सूरदास के रामकाव्य का मूलाधार श्रीमद्भगवत् है। भगवत् के नवम् स्कन्ध में दसवें तथा ग्यारहवें अध्याय में रामकथा का उल्लेख हुआ है। चूंकि रामकथ...
सूरदास के रामकाव्य का मूलाधार श्रीमद्भगवत् है। भगवत् के नवम् स्कन्ध में दसवें तथा ग्यारहवें अध्याय में रामकथा का उल्लेख हुआ है। चूंकि रामकथा लोक प्रसिद्ध रही है, इसलिए भागवत्कार ने बहुत विस्तार से रामकथा का वर्णन न करके मात्र 92 छन्दों में सम्पूर्ण कथा वर्णित की है। वस्तुतः संस्कृत साहित्य में राम-काव्य प्रचुर मात्रा में मिला है। रामकथा पर आधारित वाल्मीकिकृत 'रामायण' आदि महाकाव्य है। यद्यपि कुछ विद्वानों की मान्यता है कि रामकथा गाथा के रूप में वाल्मीकि के पूर्व ही प्रचलित हो चुकी थी तथा गाथा रूप में प्रचलित उसी रामकथा ने बौद्ध जातक तथा जैन पुराणों के स्रोतों को भी प्रभावित किया। भले ही रामकथा वाल्मीकि से पूर्व प्रचलित क्यों न हो परन्तु वाल्मीकि की प्रतिभा ने उसे सर्वथा मौलिक स्वरूप प्रदान किया। इसमें राम के लोककल्याणकारी चरित्र का वर्णन बड़ा ही मार्मिक है। रामायण के राम का चरित्र उत्तरोत्तर विकास पाता चला गया। हरिवंश पुराण, विष्णु पुराण, भागवत् पुराण, अध्यात्म रामायण, आनन्द रामायण, अद्भुत रामायण, भुशुण्डि रामायण, रघुवंश, प्रतिमानाटकम्, उत्तररामचरित, हनुमन्नाटक आदि में राम का चरित्र रोचक ढंग से व्याख्यायित हुआ है।
संस्कृत साहित्य के अतिरिक्त प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य में भी राम के चरित्र से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थों की रचना हुई हैं। विमल सूरि रचित 'पउमचरिय', स्वयंभूदेव कृत 'पउमचरिउ', पुष्पदन्त विरचित 'महापुराण', रइधूकृत 'पद्मपुराण' उल्लेखनीय हैं।
हिन्दी साहित्य भी समृद्ध रामकथा साहित्य से पूर्णरूपेण प्रभावित हुआ। हिन्दी में राम-काव्य का सर्वप्रथम प्रणमन चन्दबरदाई ने किया। इन्होंने पृथ्वीराजरासो महाकाव्य में भगवान के दस अवतारों का वर्णन किया है, उसी में रामकथा सम्बन्धी प्रमुख प्रसंगों का संक्षिप्त वर्णन है। हिन्दी में राम-काव्य परम्परा में रामानन्द जी का प्रमुख स्थान है। वास्तविक रामकाव्य परम्परा की शुरूआत इन्हीं से मानी जाती है। रामानन्द जी द्वारा लिखे दो संस्कृत ग्रन्थ 'वैष्णवमताब्ज भास्कर' और 'श्री रामार्चन पद्धति' मिलते हैं। रामानन्द जी ने विष्णु के विभिन्न रूपों में 'रामरूप' को ही लोक के लिए अधिक कल्याणकारी मानकर स्वीकार किया। भगवद् भक्ति में वे किसी प्रकार के भेदभाव को आश्रय नहीं देते थे। कर्म के क्षेत्र में शास्त्रमर्यादा इन्हें मान्य थी, पर उपासना के क्षेत्र में किसी प्रकार का लौकिक प्रतिबन्ध ये नहीं मानते थे। सब जाति के लोगों को एकत्र कर रामभक्ति का उपदेश ये करने लगे और रामनाम का महिमा ये सुनने लगे।1 हनुमान जी की प्रसिद्ध आरती 'आरती कीजै हनुमान लला की। दृष्टदलन रघुनाथ कला की।'' रामचन्द्र शुक्ल ने उक्त आरती को इन्हीं के द्वारा रचित माना है।
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तुलसी से पूर्व की राम-कव्यधारा के कवियों में विष्णुदास और ईश्वरदास का प्रमुख स्थान है। गोस्वामी विष्णुदास द्वारा 'भाषा वाल्मीकि रामायण की रचना चौपाई छन्दों में की गयी है। नागरी प्रचारिणी सभा के 1941-43 ई0 के खोज विवरण में 'वाल्मीकि रामायण' के हिन्दी रूपान्तर कर्ता के रूप में विष्णु दास का उल्लेख मिलता है।2 कवि ईश्वरकृत 'रामजन्म' सोलहवीं शती के उत्तरार्द्ध तुलसी के समकालीन स्वामी अग्रदास द्वारा 'राम का अष्टयाम' केशव की 'रामचन्द्रिका', सिख गुरू गोविन्द सिंह कृत 'रामायण' आदि रामकथा सम्बन्धी उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। तुलसीदास राम-काव्य-परम्परा के सर्वोत्कृष्ट कवि हैं। उनकी कृतियों में 'रामचरितमानस' का विशिष्ट स्थान है। लोकप्रियता की दृष्टि से यह हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ है।
कृष्णभक्ति-काव्य परम्परा के प्रमुख कवि सूरदास का भी राम-काव्य परम्परा में प्रमुख स्थान है। इन्होंने सूरसागर के नवम् स्कन्ध में राम-कथा के मार्मिक प्रसंगों पर सुन्दर पद रचना की है। तुलसीदास का 'रामचरितमानस' सात काण्डों में विभाजित है। सूर की रामकथा छः काण्डों से सम्बन्धित है- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्य काण्ड, किष्किंधा काण्ड, सुन्दरकाण्ड और लंकाकाण्ड।
तुलसीदास को रामकाव्य धारा का सर्वश्रेष्ठ कवि होने का श्रेय प्राप्त है। तुलसी की राम के प्रति अटूट निष्ठा थी इसीलिए उन्होंने कहा था, 'तुलसी मस्तकतव नवै, धनुष-बान लेहु हाथ।' परन्तु फिर भी उन्होंने 'श्रीकृष्ण गीतावली' का प्रणयन कर अपनी भक्ति में औदात्य का परिचय दिया। सूरदास भी कृष्ण-काव्य के प्रणेता हैं, फिर भी उन्होंने रामकाव्य की रचना की भले ही स्फुट रूप में ही। ये उनकी सहृदयता और भावुकता का प्रमाण है। सूरदास का उद्देश्य सम्पूर्ण रामकथा को पूर्वापर प्रसंग के साथ वर्णित करना नहीं था अपितु मार्मिक स्थलों को अभिव्यक्त करना था। मात्र 158 पदों में उन्होंने रामकथा के प्रमुख स्थलों की मार्मिक अभिव्यंजना की है। रामावतार की सम्पूर्ण को व्यवस्थित और विस्तृत ढंग से वर्णित न करके उन्होंने मार्मिक स्थलों पर स्फुट पद रचना की है और इन्हीं स्फुट पदों से रामकथा का ढाँचा तैयार हो गया है। 'सूरसागर' की मूल प्रेरणा 'श्रीमद्भागवत्' है और भागवत् में रामकथा का उल्लेख हुआ है, संभवतः सूरदास ने इसीलिए रामकथा का वर्णन किया होगा।
