देवेन्द्र कुमार पाठक के दो गीत- 1-सिरी उपमा जोग लिखी पाँय लगी बड़के भाई, सिरी उपमा जोग लिखी...
देवेन्द्र कुमार पाठक के दो गीत-
1-सिरी उपमा जोग लिखी
पाँय लगी बड़के भाई,
सिरी उपमा जोग लिखी,
मिले भौजी को मेरा प्रणाम,
गांव-टोले को जयसियाराम!
कृपा आपकी ठीक-ठाक हूँ
सो लिख पाती भेज रहा हूँ,
लिख भेजें जल्दी जवाब,
मैं इधर बड़ा बेहाल रहा हूँ;
यूँ तो यहाँ कभी-कैसी भी
हो जाये अनहोनी कम है,
पगलाये कुत्ते के जैसे
क्रूर-कटखना यह मौसम है;
चली कहीं-कुछ व्याह-बतकही
छुटकी बहना की लिखना,
हजार एक भेज रहा हूँ दाम.
भौजी को मेरे विवाह
की चिंता रहती है ज़्यादातर,
हो जायेगा, जल्दी क्या है,
बत्तीस है क्या बड़ी उमर;
पहले अपनी भूमि छुड़ा लें,
फँसी पड़ी है जो गिरवी पर,
धरती माता का दुःख हरने की
जिम्मेदारी है हम पर;
दूरदेश परवश,परचाकर,
आ न पाउँगा,माफ़ी देना;
छाँव पाएंगे सहकर घाम.
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2- मेहनतकश भुख्खड़
ज़ुल्म गुजारे जेठ दुपहरी, मारे झापड़;
धूल झोंकते आँखों में विकास के अंधड़.
डगर-डगर बदहाली पसरी, पग-पग प्यास-पसीना;
गरियाना अपनी किस्मत को,तरस-तरस कर जीना;
तपें तवा-से खेत और अंगारों-से कंकड़.
रोज़गार-गारण्टी के सौ भूल-भुलावे, चक्कर,
नखरे सौ सरपंच-सचिव के हालत बद से बदतर;
अरबों के वारे-न्यारे पर मेहनतकश भुख्खड़.
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देवेन्द्र कुमार पाठक;1315, साई पुरम् कालोनी,रोशननगर,साइंस कालेज डाकघर, कटनी,483501,m p(devendrakpathak.dp@gmail.com) प्रेषण-तिथि:-31/05/2017;04.00p.m.
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रश्मि शुक्ल
आज मन फिर हुआ है कंवारा प्रिये,
आज मौसम भी लगता है प्यारा प्रिये,
तेरी चाहत में बहका है मन ये मेरा,
तेरी यादों में दहका है दिल ये मेरा,
तेरी यादों से बचकर कहाँ जाउं मैं,
तेरी तस्वीर से दिल को बहलाऊं मैं,
आके रंग दो तुम्हीं मन हमारा प्रिये,
आज मौसम भी लगता है प्यारा प्रिये,
तेरी यादों ने आकर जो हलचल है की,
आ गई है समझ अब भाषा प्यार की,
कैसे अपने इस मन को ही समझाऊं मैं,
कैसे न देखे तुझको ही जी पाउं मैं,
मुझको है बस तेरा ही सहारा प्रिये,
आज मौसम भी लगता है प्यारा प्रिये,
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विवेक मणि त्रिपाठी
तुम बहुत याद आते हो ।
यादों के झरोखों में जाकर
बीते हुए सुनहरे पलों को
जब याद करता हूँ
तो, तुम बहुत याद आते हो !
गैरों से भरे
इस दुनिया में
जब अपनों को ढूंढ़ता हूँ
तो, तुम बहुत याद आते हो !
प्रेम के सागर में
प्यार के मोती चुनते
जब प्रेमी युगलों को देखता हूँ
तो, तुम बहुत याद आते हो !
सुख - दुःख, आशा – निराशा
जीवन के हर मोड़ पर
साथ देने वाले को जब खोजता हूँ
तो, तुम बहुत याद आते हो !
अपमान के विष पी कर
मुझे मान दिलाने वाले के बारे में
जब सोचता हूँ
तो, तुम बहुत याद आते हो !
इस क्षणभंगुर दुनिया में
जन्मों – जन्मों तक का साथ
निभाने वाले को जब ईश्वर से मांगता हूँ
तो, केवल तुम ही याद आते हो !
नदियों के दोनों किनारे
सूर्योदय और सूर्यास्त
प्रतीची और प्राच्य
के मिलन की तरह
असंभव है हमारा मिलन
फिर भी, तुम बहुत याद आते हो !
कवि परिचय – सम्प्रति चीन के कुआन्ग्तोंग विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, कुआन्ग्चौ में हिंदी भाषा विशेषज्ञ के रूप में कार्यरत. पूर्व में भारत के गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर एवं मगध विश्वविद्यालय, बोधगया में चीनी भाषा एवं साहित्य के अध्यापन कार्य में कार्यरत.
