चिंता अश्विनी की मां का बुखार जब शहर के डॉक्टर ठीक न कर सके तो उन्हें दिल्ली के बड़े अस्पताल में भर्ती कराया गया। तमाम चैक अप, इन्वेस्टिगेशन ...
चिंता
अश्विनी की मां का बुखार जब शहर के डॉक्टर ठीक न कर सके तो उन्हें दिल्ली के बड़े अस्पताल में भर्ती कराया गया।
तमाम चैक अप, इन्वेस्टिगेशन और ब्लड रिपोर्टस् के पश्चात डाक्टरों के पैनल ने अश्विनी को अपने चैम्बर में बुलाया।
'मिस्टर अश्विनी आपकी मां को ब्लड कैंसर कन्फर्म हुआ है। मेडिकल लैंग्वेज में इसे ए पी एम एल एम फाइव कहा जाता है। शुरूआत के 15 दिन रोगी के लिए बेहद खतरनाक होते हैं। अचानक शरीर की नसों से रक्त स्त्राव हो सकता है। मोशन यूरीन के साथ भी खून निकलने की संभावनाएं होती हैं। बॉडी के किसी भी पार्ट से ब्लास्ट होकर ब्लड का निकलना तब तक जारी रहेगा.......। देखने में पेशेन्ट नार्मल रहेगा। प्लेटलेट्स डाउन होते ही तेज बुखार और.......।'
'आई मीन ऐट एनी टाईम एनी थिंग मे हेपेन....।'
विश्वास कैसे होता। सब कुछ घूम रहा था। अभी पंद्रह दिन भी तो नहीं बीते थे। अम्मा के मोतियाबिंद का सफल ऑपरेशन करवाकर वह दीपावली की छुट्टियों में घर आया था। जब से नौकरी की थी दीपावली में घर आना निश्चित था। कोई साल अन्झा न गया था। दूज के दिन वापस गया तो मां को कुछ बुखार था, सामान्य समझकर छुट्टियां न बढ़ाई थीं। क्या पता था कि अगले हफ्ते फिर आना होगा।
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'अम्मा का बुखार....।'
भइया की आवाज रुंध गई थी। शाम को इस फोन कॉल के बाद पूरी रात छटपटाहट में बीती थी। सुबह दस-ग्यारह बजते-बजते तुरंत चल देने की सलाह भइया ने दे डाली थी। लेटेस्ट फ्लाइट से दिल्ली और वहां से ट्रेन द्वारा घर। सबकुछ इतनी जल्दी....।
छटपटाहट और बेबसी को आंसुओं का सहारा मिला। सब्र का बांध टूट गया।
'अम्मा.......।'
डॉक्टर अश्विनी का कंधा सहलाते हुए बता रहा था।
'डियर यदि इनका कुछ दिनों तक ट्रीटमेन्ट करवा सको तो शायद कुछ दिनों का सर्वाइवल हो जाय। फैमिली में डिस्कस कर लो। लगभग पन्द्रह-बीस लाख का खर्चा आयेगा। एक लेडी अटेण्डेण्ट को पेशेन्ट के साथ रहकर देखभाल करनी होगी तथा मोरली बूस्ट अप करते रहना पड़ेगा। छः महीने तक इलाज चल गया तो रिजल्ट्स बेहतर हो सकते हैं।'
अश्विनी माता-पिता की छोटी संतान था। स्वभाव से जिद्दी परंतु माता-पिता की इच्छा के विपरीत कुछ न करता था। अम्मा ने ही कहा था 'बड़ी सुशील लड़की है।' देखने जाना तो औपचारिकता थी। रजनी से विवाह उन्हीं की मर्जी से हुआ था।
डॉक्टर की सलाह से एक आशा फूटी। घोर निराशा में चिंतन का संचार हुआ।
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'रजनी, पी एफ से लोन ओर तुम्हारे गहने बेचकर पैसे का इंतजाम कर लिया जायेगा। तुम अम्मा को संभाल लोगी और मैं बाहर की दौड़-भाग कर लूंगा। हम मिलकर अम्मा को बचा लेंगे.......।'
रजनी की आवाज गंभीर थी..............
'यह सब इतना इजी नहीं है। मुझे चिंता हो रही है.... ये क्या मुसीबत आ पड़ी? मम्मी ने कितने प्यार से गहने दिये थे मैं इन्हें बेच नहीं सकती। इनको तो.............। और छः महीने तक गूं-मूत की टहल मुझसे न हो पायेगी। ओफ्फो.............................
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उपहार
'बम-बम भोले
बम-बम भोले......'