मानस में विस्तार से रामकथा कही गयी है, अतः वहाँ पारिवारिक जीवन का विस्तृत चित्रण है। सूर ने संक्षेप में ही पारिवारिक जीवन के सफल एवं आत्मीयता पूर्ण चित्र खींचे हैं। पारिवारिक जीवन के प्रसंगों में वात्सल्य प्रसंग, दाम्पत्य प्रसंग तथा भ्रातृत्तव प्रेम प्रसंग महत्वपूर्ण है।
वात्सल्य से दाम्पत्य पूर्णता पाता है। बिना वात्सल्य दाम्पत्य पुष्प विहीन पौधे की तरह होता है। जिसप्रकार पौधे में पुष्प आ जाने पर उसकी सुन्दरता अगणित हो जाती है, वृक्ष में फल आ जाने पर धरती पर उसका अंकुरित होना सार्थक हो जाता है, ठीक उसी प्रकार वात्सल्य से दाम्पत्य गौरवान्वित होता है। सन्तान के जन्म का अवसर माता-पिता तथा पूरे परिवार के लिए कितना आनन्द और उल्लासमय होता है, इसका सजीव अंकन सूरदास ने किया है। यद्यपि सूरसागर में श्री राम जन्म सम्बन्धी मात्र तीन पद हैं, परन्तु इतना ही संक्षिप्त वर्णन सम्पूर्ण भाव को प्रकट करने में समर्थ है। राजा दशरथ के यहाँ पुत्र जन्म का समाचार सुनकर भीड़ एकत्र हो जाती है। अयोध्या के लोग खुशी से भर उठे हैं, उनकी आँखों से आनन्द के आँसू बह रहे हैं-
आजु दसरथ के आँगन भीर।
ये भूभार उतारन कारन प्रगटे स्याम सरीर।
फूले फिरत अयोध्यावासी गनत न त्यागत चीर।
परिरंभन हँसि देत परस्पर आनंद नैननि नीर।
आजु दसरथ के आँगन भीर।
भए निहाल सूर सब जाचक जे जाँचे रघुबीर।3
श्री राम के साथ ही बधाई बजने लगती है। महिलाएं मंगलगीत गाने लगती हैं। दशरथ के आँगन में वैदिक ध्वनियाँ गूंजने लगती हैं-
अजोध्या बाजति आजु बधाई।
गर्भ मुच्यौ कौसिल्या माता रामचंद्र निधि आई।
गावैं सखी परस्पर मंगल रिषि अभिषेक कराई।
भीर भई दसरथ कै आँगन सामबेद धुनि दाई।4
राजा दशरथ के यहाँ आनन्दोत्सव मनाया जा रहा है। रघुकुल में राम प्रकट हुए हैं। देश-देश से उपहार आ रहे हैं। मंगलगीत गाये जा रहे हैं। सभी पुरवासी आनन्द में मग्न होकर नवजात शिशु को आशीर्वाद दे रहे हैं-
रघुकुल प्रगटे हैं रघुबीर।
देस देस तै टीकौ आयौ रतन कनक मनि हीर।
घर घर मंगल होत बधाई अति पुरबासिनि भीर।
रघुकुल प्रगटे हैं रघुबीर।
देत असीस सूर चिरजीवौ रामचंद्र रनधीर।5
राम का बाल रूप मन मुग्ध कर देने वाला है। राम के हाथ में नन्हा-सा धनुष सुशोभित हो रहा है। छोटे-छोटे पैरों में लाल पनहियां पहने हुए है। राम सहित चारों भाई ऐसे प्रतीत होते हैं मानों देह धारण कर चार हंस सरोवर में आ बैठे हों-
करतल सोभित बान धनुहियाँ।
खेलत फिरत कनकमय आँगन पहिरे लाल पनहियाँ।
दसरथ कौसिल्या के आगे लसत सुमन की छहियाँ।
मानौ चारि हंस सरबर तै बैठे आइ सदेहियाँ।6
इसी प्रकार-
धनुही बान लए कर डोलत।
चारौं बीर संग इक सोभित वचन मनोहर बोलत।
उनकी बाल-लीलाओं को देखकर राजा दशरथ और माता कौशल्या हर्ष-भग्न हो जाते हैं। सूरदास ने बाल-सुलभ भावों और चेष्टाओं का सहज-स्वभाविक चित्रण किया है। डॉ मुन्शीराम शर्मा के अनुसार, ''सूर की यह अनुपम विशेषता है कि वह स्वाभाविक बालदशाओं के चित्रण द्वारा सहज ही पाठकों के मन में रसोद्रेक कर देते हैं।7
हर पिता की यह आकांक्षा होती है कि उसका पुत्र बड़ा होकर उसका उत्तराधिकारी बने। श्रीराम के विवाह के पश्चात् दशरथ मन में यही विचार करते हैं कि राम को राज्य देकर स्वयं वानप्रस्थ ले लें। परन्तु कैकेयी वात्सल्य प्रेम के आधिक्यवश अपने पुत्र भरत को राज्य देने की हठ करती हैं-
महाराज दसरथ मन धारी।
अवधपुरी को राज राम दै लीजै ब्रत बनचारी।
यह सुनि बोली नारि कैकई अपनौ बचन सँभारौ।
चौदह वर्ष रहैं बन राघव छत्र भरत सिर धारौ।
यह सुनि नृपति भयौ अति व्याकुल कहत कछु नहिं आई।
सूर रहे समुझाइ बहुत पै कैकई हठ नहिं जाई।8
जिसके पुत्र को राजसी सुखों का परित्याग कर चौदह वर्षो तक वनवासियों की तरह कठिन जीवन-यापन की सजा दी जा रही हो उस पिता पर क्या बीतेगी? दशरथ भी कैकयी की बात सुनकर गहरे शोक में डूब गये। राम के वन गमन की कल्पना मात्र ही उन्हें व्याकुल कर देती है। अपने प्रिय पुत्र से बिछोह का समाचार सुनकर कौशल्या अत्यन्त दीन होकर नेत्रों से आँसू बहाने लगती हैं। वे समझ नहीं पाती हैं कि ये सब प्रत्यक्ष है अथवा स्वप्न-
महाराज दशरथ यौं सोचत।
हा रघुनाथ लछन वैदेही सुमिरि नीर दृग मोचत।
महाराज दशरथ यौं सोचत।
कौसिल्या सुनि परम दीन हृै नैन नीर ढरकाए।
विह्नल तन मन चकृत भई सो यह प्रतच्छ सुपनाए।9
राजा दशरथ ने अनेक युक्ति-उपाय तथा तपस्या के बाद प्रौढ़ावस्था में पुत्र-रत्न प्राप्त किए। इसलिए उनका अत्यधिक मोह स्वाभाविक है। राम को वन जाते देख उनका हृदय व्याकुल हो उठता है। वे चाहते हैं राम कम से कम एक दिन तो और रूक जायें ताकि कुछ समय और उनके मीठे वचन सुनले। वन जाने के पश्चात तो उनके दर्शन और वचन दोनों ही दुर्लभ हो जायेंगे-