संपर्क – 2294414833@qq.com
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अशोक गुजराती
कोहनी
वह आ रही थी, ये जा रहे थे
आई पलटकर वह, बोली ग़ुस्से में
कोहनी क्यों मारी आपने?
पल भर बने रहे उजबक ये, फिर कहा
बहन जी, आपको हुई है ग़लतफ़हमी
दाहिने कंधे पर लटके झोले को
फिसलने से रोकने के चक्कर में
ऊपर उठी बाईं कोहनी शायद लगी हो आपको
क्षमा चाहता हूं...
इनकी प्रौढ़ता को तौलते हुए वह चली गयी
कोहनी जानती थी- सच्चाई क्या है!
बचपन में स्कूल छूटने के पश्चात
ये खेलते रहते थे कबड्डी
अपने सहपाठी रमेश गोटीराम पिंपळे के साथ
हां, वे ही दोनों
शरद जोशी के दो हॉकी खिलाड़ियों की तर्ज़ पर
जब देर शाम लौटते थे घर
होती थीं उनकी कोहनियां छिली हुईं
बहरहाल, अगले दिन फिर वही रमेश गोटीराम पिंपळे...
युवा हुए तो चल पड़े डगर पर प्रेम की
साधारण-सी थी उनकी प्रेमिका
लेकिन जिस दिन देखा इन्होंने
उसे टेबिल पर टिकाकर कोहनियां
दोनों हथेलियों में सम्भाले अपना चेहरा
उसकी सुंदरता ने अभिभूत कर दिया इन्हें...
अब भी थाम लेते हैं बार-बार दिल अपना
पुरानी यादों में खोये हुए
इस क्रिया को नहीं दे पाते पूर्णता
यदि साथ न दे पाती
उनके दाहिने हाथ की कोहनी...
इस तरह लड़ा रहे थे वे पंजा
काल से- अपनी कोहनियों के बल पर!
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अभियोग
अशोक गुजराती
उत्तर आधुनिक
स्त्री का पक्षपाती
लगा लगाने इल्ज़ाम
बट्टे पर कि
तुम सिल पर करते हो अत्याचार
लगातार उसे दबा-दबा
घिस-घिस कर...
उसके समर्थन में
आ खड़े हुए
खल-बत्ता, ओखली-मूसल और चक्की
ओखली-मूसल थोड़ा शर्माए
थे वे भी नर-मादा
खल-बत्ता और चक्की के दोनों पाट
थे समलिंगी
लगे कहने-
इनसान, हम नहीं तुम-से मतलबी
जो करे अत्याचार कमज़ोर पर
सिल तो चौड़ी-बड़ी-वज़नी बट्टे से
ओखली भी
खल या निचला पाट चक्की का
हम तो करते रहते हैं
आपस में प्यार
देते रहते हैं
मनुष्य को तैयार
पीसा, कूटा, मिला-मिलाया
स्वादिष्ट अन्न-अनाज़
ये तो तुम्हारी स्वार्थी दुनिया की
बातें-रिवायतें हैं
करते हो शोषण अपनों का ही
और हम जैसे निर्जीव लेकिन
समझदार पर भी
करते हो दोषारोपण!
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ठोड़ी
अशोक गुजराती
प्रायः आप करते रहते हैं प्रशंसा
नैनों, होंठों, भौंहों, बरौनियों, बालों की
नासिका, कर्ण, कपाल, कपोल, ग्रीवा
का भी करते रहते हैं उल्लेख
सुंदरता के संदर्भ में
भुला देते हैं मुझ नाचीज़ ठोड़ी को
वैसे तो रखकर उंगली मुझ पर
अपना आश्चर्य छुपा नहीं पाते
हथेलियों पर टिकाकर मुझे
डूब जाते हैं सोच-विचार में
पकड़ी ही होगी कभी आपने
चाहें उसे मिन्नत ना कबूलें
था तो पहले से ही
बढ़ गया है इन दिनों महत्व मेरा
जब हो जाती हूं दाढ़ी से शोभायमान मैं
चाहे वह सफ़ेद हो
दार्शनिक, अभिनेता, चित्रकार, लेखक, वैज्ञानिक
यूं करते रहे रक्षा मेरे अस्तित्व की
कितने भी कंजूस हों आप
नहीं न रोक पायेंगे स्वयं को
जब चिबुक-तारा का गोदना
याकि एक छोटा-सा तिल मुझ पर
मोह लेगा बरबस
सब पर भारी पड़ जाऊंगी मैं !
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प्रा. डा. अशोक गुजराती, बी-40, एफ़-1, दिलशाद कालोनी, दिल्ली-110 095.
