर रुपये लगाती फिरती है, किन्तु इतना नहीं होता कि पतोह के लिए दो-चार साड़ियाँ ख़्ारीद दे। बेचारी फटी साड़ी पहने रहती है।’’ यह मोहन की माँ की आवाज़ थी, जिसने कल बहन की काफ़ी भर्त्सना की थी।
’’नहीं चाची, मेरे पास साड़ियाँ हैं।’’ मेरी बहन ने कथन का खंडन किया।
’’अरे साड़ियाँ क्या हैं! कितनी साड़ियाँ दी हैं इन्होंने? सब साड़ियाँ तो तुम्हारे मायके की हैं। जियें तुम्हारे बाप-भाई, जो इतना कर देते हैं, नहीं तो यह चुड़ैल तो ... अब क्या कहूँ!’’ कहने वाली ने आधी बात मुँह में ही रोक ली।
मैंने जीजाजी का ध्यान उस ओर आकृष्ट करते हुए कहा - ’’सुन रहे हैं न? यही हैं वे कुलटाएँ जो घर बिगाड़ने का ठीका लिये बैठी हैं।’’
’’मारिये गोली इन्हें। इनके मारे तो नाक में दम आ गया है। इनकी मौत भी नहीं आती!’’ कह कर जीजाजी ने अपनी बात का सिलसिला पुनः जमा दिया और मेरे दिमाग़ में अपने मित्र का वह वाक्य पुनः घूम गया - ’’सास-पतोह का झगड़ा तब तक समाप्त नहीं होगा, जब तक प्रौढ़ा-महिला सम्मेलन पर रोक नहीं लगेगी।’’
अब मेरे समक्ष सारी स्थिति स्पष्ट हो गयी थी।
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विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’ - परिचय
विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’ हिन्दी अकादमी द्वारा पुरस्कृत लेखक थे। यह पुरस्कार उन्हें स्वयं उनके जीवन पर आधारित उपन्यास, ’दिव्यधाम’, के लिए 1987 में मिला था। विद्याभूषण ’श्रीरश्मि’ ¼11 दिसम्बर 1930 - 25 अगस्त 2016½ का वास्तविक नाम विद्याभूषण वर्मा था।
वे मात्र 16 वर्ष की वय में दिल्ली के ’दैनिक विश्वमित्र’ समाचारपत्र के सम्पादकीय विभाग में नौकरी करने लगे। वे रात में काम करते और दिन में पढ़ते। अल्प वेतन से फ़ीस के पैसे बचा-बचा कर उन्होंने विशारद, इंटरमीडियेट, साहित्यरत्न, बी. ए. तथा एम. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।
’श्रीरश्मि’ ने ’दैनिक विश्वमित्र’ के अतिरिक्त ’दैनिक राष्ट्रवाणी’, ’दैनिक नवीन भारत’, साप्ताहिक ’उजाला’, साप्ताहिक ’फ़िल्मी दुनिया’ तथा मासिक ’नवनीत’ के सम्पादन में भी सहयोग दिया। वे 1959 से भारतीय सूचना सेवा से सम्बद्ध हो गये।
’श्रीरश्मि’ की लगभग तीन सौ रचनायें 1960 के दशक की प्रमुख हिन्दी, उर्दू, गुजराती तथा कन्नड़ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। हिन्दी पत्रिकाओं में से कुछ के नाम हैंः ’नीहारिका’, ’साप्ताहिक हिन्हुस्तान’, ’कादम्बिनी’, ’त्रिपथगा’, ’सरिता’, ’मुक्ता’, ’नवनीत’, ’माया’, ’मनोहर कहानियाँ’, ’रानी’, ’जागृति’ तथा ’पराग’।
उनके उपन्यास हैंः ’दिव्यधाम’, ’तो सुन लो’, ’प्यासा पंछीः खारा पानी’, ’धू घू करती आग’, ’आनन्द लीला’, ’यूटोपिया रियलाइज़्ड’ तथा ’द प्लेज़र प्ले’।
उन्होंने ’विहँसते फूल, नुकीले काँटे’ नाम से महापुरुषों के व्यंग्य-विनोद का संकलन किया।
’श्रीरश्मि’ द्वारा अनुवादित रचनायें हैंः ’डॉ. आइन्सटाइन और ब्रह्मांड’, ’हमारा परमाणु केन्द्रिक भविष्य’, ’स्वातंत्र्य सेतु’, ’भूदान यज्ञः क्या और क्यों’, ’सर्वोदय और शासनमुक्त समाज’, ’हमारा राष्ट्रीय शिक्षण’ तथा ’विनोबा की पाकिस्तान यात्रा’।
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