रघुनाथ पियारे आजु रहौ हो।
चारि जाम बिस्राम हमारे छिन छिन मीठे वचन कहौ हो।
वृथा होहु वर वचन हमारौ कैकई जीव कलेस सहौ हो।
आतुर ह्नै अब छांडि कुसलपुर प्रान जिवन कित चलन कहौ हो।
बिछुरत प्रान पयान करैंगे रहौ आजु पुनि पंथ गहौ हो।10
पिता की आज्ञा को शिरोधार्य कर राम वन की ओर चल पड़ते हैं। राजा दशरथ को बहुत अधिक पश्चाताप होता है। वे पुनः इसी बात की चर्चा चलाते हैं-
फिरि फिरि नृपति चलावत बात।
कहु री सुमति कहा तोही पलटी प्रान जिवन कैसे बन जात।''
राम जब वन की ओर प्रस्थान करते हैं तो महाराज दशरथ ऊँचे भवन पर चढ़कर नेत्र भरकर पुत्र केंमुख को देखलेना चाहते हैं। राम को जाते देखकर उनकी आँखों में आँसू भर आते हैं और वे हा बेटा, हा बेटा कहकर बेहोश हो जाते हैं-
आजु रघुनाथ पयानो देत।
विहृल भए स्रवन सुनि पुरजन पुत्र पिता कौ हेत।
ऊँचे चढ़ि दशरथ लोचन भरि सुत मुख देखै लेत।
आजु रघुनाथ पयानो देत।
तात तात कहि बैन उचारत हृै गए भूप अचेत।12
कैकयी के वर माँगने पर राजा दशरथ के साथ ही सम्पूर्ण अयोध्या में विषाद का वातावरण छा गया। वनवास का वरदान मांगने की सूचना जैसे ही राम को पहुँची है, उन्होंने माता-पिता की आज्ञा पालन अपना सौभाग्य समझा और वन की ओर प्रस्थान किया। उन्हें वापस लाने के लिए सुमंत्र रथ लेकर गये। किन्तु राम ने उन्हें लौटा दिया। पुत्र वियोग के ताप से तप्त शरीर को दशरथ ने तत्काल त्याग दिया। सन्तान का वियोग माता-पिता के लिए असहनीय होता है-
तात वचन रघुनाथ माथ धरि जब बन गौन कियौ।
मन्त्री गयौ फिरावन रथ लै रघुबर फेरि दियौ।
भुजा छुड़ाई तोरि तृन ज्यों हित करि प्रभु निठुर हियौ।
यह सुनि तात तुरत तनु त्याग्यौ बिछुरन ताप तयौ।13
कौशल्या के हृदय की मार्मिक अभिव्यक्ति सूरदास ने की है। कौशल्या विलाप करती हुई कहती है कि राम को भरत के आने तक तो रोक लो-
रामहिं राखौ कोउ जाइ।
जब लौं भरत अजोध्या आवैं कहत कौसल्या माई।14
सुमित्रा का हृदय भी वात्सल्य भाव से पूर्ण है। उनके मन में राम के प्रति भी उतना ही स्नेह और ममत्व है जितना लक्ष्मण के प्रति। लक्ष्मण को शक्ति बाण लगने पर वे व्याकुल तो हो जाती हैं, परन्तु ये भी कहती हैं कि जो राम के काम आये ऐसे पुत्र को जन्म देकर मैं धन्य हो गयी-
धनि जननी जौ सुभटहिं जावै।
भीर परैं रिपु कौ दल दलि मलि कौतुक करि दिखरावै।
कौसिल्या सौं कहति सुमित्रा जनि स्वामिनि दुख पावै।
लछिमन जनि हौं भई सपूती रामकाज जो आवै।15
कौशल्या भी अपने ही पुत्र के लिए व्याकुल नहीं है। परिवार के प्रत्येक सदस्य के प्रति उनके मन में उतना ही स्नेह है, जितना राम के प्रति। हनुमान से लक्ष्मण के मूर्च्छित होने का समाचार वे अत्यन्त दुखी हो जाती हैं। और हनुमान के द्वारा राम को संदेश कहलाती हैं कि राम लक्ष्मण के साथ ही अयोध्या लौटें अन्यथा स्वयं को भी लक्ष्मण पर वार दें-
सुनौ कपि कौसिल्या की बात।
इहिं पुर जनि आवहु मम वत्सल बिनु लछिमन लघु भ्रात।
सुनौ कपि कौसिल्या की बात।
लछिमन सहित कुसल वैदेही आनि राजपुर कीजै।
नातरू सूर सुमित्रा सुत पर वारि अपुनपौ दीजै।16
ये वात्सल्य प्रेम की उदात्त स्थिति है। जहाँ 'मैं'' और 'पर' का भाव समाप्त होकर 'जग सुत' 'स्व सुत' से लगने लगते है। यही एकता का भाव संयुक्त परिवारों की सफलता का आधार भी था। जहाँ केवल अपना नहीं सबका हित देखा जाता था। यही कारण है कि सुमित्रा रामकाज हित बलिदान हो जाने में ही लक्ष्मण का जीवन सफल समझती हैं। तो दूसरी और कौशल्या चाहती हैं कि राम लक्ष्मण के साथ ही घर आयें। यह सम्बन्धों की आदर्श स्थिति है, जहाँ त्याग, उत्सर्ग और प्रेम ही प्रधान होता है। उदात्त वात्सल्य प्रेम का ऐसा अनोखा दृश्य अन्यत्र दुर्लभ है।
कौशल्या राम और लक्ष्मण के लिए कौए से शवुन विचारती हैं। एक भारतीय माँ का पूर्ण रूप यहाँ प्रकट होता है जो किसी भी स्थिति में कैसे भी अपनी सन्तान का हित चाहती है-
बैठी जननि करति सगुनौती।
लछिमन राम मिलैं अब मोकौ दोउ अमोलक मोती।
इतनी कहत सुकाग उहां तैं हरी डार उड़ि बैठयौ।
अंचल गाँठि दई दुख भाज्यौ सुख जु आनि उर पैठयौ।
बैठी जननि करति सगुनौती।
सूरदास सोने कैं पानी मढ़ौं चोंच अरू पाँखें।17
कौशल्या अपने दोनों पुत्रों के लिए उतनी ही व्याकुल है। परन्तु वे पहले लक्ष्मण का ही नाम लेती हैं ''लछिमन राम मिलैं अब मोकौ'' ये उनके उदात्त वात्सल्य रूप का ही परिचायक है। राम-लक्ष्मण के अयोध्या आगमन का समाचार सुनकर कौशल्या और सुमित्रा का मन उनसे मिलने के लिए उसी प्रकार व्याकुल हो उठता है, जिस प्रकार गाय दिन भर अपने बछड़े से दूर रहती है और शाम होते ही वात्सल्य के आधिक्य के कारण स्वतः उसके थनों से पय धार बहने लगती है। वैसे ही उन दोनों माताओं के हृदय में पुत्र प्रेम की धारा उमड़ पड़ती है-
अति सुख कौसिल्या उठि धाई।
उदित बदन मन मुदित सदन तै आरति साजि सुमित्रा ल्याई।