सचल : 09971744164. ईमेल : ashokgujarati07@gmail.com
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कृष्ण कुमार चन्द्रा
मैं दिव्यांग भी हूं
हां मैं बहरा हो जाता हूं
उस समय
जब कोई मुझसे
किसी और की
बुराई करता है।
आंखों को भी मूंद लेता हूं
जब निंदक इस बात पर
खुद के सिर की
धुनाई करता है।
वाकई स्थान की कमी है
मेरे कान के घूरे में।
संवेदना की कमी है
मेरी आंखों के चबूतरे में।
किंकर्तव्यविमूढ़ सा होकर
थक-हार कर बैठ, निंदक
बड़ी चतुराई करता है।
मेरे मुंह में तो
ताले भी पड़ जाते हैं
किसने किसकी क्या बुराई की
इसे बताने के
लाले भी पड़ जाते हैं
मात्र मेरा सिर
इस बोझ की
ढुलाई करता है।
निंदारस के मामले में
अच्छी नीति है
दिव्यांग हो जाना।
मैंने साधा है इसे
मन करे तो आप भी
साध लेना।
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राजेंद्र ओझा
अम्मा- एक
अम्मा
तनी हुईं एक छतरी है
जो बचाती धूप से
जो बचाती बरसात में
बरसात के पानी से
जो बचाती ठंड में
ठंडी ओंस से ।
अम्मा
बच्चे के चारों तरफ
एक किला है,
कौन भेद सका है
भला आज तक
इस किले को।
अम्मा - 2
अंधेरे वाली जब सुबह होती है
जब कोई नहीं उठा होता है
उठ जाती है अम्मा
और झाडू ले
बुहारने लगती है आंगन।
मैं सोचता हूँ
अम्मा
झाडू से आंगन बुहार रही है
या झाडू
धीरे-धीरे बुहार रहा है
अम्मा की उम्र ।
राजेंद्र ओझा
पहाड़ी तालाब के सामने
बंजारी मंदिर के पास
कुशालपुर
रायपुर (छत्तीसगढ)
492001
मो.नं. 9575467733
8770391717
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' ब्रह्मानन्द मद्धेशिया '
मेरी रची हुई कविता नारी सौन्दर्य ,जिसमें यह बताया गया है कि मछली और नारी दोनों के लिए पानी(जल,इज्जत) ही प्राण है ।
नारी सौन्दर्य
"""''''"'''''''""""''''''''''''''''
चन्द्रबदन देखा अतिधीरा,
नीलवसन में ढकी शरीरा।
गौर वर्ण पर नीली सारी,
मनहुं जलद पर शशि किरण पसारी।
हंसी दिखे,मिले अधीरता नयनों की,
कोई न समझे गति चितवन की।
करती है वह ऐसे काज,
मानो छिपे हो कोई राज़।
मुस्कान दिखे बीच पट झीन,
गति वैसे जैसे हो मीन।
जल ही जीवन है,
यह जाने मीन।
बिन पानी,
जीवन कितने दिन ?
-------
कामना
''''''''''''''''''''''''
वर जीवों का जीवन क्या ?
जिसका कोई लक्ष्य न हो।
तन जर करता हरता जीवन,
जीवन में जिसके सुप्रभात न हो।
मन मलिन कर सोये रहना,
जिसका कोई अमरत्व न हो।
वर जीवों का जीवन क्या ?
जिसका कोई लक्ष्य न हो।
लो अंगड़ाई दीप जलाये,
सारे तम जग से मिट जाये,
अंधेरी अवरोध पथ व कलुषता से,
क्यों मुक्त न हो ?
वर जीवों का जीवन क्या ?
जिसका कोई लक्ष्य न हो।
जलते दीप की ज्योति बढ़ा दे,
कहीं निशा अंधकार न हो।
जाति-पाँति,छूआछूत,आडम्बर,
और अमनुष्यता का भाव न हो।
समता बढ़ती खाई पटती,
जीवन का कोई क्षण भययुक्त न हो।
वर जीवों का जीवन क्या ?
जिसका कोई लक्ष्य न हो।
जीवन में वह मानव जीवन हो,
जिससे जीवन मानव का हो।
ज्ञान,दया,प्रेम,परोपकार,
सहयोग व करुणा से मुक्त न हो।
रहे सदा गुणों से युक्त,
कभी मानवीय मूल्यों से मुक्त न हो।
निज उन्नति हो जगजीवन में,
दुर्गम पथ में भी कहीं अवरोध न हो।
वर जीवों का जीवन क्या ?