महा शिवरात्रि का पावन पर्व। प्रत्येक वर्ष की भांति इस साल भी दुल्लू काका लोधेश्वर बाबा के दर्शन करने गए थे। गांव के घर-घर से एक आदमी जरूर जाता। सायकिलों की मरम्मत महीना-पन्द्रह दिन पहले ही शुरू हो जाती। निसगर घाट से गगरों में गंगा जल लाया जाता। यह इस पवित्र यात्रा का प्रथम अध्याय होता। भांग-गांजा की ताजी पत्तियां तोड़ी-सुखाई जातीं। कई तरह की चिलमें। पूरी-पुआ, पींड़ा शुद्ध देशी घी में बनता। उत्सव जैसा वातावरण। दुल्लू काका के दिन अब बहुरे थे। बड़े बेटे को सरकारी जगह मिल गई थी और छोटका भी भइया की तरह पढ़ाकू और तेज। शिवरात्रि के एक दिन पहले सायकिल समूह जयकारों के साथ प्रस्थान करता और जलाभिषेक कर अगले दिन देर रात तक गांव वापस पहुंचता। कभी-कभी इसमें एकाध दिन बढ़ जाता कि चलो भाई लखनऊ का 'जानवर खाना' भी देख लिया जाय। तब छिन-छिन में यह डिस्टर्बेंस भी न था कि अब कहां पहुंचे?
आज इसी यात्रा से काका वापस आ रहे थे। एक पहर रात बीत गई थी। घर-परिवार सजग-सचेत हो जाए कि लोधेश्वरहा वापिस लौट रहे हैं और कोई इन्हें बदमाश उचक्का न समझे, सो जयकारा लगाया जाता। बच्चे थालियों में जल लेकर तैयार हो जाते-पद प्रच्छालन हेतु। तमाम आशाएं, उम्मीदें कि काका भंवरेश्वर के पेवुंदी बैर परसाद, गले के माला-झाला और फोटो ला रहे होंगे। डाटे-डपटे जाते मगर सुबह बड़ी मुश्किल से होती और झोला -झटका खभो डालते। सबके लिए कुछ न कुछ उपहार।
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जो धन पिशाच नहीं होते वे अपनी छोटी-छोटी खुशियों में ही उत्सवों का आनन्द लेते हैं। एकाकी स्वार्थपरक जीव क्या जाने कि सुख और तोष का धन से भीम-दुर्योधन संबंध है। सुख-दुख वस्तु संग्रह से नापे ही नहीं जा सकते।
बीस-पचचीस साल गुजर चुके हैं। दुल्लू काका अब निपट अकेले, मायके तक पूछ कर जाने वाली काकी बिना इजाजत पांच बरस पहले ही इनका साथ छोड़ गईं। गांव का घर संग्राहालय में परिवर्तित हो गया। दोनों श्रवण कुमार अपनी सुविधानुसार तीर्थाटन कर अम्मा का दीया जला जाते। काका कि मजबूरी कि बेटों के साथ समय काटे। जीवन जीना काटने में तब्दील हो गया था। हौंक से कंपा देने वाली आवाज........! सबके लिए हां और सहमति।
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कई बरस बाद छोटे चीरंजीव के पास हवा पानी बदलने गए। मशीनी जिंदगी। सुबह-शाम सड़क किनारे भ्रमण.....। पोते से दबी जबान में मन की पीर कह लेते.....'अब सब कुछ भरा-पूरा है लेकिन बोले बतलाय वाला कोऊ नहीं। यह पोता ही काका का काम चलाऊँ साथी।
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'लाला स्वांचा रहै कि पियारे मामा के लिए हिंया कै निशानी बेंतु अउर हरदेव, सुखई के लिए च्यवनप्राश लेहे जाई।'
'काहे... बेंत तो आपके पास है और च्यवनप्राश यहां से लादि के कौन ले जाएगा....?'
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'बप्पा हमैं लिए का....। काका सायकिल से उतर रहे हैं और यह चिरंजीव मचल रहा है........।
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आत्म परिचय
डॉ. श्यामबाबू
जन्म- 20 जुलाई 1975
एम.फिल, पीएच.डी., अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा
प्रकाशन :-
रघुवीर सहाय और उनका काव्य 'लोग भूल गए हैं'
भूमण्डलीकरण और समकालीन हिंदी कविता
नई शती और हिंदी कविता
दलित हिंदी कविता का वैचारिक पक्ष
हंस, वर्तमान साहित्य, लहक, निकट, साहित्य सरस्वती, अक्षरपर्व, जनपथ, जनतरंग, लौ सहित तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लघु कथाएं-कहानियां
प्राण प्रतिष्ठा और मुर्दों से डर नहीं लगता कहानियां चर्चित
रूचि क्षेत्र :-
समसामयिक विषयों पर अध्ययन, विशेषतः भूमण्डलीकरण
प्रसारण :-
दूरदर्शन से साक्षात्कार
संप्रति :-
एकेडमिक काउंसलर, इग्नू, शिलांग
स्वतंत्र लेखन
संपर्क :-
85/1, अंजलि काम्पलेक्स
शिलांग ;मेघालय)
793001
मो.-9863531572
ई-मेल :- lekhakshyam@gmail.com
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