जनु सुरभी बन बसति बच्छ बिनु परबस पसुपति की बहराइ।
चली साँझ समुहाइ स्रवत थन उमगि मिलन जननी दोउ आई।18
महाकवि सूरदास मानव-मन के ज्ञाता थे। पुरूष होते हुए भी माँ के मन की कोमलता और भावुकता से सम्पन्न थे, तभी तो मातृ हृदय का सजीव अंकन करने में सफल हो सके।
सूरदास ने दाम्पत्य जीवन के बड़े ही स्वाभाविक चित्र अपने रामकाव्य में अंकित किए हैं। सूर की अन्तर्दृष्टि गार्हस्थ के प्रत्येक पक्ष पर पड़ी। गार्हस्थ के मूलाधार श्रृंगार और वात्सल्य दोनों के चित्रण में सूर को अद्भुत सफलता मिली है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, ''वात्सल्य और श्रृंगार के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने अपनी बन्द आँखों से किया है, उतना किसी अन्य कवि ने नहीं। इन क्षेत्रों का वे कोना-कोना झांक आये हैं।'' 19 वात्सल्य और श्रृंगार रस का जैसा सांगोपांग और मनोवैज्ञानिक चित्रण सूर ने किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। सूर ने विभिन्न भावों की अभियुक्ति अनूठी उक्तियों के रूप में की है। फलतः वे हृदय को सीधे प्रभावित करती हैं। उनके वाग्वैदग्ध्य को लक्ष्य करके ही कहा गया है कि-
किंधौं सूर को सर लग्यौ, किंधौं सूर की पीर।
किंधौं सूर को पद लग्यो, तन मन धुनत सरीर।।
सूरदास ने रामकाव्य में दाम्पत्य जीवन के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का चित्रण किया है। चूंकि राम का मर्यादा पुरूषोत्तम रूप ही सर्वग्राह्नय है इसलिए सूरदास ने रामकाव्य के अन्तर्गत दाम्पत्य जीवन का अति आदर्श रूप ही प्रस्तुत किया है।
राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र यज्ञ की रक्षार्थ अपने साथ ले जाते हैं। वहाँ राम ताड़का का वध कर यज्ञ पूर्ण कराते हैं। धनुष-यज्ञ में भाग लेने के निमित्त विश्वामित्र दोनों भाइयों को मिथिला लेकर जाते हैं। सीता जी जब राम का दर्शन करती हैं तो उनके हृदय में प्रेमभाव उत्पन्न हो जाता है। उनकी आँखें पुनः श्रीराम का रूप निहारना चाहती हैं। सीता जी उनके मुख की ओर देखकर भगवान से प्रार्थना करती हैं-
चितै रघुनाथ बदन की ओर।
रघुपति सौं अब नेम हमारौ विधि सौं करति निहोर।20
सीताजी मन ही मन पिता की प्रतिज्ञा को कठिन जानकर व्याकुल हो रही हैं-
तात कठिन प्रन जानि जानकी आनति नहिं उर धीर।
पानिग्रहन रघुबर बर कीन्हौ जनकसुता सुख दीन।21
नर-नारी से सम्बन्धित रति-भाव ही 'श्रृंगार रस' को निष्पन्न करता है। यही मनुष्य जीवन की प्रमुख भावना है और ये भावना इतनी बलबती होती है कि सहज ही अपने में आबद्ध कर लेती है। रामधारी सिंह 'दिनकर' ने उर्वशी में ठीक ही लिखा है-
इन्द्र का आयुध पुरूष जो झेल सकता है,
सिंह से बांहें मिलाकर खेल सकता है,
फूल के आगे वही असहाय हो जाता,
शक्ति के रहते हुए निरूपाय हो जाता।
बिद्ध हो जाता सहज बंकिम नयन के बाण से,
जीत लेती रूपसी नारी उसे मुस्कान से।
सूरदास ने प्रणय की इस भावना का बड़ा विस्तृत चित्रण किया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, 'प्रेम नाम की मनोवृत्ति का जैसा विस्तृत और पूर्ण परिज्ञान सूर को था वैसा और किसी कवि को नहीं।
प्रेम तत्व की पुष्टि में ही सूर की वाणी मुख्यतः प्रयुक्त जान पड़ती है। रति भाव के तीनों प्रबल और प्रधान रूप भगवइिषयक रति, वात्सल्य और दाम्पत्य रति-सूर ने लिए है।''22 परस्पर प्रणय भाव ही स्त्री-पुरूष को शारीरिक और मानसिक स्तर पर एकता के सूत्र में बाँधता है। सूरदास ने कंकण मोचन के अवसर पर सीता और राम की श्रृंगारिक भावना का बड़ा स्वाभाविक चित्रण किया है। प्रिया के प्रथम स्पर्श से राम के मन में सात्विक अनुभाव जाग्रत हो जाता है और उनके हाथ कांपने लगते हैं-
कर कंपै कंकन नहिं छूटै।
राम सिया कर परस मगन भए कौतुक निरखि सखी सुख लूटैं।23 पति-पत्नी सुख-दुःख के सच्चे साथी होते हैं। परस्पर त्याग, समर्पण और सहयोग दाम्पत्य का मूलाधार है। इसीलिए जब राम चौदह वर्षो के लिए वन जाते है, तो सीता भी उनकी अनुगामिनी होने के कारण उनके साथ जाना चाहती हैं। परन्तु राम वन के कष्टों को देखते हुए उन्हें जनकपुर जाने की सलाह देते हैं-
तुम जानकी जनकपुर जाहु।
कहाँ आनि हम संग भरमिहौ गहबर वन दुख सिंधु अभाहु।
तजि वह जनकराज भोजन सुख कत तृन तलप विपिन फल खैहो।
ग्रीषम कमल बदन कुम्हिलैहै तजि सर निकट दूरि कित न्हैहौ।
तुम जानकी जनकपुर जाइ।
सूर सत्य जो पतिव्रत राखौ संग चलौ जनि उतहीं जाहु।24
राम जहाँ सीता को कष्टों में नहीं डालना चाहते हैं वहीं सीताजी भी अपना पतिव्रत धर्म निभाते हुए कहती हैं, ऐसे सुखों से क्या लाभ जिसमें पति का साथ न हो। मेरा सच्चा सुख तो आपके चरण कमलों में है। पति के सुख-दुःख में साथ निभाने वाली पत्नी ही सच्चे अर्थो में अर्द्धांगिनी होती है। अतः आपसे दूर रहकर मैं कहाँ सुख पा सकूँगी-
ऐसो जिय न धरौ रघुराह।
तुम सौ प्रभु तजि मो सी दासी अनत न कहूँ समाइ।
तुमरौ रूप अनूप भानु ज्यौं जब नैननि भरि देखौं।
ता छिन हृदय कमल परफुल्लित जनम सफल करि लेखौं।25