जिसका कोई लक्ष्य न हो।
-------
बी०एन०के दोहे
पर कहे सुन किये देत,हिये न तौले आपु।
काज विफल दोषी देत,बने रहत अनजानु।। (१)
अनुरागी बड़ भाग है,मिले जगत से ज्ञान।
ज्ञान से कर्म बढ़त है,मिले काम से काम ।। (२)
कर शक शके ध्यान देत,करत न मिल अवमान।
गलत मिले तो ठीक है,मिले सही नुकसान ।। (३)
ज्ञानी से ज्ञानी मिलें,मिलें चोर से चोर।
दुश्मन से सब दुश्मन मिलें,मचे द्वन्द का होड़ ।। (४)
सुन खरा लागत खारा,खारा सुने न कोय।
जो खरा सुन समझ करे,तो वह मानव होय।। (५)
परवश पड़ल बनल रहत,खुद तन करत न जान।
समय हरत तन जर करत,नर जन करत न मान ।। (६)
यह हित अनहित होत है,ओटम ओट धराय।
इससे भल शत्रुहोत है,मुखे क्रोध दिखलाय ।। (७)
सूर्य महिमा
"''""'"""''''''""""
असीम ऊर्जा का स्रोत है सूरज,जब निकले तब दिखती है सूरत।
सूरज निकला हुआ विहान,नव स्फूर्ति भर डाला जान।
इसी स्रोत से सभी हैं जीते,सभी जीव हों या पेड़-पौधे।
इसकी किरणें जब-जब निकले,चारो ओर जगमग कर दे।
उष्मा प्रकाश का है भण्डार,जिससे आलोकित सारा संसार।
असीम ऊर्जा की है वह खान,सभी जीवों की
है जान।
बिन इसके कोई जीवन नहीं सम्भव,कीट पशु-पक्षी हो चाहे मानव।
निशा धरा पर तभी है होता, जब यह हमसे ओझल होता।
इसकी महिमा का बहुत बखान,प्राचीनकालीन देव हैं सूर्य महान।
प्रकाशित होकर देता है संदेश हमें,हर मानव को जो हों किसी देश के किसी वेश में।
उर में उनके ज्ञान चक्षु हो, आलोकित पथ ज्ञान प्रकाश हो ।
तम मिट जाए सारे जहाँ का,हो अभ्युदय सकल जगत का ।
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विनती
"'""""""""'"''
घर है मेरा पावन मन्दिर, इससे अनूठा नाता है ।
इस घर के हैं देव पिता, देवी मेरी माता हैं ।
जिन्होंने मुझे है जन्म दिया,आँखों में मुझे बसाया है ।
मुझे सदा है स्नेह किया,मेरा मन हर्षाया है ।
अपने हैं वे कष्ट को सहते, पर मुझ पर प्रेम बरसाते हैं ।
दु:खी देखकर मुझको, जिनके अश्रुधार बह जाते हैं ।
खुशी देखकर मुझको, उनका मन सागर लहराता है।
आँखों से ओझल जब होते,उनका मन घबराता है।
घर है मेरा पावन मन्दिर, इससे अनूठा नाता है।
इस घर के हैं देव पिता, देवी मेरी माता हैं।
उनकी नजरों जब-जब गिरते हैं,तब-तब हमें उठाते हैं।
घाव मुझे नहीं उन्हें लगता है, शरीर मेरा सहलाते हैं ।
मुझसे जीत कर सदा वे अपनी जीत नहीं माना करते हैं।
अपनी हार से मेरी जीत को अपनी जीत समझा करते हैं।
जब तक रहें हम छोटे,तभी तक वे मेरे रहें पालनहार।
उनके खून पसीने से बड़े हुए,बनें हम उनके जीवन आधार।
घर है मेरा पावन मन्दिर, इससे अनूठा नाता है ।
इस घर के हैं देव पिता, देवी मेरी माता हैं।
कर्म पथ पर डटे रहें,उनकी सेवा में अर्पित हो खुशियों का सारा संसार।
मेरी सेवा से उनको खुशियाँ हो,यही इच्छा है बारम्बार।
हे ईश ! मुझे अपार शक्ति दे,जिससे उनके गले का हार रहूँ।
उनके दु:खों को अपने सहकर,उन्हें निरोग व निर्विकार करूँ।
मेरी सेवा को तन्मयता से,हर क्षण सहज स्वीकार करें।
खुशियों में ही महानींद लेकर वे हमें कृतार्थ करें।
उनके शुभाशीषों से जीवन में मेरे उन्नति और खुशहाली हो।
धन्य हो जीव- जगत और वनस्पति में भी हरियाली हो।
' ब्रह्मानन्द मद्धेशिया '
ओबरी निचलौल महराजगंज उ०प्र०
bnmadhesiaobnm@gmail.com
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सीताराम पटेल
-- सृष्टि का राज
सविता से निकल रहा है सात किरण।
तन मन प्रफुल्लित होता है भोर दर्शन।।
सूर्य के साथ जाग रहा है संसार सारा,