महलों में रहने वाले राजीव लोचन श्री राम अपनी सुकोमल पत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण को लेकर वन-वन घूमते फिरते हैं, इससे अधिक मार्मिक दृश्य और क्या हो सकता है? सूरदास ने भी इस मार्मिक दृश्य का भावपूर्ण अंकन किया है। जिस प्रकार 'रामचरित मानस' के अयोध्याकाण्ड में श्री राम, सीता और लक्ष्मण वन-पथ पर जा रहे हैं, गाँव की वधुएँ सीताजी से श्रीराम के बारे में पूछती हैं-
कोटि मनोज लजावनिहारे। सुमुखि कहहु को आहिं तुम्हारे।
सुनि सनेहमय मंजुल बानी। सवुची सिय मन महुँ मुसुकानी।
ठीक इसी प्रकार सूरदास ने भी ग्राम वधुओं का सन्निवेश किया है। ग्रामीण स्त्रियां सकुचाती हुई सीताजी से पूछती हैं-
सखी री कौन तिहारे जात।
राजिव नैन धनुष कर लीन्हैं बदन मनोहर गात।26
ग्राम-वधुएँ बहुत ही मधुर वाणी में सीताजी से हँसकर पूछती हैं कि कौन तुम्हारे स्वामी और कौन देवर हैं-
कौन बरन तुम देवर सखिरी कौन तिहारौ नाथ।
कति तट पट पीतांबर काछे धारे धनु तूनीर।
गौर बरन मेरे देवर सखि पिय मम स्याम सरीर।27
दाम्पत्य सम्बन्धें में वियोग का भी अपना महत्वपूर्ण स्थान है। जब प्रिय दूर होता है, तभी प्रेम की गहराई और प्रिय की महत्ता का सही पता चल पाता है। विरह प्रेम को प्रगाढ़ करता है। सीताहरण के पश्चात् रामविलाप से प्रकट होता है कि प्रिय से विछोह की पीड़ा क्या होती है।
राम स्वर्ण-मृग रूपी मारीच को मारने उसके पीछे चले गये। मारीच तो मारा गया परन्तु उसने मरते-मरते राम की आवाज बनाकर 'हा लक्ष्मण' क्रन्दन किया। सीता ने आशंकावश लक्ष्मण को राम के पास भेज दिया। सीता को अकेला पाकर रावण ने छलपूर्वक उनका हरण कर लिया-
मृग स्वरूप मारीच धरयौ तब फेरि चल्यौ मारग जो दिखाई।
श्री रघुनाथ धनुष कर लीन्हौ लागत बान देव गति पाई।
हा लछिमन सुनि टेर जानकी बिकल भई आतुर उठिधाई।
मृग स्वरूप मारीच धरयौ तब फेरि चल्यौ मारग जो दिखाई।
हरि सीता लै चल्यौ डरत जिय मानौ रंक महानिधि पाई।28
मर्यादा पुरूषोत्तम धीर-वीर-गम्भीर श्री राम सीता के विरह में करूण विलाप करते हैं। भाव - विद्धल सूरदास का करूणार्द्र हृदय कह उठता है-
रघुपति कहि प्रिय नाम पुकारत।
हाथ धनुष लै मुक्त मृगहिं किए चकृत भए दिशि विदिशि निहारत।
निरखत सून भवन जड़ है रहे खिन लोटत धर बपु न सँभारत।
हा सीता सीता कहि सियपति उमगि नयन जल भरि भरि ढारत।29
सीता-हरण से राम का दुःख के सागर में डूब जाना स्वभाविक ही है। तुलसी ने राम की विरह वेदना को अभिव्यक्त करते हुए लिखा है-
हे खग हे मृग हे मधुकर श्रेनी।
तुम देखी सीता मृगनयनी।
सूर भी कहते हैं-
फिरत प्रभु पूछत बन द्रुम बेली।
अहो बंधु काहू अवलोकी इहिं मग वधू अकेली।
अहो बिहंग अहो पभगनृप या कंदर के राई।
अब की बार मम विपति मिटावौ जानकि देहु बताइ।30
राम सीता के वियोग में एक साधारण मानव की तरह विलाप करते हैं। ये उनके परस्पर प्रगाढ़ प्रेम का प्रतीक है। रामनिरंजन पाण्डेय के अनुसार, ''राम में भी सीता के हरण के पश्चात्, उनके वियोग की गुरूता कम नहीं। स्वयं सूर वियोग की उस गुरूता को देखकर असमंजस में पड़ जाते हैं और कहने लगते हैं, जगत् गुरू राम की गति अद्भुत है। विचार अपनी सीमा के भीतर उस गति को बाँध नहीं सकता, अनन्त राम भी कामवश होकर करूणा से इस प्रकार पीड़ित हो सकते हैं, यह बात कल्पना में भी नहीं आ सकती, पर राम में देखी अवश्य जाती है।'' 31
सूर की सीता मनवच क्रम से रावण के सन्मुख भी दृढ़ रहती हैं। सीता का राम के प्रति अटूट प्रेम है। वे त्रिजटा से कहती हैं कि भले ही सुमेरू पर्वत डोल जाये, धरती को धारण करने वाले शेष नाग के फन कांपने लगें, सूर्य पश्चिम दिशा से उदित हो जाये फिर भी राम के प्रति मेरा प्रेम नहीं छूट सकता-
मैं तो राम चरन चित दीन्हौं।
मनसा वाचा और कर्मना बहुरि मिलन को आगम कीन्हौं।
उुलै सुमेरू सेष सिर कंपै पच्छिम उदै करै बासरपति।
सुनि त्रिजटा तौहूँ नहिं छाड़ौं मधुर मूर्ति रघुनाथ गात रति।32
सीता का प्रेम केवल राम तक ही सीमित नहीं है बल्कि प्रिय का प्रिय होने के कारण पूरा परिवार उनके लिए प्रिय है। परस्पर एक-दूसरे के परिवार का सम्मान दाम्पत्य सम्बन्धों को और अधिक मजबूत और मधुर बनाता है। दुःख की इस घड़ी में सीता परिवारी जनों का स्मरण करती हैं-
सो दिन त्रिजटा कहि कब ऐहै।
जा दिन चरन कमल रघुपति के हरषि जानकी हृदय लगैहे।
कबहुँक लछिमन पाइ सुमित्रा माइ माइ कहि मोहि सुनैहै।
कबहुँक कृपावंत कौसिल्या वधू-वधू कहि मोहि बुलैहै।33
सूर सहृदय कवि हैं, गोपियों की विरह व्यथा से पहले ही उनका हृदय विदीर्ण था सीता के कष्टों को देखकर तो उनका हृदय धैर्य की सीमा ही छोड़ देता है। गोपियों ने केवल कृष्ण का विरह झेला। सीता प्रिय का वियोग भी सहती हैं और परपुरूष के वश में रहकर तरह-तरह के कष्ट सहकर भी पातिवृत्य की रक्षा करती हैं। विरह में कभी-कभी प्रेमी अपने प्रिय को उलाहना भी देता है। ये उलाहना पीड़ादायी नहीं बल्कि प्रेरणादायी होता है ताकि विरह व्यथा का अनुमान करके प्रिय उससे मिलने का उपक्रम कर सके। इसी लिए गोपियाँ कृष्ण के प्रति कहती हैं-
हरि सों भलो सो पति सीता को।
बन-बन खोजत फिरत बंधु संग, कियो सिंधु बीतो को।
रावन मार्यो, लंका जारी, मुख देख्यो सीता को।
श्री राम के चरणों में रत सीता का कोमल हृदय विरह वेदना से व्याकुल हो उठा है। राम बिन एक-एक पल, एक-एक क्षण व्यतीत नहीं होता। जिनकी छत्रछाया में रहकर वन के कंटक और आपदाएँ भी उन्हें सुखकारी प्रतीत हो रहे थे। आज उन्हीं स्वामी से दूर होना सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात है। राम अतिशीघ्र रावण को मारकर उन्हें यहाँ से मुक्त करायें इसी आकांक्षा से वे हुनमान से उलाहना देती हुई कहती हैं-
सुनु कपि वै रघुनाथ नहीं।
जिन रघुनाथ पिनाक पिता गृह तोरयौ निमिष महीं।
जिन रघुनाथ फेरि भृगुपति गति डारी काटि तहीं।
जिन रघुनाथ हाथ खर दूषन प्रान हरे सरहीं।
कै रघुनाथ तज्यौ प्रन अपनौ जोगिनि दसा गही।
सुनु कपि वै रघुनाथ नहीं।
सूरदास स्वामी सौं कहियौ अब बिरमाहिं नहीं।34
सीता अपने दुःख निवारण हेतु राम से विनय करती हैं-
कहियौ कपि रघुनाथ राज सौं सादर यह इक बिनती मेरी।
नाहीं सही परति मोपै अब दाऊन त्रास निसाचर केरी।
कहियौ कपि रघुनाथ राज सौं सादर यह इक बिनती मेरी।
सूर सनेह जानि करूनामय लेहु छुड़ाइ जानकी चेरी।35
पत्नी हर स्थिति में पति का हित चाहती है। मंदोदरी रावण के भावी विनाश से आशंकित है। मंदोदरी रावण को समझाती है कि सीता को ससम्मान ले जाकर वापस कर दो। वह आदर्श पत्नी की भांति कहती है-
आयौ रघुनाथ बली सीख सुनौ मेरी।
सीता लॅै जाइ मिलौ पति जु रहे तेरी।
तैं जु बुरौ कर्म कियौ सीता हरि ल्यायौ।
इसी प्रकार-
रे पिय लंका बनचर आयौ।
करि परपंच हरी तैं सीता कंचन कोट ढहायौ।
रे पिय लंका बनचर आयौ।
ऊँची धुजा देखि रथ ऊपर लछिमन धनुष चढ़ायौ।
गहि पद सूरदास कहै भामिनि राज विभीषन पायौ।36
इस प्रकार सूरदास ने संक्षेप में ही सही दाम्पत्य जीवन की सुन्दर झांकी प्रस्तुत की है। जिस प्रकार सोना आग में तपकर शुद्ध हो जाता है उसी प्रकार कष्टों और बाधाओं को मिलकर सहने से दाम्पत्य सम्बन्ध प्रगाढ़ हो जाते हैं। शरीर का स्थान गौड
होता जाता है, सुख-दुःखानुभूति के लिए मन मिलकर एक हो जाते हैं। सूरदास ने दाम्पत्य सम्बन्धों प्रेम और विरह दोनों का सजीव चित्रण किया है। डॉ0 मुन्शी राम के अनुसार ''एक और जीवन के सौन्दर्य एवं माधुर्य प्रधान अंश का चित्रण करके खिन्न हृदयों को सान्त्वना तथा जीवन से उदासीन और विरक्त व्यक्तियों को आशा प्रदान की है तो दूसरी ओर अन्तर्हृदय के चित्रण में वियोग-व्यथा का व्यापक वर्णन करके एकनिष्ठ प्रेम द्वारा मानव को जीवन की जटिल पहेलियों को सुलझाने का मार्ग भी प्रशस्त्र किया है।''37
पारिवारिक सम्बन्धों में भ्रातृत्व सम्बन्धों का अपना विशिष्ट स्थान है। भ्रातृ प्रेम के कारण ही लक्ष्मण राम के साथ वन जाना चाहते हैं। राम उन्हें समझाते हैं, ''तुम लक्ष्मन निज पुरहि सिधारो'' कह कर उन्हें नगर में ही रूकने की सलाह देते हैं और वे विह्नल होकर भी राम के चरणों से लिपट जाते हैं। प्रभु अन्तर्यामी हैं लक्ष्मण के मुख से मन की बात जानकर उन्हें अपने साथ ले चलते हैं-
लछिमन नैन नीर भरि आए।
उत्तर कहत कहू नहिं आयौ रह्यौ चरन लपटाए।
अंतरजामी प्रीति जानि कै लछिमन लीन्हौ साथ।38
चित्रकूट में राम और भरत का मिलाप भ्रातृत्तव प्रेम का एक आदर्श उदाहरण है। तुलसी के भरत की तरह सूर के भरत भी राममय हैं, राम के बिना उनका कोई अस्तित्व नहीं है। माता द्वारा किए कृत्य से उन्हें अपार ग्लानि होती है और उनका मन पश्चाताप की अग्नि में जलने लगता है। राम के समान भाई को भरत के कारण वन-वन भटकना पड़े, इससे बढ़कर भरत के लिए दूसरा पाप और क्या हो सकता है। राज्य उन्हें अग्नि के समान दाहक लगने लगता है। पश्चाताप की ज्वाला उन्हें भीतर ही भीतर जलाये जा रही है। भरत और शत्रुघ्न की दशा का वर्णन करते हुए सूरदास कहते हैं-
तै कैकई कुमन्त्र कियौ।
अपने सुख करि काल हँकारयौ हठ करि नृप अपराध लियौ।
श्रीपति चलत रह्यौ कहि कैसे तेरौ पाहन कठिन हियौ।
मो अपराधी के हित कारन तै रामहिं बनबास दियौ।
कौन काज यह राज हमारै इहि पावक परि कौन जियौ।
लोटत सूर धरनि दोउ बंधु मनौ तपत विष विषम पियौ।39
राम की भक्ति और स्नेह में डूबा भरत का हृदय द्रवीभूत हो जाता है। भरत कहते हैं, सेवक को राजन स्वामी का वन, विधाता ने ये सब उल्टी बातें कब लिख दी। जिस प्रकार चकोर चन्द्रमा को देखकर, जीवन पाता है उसी प्रकार श्रीराम का कमलमुख हमारे प्राणों का पोषक है-
राम जू कहाँ गए री माता।
सूनौ भवन सिंहासन सूनौ नाहीं दसरथ ताता।
धिग तव जनम जियन धिग तेरौ कही कपट मुख बाता।
सेवक राज नाथ वन पठए यह कब लिखी विधाता।
मुख अरविन्द देखि हम जीवत ज्यौं चकोर ससि राता।
सूरदास श्रीराम चन्द्र बिनु कहा अजोध्या नाता।40
भरत को राज्य पाकर न कोई खुशी है न अभिमान, उन्हें तो बस एकही सोच है कि राम वापस कैसे आयेंगे। मन ही मन यही विचार करते हुए भरत राम से मिलने जा रहे हैं-
राम पै भरत चले अकुलाइ।
मनहीं मन सोचत मारग मैं दई फिरैं क्यौं राघवराइ।
देखि दरस चरननि लपटाने गदगद कंठ न कछु कहि जाइ।