स्नान कर दे रहे हैं सलिल का अर्पण।।
कहीं दूर सुनाई देता घंटी की आवाज।
पक्षी निकल पड़े है लेकर अपना साज।।
खेत जोतने को निकल पड़े है किसान,
भोले मानव हम समझे सृष्टि का राज।।
शीत में सुहावनी लगती है सुनहली धूप।
सुधा भी देखकर शरमा जाये तेरा रूप।।
पेड़ों से बह रही है अब मंद मंद बयार,
शीत के आगोश में है यहां सारा भूप।।
सर्दी में बढ़ जाती है खांसी और छींक।
मैं महान हूं प्राणी तुम मुझसे ही सीख।।
मुझसे करोगे कोई भी अठखेलियां तुम,
तुम्हें मांगना पड़ेगा यहां हमेशा भीख।।
चूहा भी नहीं डरता है देखकर दीन।
मेरे बिन तड़पो जैसे जल बिन मीन।।
आओ आकर एक बार योग कर ले,
जिससे सृष्टि लगेगा हमेशा नवीन।।
देखना है तो देखो गांव ताल तलैया।
देखना है तो देखो गोधूलि में गैया।।
सब कुछ लील लिया है प्रदूषण यहां,
कहां बच पाई है अब यशोदा सी मैया।।
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सीमा असीम सक्सेना
जाने कितनी गुजरी रातें
जाने कितनी रातें गुजरी
पलक नहीं झपकी
यादों के साये से चलते रहते
जीवन यह निस्सार लगे है जैसे मौत का डेरा
पल पल में बरसे आँखें
सावन भादों जैसी
जाने कितनी रातें गुजरी
सुध बुध सारी भूल गयी हूँ
ऐसी खुद में खोई
कब दिन गुजरा कब रात गयी
भान नहीं है कोई
जाने कितनी गुजरी रातें
आंखें सूज के लाल हुई
पर सूरत उनमें तेरी
ओ मेरे परदेसी साजन
याद न जावे तेरी
जाने कितनी गुजरी रातें
न मिलने की चाह रही अब
न बिछुड़न का गम कोई
फिर मन में यह आस है कैसी
जो हर पल अँखियाँ रोइ
जाने कितनी गुजरी रातें
जिह्वा का एक ही काम है
लेना बस नाम तेरा
इधर पुकारूँ उधर पुकारूँ
मानों कण कण में बसेरा
जाने कितनी गुजरी रातें !!
1. अभी तक
पिघलती रही धरती
अभी तक
सह कर अनेकों संताप
अकेले ही
कि पिघलने की वाष्प से
न धुँधलाये आसमां का वजूद
रहे वो यूँ ही विस्तार लिये हुए ही
धरती सिमटी सिकुडी ख़ुद के भीतर पिघलते
लावा से
बहा कर सब तक़लीफ़
हरित हो गयी
पुष्पित पल्लवित हो गयी
असीम हो गयी
क्षितिज के करीब हो गयी
सीखा था उसने ख़ुद से ही
दर्द में सिमट जाना
और खुशी में विस्तृत हो जाना
अपने फैलाव से चमत्कृत कर जाना
जानती है धरा अपना वजूद
फ़िर भी रहती है
आसमां की खुशी में
ख़ुश रहना ! !
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जिया गीता हिन्दवाल
गर ज़िंदगी ने दुबारा हमें पुकारा न होता
साथ तब तो फिर हमारा तुम्हारा न होता
क्या रास्ते हो जाते बिन तुम्हारे
जो तुम्हारी राहों ने पुकारा न होता
यूँ ही हम गर तन्हा रह गए होते
तिरे प्यार का गर सहारा न होता
कंहीं यादें कोने में देती हैं दस्तक
ख्यालों का गर ये सहारा न होता
मैं चांदनी में बैठी हूँ दिल लिए कबसे
चाँद क्यूं मेरे दामन का सितारा न होता
तुझे सोच कर यूँ तो गुजारा न होता
गर हमारे दिल का हमें सहारा न होता
चलो अच्छा हुआ जो हम बिछड़ गये
मिन्नतों से खुदा को शायद पुकारा न होता
मैंने जब भी है हसरत से खुदा का दर देखा
कहा दिल ने बिना इसके गुजारा न होता
मुझसे मिलने को जब खुशियां हैं आईं
गले लगा लूँ उन्हें क्या इशारा न होता
मिल जाये जो किसी मोड़ पर फिर से
क्या इतना भी दिलकश किनारा न होता
चाहती हूँ तू फिर आये लौट कर
किस्मत को मेरी गवांरा न होता
तुम भुला नहीं पाये शायद किसी को
तुम्हें भुला कर हमारा गुजारा न होता
भरम है तेरा यूँ तुमने जो सोचा मुंझको
होता न एतबार तो दिल हारा न होता
"जिया" तेरे नाम के साथ ज़िंदगी जुड़ी है
फिर क्यूं ज़िंदगी ने तुझे पुकारा न होता