लीनौ हृदय लगाइ सूर प्रभु पूछत भद्र भए क्यौं भाई।41
वन में भरत को मुंडित केश देखकर राम-सीता विलाप करने लगते हैं। आँखों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगती है। पिता की मृत्यु का समाचार सुनकर राम मुरझाकर धरती पर गिर पड़ते हैं-
भ्रात मुख निरखि राम बिलखाने।
मुंडित केस सीस बिहवल दोउ उमँगि कंठ लपटाने।
तात मरन सुनि स्रवन कृपानिधि धरनि परे मुरझाइ।
मोह मगन लोचन जलधारा विपति न हृदय समाइ।
लोटति धरनि परी सुनि सीता समुझति नहिं समुझाइ।
दारून दुख दवा ज्यौं तृन बन नाहिंन बुझति बुझाइ।
दुरलभ भयौ दरस दसरथ कौ सो अपराध हमारे।
सूरदास स्वामी करूनामय नैन न जात उघारे।42
युद्धभूमि में शक्ति बाण लगने से लक्ष्मण मूर्च्छित हो जाते हैं। लक्ष्मण को मृत्यु के मुँह में देखकर राम स्वयं को असहाय समझने लगते हैं क्योंकि विपत्ति के समय भाई ही सच्चा सहायक होता है। राम की आँखों से आँसू रोके नहीं रूकते हैं-
निरखि मुख राघव धरत न धीर।
भए अरून बिकराल कमल दल लोचन मोचन नीर।
बारह बरष नींद है साधी तातै बिकल सरीर।
बोलत नहीं मौन कहा साध्यौ विपति बँटावन वीर।
दसरथ मरन हरन सीता कौ रन बैरिनि की भीर।
दूजौ सूर सुमित्रासुत बिनु कौन धरावै धीर।43
राम का हृदय मानवीय भावों से ओत-प्रोत है। पारिवारिक रिश्ते-नाते उनके लिए अति मूल्यवान हैं। लक्ष्मण की दशा देखकर वे साधारण मानव की तरह विलाप करने लगते हैं। ये सभी चिन्ता है कि यदि मैं भी प्राण-त्याग दूँगा तो जानकी भी जीवित नहीं रहेंगी और विभीषण जो उनकी शरण में आया उसका क्या होगा इसकी चिन्ता भी उन्हें व्याकुल कर रही है-
अब हौं कौन कौ मुख हेरौं।
रिपु सैना समूह जल उमड़यौ काहि संग लै फैरौं।
दुख समुद्र जिहिं वार पार नहिं तामैं नाव चलाई।
नाहीं भरत सत्रुघन सुंदर जिनसौं चित्त लगायौ।
बीचहिं भई और की औरै भयौ सत्रु कौ भायौ।
मैं निज प्रान तजौंगौ सुनि कपि तजिहिं जानकी सुनिकै।
ह्नै है कहा विभीषन की गति यहै सोच जिय गुनि कै।
बार बार सिर लै लछिमन कौ निरखि गोद पर राखैं।
सूरदास प्रभु दीन वचन यौं हनुमान सौं भाषै।
ईश्वरीय अवतार होते हुए भी राम को अपनी शक्ति और सामर्थ्य पर अभिमान नहीं है। वे अपने सेवक, मित्र, सहयोगी, शरणागत, जन्मभूमि, स्वदेशवासियों यहाँ तक कि वहाँ की प्रकृति से भी अत्याधिक प्रेम करते हैं। लक्ष्मण को शक्ति बाण लगते ही वे अधीर होकर अपने प्रिय सहयोगी हनुमान को पुकार उठते हैं-
कहाँ गयौ मारूत पुत्र कुमार।
हृै अनाथ रघुनाथ पुकारैं संकट मित्र हमार
इतनी विपत्ति भरत सुनि पावैं आवैं साजि बरूथ।
कर गहि धनुष जगत कौं जीतैं कितिक निसाचर जूथ।
नाहिन और बियौ कोउ समरथ जाहि पठावौं दूत।
को अबहीं पौरूष दिखरावै बिना पौन के पूत।45
श्रीराम कौ हनुमान की शक्ति पर पूरा भरोसा है। वे कहते हैं कि जब भी कभी मुझे तुम्हारी आवश्यकता हुई, तुमने मेरा त्रास दूर किया। वन में रहकर तुमने हर प्रकार से हमारी सहायता की और वन की विपत्तियों एवं दुःखों का निवारण किया। राम के करूण वचन सुनकर हनुमान कह उठते हैं-
रघुपति मन संदेह न कीजै।
मो देखत लछिमन क्यौं मरिहैं मोको आज्ञा दीजै।
कहौ तो सूरज उगन देउं नहिं दिसि दिसि बाढ़ै ताम।
कहौ तौ गन समेत ग्रसि खाऊँ जमपुर जाइ न राम।
कहौ तौ कालहिं खंडखंड करि टूक टूक करि काटौं।46
श्रीराम की दृष्टि प्रेम और भक्ति भाव सर्वोपरि है। इसीलिए तो उन्होंने शबरी का अतिथ्य स्वीकार किया और उसके द्वारा प्रेम पूर्वक दिए झूठे बेर भी ग्रहण किए। राम ने उसके सद्व्यवहार और निष्ठा से प्रसन्न होकर उसे परमधाम जाने का वरदान प्रदान किया-
सबरी आश्रम रघुबर आए।
अरधासन दै प्रभु बैठाए।
खाते फल तजि मीठे ल्याई।
जूंठे भए सो सहज सुभाई।
अंतरजामी, अति हित मानैं।
भोजन कीने स्वाद बखनैं।
जाति न काहू की प्रभु जानत।
भक्ति भाव हरि जुग जुग मानत।47
यद्यपि सूर कृष्ण काव्यधारा के शिरोमणि कवि हैं, परन्तु उन्होंने 'सूरसागर' के नवम् सर्ग में रामकथा के मार्मिक प्रसंगों पर सुन्दर पद रचना करके आपसी सम्बन्धों का आदर्श रूप प्रस्तुत किया है। भले ही तुलसी रामकथा के मूर्हन्य गायक हैं फिर भी सूर के रामकाव्य का भी ऐतिहासिक महत्व है। सूर महाकवि थे। उनका हृदय उदान्त और विशाल था। वे कृष्ण के भक्त थे पर उनके मन में राम के प्रति भी आदर और भक्तिभाव था। इसीलिए सूरदास की रचनात्मकता का उत्कृष्ट रूप रामकाव्य में भी प्रकट हुआ है। सूरसागर (भाग 1) की भूमिका में सम्पादक द्वय ने सूर के रामकाव्य पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि, ''सूर के रामकाव्य में रामकथा के लोकश्रुत, विशेषकर भागवतोक्त रूप को प्रश्रृय मिला है। इन पदों में राम जन्म, बाल-क्रीड़ा, धनुर्भंग, केवट-प्रसंग, पुरवधू-प्रश्न, भरत-भक्ति, सीता-हरण, रामविलाप, हनुमान द्वारा सीता की खोज, हनुमान-सीता संवाद, रावण-मन्दोदरी संवाद, लक्ष्मण के शक्ति लगने पर राम का विलाप, हनुमान का संजीवनी लाना, सीता की अग्नि परीक्षा और राम का अयोध्या-प्रवेश आदि ऐसे स्थल हैं जिन्हें सूरदास की अनुभूति का योग प्राप्त हो सका है.......................