रचित
जिया गीता हिन्दवाल
26/5/17
देहरादून
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सुशील शर्मा
क्या वो किसान थे
(वर्तमान हिंसक किसान आंदोलन पर)
हिंसा को भड़काने वाले
ये किसान नहीं हो सकते।
जीवन को सुलगाने वाले
ये किसान नहीं हो सकते।
खेतों में जो श्रम का पानी देता है।
फसलों को जो खून की सानी देता है।
फसलों को आग लगाने वाले
ये किसान नहीं हो सकते।
हिंसा को भड़काने वाले
ये किसान नहीं हो सकते।
खुद भूखा रहकर जो औरों को भोजन देता है।
खुद को कष्ट में डाल दूसरों को जीवन देता है।
सड़कों पर दूध बहाने वाले
ये किसान नहीं हो सकते।
हिंसा को भड़काने वाले
ये किसान नहीं हो सकते।
कर्ज में डूबे उस किसान कि क्या हिम्मत है।
घुट घुट कर मर जाना उसकी किस्मत है।
बच्चों पर पत्थर बरसाने
वाले ये किसान नहीं हो सकते।
हिंसा को भड़काने वाले
ये किसान नहीं हो सकते।
राजनीति की चौपालों पर लाशें है।
इक्का बेगम और गुलाम की ताशें हैं।
लाशों के सौदागर दिखते
ये किसान नहीं हो सकते।
हिंसा को भड़काने वाले
ये किसान नहीं हो सकते।
सीने पर जिसने गोली खाई निर्दोष था वो।
षड्यंत्रों का शिकार जन आक्रोश था वो।
राजनीति के काले चेहरे
ये किसान नहीं हो सकते।
हिंसा को भड़काने वाले
ये किसान नहीं हो सकते
0000000000000
कवि विनोद सिंह गुर्जर
जाग उठा किसान।
जाग उठा किसान।।...
बैल बाँध दिये खूंटों पर।
हल लटकाये ठूँठों पर।
हाथों में ले लट्ठ चला।
शासन से करने खट्ठ चला।
बाँध अंगोछा सिर अपने,
पहन पुराना ही परिधान।।...
जाग उठा किसान।
जाग उठा किसान।।...
मंडी सूनी हाट पड़े।
फीके ऊँचे ठाट पड़े।
दूध बह चला गलियों में ।
सब्जी सड़ रही ठलियों में।
ना खाऊँ ना खाने दूँगा,
सम्मत गूँज उठा ये गान।।....
जाग उठा किसान।
जाग उठा किसान।।...
घूरे के भी दिन फिरते हैं।
वृक्षों के पत्ते गिरते हैं।
नव साखें नव पल्लव आते।
मौसम झूम-झूम बदलाते।
युग बदले,सदियाँ बदलीं।
हमें मिला ह्लजोत निशान।।...
जाग उठा किसान।
जाग उठा किसान।।...
सहा बहुत अब नहीं सहेंगे।
कहा बहुत अब नहीं कहेंगे।
अन्न के दाने -दाने को।
बहु-श्रम इन्हें उगाने को।
पर-पीड़ा किसने जानी है।
मूक प्रशासन,जग अंजान।।...
जाग उठा किसान।
जाग उठा किसान।।...
कवि विनोद सिंह गुर्जर
0000000000000000
मनोज कुमार सामरिया “ मनु ”
मेरी करुणा मुझसे बोली ........मनु की कलम से. 09/04/2017
जो जाती हो रचना सागर तक ऐसी इक धारा बनवा दो ,
भावों का एक ज्वार उठा , मेरी करुणा मुझसे बोली ।
अन्तस मेरा लगा मचलने मुझे बाँधो लो शब्द बन्ध में ,
मन में मेरे स्पन्दन हुआ पर अनुभव की खाली झोली ।
कैसे बाँधूं बाहुपाश में खण्ड - खण्ड निराशा जो फैली ,
मन उलझा इस उलझनों में आंखें भी असुँवन से धोली ।
लम्हे बीते बरसों गुजरे दमित पड़ी असिमित भाव से ,
मेरी चञ्चल अभिलाषा ने फिर हौले हौले पाँखें खोली ।
जैसे बरस बाद मौन टूटा हो ,भीतर से सोता फूटा हो ,
स्वर्णिम आभा निरख निरख कर अभिलाषा मुझसे बोली ।
पंख उगे फिर अरमानों के चहक चहक चिड़िया बोली ,
मौन ने मुझको दिया निमन्त्रण ,जाग उठी जिज्ञासा भोली ।
आखर ये अनगढ़ से मेरे मानस पर फिर लगे टहलने ,
फूट पड़ा झरना लफ्जों का बहने लगी सरिता भोली ।
साकार हुआ शब्दों का सागर “मनु” शनैःशनै रचना हो ली ।।
जब मेरी चञ्चल अभिलाषा ने हौले हौले पाँखें खोली ।।
--
कहा था तुमने. . मनु की कलम से
कहा था तुमने
भूल जाना मुझे मगर
मुमकिन नहीं भुलाना तुझे ।
इन्तजार में तेरे सदी
गुजारूँ तो कैसे ?
लम्हा- लम्हा ,पल - पल
तुझे भूलाऊँ तो कैसे ?
जब भी होता हूँ तन्हा
तो कलेजे में टीस सी उठती है
चुभन सी होती है
मेरे सीने में
जख्म दिखे तो दवा करुँ,
ऐसे दर्द का क्या करुँ ?
नींद कोसों दूर
हो गई है आँखों से
घड़ी की टिक - टिक
मेल खाती है साँसों से ,
पल - पल महसूस कर
रहा हूँ धड़कन को,
धक - धक से उठती
तड़पन को ......
कितना प्यारा आसमाँ
टिमटिमाते तारे ,
शाँत शहर
निशब्द सारे नजारे ।
आसमाँ को धरा
चूमने का गुरूर है
मगर क्षितिज मुझसे
कोसों दूर है ,
चाँद बढ़ रहा है
आसमाँ में अपनी गति से ,
अजीब सी खामोशी
चारों ओर है छितराई ,
बेचैन कर रही है मुझे
पेड़ों की मौन परछाई ....
घड़ी की मद्धिम- मद्धिम
चलती सुईयों को देखता रहूँ ,
तुम न लौट आओ, सोचता हूँ
तब तक सोया रहूँ ....
स्वप्न में ही आज तुमसे
मिलना चाहता हूँ ,
तेरे साये में चन्द अर्से
गुजार देना चाहता हूँ ....
आजकल घर जल्दी लौटने
का “ मनु ” मेरा मन नहीं होता ,
तेरे होने और नहीं होने का फर्क
शायद मैं पहले समझ पाता ...
उजाला नहीं है अर्से से
मन कमरे में ,
मकड़ियों ने जाले बुन लिए हैं
बेतरतीब यहाँ वहाँ इसमें ....
अपने ही घर में
अजनबी सा लगता हूँ
देर अँधेर सबके सोने पर
घर लौटता हूँ ....
मन में जो बात है
किससे बयाँ करूँ
मुखौटा लगाए बैठे हैं
सब अपनेपन का ,
सोचता हूँ तन्हाई संग
जिन्दगी जीया करूँ.....
एक पल कल्पना का
सुन्दर संसार बनाकर ,
अगले पल उसे मिटा दिया करूँगा
रेत पर खिंची लकीर की तरह ...
मगर नहीं करूँगा
फरियाद तुझसे मिलने की ,
जी लूँगा तेरे बगैर
तेरे मीठे अहसास के साथ ..
निभाऊगाँ तुझसे किया
अपना आखिरी वादा ,
करूँगा कोशिश
ताऊम्र भूलने की तुझे.....
याद है मुझे कहा था तुमने
कि भूल जाना मुझे.........
कहा था तुमने ......
“मनु” मनोज कुमार सामरिया
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सुधा वर्मा
माँ मेरी माँ
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खड़ी हूं माँ मैं नीम की छाँव में।
यादों की बरसात हो रही है माँ।
जब तक थी तेरी ममता की छाँव,
होता आभास
इस नीम की छाँव की तरह
बरसात में तेरी आँचल
का रुमाल बना मुँह पोछा करती थी।
काली मिर्च घी पीने दिया करती थी।
चूल्हे के पास बैठा कर
अंगाकर खिलाया करती थी।
ठंड में वही आँचल
बन जाया करता था
एक गरम कपड़ा
रह रह कर तेरी साड़ी में
छुपा करती थी
चाँदनी दिखा कर उनके बारे में
बताया करती
कौन है ?किस तारे में बताया करती थी।
छोटी छोटी कहानियों से,
जीवन के दर्शन समझाया करती थी।
जीवन होता नहीं नष्ट
बस रुप बदल जाया करता है।
पौधों में भी संवेदना और प्यार होता है
माँ तू ने ही यह समझाया था।
तपती गर्मी में भी
तेरे आँचल की छाँव ही थी
आज नीम की छाँव में भी
वह ठंडक नहीं माँ
जो तेरी ममता में थी।
जब होती स्कूल से आने में देरी।
हाथ जोड़े खड़ी मिलती थी
भगवान के सामने।
तेरी दुआएँ ही थी जिसने बचाया मुझे
इस दुनिया के थपेड़े से।
मां याद आता है वह बिदाई का छण
सिसकती दबी आवाज।
दिल को जैसे निकाल कर
दे रही हों किसी को।
इतने सालों के प्यार को समेट कर
बिदा कर दिया
दूसरे के चौखट पर।
हर दिन जोहती बाट बेटी के आने की।
माँ ,तूने कहाँ बिदा किया था?