कृष्ण लीला की वर्णन प्रवृत्ति के कारण सूरदास द्वारा प्रस्तुत रामकथा के उन प्रसंगों को ही सूरदास की अनुभूति का योग प्राप्त हो सका है, जो करूण और कोमल भावों को पल्लवित करते हैं। सूरदास तुलसी के समान राम के शौर्य, पौरूष, धैर्य और पराक्रम के प्रति आकृष्ट नहीं होते। वे पूरी रामकथा में संवेदनशील भावों की ओर सहज ही उन्मुख हो जाते हैं। रामकथा की सामान्य प्रवृत्ति के अनुरूप प्रत्येक पात्र आदर्श की भूमि पर ही अवतरित हुआ है।''48 यही कारण है। सूरदास के रामकथा सम्बन्धी स्फुट पदों में पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों का उदात्त एवं आदर्श रूप चित्रित है। सूरदास का सम्पूर्ण काव्य मुक्तक शैली में लिखा गया है। रामकथा सम्बन्धी पद मुक्तक शैली लिखा गया है। रामकथा सम्बन्धी पद मुक्तक शैली में होते हुए भी कथाक्रमानुसार व्यवस्थित होने के कारण प्रबन्धात्मकता की प्रतीति कराते है।
सन्दर्भ
1. हिन्दी साहित्य का इतिहास पृ0 79 रामचन्द्र शुक्ल
2. हिन्दी साहित्य का इतिहास - पृ0 176, सम्पादक डॉ0 नगेन्द्र
3. सूरसागर (प्रथम भाग) नवम् स्कन्ध, पृ0 248, पद सं0 16- सम्पादक तथा अनुवादक-डॉ0 हरदेव बाहरी, डॉ0 राजेन्द्र कुमार- लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद।
4. उपरोक्त, पद सं0 17
5. उपरोक्त, पद सं0 18
6. उपरोक्त, पद सं0 19
7. सूरसौरभ भाग 2, खण्ड 2, पृ0 सं0 68-डॉ मुन्शीराम शर्मा
8. सूरसागर, पृ0 सं0 253 - 254, पद सं0 30
9. उपरोक्त, पद सं0 254, पद सं0 31
10. उपरोक्त, पद सं0 32
11. उपरोक्त, पद सं0 256, पद सं0 38
12. उपरोक्त, पद सं0 39
13. उपरोक्त, पद सं0 260, पद सं0 47
14. उपरोक्त, पद सं0 48
15. उपरोक्त, पद सं0 314, पद सं0 153
16. उपरोक्त, पद सं0 316, पद सं0 154
17. उपरोक्त, पद सं0 318, पद सं0 165
18. उपरोक्त, पद सं0 322, पृद सं0 170
19. सूरदास, पृ0 167- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
20. सूरसागर, पृ0सं0-250, पद सं0 23
21. उपरोक्त, पद सं0 252, पद सं0 26
22. सूरदास पृ0 सं0 4 तथा 18, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
23. सूरसागर, पृ0सं0 250, पद सं0 25
24. उपरोक्त, पृ0सं0 254, पद सं0 34
25. उपरोक्त, पृ0सं0 254, पद सं0 35
26. उपरोक्त, पृ0सं0 258, पद सं0 44
27. उपरोक्त, पृ0सं0 258, पद सं0 45
28. उपरोक्त, पृ0सं0 264, पद सं0 59
29. उपरोक्त, पृ0सं0 266, पद सं0 63
30. उपरोक्त, पृ0सं0 266, पद सं0 65
31. रामभक्ति शाखा- पृ0 405, रामनिरंजन पाण्डेय
32. सूरसागर, पृ0 276, पद सं0 83
33. उपरोक्त, पृ0 276, पद सं0 82
34. उपरोक्त, पृ0सं0 284, पद सं0 92
35. उपरोक्त, पृ0सं0 284, पद सं0 92
36. उपरोक्त, पृ0सं0 298, पद सं0 120
37. सूर सौरभ भाग 2, खण्ड 2, पृ0 सं0 128-डॉ0 मुन्शी राम शर्मा
38. सूरसागर, पृ0सं0 256, पद सं0 37
39. उपरोक्त, पृ0सं0 260, पद सं0 49
40. उपरोक्त, पृ0सं0 262, पद सं0 50
41. उपरोक्त, पृ0सं0 262, पद सं0 52
42. उपरोक्त, पृ0सं0 262, पद सं0 53
43. उपरोक्त, पृ0सं0 310, पद सं0 146
44. उपरोक्त, पृ0सं0 310, पद सं0 147
45. उपरोक्त, पृ0सं0 310, पद सं0 148
46. उपरोक्त, पृ0सं0 312, पद सं0 149
47. उपरोक्त, पृ0सं0 268, पद सं0 68
48. सूरसागर (भाग 1 भूमिका) पृ0-06 सम्पादन एवं अनुवाद-हरदेव बाहरी, राजेन्द्र कुमार
परिचय-
डॉ0 सुरंगमा यादव
शिक्षा | - | एम.ए. हिन्दी (रूहेलखण्ड विश्वविद्यालय, बरेली की योग्यता सूची में द्वितीय स्थान प्राप्त) बी.एड., पी.एच.डी. (लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ) |
सम्प्रति | - | असि. प्रो. हिन्दी विभाग,महामाया राजकीय महाविद्यालय, महोना,लखनऊ |
प्रकाशन एवं सम्पादन | - | 'अर्णव' (विभिन्न विषयों के उच्च स्तरीय शोध पत्रों का संकलन) 3 अंक प्रकाशित। |
- | लघुकथा संग्रह, 'अपने सपने सबके अपने' में चयनित लघुकथाओं का प्रकाशन | |
- | प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य | |
- | आधुनिक हिन्दी काव्य संकलन | |
- | प्रयोजनमूलक हिन्दी का स्वरूप | |
- | हिन्दी भाषा का विकास एवं व्याकरण -वंशीधर शुक्ल का काव्य ( समालोचना) -विभिन्न ई पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। | |
- | राजकीय महाविद्यालय की वार्षिक पत्रिका का निरन्तर सम्पादन। | |
प्रकाशित शोध पत्र | - | विभिन्न राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में अनेकों शोध पत्रों एवं लेखों का प्रकाशन तथा सेमीनारों का आयोजन एवं सक्रिय भागीदारी |
सम्मान/पुरस्कार | - | 'शिक्षा भूषण' सम्मान, राष्ट्रभाषा स्वाभिमान न्यास द्वारा 20वें अखिल भारतीय हिन्दी सम्मेलन गाजियाबाद, 27 एवं 28 अक्टूबर 2012। लघुकथाओं हेतु 'प्रशस्ति पत्र' प्राप्त। |
- | 'बदायूँ श्री' सम्मान से विभूषित (16 फरवरी, 2013) | |
सम्पर्क सूत्र | - | महामाया राजकीय महाविद्यालय,महोना,लखनऊ dr.surangmayadav@gmail.com |
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