दिल में रखी थी उन यादों को
बचपन की शैतानियों को
उन खिलौनों को ,
जो रखे थे अब भी आलमारी के
कुछ खानों में।
जिस दिन आया अपूर्व
तो जैसे तुझमें भी जीवन आ गया।
अपनी कृति की कृति को देखना
कितना रोमांचक था।
पर साथ न था ज्यादा माँ तेरा
कितने अरमान से लिया था तूने
कपड़े और खिलौने
पर जन्मदिन के ग्यारह दिन पहले ही
तूने अपना धाम बदल दिया।
आज भी याद है माँ जब तूने
अस्पताल के बिस्तर पर भी धर्मयुग
और हिंदुस्तान पढ़ने को मांगा था।
चिंता थी तुझे अपनी तीन गायों की
जिसे देखने मुझे भेजा करती थी।
बार बार अपूर्व के गालों को छूकर
उसे देखने की ही बात करती थी।
मातृत्व अब भी टपक रहा था
चिंता नहीं थी अपने जाने की
बार बार कहती थी
माँ मुझे बुला रही है,
पर मुझे छू छूकर प्यार
किया करती थी।
नहीं है मलाल मुझे माँ ।
मैं थी तेरे साथ अंतिम क्षण तक।
अंतिम विदाई ने तो तोड़ दिया
पर माँ तूने जीना जो सिखाया था
हर परिस्थिति से लड़ना सिखाया था।
मैं आज तक लड़ रही ह़ूं
साथ तेरा हर पर महसूस कर रही हूं।
यह नीम की छाँव की तरह तू मेरे साथ है।
हर छड़ दुख तकलीफ को
अपनी ममता की यादों की फुहार से
शीतलता देती है।
माँ मेरी माँ,
आज भी तू मेरे साथ है।
याद आती है तेरी तो तारों को
देख लिया करती हूं।
माँ मेरी माँ।
रचना
सुधा वर्मा
प्लाट नम्बर 69,सुमन
सेक्टर -1,गीतांजली नगर,
रायपुर ,छत्तीसगढ़
पिन,492001
sudhaverma55@gmail.com
-000000000000
बृजमोहन स्वामी "बैरागी"
कुछ दिन पहले तक
"सावधानी" महज़ एक शब्द था,
और "अकाल मृत्यु" दैवीय कारण।
उन्होंने
दस बारह की पोती के हाथ में
बच्चा दे उसे झूले पर बैठा दिया,
सड़क पर चलती एक भीड़ वाली जुलूस क्रान्ति
नारे लगा रही थी - हमें आज़ादी चाहिए।
भीड़ और दंगे से उपजी एक गोली
सीधी बच्ची को लगी और ...
क्या आप अपने ऊपर की
मृत्यु को एक नाटक में बदल सकते है ?
मैंने डायरी में लिखा-
मृत्यु एक आज़ादी है।
गोली,
आदमी को पकड़े या मौत को?
या कि वे भूल गए हैं
कि नन्हा सा बच्चा
एक ही हाथ के सहारे था।
वक़्त के सबसे बड़े हिस्से में
हमने अपनी आज़ादी गंवाई है
उसके बाद सोच
और सबसे अंत में आई क्रूरता।
शायद यही कारण है
कि अधिक दुःख या सुख
में होने पर मृत्यु को गले लगाना
भी एक मुहावरा सा है,
जो हम गलियों में रटकर याद करने की बजाय
वारदात की जगह पर छोड़ आते हैं।
या तो लोग खुश हैं
या लोग दुखी हैं
अगर आप और मैं एक आँख से देखें
तो ये दोनों स्थितियाँ एक दूसरे का प्रतिबिम्ब भी मानी जा सकती हैं।
कायनात की सारी औरतें
नहीं रुलाई जा सकती
एक शब्द में
सारे पुरुष निहत्थे नहीं किये जा सकते
एक आवाज़ में
और पत्थरों में दर्द
घसीटकर नहीं लाया जा सकता,
क्योंकि मृत्यु के बाद कोई हानि नहीं पहुँचाई जा सकती।
मैं शुक्रगुज़ार हूँ उन वैज्ञानिकों का
जिनको
नकली कोख बनाने में सफलता मिली है।
इस से कि समय से पहले
पैदा होने वाले बच्चों को...
बचाया जा सके।
आज़ादी,
बच्चों की मौत और गोलियों की आवाज़
से पैदा नहीं हो सकती।
विडम्बना यही है कि मेरा और उनका
लक्ष्य "सावधानी" नहीं है।
एक आदमी
बार बार कैमरे के सामने
आकर कहता है-
फूँक...फूंक...फूंक
फूंक दे रे !!!
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लेखक परिचय
- बृजमोहन स्वामी "बैरागी"
हिंदी राजस्थानी यतार्थवादी लेखक,
युवा कहानीकार, समीक्षक
और फ़िल्म लेखक।
सम्पर्क सूत्र - birjosyami@gmail.com
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